Monday, April 30, 2012

किसी शजर के सगे नहीं हैं ये चहचहाते हुए परिंदे

(गुरुदेव पंकज सुबीर द्वारा आशीर्वाद प्राप्त ग़ज़ल)



अजल से है ये बशर की आदत, जिसे न अब तक बदल सका है
ख़ुदा ने जितना अता किया वो, उमीद से कम उसे लगा है
अजल: अनंतकाल

किसी शजर के सगे नहीं हैं ये चहचहाते हुए परिंदे
तभी तलक ये करें बसेरा दरख्‍़त जब तक हरा भरा है
शजर : पेड़

जला रहा हूँ हुलस हुलस कर, चराग घर के खुले दरों पर
न आएंगे वो मुझे पता है, मगर ये दिल तो बहल रहा है

यहीं रही है यहीं रहेगी ये शानो शौकत ज़मीन दौलत
फकीर हो या नवाब सबको, कफन वही ढाई गज मिला है

चलो हवाओं का रुख बदल दें, बदल दें नदियों के बहते धारे
जुनून जिनमें है जीतने का, ये उनके जीवन का फलसफा है

रहा चरागों का काम जलना, मगर हमीं ने कभी तो उनसे
किया है घर को किसी के रौशन, किसी के घर को जला दिया है

जरा सी बदलोगे सोच अपनी तो फिर सभी से यही कहोगे
इसे समझते रहे बुरा हम, जहां ये लेकिन बहुत भला है

किसे दिखाए वो दाग दिल के, किसे दुखों की कथा सुनाये
अज़ाब ऐसा है ये कि जिससे अदीब तनहा तड़प रहा है
अज़ाब= पीड़ा, सन्ताप, दंड : अदीब= विद्वान :

जो सुब्ह निकले कमाने घर से, थके हुए दिन ढला तो लौटे
तुम्हारा मेरा, सभी का नीरज, यही तो बस रोज़नामचा है

Monday, April 16, 2012

किताबों की दुनिया -68


बात जयपुर की है. सन 1980-90 की. हमारे घर में बरसों से चले आ रहे जयपुर के एक प्रसिद्द समाचार पत्र के साथ साथ हमने 'नव भारत टाइम्स'' जो जयपुर से तब प्रकाशित होना शुरू हुआ था को दो कारणों से मंगवाना शुरू कर दिया. पहला मुख्य कारण था उसके अंतिम पृष्ठ पर स्व. श्री शरद जोशी जी का रोज़ प्रकाशित होने वाला एक कालम और दूसरा हर हफ्ते छपने वाली साप्ताहिक फिल्म समीक्षा. मुझे फरवरी 1990 में अमिताभ बच्चन की फिल्म "अग्नि पथ" के बारे में छपी समीक्षा जिसमें समीक्षक ने उनके लाजवाब अभिनय की बेजोड़ प्रशंशा की थी, अभी तक याद है. समीक्षक द्वारा की गयी प्रशंशा में सच्चाई थी तभी इस फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरुष्कार श्री "अमिताभ बच्चन" को मिला. इस से साबित हुआ कि फिल्म समीक्षक के पास अपने आस पास की चीजों को सही ढंग से देखने समझने की अद्भुत क्षमता है. फिल्म की समीक्षा करते हुए ये समीक्षक बीच बीच में ऐसे कमाल के शेर पिरोता था के पढ़ते हुए मुंह से बरबस वाह निकल जाया करती थी. किन्हीं कारणों से जयपुर का नवभारत टाइम्स बंद हो गया और फिर उसके बाद मैंने कभी किसी अखबार या पत्रिका में ऐसी शायराना फिल्म समीक्षा नहीं पढ़ी. ये फिल्म समीक्षा लिखा करते थे हमारी आज की "किताबों की दुनिया" श्रृंखला के अगले शायर जनाब "दिनेश ठाकुर" जिनकी हाल ही में प्रकाशित किताब "परछाइयों के शहर में" का जिक्र हम करने जा रहे हैं.


कभी तुम जड़ पकड़ते हो कभी शाखों को गिनते हो
हवा से पूछ लो न ये शजर कितना पुराना है

मरासिम वैसे ही कायम हैं अपने ठोकरों से भी
मेरा रस्ता, मेरा चलना, मेरा गिरना पुराना है

समय ठहरा हुआ सा है हमारे गाँव में अब तक
वही पायल, वही छमछम, वही दरिया पुराना है

दस दिसंबर 1963 को झीलों की खूबसूरत नगरी उदयपुर में जन्में युवा दिनेश जी की शायरी में गर्मी से तपती धरती पर बारिश की पहली बूंदों से उठी मिटटी की महक है, झीलों सी गहराई है,शादाब घने पेड़ों के नीचे मिलने वाली ठंडक है ज़र्द पत्तों के डाल से बिछुड़ने का दर्द है... वो अपने अशआर से हमें चौंकाते भी हैं और सोचने पर मजबूर भी करते हैं. दिनेश के पिता उन्हें इंजिनियर बनाना चाहते थे लेकिन होनी एक कामयाब शायर. इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा में उतीर्ण होने के बावजूद उन्होंने अपने दिल का रास्ता चुना, विज्ञान विषयों को सदा के लिए छोड़ कर उन्होंने आर्ट विषयों में बी.ऐ. किया और जयपुर के एक प्रसिद्द दैनिक अखबार से जुड़ कर नौकरी के साथ साथ पत्रकारिता और मॉस कम्न्युकेशन में एम.ऐ.कर लिया. दुनिया को देखने की उनकी दृष्टि व्यापक होती चली गयी.

यही दस्तूर है शायद वफादारी की दुनिया में
जिसे जी जान से चाहो वही तकलीफ देती है

कज़ा का खौफ लेकर जी रहे हैं सब ज़माने में
हकीकत में सभी को ज़िन्दगी तकलीफ देती है

नुमूँ होते ही जिसको बागबाँ तकता है हसरत से
कई काँटों को वो ताज़ा कली तकलीफ देती है

दिनेश अपनी शायरी में बोलचाल की भाषा के लफ़्ज़ों का इस्तेमाल करते हैं इसीलिए उनकी ग़ज़लें पढ़ते हुए गुनगुनाने को दिल करता है. नए विचारों और शिल्प में नए प्रयोग करना उनका प्रिय शगल है. बंधी बँधाई लीक पर चलना उन्हें गवारा नहीं. अपने लिए नयी ज़मीन तलाशना किसी भी शायर के लिए बहुत बड़ी चुनौती होती है दिनेश इस चुनौती को स्वीकारते हैं और कामयाब भी होते हैं.

थोड़ी सी मोहब्बत भी ज़रूरी है जिगर में
गुस्से से ही सीने में बगावत नहीं आती

किस बात का डर है तुम्हें क्यूँ चुप सी लगी है
सच बोलने भर से तो क़यामत नहीं आती

हर दर्द से बावस्ता हुआ जाता है पहले
इक सर को झुकाने से इबादत नहीं आती

"परछाइयों के शहर में" दरअसल दिनेश जी का दूसरा ग़ज़ल संग्रह है , उनका पहला ग़ज़ल संग्रह "हम लोग भले हैं कागज़ पर " लगभग दस साल पहले शाया हुआ था जिसे बहुत सराहना मिली, उसका दूसरा संस्करण कुछ माह पहले ही प्रकाशित हुआ है जो दिनेश जी की ग़ज़लों की बढती लोकप्रियता को दर्शाता है. इस किताब की भूमिका में मशहूर शायर ज़नाब "शीन काफ निजाम" साहब ने बहुत कमाल की बात कही है " अगर सिर्फ बहर, रदीफ़ और काफिये से निर्मित दो पद शेर नहीं, तो अखबार की सुर्खी भी शेर नहीं. हेराक्लिटस ने कहा था- मेरी बात नहीं मेरे कहने में जो बात बोलती है उसे सुनो. वो बात अकथित है.कथन में अकथित को छुपाना अगर शेर साजी है तो कथन में अकथित को पढना ही ग़ज़ल पढना है " दिनेश जी की ग़ज़लें उनके इस कथन पर खरी उतरती हैं:

उसके ओझल होने तक मेरी आँखें थीं रस्ते पर
वो जाने किस ध्यान में गुम था, मुड़ कर जाना भूल गया

किस दर्ज़ा बेज़ार हुआ है गुलचीं अपने गुलशन से
ताज़ा मौसम के फूलों को गिनकर जाना भूल गया
गुलचीं : माली

बीवी, बच्चे, सड़कें, दफ्तर और तनख्वाह के चक्कर में
मैं घर से अपना ही चेहरा पढ़कर जाना भूल गया

इस किताब में दिनेश जी अधिकांश ग़ज़लें छोटी बहर में हैं और जैसा मैं हर बार कहता आया हूँ छोटी बहर में ग़ज़ल कहना जितना सरल दीखता है उतना ही मुश्किल काम है. गागर में सागर भरने की ये कला हर किसी के पास नहीं होती. थोड़े से लफ़्ज़ों में पुख्ता ढंग से कैसे बात कही जाती है ये आप इस किताब को पढ़ कर स्वयं देखें:

उलझने हैं सभी के सीने में
कौन अब इंकलाब रखता है

याद की धूप जब सताती है
सर पे मेरी किताब रखता है

गुनगुनाता है छुप के मेरी ग़ज़ल
शौक क्या लाजवाब रखता है

दिनेश जी की एक सौ चार लाजवाब ग़ज़लों से सजी इस किताब को यूँ तो फुल सर्कल पब्लिशिंग प्रा.ली.,जे- 40, जोरबाग लेन, दिल्ली ने प्रकाशित किया है और वो शायद आपको वहां से मिल भी जाय लेकिन फिर भी इसे आसानी से प्राप्त करने के लिए आप दिनेश जी को, जो इन दिनों राजस्थान के बहुत पुराने और सबसे अधिक पाठकों वाले अखबार "राजस्थान पत्रिका" में वरिष्ठ समाचार संपादक के पद पर कार्य रत हैं, उनके मोबाइल नंबर 9024788857 पर संपर्क करें, मुझे उम्मीद है मृदु भाषी दिनेश जी से बात कर आपको अलग सा सुकून और किताब प्राप्ति का आसान तरीका भी मिल जायेगा.

सियासत भी तवायफ़ है मोहब्बत क्यूँ करेगी वो
भला किस वक्त घुंघरू इसके मक्कारी नहीं करते

दुपट्टा उसने ये कह कर उड़ा फैंका हवाओं में
हम हर मौसम में परदे की तरफदारी नहीं करते

कसीदे सुनते सुनते रक्स करने लगते हैं साहिब
तमाशा कौनसा महफ़िल में दरबारी नहीं करते

प्रसिद्द रचनाकार श्री नन्द चतुर्वेदी जी ने इस किताब की दूसरी भूमिका में जो लिखा है कि "दिनेश ठाकुर के छोटे छोटे शेर सहसा ज़िन्दगी के उन सवालों से रूबरू कर देते हैं,जिनके जवाब देने के लिए हम तैयार नहीं थे,लेकिन अब जिनसे बचना संभव नहीं है.दिनेश की शायरी मौज-शौक की शायरी की नहीं है. वहां एक फलसफा भी है, बात ज़िन्दगी की बैचेनियों की है जो देर तक परेशान भी करती हैं " उनकी इस बात की तस्कीद के लिए हाज़िर हैं उनकी छोटी बहर की एक ग़ज़ल के ये शेर :-

सिलसिला है तो टूटता क्यूँ है
इस जहाँ में ये सिलसिला क्यूँ है

खींच लाया है जब तू मकतल में
फिर तेरा हाथ काँपता क्यूँ है
मकतल: वधस्थल

मैं भी हैरान हूँ कि बात है क्या
चलते चलते वो भागता क्यूँ है

आईये चलते चलते सुनते हैं दिनेश ठाकुर की वो मशहूर ग़ज़ल जिसे मोहम्मद हुसैन अहमद हुसैन भाइयों ने अपने दिलकश अंदाज़ में गाया है. शायरी और मौसिकी का ये मिलन अद्भुत है और देर तक ज़ेहन में गूंजता रहता है .

Monday, April 2, 2012

बहुत मटका रही हो आज पतली जिस कमरिया को

फागुन चला गया, होली चली गयी तो क्या हुआ ? मस्ती तो नहीं नहीं गयी ना? जिस दिन मस्ती चली गयी समझो सब कुछ चला गया. आज पढ़ते हैं गुरुदेव "पंकज सुबीर" जी के ब्लॉग पर होली के अवसर पर हुए मस्ती से भरपूर तरही मुशायरे में भेजी खाकसार की ये ग़ज़ल:



हुआ जो सोच में बूढा उसे फागुन सताता है
मगर जो है जवां दिल वो सदा होली मनाता है

अपुन तो टुन्न हो जाते भिडू जब हाथ से अपने
हमें घर वो बुला कर प्यार से पानी पिलाता है

उसे बाज़ार के रंगों से रंगने की ज़रूरत क्या
फ़कत छूते ही मेरे जो गुलाबी होता जाता है

गलत बातों को ठहराने सही हर बार संसद में
कोई जूते लगाता है कोई चप्पल चलाता है

सियासत मुल्क में शायद है इक कंगाल की बेटी
हर इक बूढा उसे पाने को कैसे छटपटाता है

बदल दूंगा मैं इसका रंग, कह कर देखिये नेता
बुरे हालात सी हर भैंस पर उबटन लगाता है

बहुत मटका रही हो आज पतली जिस कमरिया को
उसे ही याद रख इक दिन खुदा कमरा बनाता है

दबा लेते हैं दिल में चाह अब तुझसे लिपटने की
करें कितनी भी कोशिश बीच में ये पेट आता है

सुनाई ही नहीं देगा किसी को सच वहां "नीरज"
तू क्यूँ नक्कार खाने में खड़ा तूती बजाता है