तुम्हारी याद में आँखों से जब बरसात होती है
तो खुशबू में नहाई चाँद-सी वो रात होती है
किसी से हम मुख़ातिब हों कोई हो रूबरू अपने
तुम्हीं को देखते हैं और तुम्हीं से बात होती है
हमारे पास तो ले देके बस है दर्द की दौलत
बड़े आराम से अपनी बसर औक़ात होती है
मान लीजिये कि आप "कौन बनेगा करोड़पति " कार्यक्रम की हॉट सीट पे बैठे हैं और अमिताभ बच्चन आपसे पूछें कि दिल्ली में उर्दू की प्रथम महिला पत्रकार का नाम बताएं जो अपने समय की बेहतरीन शायरा भी रहीं हैं ,तो आप क्या जवाब देंगे ? आपके पास नाम बताने के लिए चार ऑप्शन भी अगर नहीं हैं तो हो सकता है कि अगर आप हिंदी भाषी हैं तो शायद इस सवाल पर सर खुजाएँ और किसी लाइफ लाइन जैसे "फोन ऐ फ्रेंड" या "ऑडियंस पोल" का चुनाव करें पर उर्दू प्रेमी और पुराने लोग मुमकिन है कि इसका जवाब दे पाएं।
गुमां यक़ीन की हद तक कभी नहीं आया
भरोसा अपनी समझ पर मुझे ज़ियादा था
न जाने कैसे हुई मात बादशाह को भी
हमारे पास तो ले-देके इक पियादा था
तुम्हारे दौर से 'सर्वत' निबाह कर न सकी
कि उसके पास रिवायत का इक लबादा था
मक्ते में शायरा का नाम आने से हो सकता है आप में से कुछ को उनका का नाम याद आ गया हो लेकिन जिन्हें नहीं आया उन्हें बता दूँ कि हमारी आज की शायरा है 28 नवम्बर 1949 को दिल्ली में जन्मी " नूरजहां सर्वत " जिनकी किताब " बेनाम शजर " की बात आज हम करेंगे। ये किताब वाणी प्रकाशन से सन 2000 में प्रकाशित हुई थी।
वक़्त, अल्फ़ाज़ का मफ़हूम बदल देता है
देखते-देखते हर बात पुरानी होगी
मफ़हूम =अर्थ
बेज़बाँ कर गया मुझको तो सवालों का हुजूम
ज़िन्दगी आज तुझे बात बनानी होगी
कर रही है जो मेरे अक्स को धुंधला 'सर्वत '
मैंने दुनिया की कोई बात न मानी होगी
'सर्वत' साहिबा ने अपनी तालीम की शुरुआत दिल्ली के बुलबुली खन्ना सीनियर सेकण्डरी स्कूल से की और फिर दिल्ली कालेज अजमेरी गेट से बी.ऐ. की डिग्री हासिल की। दिल्ली विश्विद्यालय से 1971 में उन्होंने एम.ऐ की डिग्री डिस्टिंक्शन से हासिल की। नूरजहां अपने समय की बहुत मेधावी छात्र रहीं। उन्होंने अपनी विलक्षण योग्यता का परिचय "जवाहर लाल नेहरू" यूनिवर्सिटी और उसके बाद ज़ाकिर हुसैन कॉलेज में लेक्चरर के पद पर छात्रों को पढ़ाते हुए दिया।
याद है उससे बिछुड़ने का समां
शाख़ से फूल जुदा हो जैसे
हर क़दम सहते हैं लम्हों का अज़ाब
ज़िन्दगी कोई खता हो जैसे
अज़ाब =यातना
ज़िन्दगी यूँ है गुरेज़ाँ 'सर्वत'
हमने कुछ मांग लिया हो जैसे
गुरेज़ाँ =दूर दूर रहना
कुछ समय तक वो आल इण्डिया रेडिओ के साथ रहीं और रेडिओ के लिए विभिन्न क्षेत्र से जुड़े लोगों से गुफ़्तगू की ज़िम्मेवारी सफलता से निभाई। सन 1980 से उन्होंने "कौमी एकता" अखबार के साथ बतौर पत्रकार काम करना शुरू कर दिया। उन्होंने बाद में उस पत्रिका के रविवारीय संस्करण के संपादक की हैसियत से भी काम संभाला। पत्रकारिता के क्षेत्र में उनकी निडरता और खुले विचारों ने सबको प्रभावित किया। मुंबई के "इंक़लाब " अखबार के दिल्ली रेजिडेंट संपादक पद पर भी उन्होंने काम किया और और इस तरह उन्होंने दिल्ली की प्रथम महिला संपादक होने का श्रेय हासिल किया।
गुरुर से सर उठा रहे थे, वो जश्ने-हस्ती मना रहे थे
हवा ने खींचा जब अपना दामन, हवा हुए फिर हुबाब सारे
हुबाब=बुलबुला
वो खुशबुओं का लिबास पहने, मिला कुछ ऐसे कि एक पल में
पड़े हुए थे जो जिस्मो-जां पर, उतर गए वो नकाब सारे
सवाल सादा सा ज़िन्दगी से, किया था हमने भी एक 'सर्वत'
वो पत्थरों की हुई है बारिश, कि मिल गए हैं जवाब सारे
नूरजहां 'सर्वत'साहिबा के लिए प्रो शारिब रदौलवी साहब ने लिखा है कि "सर्वत उर्दू की एक अच्छी और मक़बूल शायरा हैं। उर्दू में ख़ासतौर से हिन्दुस्तान में शायरा का तसव्वुर बड़ा अजीब है, रिवायती किस्म के अशआर, मुतारन्नुम आवाज़, निजी कैफ़ियतों से आरी (रिक्त) शायरी। लेकिन 'नूरजहां' इससे बिलकुल मुख़्तलिफ़ हैं। पत्रकार की हैसियत से ज़िन्दगी को उन्होंने बहुत करीब से देखा है तभी इन अनुभवों ने उनकी शायरी में एक अजीब किस्म की बेचैनी और कर्ब पैदा कर दिया है।
तन्हाइयों की बर्फ कि पिघली नहीं हनोज़
यादों के ऐतबार की भी धूप छंट गयी
हमने वफ़ा निभाई बड़ी तम्कनत के साथ
अपने ही बल पे ज़िंदा रहे उम्र कट गयी
तम्कनत = गर्व
'सर्वत' हरेक रुत में लपेटे रहे जिसे
वो नामुराद आस की चादर भी फट गयी
"बेनाम शजर" नूरजहां साहिबा का एक मात्र मजमुआ है जो 1995 में उर्दू में शाया हुआ और सन 2000 में वाणी प्रकाशन से हिंदी में। इस किताब में 'सर्वत' जी की 34 ग़ज़लें और 42 नज़्में संकलित हैं। उनकी नज़्में भी ग़ज़लों की तरह पूरी दुनिया में मकबूल हुईं। उन्होंने अपनी ही तरह की अलग सी शैली की में कही गयी ग़ज़लों और नज़्मों से पूरी दुनिया के उर्दू प्रेमियों को अपना दीवाना बना दिया। दुनिया के हर ऐसे देश में जहाँ उर्दू बोली या समझी जाती है उन्होंने अपने फ़न का झंडा गाड़ा है।
तय करो अपना सफर तन्हाइयों की छाँव में
भीड़ में कोई तुम्हें क्यों रास्ता देने लगा
कुरबतों की आंच में जलने से कुछ हासिल न था
कैसे-कैसे लुत्फ़ अब ये फ़ासला देने लगा
कुर्बत=निकटता
'सर्वत' साहिबा इस किताब की भूमिका में लिखती है कि 'शायरी की असल बुनियाद एहसासो-फ़िक्र है लेकिन आज का इंसान संवेदनाओं और कोमल भावनाओं से कोसों दूर हो गया है , इंसानी रिश्ते बेमानी हो गए हैं ,तहज़ीब के धागे में पिरोये मोती बिखर के टूट चुके हैं। हमारे बीच बड़ा से बड़ा हादसा यूँ गुज़र जाता है जैसे कुछ हुआ ही नहीं। किसी को किसी के लिए सोचने ठहरने की फुर्सत नहीं है ऐसे हालात में शायरी बहुत मुश्किल हो गयी है , अगर इंसान इसी तरह फ़िक्रों-एहसास से दूर होता चला गया तो शायरी नामुमकिन हो जाएगी।
भुला चुके थे मगर ये मुआमला कब था
उसे न याद करें इतना हौसला कब था
सहारा बख़्श दिया हमको यादे-माज़ी ने
तुम्हारे दौर में जीने का वलवला कब था
यादे-माज़ी =अतीत की याद ; वलवला =उत्साह
उजाले जिसने बिखेरे हैं मेरी राहों में
तिरि सदा थी सितारों का काफला कब था
प्रोफ़ेसर 'गोपी चंद नारंग' साहब फरमाते हैं कि " नूरजहां सर्वत ' के यहाँ तुरंत चकाचौंध कर देने वाली दुनिया नहीं है, मानवीय रिश्तों के उतार चढ़ाव और दर्द का ऐसा धुंधला-धुंधला उजाला अवश्य है जो रूह में उतर जाता है और किसी न किसी कैफियत का पता देता है। ये शायरी जरुरत की पैदावार नहीं अंदर की आवाज़ है।
दिल्ली उर्दू अकेडमी ने उन्हें उर्दू की खिदमत करने पर अवार्ड भी दिया था। अपनी शायरी से उर्दू अदब को मालामाल कर देने वाली इस शायरा ने मात्र 60 साल की उम्र में ,17 अप्रेल 2010 को, इस दुनिया को अलविदा कह दिया। उनके पत्रकारिता और उर्दू अदब के क्षेत्र में दिए योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता और ना ही उनके द्वारा छोड़े गए रिक्त स्थान को कभी भरा जा सकता है।
बहुत डूबे रहे मन की चुभन में
ज़रा अब जा के देखें अंजुमन में
हुए हैं शहर इंसानों से खाली
कि तहज़ीबें बसी हैं जा के बन में
भला आईने को इसकी खबर क्या
कि कितना खोट है किस-किस के मन में
कहूं क्या उसमें किस दर्ज़ा कशिश थी
कि 'सर्वत' खो गयी जिसकी लगन में
इस किताब की प्राप्ति के लिए आप वाणी प्रकाशन को लिखें जिसका पता और नंबर मैंने अपनी पिछली बहुत सी पोस्ट में दिया है। अगर वाणी से ये किताब नहीं मिले तो आप इस लिंक को कॉपी करें और गूगल कर लें ये लिंक आपको आन लाइन ऑर्डर करने की सुविधा देगा
हर उर्दू शायरी के दीवाने के पास ये किताब होनी चाहिए क्यों की इसमें कुछ ऐसी नज़्में हैं जो संग्रहणीय हैं और जिन्हें मैंने भी ज़ाहिर नहीं किया है. आखिर थोड़ा सस्पेंस भी बना रहना जरूरी है न। अगली किताब की तलाश से पहले चलते चलते उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर और पढ़वाता चलता हूँ :
आपबीती में भला किसको मज़ा आएगा
दास्ताँ अपनी यहाँ किसको सुनाने निकले
कितने कमज़र्फ थे वो लोग जो अपने घर से
बेबसी अपनी ज़माने को दिखाने निकले
कमज़र्फ =ओछे
दिल की दुनिया में अभी तक हैं अकेले 'सर्वत'
हम तो नादान रहे लोग सयाने निकले
अच्छी शायरी,सुन्दर प्रस्तुति। बधाई।
ReplyDeleteबेहतरीन चयन एवम प्रस्तुति ....
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (05-09-2017) को शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ; चर्चामंच 2718 पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteआज सलिल वर्मा जी ले कर आयें हैं ब्लॉग बुलेटिन की १८०० वीं पोस्ट ... तो पढ़ना न भूलें ...
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, सिसकियाँ - १८०० वीं ब्लॉग-बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
bahut khubsurat shayri...dilse nikalti hui..
ReplyDeleteबहुत अच्छी शायरी है सर्वत साहिबा की। आपकी समीक्षा का तो कहना ही क्या!
ReplyDeleteएक उम्दा शख़्सियत को नई पीढ़ी से परिचय कराने के लिए आपको साधुवाद।
उम्दा शायरी
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