चमकी कहीं जो बर्क तो एहसास बन गयी
छाई कहीं घटा तो अदा बन गयी ग़ज़ल
बादे सबा चली तो नशा बन गयी ग़ज़ल
उठ्ठा जो दर्दे इश्क़ तो अश्कों में ढल गयी
बेचैनियाँ बढीं तो दुआ बन गयी ग़ज़ल
अर्ज़े दकन में जान तो देहली में दिल बनी
और शेहरे लखनऊ में हिना बन गयी ग़ज़ल
मुंबई निवासी मेरे शायर मित्र जनाब सतीश शुक्ला 'रकीब' जिनकी शायरी आप मेरे ब्लॉग पर पढ़ और पसंद कर चुके हैं जब मेरे यहाँ खोपोली में एक रात रहने आये तो अपने साथ शायरी की एक किताब भी उठाते लाये. मुझे ये बात स्वीकारने में कोई हिचक नहीं है कि इस किताब के शायर और उनकी शायरी के बारे में मुझे कुछ भी पता नहीं था. बाद में मुझे अपनी अज्ञानता पर अलबत्ता शर्म जरूर आई.
अश्क बहने दे यूँ ही
लज्ज़ते ग़म कम न कर
अजनबियत भी बरत
फासला भी कम न कर
पी के कुछ राहत मिले
ज़हर को मरहम न कर
बहते हुए अश्कों से ग़म की लज्जत उठाने वाले इस अज़ीम शायर का नाम है "गणेश बिहारी 'तर्ज़' जिनकी किताब "हिना बन गयी ग़ज़ल" का जिक्र आज हम अपनी इस किताबों की दुनिया श्रृंखला में करेंगे. ये किताब 'तर्ज़' साहब का सपना थी, जिसके हिंदी संस्करण का अनावरण वो अपने सामने करवाने से पहले ही 17 जुलाई 2009 को इस दुनिया-ऐ-फ़ानी से कूच कर गए.
ज़िन्दगी का ये सफ़र भी यूँ ही पूरा हो गया
इक ज़रा नज़रें उठायीं थीं कि पर्दा हो गया
दर्द जब उमड़ा तो इक आंसू का कतरा हो गया
और जब ठहरा तो बढ़ कर एक दरिया हो गया
अपनों को अपना ही समझा ग़ैर समझा ग़ैर को
गौर से देखा तो देखा मुझको धोका हो गया
अव्वल अव्वल तो समाधी में अँधेरा ही रहा
आखिर आखिर हर तरफ जैसे उजाला हो गया.
ऐसे और इस तरह के अनेकों शेर पढ़ कर मालूम हुआ कि 'तर्ज़' साहब कितने कद्दावर शायर थे. "दर्द जब उमड़ा..".जैसा शेर एक बार पढने के बाद ज़ेहन से उतरने का नाम ही नहीं ले रहा. ज़िन्दगी को बहुत करीब से देखने और समझने वाला शख्स ही ऐसे शेर कह सकता है.
18 मई 1928 को लखनऊ में पैदा हुए 'तर्ज़' साहब की शायरी में हमें वहां की नफासत और नजाकत दोनों दिखाई पड़ती है.
इक ज़माना था कि जब था कच्चे धागों का भरम
कौन अब समझेगा कदरें रेशमी ज़ंजीर की
त्याग, चाहत, प्यार, नफरत, कह रहे हैं आज भी
हम सभी हैं सूरतें बदली हुई ज़ंजीर की
किस को अपना दुःख सुनाएँ किस से अब मांगें मदद
बात करता है तो वो भी इक नयी ज़ंजीर की
शोर शराबे और आत्म प्रशंशा से कोसों दूर रहने वाले इस ग़ैर मामूली शायर को मकबूलियत की वो बलंदी नहीं मिली जिसके वो हकदार थे. उनके बारे में मशहूर शायर जनाब 'अली सरदार जाफरी' साहब ने कहा है " सारे हिन्दुस्तान में बिखरे हुए कुछ ऐसे शायर भी मिलेंगे जिनके नाम या तो अपने इलाकों से बाहर नहीं गए हैं या बिलकुल गुमनामी के आलम में हैं. मेरे अज़ीज़ दोस्त 'तर्ज़' ऐसे शायर हैं जो ज्यादातर अपने हल्कए अहबाब में रहना पसंद करते हैं. इनके इस मिजाज़ ने उर्दू के आम पढने वालों को उनकी ग़ज़लों के हुस्न से महरूम रखा है." ज़ाफरी साहब की बात पर यकीं करने के लिए आप तर्ज़ साहब का नाम गूगल कर के देखें आप को गूगल महाशय जो अपनी जानकारी पर इतराते फिरते हैं बगलें झांकते नज़र आयेंगे.
है बात वक्त वक्त की चलने की शर्त है
साया कभी तो कद के बराबर भी आएगा
ऐसी तो कोई बात तसव्वुर में भी न थी
कोई ख्याल आपसे हट कर भी आएगा
मैं अपनी धुन में आग लगाता चला गया
सोचा न था कि ज़द में मेरा घर भी आएगा
'तर्ज़' साहब बेहद खूबसूरत आवाज़ के मालिक थे और जब वो तरन्नुम से अपना कलाम पढ़ते थे तो सुनने वाला बेहतरीन शायरी के साथ साथ उनकी आवाज़ के हुस्न का भी दीवाना हो जाता था. उनकी ग़ज़लों में हुस्न और इश्क की कशमकश, इश्क की बेबसी, हुस्न का अंदाज़े बयाँ, इंतज़ार का दर्द, हिज्र की कसक ही नहीं है ज़िन्दगी की तल्खियाँ और सच्चाइयाँ भी हैं, गिरते मूल्यों का दर्द भी है :
सपने मिलन के मिल के तो काफूर हो गए
इतना हुए क़रीब कि हम दूर हो गए
जिन कायदों को तोड़ के मुजरिम बने थे हम
वो क़ायदे ही मुल्क का दस्तूर हो गए
कोनों में काँपते थे अँधेरे जो आज तक
सूरज को ज़र्द देखा तो मगरूर हो गए
'तर्ज़' इनको अपने सीने में कब तक छुपाओगे
ये ज़ख्म अब कहाँ कहाँ रहे नासूर हो गए
अच्छी शायरी के शौकीनों को अपना दिल छोटा करने की जरूरत नहीं है क्यूँ के "हिना बन गयी ग़ज़ल" जैसी अनमोल शायरी की किताब, जिसमें तर्ज़ साहब की उम्दा ग़ज़लें ,नज्में, कतआत संगृहीत हैं सिर्फ "दिवंगत आत्मा की शांति के लिए दो मीठे बोल" बोल कर प्राप्त की जा सकती है. इस किताब में शायरी के साथ साथ तर्ज़ साहब के कुछ अविस्मर्णीय चित्र भी प्रकाशित किये गए हैं जिसमें आप उनको अपने परिवार और शायर मित्रों के साथ हँसते मुस्कुराते देख सकते हैं. मुझे इस किताब से ही मालूम पड़ा के मशहूर शायर कृष्ण बिहारी 'नूर' साहब रिश्ते में तर्ज़ साहब के दूर के भाई हैं. इस बेजोड़ किताब की प्राप्ति के लिए आप अपना मोबाइल या फोन उठाइये 09452461950 पर फोन कीजिये और इस किताब की फरमाइश कर डालिए. अगर ये तरीका कारगार साबित न हो रहा हो तो हमेशा मदद के लिए तैयार हमारे मित्र सतीश शुक्ला 'रकीब' साहब जो ‘तर्ज़’ साहब के बहुत क़रीब रहे हैं और उन्हें अपना गुरु मानते हैं को उनके मोबाइल 09892165892 पर संपर्क करें. मुझे पक्का विशवास है वो आपको ये किताब भिजवाने में कोई कसर न उठा रखेंगे. एक बात जान लें इस किताब की बहुत कम प्रतियाँ छपवाई गयीं हैं इसलिए इसकी प्राप्ति के लिए की गयी कोशिश में देरी आपको हाथ मलने पर मजबूर कर सकती है.
आईये चलते चलते तर्ज़ साहब की एक छोटी बहर की ग़ज़ल के चंद खूबसूरत शेर आपको पढवाता हूँ...मुलाहिज़ा फरमाइए...
ज़िन्दगी क्या है और मौत क्या
शब् हुई और सहर हो गयी
उनकी आँखों में अश्क आ गए
दास्ताँ मुख़्तसर हो गयी
चार तिनके ही रख पाए थे
बिजलियों को खबर हो गयी
उनकी महफ़िल से उठ कर चले
रौशनी हमसफ़र हो गयी
दर्द जब उमड़ा तो इक आंसू का कतरा हो गया
ReplyDeleteऔर जब ठहरा तो बढ़ कर एक दरिया हो गया... बेहतरीन शेर है यह। शुक्रिया ऐसे नायाब शायर से परिचय कराने के लिए।
वाह! इस परिचय के लिए आभार!
ReplyDeleteआपका रचना संसार किताबों की दुनिया से नक्षत्रों को ढूंढ़ कर लाता है!
सादर!
अव्वल अव्वल तो समाधी में अँधेरा ही रहा
ReplyDeleteआखिर आखिर हर तरफ जैसे उजाला हो गया.
janab Tarj ki behtareen shayari padhwane ka abhar Niraj ji ...
दर्द जब उमड़ा तो इक आंसू का कतरा हो गया
ReplyDeleteऔर जब ठहरा तो बढ़ कर एक दरिया हो गया
अपनों को अपना ही समझा ग़ैर समझा ग़ैर को
गौर से देखा तो देखा मुझको धोका हो गया
वाह ...बहुत खूब ।
इसे कहते हैं रूचि | यही है दीवानापन ।
ReplyDeleteसलाम ।
कोशिश को सलाम ।।
"हिना बन गयी ग़ज़ल" से परिचित कराने के लिए हार्दिक आभार!
ReplyDeletewah.....kya kahoon,bar-bar padh rahi hoon....
ReplyDeleteवाह!!!!
ReplyDeleteसुन्दर पुस्तक के सुन्दर परिचय के लिए आपका बहुत आभार......
सादर.
जिन कायदों को तोड़ के मुजरिम बने थे हम
ReplyDeleteवो क़ायदे ही मुल्क का दस्तूर हो गए
कोनों में काँपते थे अँधेरे जो आज तक
सूरज को ज़र्द देखा तो मगरूर हो गए
'तर्ज़' इनको अपने सीने में कब तक छुपाओगे
ये ज़ख्म अब कहाँ कहाँ रहे नासूर हो गए
जब शायरी खुद जुबाँ बन जाये फिर कहने को क्या रह जाये …………तर्ज़ साहब से मिलवाने और उनकी शायरी पढवाने के लिये हार्दिक आभार्।
दर्द जब उमड़ा तो इक आंसू का कतरा हो गया
ReplyDeleteऔर जब ठहरा तो बढ़ कर एक दरिया हो गया ...
गज़ब इस शेर पे तो पूरी शायरी कुर्बान की जा सकती है ... क्या गज़ब के शेर हैं सभी ... ये अफ़सोस की बात है की ऐसे शायर को बुलंदी नहीं मिलती ... मेरेमुंह से हर शेर पे बस वाह वाह ही निकल रही है ... बहुत ही लाजवाब और अज़ीम शायर की किताब से मिलवाया है जो उनको सदियों तक जिन्दा रखेगी ...
और आपकी समीक्षा के अंदाज़ के क्या कहने ... दीवाना बना देते हैं आप किताबो का ...
आप उम्दा शायरों को गुमनामी से बाहर कम से कम ब्लॉग जगत तक तो लेकर आ रहे हैं।
ReplyDeleteजिन कायदों को तोड़ के मुजरिम बने थे हम
ReplyDeleteवो क़ायदे ही मुल्क का दस्तूर हो गए
....एक बेहतरीन शायर से मुलाकात कराने के लिये आभार ....
बेशकीमत मुलाक़ात के लिए सादर आभार नीरज सर....
ReplyDeleteबेहतरीन नगीनों की मंजुषा!!
ReplyDeleteउठ्ठा जो दर्दे इश्क़ तो अश्कों में ढल गयी
बेचैनियाँ बढीं तो दुआ बन गयी ग़ज़ल
दुआओं के लिए आभार!! शुभकामनाएं
जिन कायदों को तोड़ के मुजरिम बने थे हम
ReplyDeleteवो क़ायदे ही मुल्क का दस्तूर हो गए
SUNDAR BAHUT HI SUNDAR
es pustak se parichya karane ke liye aabhar
नीरज जी, हमेशा की तरह उम्दा शायराना गुफ़्तगू|
ReplyDeleteशुक्रिया|
जिन्दगी क्या है ,ज़माने को बताऊ क्या
इक मुसाफ़िर था, चलते-चलते नींद आ गई ||
--अज्ञात
उठ्ठा जो दर्दे इश्क़ तो अश्कों में ढल गयी
ReplyDeleteबेचैनियाँ बढीं तो दुआ बन गयी ग़ज़ल!!
जवाब नहीं इस लाजवाब का..
मित्र गोस्वामी जी , आपके जज्बे को सलाम , आपने अपने प्रयास जो आप सुखानुभूति निहितार्थ करते है ,जो दूसरों को कितनी रोशनी दे रहा है ,प्रशंसनीय है ....बहुत सुन्दर शुभकामनायें /
ReplyDeleteजिन कायदों को तोड़ के मुजरिम बने थे हम
ReplyDeleteवो क़ायदे ही मुल्क का दस्तूर हो गए
क्या बात है !!
इतनी खूबसूरत शायरी के ख़ालिक़ की रूह को ख़ुदा ्सुकून बख़्शे और उन को जन्नत में वो जगह अता करे जो दुनिया में न मिल सकी
Itne mahan Shayer se parichay karane ke liye bahut bahut shurkiya......baar baar padhne ka man ho rha hai
ReplyDeleteमाननीय महोदय
ReplyDeleteनमस्कार
लाजवाब पोस्ट!! इस जानकारी के लिए आपका तहे-दिल से शुक्रिया!!
माननीय तर्ज़ जी की आत्मा को ईश्वर शांति दे!! उनका यह तोहफा उनकी याद दिलों में हमेशा बनाए रखेगा!
सादर/साभार
सारिका मुकेश
उठ्ठा जो दर्दे इश्क़ तो अश्कों में ढल गयी
ReplyDeleteबेचैनियाँ बढीं तो दुआ बन गयी ग़ज़ल... phir ek tohfa , waah
कारवां तो गुजर ही जाता है पर निशानी रह जाती है किताब के रूप में जिससे आपने सुन्दर परिचय करवाया..आभार..
ReplyDeleteकोनों में कांपते थे अँधेरे जो अब तलक
ReplyDeleteसूरज को ज़र्द देखा तो मगरूर हो गए.
एक से बढ़कर अशआर....भाई नीरज जी बहुत-बहुत आभार.तर्ज़ साहब को हमारी विनम्र श्रद्धांजलि.
शुक्रिया....
ReplyDeleteएक बेहतरीन और संजीदा शायर से तारुफ़ कराने के लिए...!
जितने भी शेर आपने यहाँ हम सबके लिए फूलों से बिखेर दिए हैं...
उनकी महक अभी भी ताज़ी है...
एक शायर की उम्मीद कभी ख़त्म नहीं होती..
"है बात वक्त वक्त की चलने की शर्त है
साया कभी तो कद के बराबर भी आएगा"
वाह! बेहतरीन शायरी।
ReplyDeleteगणेश बिहारी तर्ज़ जी को सामने से सुनने का मौक़ा मुझे मिला.वाक़ई वो बहुत प्यारे शेर कहते थे.इस समय वो यादगार लम्हा याद आ गया जब उन्हें सुना था.
ReplyDeleteबढ़िया ग़ज़ल..... बढ़िया किताब से परिचय....
ReplyDeleteमैं अपनी धुन में आग लगाता चला गया
ReplyDeleteसोचा न था कि ज़द में मेरा घर भी आएगा
चार तिनके ही रख पाए थे
बिजलियों को खबर हो गयी
बहुत उम्दा है शेर तर्ज साहब के.....सलाम हैं उनको.....आभार है आपका।
laajawaab jitnaa padhaa doobtaa chalaa gyaa Satish ji p se shikaayat rahegee mujhe iske baare men pahle bataayaa hotaa to main in gulon kee khushboo se ab tak mehroom n rahtaa. khair aapko saadhuwaad detaa hoon ki aapko ese beshqeemtee ustaad mile
ReplyDeleteइक ज़माना था कि जब था कच्चे धागों का भरम
ReplyDeleteकौन अब समझेगा कदरें रेशमी ज़ंजीर की
है बात वक्त वक्त की चलने की शर्त है
साया कभी तो कद के बराबर भी आएगा
एक से बढ़कर एक बढ़िया शेर. 'तर्ज' साहब की किताब के बारे में पढ़ना बढ़िया अनुभव रहा. आपकी इस श्रृंखला का बढ़ते जाना इसकी पॉपुलरटी की कहानी कहता है.
हर बार एक नया अहसास होता है अपने कद का, जब आपके ब्लॉग पर किसी शायर की प्रस्तुति पढ़ता हूँ। एक बात तो तय है कि आप यूँ ही किसी किताब का जि़क्र नहीं करते। आज भी यही है और खुदा चाहेगा कि आगे भी ऐसा ही हो।
ReplyDeleteनीरज जी नमस्कार ! बहुत दिनों बाद फिर आपके ब्लाग पर पुस्तक चर्चा देखकर और "गणेश बिहारी 'तर्ज़' की रचनाओं से रूबरू होकर बहुत अच्छा लगा। आप को इस कार्य के लिये बहुत बहुत बधाई .........
ReplyDeleteआप द्वारा प्रस्तुत काव्यपाठ भी सुना.... अच्छा लगा.......
हमेशा की तरह इस बार भी आपने एक संपूर्ण शायर का परिचय कराया है जिसकी शायरी के पास देने के लिए सब कुछ है. आभार आपका.
ReplyDeleteएक बेहतरीन शायर से मुलाकात कराने के लिये आभार ....
ReplyDeletewha goswami ji bahut achhe shayar se maulakat karayee apne ...sadar badhai .
ReplyDeleteपुस्तक के परिचय के लिए आपका बहुत आभार......
ReplyDeleteprichay bahut hi rochak tarike se likha aap ne ,bdhaai
ReplyDeleteअज्ञात को करते हो ज्ञात, शायर के हों घात प्रतिघात
ReplyDeleteब्लॉग पर सभी को लब्ध हो ज्ञान, तान शायरी के वितान
आद. नीरज जी आपने अश्क और दरिया वाले शेर के बारे में बिल्कुल सही लिखा है...वैसे देखा जाए, तो
ReplyDeleteअपनों को अपना ही समझा ग़ैर समझा ग़ैर को
गौर से देखा तो देखा मुझको धोका हो गया...
इस शेर ने तो काफ़ी देर तक कुछ और सोचने ही नहीं दिया...
कमाल की शायरी है जनाब...गणेश बिहारी 'तर्ज़’ साहब की...
बिल्कुल आपकी प्रस्तुति जैसी.
गणेश बिहारी जी से परिचय कराने के लिए धन्यवाद।
ReplyDeleteउनकी रचनाएं उच्च कोटि की हैं।
विस्तार से शायर का परिचय, उनकी शायरी और पुस्तक पर चर्चा पढकर अच्छा लगा. आपके ब्लॉग के द्वारा रचनाकारों का परिचय यूँ ही मिलता रहे. धन्यवाद !
ReplyDeleteइन अजीम शायरों से तआरुफ़ के लिए शुक्रिया!
ReplyDeleteएक से बढ़कर एक अहसास हैं शेर हैं और अंदाजे बयान को तो कहना ही क्या !
नीरज जी,
ReplyDeleteसादर नमस्ते. आपके ब्लॉग द्वारा श्री बिहारी 'तर्ज़' जी की शायरी से परिचय हुआ. आपका अंदाज़े बयां खूबसूरत कलाम को चार चाँद लगा देता है. इस महत्वपूर्ण जानकारी को इस खूबसूरती के साथ हम तक पहूँचाने का बहुत बहुत शुक्रिया.
भाई जी, श्री सतीश शुक्ला 'रकीब' जी का तहे-दिल से शुक्रिया जिन्होंने आपके ब्लॉग से परिचय कराया.
शुभकामनाओं के साथ
- उषा
गणेश बिहारी तर्ज जी से मिलवाने का बेहद शुक्रिया । एक से एक बढिया शेर चुने हैं आपने ।
ReplyDeleteअर्ज़े दकन में जान तो देहली में दिल बनी
और शेहरे लखनऊ में हिना बन गयी ग़ज़ल ।
दर्द जब उमड़ा तो इक आंसू का कतरा हो गया
और जब ठहरा तो बढ़ कर एक दरिया हो गया ।
मैं अपनी धुन में आग लगाता चला गया
सोचा न था कि ज़द में मेरा घर भी आएगा ।
सपने मिलन के मिल के तो काफूर हो गए
इतना हुए क़रीब कि हम दूर हो गए ।
मरहूम गणेश बिहारी श्रीवास्तव 'तर्ज़ लखनवी' साहिब की किताब "हिना बन गयी ग़ज़ल" के चंद शेर जो मुझे बहुत पसंद हैं नीरज साहिब की पैनी नज़र से भला कैसे बच सकते थे....
ReplyDeleteअपनों को अपना ही समझा ग़ैर समझा ग़ैर को
गौर से देखा तो देखा मुझको धोका हो गया
जिन कायदों को तोड़ के मुजरिम बने थे हम
वो क़ायदे ही मुल्क का दस्तूर हो गए
'तर्ज़' इनको अपने सीने में कब तक छुपाओगे
ये ज़ख्म अब कहाँ रहे नासूर हो गए
(सीने में अपने 'तर्ज़' छुपाओगे कब तलक)
...पहला मिसरा किताब में बदलना रह गया है
यह दीगर बात है कि याद न हो, लेकिन तर्ज़ साहिब ने ऐसा कुछ नहीं कहा..जो मैंने पढ़ा न हो....कुछ कलाम जो नहीं छप पाए थे...डायरी में ही रह गए वह भी...
कुछ और बहुत खूबसूरत शे'र...
उनकी आँखों में अश्क आ गए
दास्ताँ मुख़्तसर हो गयी
चार तिनके ही रख पाए थे
बिजलियों को खबर हो गयी
आदरणीय नीरज साहिब का तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ कि उन्होंने अपने ब्लॉग में इस खूबसूरत अंदाज़ में पेश किया जिसका जवाब नहीं.....साथ ही आप सभी का भी..कि सभी ने अपने अपने तरीके से श्रद्धा सुमन अर्पित किए.
"तू ही जब बेजार है मुझसे तो फिर,
जा तुझे मैंने भी छोड़ा ज़िंदगी........तर्ज़"
सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
वाह मजा आए गया तर्ज़ साहब के बारे में जानकर
ReplyDeleteवाह क्या खूब गाया है मेहदी हसन साहब ने 'हिना बन गई ग़ज़ल'
वाह