Monday, March 12, 2018

किताबों की दुनिया - 168

जिस ग़म से दिल को राहत हो उस ग़म का मुदावा क्या मानी
जब फ़ितरत तूफ़ानी ठहरी, साहिल की तमन्ना क्या मानी
 मुदावा =उपचार

इश्रत में रंज की आमेज़िश ,राहत में अलम की आलाइश
जब दुनिया ऐसी दुनिया है फिर दुनिया-दुनिया क्या मानी
इश्रत =सुख , आमेज़िश =मिलावट अलम=दुःख आलाइश= मिलावट

इख़्लास-ओ-वफ़ा के सिज्दों की जिस दर पर दाद नहीं मिलती
ऐ ग़ैरते-दिल ऐ अज़्मे-ख़ुदी उस दर पर सिज्दा क्या मानी
इख़्लास-ओ-वफ़ा=शुद्ध हृदयता और प्रेम में पूर्ण , ग़ैरते-दिल=दिल की शर्म , अज़्मे ख़ुदी =आत्म सम्मान (रखने के )संकल्प

बहुत बहुत साल पहले रेडिओ सीलोन से बिनाका गीत माला आया करती थी जिसे अमीन सयानी अपनी दिलकश आवाज़ में प्रस्तुत किया करते थे। उसमें हर हफ्ते कुछ बहुत लोकप्रिय गीत सरताज़ गीत की हैसियत से बजा करते थे। लोग ऐसे सरताज गीतों का हिसाब अपनी कापियों -डायरियों में रखा करते थे ,लेकिन जो गीत सरताज़ गीत की हैसियत नहीं प्राप्त कर पाते थे वो भी सरताज गीतों से कम लोकप्रिय नहीं होते थे। ऐसे ही गीतों को इकठ्ठा करके अमीन सायानी ने बरसों बाद ' गीत माला की छाँव में " नाम से सी.डी. यों की श्रृंखला भी निकाली जो बहुत प्रसिद्ध हुई। ठीक इसीतरह उर्दू शायरी में भी बहुत से सरताज़ शायर हुए हैं जिनके कलाम लोगों की कापियों -डायरियों में कलम -बंद किये जाते रहे हैं और ऐसे भी शायर हुए हैं जिन्हें सरताज़ की हैसियत तो नहीं मिल पायी लेकिन वो प्रसिद्ध खूब हुए.

जितना वो मेरे हाल पे करते हैं जफ़ाएँ
आता है मुझे उनकी मुहब्बत का यकीं और

मैखाने की है शान इसी शोर-ए-तलब से
हर "और नहीं" पर है तकाज़ा कि "नहीं और"

तकरार का ऐ शैख़ यही तो है नतीजा
तुमने जो कही और तो हमसे भी सुनी और

रदीफ़ में 'और' का जादुई इस्तेमाल करने वाले हमारे आज के शायर भी गीतमाला की छाँव में शामिल किये किये गए उन गीतों की तरह के शायर हैं जो सरताज़ की हैसियत नहीं प्राप्त कर पाए लेकिन मक़बूल खूब हुए। आज के दौर में ख़ास तौर पर हिंदी पाठक,शायद उनके नाम से ज़्यादा वाकिफ़ न हों लेकिन कभी उनके नाम की तूती भी सरताज़ शायरों के नाम के साथ साथ बजा करती थी। बात हो रही है जनाब "बालमुकंद 'अर्श' मल्सियानी" साहब की जिनकी प्रमुख रचनाओं को "प्रकाश पंडित" ने "लोकप्रिय शायर" श्रृंखला के अंतर्गत संग्रहित किया और राजपाल ऐंड संस ने प्रकाशित किया था।



हमको राह-ए-ज़िन्दगी में इस क़दर रहज़न मिले 
रहनुमा पर भी गुमान-ए-रहनुमा होता नहीं 

सिज्दे करते भी हैं इन्सां खुद दर-ए-इन्सां पे रोज़ 
और फिर कहते भी हैं बंदा ख़ुदा होता नहीं 

तर्क-ए-उल्फ़त भी मुसीबत है अब इसका क्या इलाज 
वो जुदा होकर भी तो दिल से जुदा होता नहीं 

अपने जन्म और जन्मभूमि के बारे में एक जगह अर्श साहब ने यूँ लिखा है : "पंजाब के ज़िला जालंधर का एक छोटा सा क़स्बा,जिसे मेरे पिता अक्सर 'ख़राबाबाद' के नाम से याद करते हैं मेरा जन्म स्थान है। इस क़स्बे का नाम है मल्सियान। ज्ञान और विद्वता की दृष्टि से इस क़स्बे में मेरे माननीय पिता से पूर्व ऐसा कोई व्यक्ति नहीं हुआ जिसे थोड़ा बहुत भी विद्वान कहा जा सके. 20 सितम्बर 1908 ई. को इसी दूर-दराज़ और असाहित्यिक वातावरण में मेरा जन्म हुआ।" मज़े की बात ये है कि जन्म ही नहीं उनकी युवावस्था का अधिकतर भाग भी ऐसे ही असाहित्यिक वातावरण में गुज़रा।

जब उल्फ़त का दम भर बैठे जब चाल ही उलटी चल बैठे 
नादान हो फिर क्यों कहते हो इस चाल में बाज़ी मात नहीं 

कुछ रंज नहीं कुछ फ़िक्र नहीं दुनिया से अलग हो बैठे हैं 
दिल चैन से है, आराम से है, आलाम नहीं आफ़ात नहीं 
आलाम=दुःख , आफ़ात=मुसीबतें 

तुम लुत्फ़ को जौर बताते हो, तुम नाहक शोर मचाते हो 
तुम झूठी बात बनाते हो, ऐ 'अर्श' ये अच्छी बात नहीं 
 जौर=ज़ुल्म 

इस असाहित्यिक वातावरण में उनके घर का माहौल घोर साहित्यिक था क्यूंकि उनके पिता जनाब जोश मलसियानी ,उर्दू और फ़ारसी के बहुत बड़े विद्वान थे जिन्हें भारत सरकार ने उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिए अभिनन्दन ग्रन्थ भी भेंट किया था. सिवाय शायरी के अर्श साहब की बाकी सभी आदतें अपने पिता के ठीक विपरीत थीं। उनकी आदतों के बारे में मशहूर शायर जनाब 'जोश' मलीहाबादी ने एक बार कहीं लिखा था कि " अर्श न खाने की चीज़ें खाते हैं, न टटोलने की चीज़ें टटोलते हैं, न बरतने की चीज़ें बरतते और न झपट पड़ने की चीज़ों पर झपटते हैं। चारे और घास-फूंस से विटामिन हासिल करते हैं और बेज़रर चरिन्द ( अहानिकारक पशु -गाय बकरी आदि ) की ज़िन्दगी जीते हैं "

ऐ जोश-ए-तलब तू हो तो परवा नहीं मुझको 
सहरा मेरे आगे हो कि दरिया मेरे आगे 
जोश-ऐ-तलब =इच्छा का वेग 

मरकर भी गिरफ्तार-ए-सफ़र है मेरी हस्ती 
दुनिया मेरे पीछे है तो उक़्बा मेरे आगे 
उक़्बा =परलोक 

हंगामा-ए-आलम की हक़ीक़त है यही 'अर्श' 
होता है मेरे इश्क का चर्चा मेरे आगे 
हंगामा-ए-आलम =संसार चक्र 

कैसी अचरज की बात है कि जो खुद बहुत बड़ा शायर है-यानी कि उनके पिता-वो ये चाहे कि उसका बेटा-यानी कि 'अर्श' -शायरी से दूर रहे। पिता की नज़र में बेटे की पढाई-लिखाई बहुत जरूरी थी सो उन्होंने अर्श साहब को एफ.ऐ (अब की ग्यारवीं क्लास) करने के बाद सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिले के लिए हो रही प्रतियोगिता में बिठा दिया। बहुत बेमन से अर्श साहब ने परीक्षा दी और दुर्भाग्य वश पास हो गए। रोते-कलपते-झींकते-झुंझलाते किसी तरह इंजीनियरिंग की पढाई पूरी की और नहर विभाग में ओवरसियर की नौकरी करने लगे। मन से शायर इंसान को अगर गैर-शायराना नौकरी में बंधना पड़ जाए तो सोचिये कैसा लगेगा ? जी सही समझे, बुरा लगेगा इसीलिए उन्होंने साल में तीन बार त्यागपत्र दे दिया लेकिन हर बार किसी न किसी कारण से जहाज के पंछी तरह फिर फिर वहीँ लौट आते थे।

ये है इक वाक़ई तफ़सील मेरी आप-बीती की 
बयान-ए-दर्द-ए-दिल को इक कहानी कौन कहता है 

तुझे जिसका नशा हरदम लिए फिरता है जन्नत में 
बता है शैख़ ! उस क़ौसर को पानी कौन कहता है 
क़ौसर=जन्नत की नदी 

बला है, क़हर है, आफ़त है, फ़ित्ना है क़यामत का 
हसीनों की जवानी को जवानी कौन कहता है 

हज़ारों रंज इसमें 'अर्श', लाखों कुल्फ़तें इसमें 
मुहब्बत को ज़रूर-ऐ-ज़िंदगानी कौन कहता है 
कुल्फ़तें=कष्ट 

नहर विभाग की नौकरी किसी तरह छोड़ी तो "आसमान से गिरा खजूर में अटका" कहावत को सिद्ध करते हुए अर्श साहब ,लुधियाना के औद्योगिक स्कूल में ,एक बार फिर अपने मिज़ाज़ के ख़िलाफ़, शिक्षक की हैसियत से पढ़ाने लगे और लगातार 12 साल तक पढ़ाते रहे। कहावत है कि बारह साल बाद तो कूड़े की भी सुनवाई हो जाती है अर्श साहब तो शायर थे सो सुनवाई होनी ही थी -हुई और उन्हें तब पकिस्तान के भूतपूर्व गवर्नर जनरल जनाब गुलाम मुहम्मद साहब अपनी रहनुमाई में दिल्ली ले गए जहाँ वो पहले सरकारी सप्लाई विभाग में फिर सोंग ऐंड पब्लिसिटी फिर लेबर विभाग और उसके बाद मिनिस्ट्री ऑफ इन्फर्मेशन एंड ब्राडकास्टिंग में नौकरी भी करते रहे और शायरी भी। सन 1948 में उन्हें भारत सरकार के प्रकाशन विभाग से निकलने वाली उर्दू पत्रिका "आज-कल" का सहायक संपादक बना दिया ,1956 में उन्हें , जनाब 'जोश' मलीहाबादी साहब जो उस वक्त तक पत्रिका के संपादक थे, के पाकिस्तान चले जाने के बाद, संपादक बना दिया। आखिर उन्हें वो काम मिला जो उन्हें बेहद पसंद था याने पढ़ने लिखने का याने सौ फीसदी साहित्यिक।

बयां हो भी तो हों आखिर कहाँ जो दिल की बातें हैं 
न तन्हाई की बातें हैं न ये महफ़िल की बातें हैं 

वो महफ़िल से जुदा भी हो चुके महफ़िल को गर्माकर 
मगर महफ़िल में अब तक गर्मी-ऐ-महफ़िल की बातें हैं 

ज़बाँ से कुछ कहो साहब मगर मालूम है हमको 
तुम्हारे दिल की सब बातें हमारे दिल की बातें हैं 

तो साहब सन 1948 से लेकर 1968 तक याने बीस बरस के अर्से में जब तक वो "आज-कल" पत्रिका से रिटायर नहीं हो गए, उन्होंने खूब जी भर के लिखा और शोहरत पायी। उनकी कविताओं-शायरी के चार संग्रह कुंदा रंग, चांग ओ अहंग, शरार ए संग और अहंग ए हिजाज़ प्रकाशित हुए है और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद पर लिखी उनकी आत्मकथा की पुस्तक 1976 में प्रकाशित हुई जो बेहद मकबूल हुई । इसके अलावा ढेरों रेडियो नाटक और हास्य-व्यंग के लेखों का संकलन "पोस्ट मार्टम " भी प्रकाशित हो कर चर्चित हो चुका है। सन 1979 में वो इस दुनिया-ऐ-फ़ानी से रुखसत फ़रमा गए। अफ़सोस इस बात का है कि उनकी कोई पुस्तक हिंदी में उपलब्ध नहीं है -ऐसा मुझे लगता है और जरूरी नहीं कि वो सही भी हो।

अभी तो आरज़ू-ऐ-मुज़्तरिब का अहद-ऐ-तिफ्ली है
ख़ुदा जाने ये क्या-क्या हश्र ढायेगी जवाँ होकर 
आरज़ू-ऐ-मुज़्तरिब=व्याकुल कामना , अहद-ऐ-तिफ्ली =बाल्य काल 

ज़रा कम हो चली है गर्मियां शौक-ऐ-मुहब्बत की
ख़फ़ा हो जाओ फिर इक बार हमसे बदगुमां होकर 

मेरी अर्ज़-ऐ-तमन्ना में भी आखिर कुछ तो जादू है 
नहीं भी अब निकलती है तुम्हारे मुंह से हाँ होकर 

किताबों की दुनिया श्रृंखला में इस उस्ताद शायर को शामिल करने का मक़सद उस ज़माने की शायरी का लुत्फ़ उठाना है ,इस तरह की कहन, लफ़्ज़ों को बरतने का हुनर और रवानी अब बहुत कम नज़र आती है। आज के युवा पाठकों को गुज़रे दौर की इस शायरी को पढ़कर अच्छा लगेगा ऐसा मैं समझता हूँ हालाँकि मुझे अपनी समझ पर शक ही रहता है। ये, इस 168 पुरानी, श्रृंखला में शामिल पहली किताब है जिसकी प्राप्ति का रास्ता मुझे भी नहीं मालूम क्यूंकि राजपाल ऐंड संस् से पता करने पर मालूम पड़ा कि डेढ़ रूपये मूल्य की ये किताब जो 1961 में छपी थी अब आउट ऑफ प्रिंट हो चुकी है और इसके प्रिंट में जाने की अभी तो कोई सम्भावना भी नहीं है। अर्श साहब का कलाम पढ़ने के लिए आपको रेख़्ता या कविता कोष की साइट की शरण में जाना होगा। अगर किस्मत से ये किताब आपको मिल जाए तो इसमें आपको अर्श साहब की ढेरों ग़ज़लें नज़्में और रुबाइयाँ पढ़ने को मिलेंगी। चलते चलते उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर भी पढ़वाता देता हूँ आप भी क्या याद रखेंगे ? रखेंगे क्या याद ?

हमारा जिक्र भी इसमें है गैरों का चहकना भी 
तुम्हारी अंजुमन को अंजुमन कहना ही पड़ता है 

बुतान-ऐ-संगदिल में है नज़ाकत का भी इक पहलू 
उन्हें सीमीं-बदन, गुल-पैरहन , कहना ही पड़ता है 
बुतान-ऐ-संगदिल =पत्थर दिल सुंदरियों , सीमीं-बदन = चांदी जैसा बदन , गुल-पैरहन =फूलों के वस्त्र 

जबां समझे न समझे कोई अपनी 'अर्श' इस पर भी
वतन अपना है ये ,इसको वतन कहना ही पड़ता है

अरे अरे तनिक रुकिए न चले जाइएगा लेकिन जाते जाते उनकी एक खूबसूरत ग़ज़ल के ये दो शेर अपने साथ लेते जाइएगा ,क्या कहा हाथ खाली नहीं है ? कोई बात नहीं मेरी खातिर इसे दिल में बसा लीजियेगा। दरअसल मुझे लगा कि इन शेरों को आप तक पहुंचाए बिना ये पोस्ट कुछ अधूरी सी रह जाएगी और फिर ये भी लगा कि जरुरी नहीं कि ये बात सही ही हो , मुझे गलत भी लग सकता है -है ना ?

आह वो बात कि जिस बात पे दिल बैठा है 
याद करने पे भी आती नहीं अब याद मुझे 

न निशेमन है न है शाख़-ए- निशेमन बाक़ी 
लुत्फ़ जब है कि करे अब कोई बर्बाद मुझे 
निशेमन=घोंसला

7 comments:

  1. बहुत शुक्रिया नीरज जी। अदब की बेमिसाल ख़िदमत कर रहे है आप।
    "जबां समझे न समझे कोई अपनी 'अर्श' इस पर भी
    वतन अपना है ये ,इसको वतन कहना ही पड़ता है।"
    अर्श साहब का कलाम पहली बार नज़र से गुज़रा।

    ReplyDelete
  2. आह वो बात कि जिस बात पे दिल बैठा है
    याद करने पे भी आती नहीं अब याद मुझे

    न निशेमन है न है शाख़-ए- निशेमन बाक़ी
    लुत्फ़ जब है कि करे अब कोई बर्बाद मुझे

    ये किताब मेरे पास थी।
    मैं ने पढ़ी है
    बहुत ही अच्छे शायर हैं

    तज़्किरा अर्श का अच्छा लगा।



    वाकई आज था मैं फ़ुर्सत में

    ReplyDelete
  3. Comment by Sh Darvesh Bharti ji

    कल यानी रविवार यानी 11मार्च, 2018 को में एक दोस्त के यहाँ जनाब अर्श साहिब के वालिद हज़रत लभ्भू राम जोश मलसियानी साहिब की किताब
    'आईना-ए-इस्लाह' लेने गया था, वहीं अर्श साहिब का भी ज़िक्रे-ख़ैर आया था और आज आपने उनके बारे में तफ़्सील में बयान करके दिल को सुकून बख़्शा। वाक़ई वो बहुत ऊँचे पाये के शाइर थे। जब उनकी वफ़ात हुई, उसके एक हफ़्ते बाद यानी 1979 में मेरा मजमूआ-ए-कलाम 'गुलरंग' उर्दू में शाया होकर आ गया था।

    ReplyDelete
  4. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (14-03-2018) को "ढल गयी है उमर" (चर्चा अंक-2909) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

    ReplyDelete
  5. नीरज जी,एक बार फिर से बहुत सुन्दर समीक्षा.......बहुत बहुत बधाई......

    ReplyDelete
  6. Bahut khoob likkha aapne. ..Waah maza aa gaya. .

    ReplyDelete

तुझको रक्खे राम तुझको अल्लाह रक्खे
दे दाता के नाम तुझको अल्लाह रक्खे