Monday, December 30, 2013

किताबों की दुनिया - 90



सभी पाठकों को नव वर्ष कि ढेरों शुभकामनाएं

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ख़ुशी के गीत लिखेगी हयात फूलों पर
बया ने टांग दिए घौंसले बबूलों पर

सुनहरी राहों पे चलते तू भी थका होगा
जरा सा बैठ लें इन घास के दुकूलों पर

'नज़र जहान में होते हैं लोग कम ऐसे
कि सर कटा दिया करते हैं जो उसूलों पर

जब कभी किताबों कि दुनिया में ऐसे शायर की किताब का जिक्र आता है जो युवा है या जो बहुत छोटी अनजान जगह का रहने वाला है तब मुझे जो ख़ुशी हासिल होती है उसे बयां नहीं कर सकता। इस से ये बात ज़ाहिर होती है कि शायरी उम्र दराज़ और बड़ी जगह के शायर की मोहताज़ नहीं होती . मानवीय रिश्तों के पौधे जितने युवाओं में या दूर दराज़ के इलाकों में फलते हैं उतने उम्र दराज़ या शहरी चकचौंध में रहने वाले शायरों में नहीं. नये साल की शुरुआत हम ऐसे ही एक युवा और दूर दराज़ इलाके के शायर की किताब के साथ कर रहे हैं।

नहीं उनको अभी तक मौसमों के छल का अंदाजा
छतों पर बैठ कर जो धूप में जुल्फें सुखाते हैं

अज़ब फ़नकार हैं ये लोग तेरे शहर वाले भी
बजा कर पत्थरों से आईनों को आज़माते हैं

किसी को जब मिला कीजे सदा हंस कर मिला कीजे
उदास आँखों को अक्सर लोग जल्दी भूल जाते हैं   

राजस्थान के जिले 'सवाई माधोपुर' की 'बामनवास' तहसील के गाँव 'पिपलाई' का नाम आपने शायद ही सुना हो, ईमानदारी से कहूं तो राजस्थान में पचास से ऊपर वर्षों रहने के बावजूद मैंने भी नहीं सुना था . 'सवाई माधोपुर' तो मैं गया हूँ लेकिन उसकी किसी तहसील में नहीं ,इस छोटी सी अनजान जगह के उम्र में छोटे लेकिन शायरी में कद्दावर शायर ए.एफ.'नज़र' का नाम भी मेरे अन्जाना ही था.

चूल्हा चौका फ़ाइल बच्चे, दिन भर उलझी रहती है
वो घर में और दफ्तर में अब आधी आधी रहती है

मिलकर बैठें दुःख सुख बांटे इतना हम को वक्त कहाँ
दिन उगने से रात गए तक आपा-धापी रहती है

क्या अब भी घुलती हैं रातें चाँद परी की बातों में
क्या तेरे आँगन में अब भी बूढी दादी रहती है  

दिलचस्प बात ये है कि 30 जून 1979 को जन्में 'नज़र' साहब का मूल नाम 'अशोक कुमार फुलवरिया' है. आप हिंदी साहित्य में एम.ए. हैं साथ ही बी.एड. और बी.एस.टी.सी. के कोर्स भी किये हैं। 'नज़र' साहब की किताब का मेरी नज़र में आना भी कम दिलचस्प नहीं। किताब की खोज में जयपुर के ‘लोकायत प्रकाशन’ गया जहाँ हमेशा की तरह शेखर जी किसी हिसाब किताब में व्यस्त गर्दन झुकाये बैठे थे. मुझे देखा मुस्कुराये और बोले अरे नीरज जी इस बार आपको निराशा ही हाथ लगेगी , आपके मतलब की सारी किताबें उदयपुर में चल रहे पुस्तक मेले में भेजी हुई हैं , आज तो आप चाय पियें और गप्पें मारें .लेकिन साहब हम उन में से नहीं जो यूँ हार मान जाएँ। पूरी दुकान खंगाल डाली कुछ नहीं मिला ऊपर से चाय भी आ गयी। चाय पीने के लिए अचानक मुड़ा तो लड़खड़ा गया और किताबों के ढेर पे ढेर हो गया। ढेर में लगीं किताबें गिरीं और बीच में दबी ये किताब "पहल" नज़र आ गयी. पन्ने पलटे तो बांछे खिल गयीं.

फ़ुर्सतों में जब कभी मिलता हूँ दिन इतवार के
मुस्कुरा देते हैं गुमसुम आईने दीवार के

हादसों की दहशतें हैं गाड़ियों का शोर है
शहर में मौसम कहाँ है फ़ाग और मल्हार के

कीमतें रोटी की क्या हैं मुफ़लिसों से पूछिए
भाव जो देखें हैं तुमने झूठ हैं अखबार के

देश के नामी गरामी प्रकाशकों जैसे वाणी, डायमंड, वाग्देवी, अयन जिन्होंने दूर दराज़ के शायरों की शायरी को हिंदी के आम पाठकों तक पहुँचाया है में अब बोधि प्रकाशन, जयपुर का नाम भी जुड़ गया है. बोधि प्रकाशन से शायरी की कुछ बहुत अच्छी किताबें प्रकाशित हुई हैं जिनमें से कुछ का जिक्र इस श्रृंखला में कर चुका हूँ और कुछ का बाकी है."पहल" भी बोधि प्रकाशन से ही प्रकाशित हुई है .



दीवारो दर तो उसने सजा कर रखे मगर
खुद को संवारने की ही फुर्सत नहीं मिली

मंगल से ले के चाँद के दर तक पहुँच गया
इंसान को कहीं पे भी राहत नहीं मिली

माँ बाप को तो मिल गयी राहत तलाक से
बच्चों को उनके हक़ कि मुहब्बत नहीं मिली 

इस किताब को खरीद कर पढ़ने के लिए आप बोधि प्रकाशन के माया मृग जी से 98290-18087 पर संपर्क कर सकते हैं या फिर इस किताब को ऑन लाइन भी मंगवा सकते हैं . आप इस किताब की प्राप्ति के लिए चाहे जो विधि अपनाएँ लेकिन इस के शायर नज़र साहब जो इनदिनों पोकरण थार डिस्ट्रिक्ट राजस्थान में कार्यरत हैं, को उनके फेसबुक पेज पर या उनके मोबाइल न. 96497-18589  पर फोन करके उनकी इस उम्दा शायरी के लिए मुबारकबाद जरूर दें .पाठकों की प्रशंसा शायर का खून किस कदर बढ़ा देती है इसका शायद आपको अंदाज़ा नहीं है। इस प्रशंसा से वो और भी अच्छा लिखने को प्रेरित होता है और जो शायर प्रशंसा से फूल कर कुप्पा हो जाते हैं उनके पतन में समय नहीं लगता .   

आज भी घर अपने शायद देर से पहुंचूंगा मैं
रास्ता रोके खड़ी हैं लाल-पीली बत्तियां

बिछ गयीं गलियों में लाशें और घरौंदे जल चुके
आ गयीं पुरसिश को कितनी लाल-नीली बत्तियां

बंद कर कमरे कि बत्ती आ मेरे पहलू में आ
खोल दे बिस्तेर पे मेरे दो नशीली बत्तियां

शहर का सच झील के दामन पे लिख्खा है 'नज़र'
थरथराती बिल्डिगें और गीली-गीली बत्तियां

हार्ड बाउंड में उपलब्ध इस किताब में 'नज़र' साहब की साठ से अधिक ग़ज़लें और ढेरों फुटकर शेर संग्रहित हैं जो पाठकों को इक्कीसवीं सदी की शायरी में प्रेम ,वियोग ,निराशा, आशा, अवसाद , ख़ुशी,समाज का दर्द और भूख की पीड़ा के अनेक रंग वीरान बदलते तेवरों के साथ दिखाते हैं . उनकी ग़ज़लें नव ग़ज़लकारों में अपनी एक अलग पहचान बनाने में कामयाब हुई हैं. इस युवा ग़ज़लकार से आप उनके af.nazar@rediffmail.com मेल आई डी पे गुफ्तगू करें तब तक हम निकलते हैं आपके लिए शायरी की एक और किताब ढूढ़ने .

अब आँधियों की ज़द में हैं वीरान खिड़कियां
सर मारती हैं यार परेशान खिड़किया

मिलती हैं हर गली कि हवाओं से झूम कर
घर कि रिवायतों से हैं अनजान खिड़कियां

ये चेहरे जैसे झांकती बेताब ग़ज़लें हों
गोया कि शायरों के हैं दीवान खिड़कियां  

Monday, December 16, 2013

मुश्किल है ये जीवन, इसे आसान करेंगे


इन दिनों शादियों का सीजन अपने चरम पर है , हर शहर गली मुहल्लों में शादियों कि धूम मची हुई है। जिनकी हो रही है वो बहुत खुश हैं जिनकी नहीं हुई वो होने कि आस लगाए बैठे हैं और जिनकी हो गयी है वो गा रहे हैं " सोचा था क्या क्या हो गया ...." 

इस मौके को ध्यान में रखते हुए मुम्बई निवासी मेरे प्रिय मित्र श्री सतीश शुक्ला "रकीब" जो गलती से शायर भी हैं ने सप्त पदी पर एक ग़ज़ल कह डाली है। ये ऐसा विषय है जिस पर शायद ही किसी शायर ने कलम चलाई हो।     

मेरी मानें और इस ग़ज़ल को रट कर जिस शादी में जाएँ वहीँ सुनाएँ और वाह वाही पाएं।


अंजान हैं, इक दूजे से पहचान करेंगे
मुश्किल है ये जीवन, इसे आसान करेंगे

खाई है क़सम साथ निभाने की हमेशा 
हम आज सरेआम ये ऐलान करेंगे 

इज़्ज़त हो बुज़ुर्गों की तो बच्चों को मिले नेह
इक दूजे के माँ-बाप का सम्मान करेंगे

हम त्याग, सदाचार, भरोसे की मदद से 
हर हाल में परिवार का उत्थान करेंगे 

आपस ही में रक्खेंगे फ़क़त, ख़ास वो रिश्ते 
हरगिज़ न किसी और का हम ध्यान करेंगे

हर धर्म निभाएंगे हम इक साथ है वादा
तन्हा न कोई आज से अभियान करेंगे

सुख-दुख हो, बुरा वक़्त हो, या कोई मुसीबत 
मिल बैठ के हम सबका समाधान करेंगे 

जीना है हक़ीक़त के धरातल पे ये जीवन 
सपनोँ से नहीं ख़ुद को परेशान करेंगे 

जन्नत को उतारेंगे यही मंत्र ज़मीं पर 
सब मिल के 'रक़ीब' इनका जो गुणगान करेंगे

Monday, December 2, 2013

किताबों कि दुनिया -89


मिरी ज़िन्दगी किसी और की, मेरे नाम का कोई और है
मिरा अक्स है सर-ए-आईना, पसे -ए -आईना कोई और है

न गए दिनों कि ख़बर मिरी, न शरीके हाल नज़र तिरी
तिरे देश में, मिरे भेष में कोई और था कोई और है  

न मकाम का, न पड़ाव का, ये हयात नाम बहाव का
मिरी आरज़ू न पुकार तू, मिरा रास्ता कोई और है

ऐसे दिलकश शेरों से जड़ी ग़ज़ल के शायर "मुज़फ्फ़र वारसी" साहब की ऐसी कई लाज़वाब ग़ज़लों का संपादन किया है जनाब सुरेश कुमार जी ने और जिसे "दर्द चमकता है" शीर्षक से किताब की शक्ल में छापा है "डायमंड बुक्स -दिल्ली ने। आज हम "किताबों कि दुनिया " श्रृंखला की इस कड़ी में इसी किताब का जिक्र करने वाले हैं .


ग़म से छुप कर इज़हार-ए -ग़म करते हैं
पाँव में घुँघरू बाँध के मातम करते हैं

काँटा भी तलवे का निकाल लें कांटे से
दर्द को दर्द कि शिद्दत से कम करते हैं

अपनी प्यास के हाथों हम बदनाम हुए
दरिया पीकर शबनम शबनम करते हैं

एटम बम ईज़ाद मुज़फ्फ़र इंसां की
और कीड़े तख़लीक़-ए-रेशम करते हैं
तख़लीक़-ए-रेशम= रेशम कि रचना

मेरठ के सूफी वारसी नाम से प्रसिद्द जमींदार परिवार में 20 दिसम्बर 1933 को मुज़फ्फर साहब का जन्म हुआ .बचपन से ही उन्हें सूफियाना माहौल मिला . घर में अक्सर जमतीं शायरी की महफिलों में अल्लामा इक़बाल, जोश मलीहाबादी, कुंअर महिंदर सिंह बेदी सहर, हसरत मोहानी जैसे कद्दावर शायरों की संगत में शायरी की बारीकियां सीखीं .

नक्श दिल पर कैसी कैसी सूरतों का रह गया
कितनी लहरें हमसफ़र थीं फिर भी प्यासा रह गया

कैसी कैसी ख्वाइशें मुझसे जुदा होती गयीं
किस क़दर आबाद था और कितना तनहा रह गया

उससे मिलना याद है मिलकर बिछड़ना याद है     
क्या बता सकता हूँ क्या जाता रहा क्या रह गया

मैं ये कहता हूँ कि हर रूख़ से बसर की ज़िन्दगी
ज़िन्दगी कहती है हर पहलू अधूरा रह गया

साधारण बोलचाल की भाषा के लफ़्ज़ों को अपनी ग़ज़लों में ढालने के हुनर से वारसी साहब को उर्दू अदब में बहुत ऊंचा स्थान मिला है . यही वजह है की उनके कलाम को पकिस्तान और हिंदुस्तान के मशहूर ग़ज़ल गायकों ने गा कर लोकप्रिय किया है। पाकिस्तान जो उनका वतन था की बात क्या करनी, उनकी शायरी को हिंदुस्तान से प्रकाशित होने वाली प्रायः सभी उर्दू पत्रिकाओं ने छापा है.      

शोला हूँ भड़कने की गुज़ारिश नहीं करता
सच मुंह से निकल जाता है कोशिश नहीं करता

गिरती हुई दीवार का हमदर्द हूँ लेकिन
चढ़ते हुए सूरज की परस्तिश नहीं करता
परस्तिश =पूजा

लहरों से लड़ा करता हूँ दरिया में उतर के
साहिल पे खड़े हो के मैं साज़िश नहीं करता

हर हाल में खुश रहने का फ़न आता है मुझको
मरने कि दुआ, जीने की ख्वाहिश नहीं करता    

'बर्फ की नाव', 'खुले दरीचे बंद हवा', 'कमंद', 'लहू कि हरियाली', 'लहज़ा', आदि उनकी प्रसिद्द किताबें हैं। उनकी आत्मकथा " गए दिनों का सुराग " उर्दू अदब में क्लासिक का दर्ज़ा रखती है." दर्द चमकता है " देवनागरी में उनकी ग़ज़लों का पहला संग्रह है जिसमें उनकी मशहूर ग़ज़लों में से 90 को शुमार किया गया है।

तमाम उम्र मिरी इस तरह कटी जैसे
कमर पे हाथ बंधे हैं गले में फंदा है

जहाँपनाह भी मुझको पनाह क्या देगा
खुदा जो बनता है वो भी खुदा का बन्दा है

हर एक चीज़ मुज़फ्फ़र है किस क़दर महंगी
बस आदमी की शराफ़त का भाव मंदा है   

वारसी जी ने अपने लेखन कि शुरुआत पाकिस्तानी फिल्मों के गीत लिखने से की और फिर धीरे धीरे नज़्म,हम्द और नात लेखन की और मुड़ गए. नात लेखन और उसे गाने के अंदाज़ से उन्हें बहुत मकबूलियत हासिल हुई .इन्हीं सब के बीच उनका ग़ज़ल लेखन का सिलसिला भी चलता रहा.

      
मेरा किरदार है मिरी पहचान
लूं न खैरात दास्तानो से

मुझको ऊंचा उछाल दो लहरो
मेरा क़द कम न हो चटानों से

घिर गया दोस्ती के जंगल में
तीर आने लगे मचानों से 

पाकिस्तान सरकार द्वारा "प्राइड आफ परफॉर्मेंस" पुरूस्कार से सम्मानित मुज़फ्फ़र साहब ने 28 जनवरी 2011 को लाहोर में इस दुनिया-ए -फ़ानी को अलविदा कह दिया. वो चाहे अब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी लिखी हज़ारों हम्द ,नात,नज़्म और ग़ज़लें हमेशा ज़िंदा रहेंगी.   

वो अपने ज़ेहन में रहते हैं घर नहीं रखते
दिया जला के जो दीवार पर नहीं रखते
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वो यूँ खामोश रहा, बोलता रहा जैसे
मैं बोलता रहा और कुछ न कह सका जैसे
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अब तो कुछ यूँ हमें तस्वीर हमारी देखे
हार कर जैसे जुआरी को जुआरी देखे
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सर से गुज़रा भी चला जाता है पानी की तरह
जानता भी है कि बरदाश्त की हद होती है
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पहले रग रग से मिरी खून निचोड़ा उसने
अब ये कहता है कि रंगत ही मिरी पीली है