("इस ब्लॉग से आप सब के प्यार का नतीजा है ये 301 वीं पोस्ट" )
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मैं पलकों में ख़्वाब पिरोती रहती हूँ
तेजाबी बारिश के नक्श नहीं मिटते
मैं अश्कों से आँगन धोती रहती हूँ
मैं खुशबू की कद्र नहीं जब कर पाती
फूलों से शर्मिंदा होती रहती हूँ
जब से गहराई के खतरे भांप लिए
बस साहिल पर पाँव भिगोती रहती हूँ
मैं भी 'नुसरत' उसके लम्स की गर्मी से
कतरा कतरा दरिया होती रहती हूँ
"किताबों की दुनिया " में अरसे से तलाशी जा रही एक शायरा द्वारा लिखी ग़ज़लों वाली किताब आखिर मिल ही गयी. ऐसा नहीं है कि सिर्फ शायर ही ग़ज़लें कह रहे हैं लेकिन ये मेरी बदकिस्मती थी की मुझे किसी शायरा की ऐसी किताब नहीं मिली जिसका जिक्र अपनी इस श्रृंखला में करता। आखिर बिल्ली के भाग का छींका टूटा और शिवना प्रकाशन, सीहोर,म.प्र. ने "नुसरत मेहदी " साहिबा की किताब "मैं भी तो हूँ " छाप कर मेरी मुराद पूरी कर दी।
कतरा के ज़िन्दगी से गुज़र जाऊं क्या करूँ
रुसवाइयों के खौफ़ से मर जाऊं क्या करूँ
मैं क्या करूँ के तेरी अना को सुकूँ मिले
गिर जाऊं, टूट जाऊं, बिखर जाऊं क्या करूँ
फिर आके लग रहे हैं परों पर हवा के तीर
परवाज़ अपनी रोक लूं डर जाऊं क्या करूँ
हर कोई देखता है हैरत से
तुमने सब को बता दिया है क्या
क्यूँ मेरा दर्द सहते रहते हो
कुछ पुराना लिया दिया है क्या
क्यूँ हवाओं से लड़ता रहता है
कौन है आस का दिया है क्या
अपनी बे चेहरगी भी देखा कर
रोज़ इक आईना ना तोड़ा कर
ये सदी भी कहीं ना खो जाए
अपनी मर्ज़ी का कोई लम्हा कर
मसअले हैं तो हल भी निकलेंगे
पास आ, साथ बैठ, चर्चा कर
इशरत कादरी साहब का विचार है की नुसरत साहिबा की ग़ज़लों में परम्परागत, प्रगतिशील और आधुनिक विचारों के साथ निजी भावनाओं का दर्द, माहौल की घुटन के अलावा जीती जागती ज़िन्दगी का बिखराव, समस्याएं और राजनितिक सतह पर असमानता आदि पर उनके विचार और अनुभव दिखाई देते हैं .
मैं हूँ इक जिंदा हकीकत मुझे महसूस करो
मैं किसी कोने में रखी हुई तस्वीर नहीं
घर की देहलीज़ मेरे साथ चला करती है
देखने में तो मिरे पाँव में ज़ंजीर नहीं
मैंने जो पाया वो सब अपने अमल से पाया
मेरे हाथों की लकीरें मिरी तकदीर नहीं
इस किताब को पढ़ते हुए आप जनाब जुबैर रिज़वी साहब की इस बात से इतेफाक रखेंगे की " नुसरत साहिबा ने आधुनिक फैशन वाले भावों को अपनी ग़ज़लों में आने नहीं दिया। इस रवैये से उनकी ग़ज़ल केन्द्रीय मुख्य धारा से बाहर नहीं आती। वो शेर को ग़ज़ल का शेर बनाकर पढने वालों को सौंपती हैं।
कोई ग़म याद नहीं शिकवा गिला याद नहीं
आज कुछ भी तेरी चाहत के सिवा याद नहीं
ये तेरे नाम की तासीर है वरना पहले
ऐसे निखरी हो हथेली पे हिना याद नहीं
उसने बेजुर्म सजा दी थी मगर अब 'नुसरत'
मैं हूँ मुन्सिफ तो मुझे उसकी जफा याद नहीं
मुंसिफ:इन्साफ करने वाला
मिरे आँगन में उड़कर आ रही है
नए मौसम नए लम्हों की खुशबू
महकने की इजाज़त चाहती है
हंसी चाहत भरे ज़ज्बों की खुशबू
कई सपने सजाकर रख गयी है
मिरी पलकों पे उन होठों की खुशबू
चली आती है हर शब् गुगुनाती
हवा के दोश पर यादों की खुशबू