Monday, November 21, 2011

किताबों की दुनिया - 63

महरूम करके सांवली मिट्टी के लम्स से
खुश-रंग पत्थरों में उगाया गया मुझे
महरूम: वंचित, लम्स: स्पर्श

किस किस के घर का नूर थी मेरे लहू की आग
जब बुझ गया तो फिर से जलाया गया मुझे

मैं भी तो इक सवाल था, हल ढूंढते मेरा
ये क्या कि चुटकियों में उड़ाया गया मुझे

ऐसे अशआर पढ़ कर अचानक मुंह से कोई बोल नहीं फूटते, हैरत से आँखें फटी रह जाती हैं और दिल एक लम्हे के लिए धड़कना बंद कर देता है. हकीकत तो ये है कि ऐसे कुंदन से अशआर यूँ ही कागज़ पर नहीं उतरते इस के लिए शायर को उम्र भर सोने की तरह तपना पड़ता है. इस तपे हुए सोने जैसे शायर का नाम है "निश्तर खानकाही" जिनकी किताब "मेरे लहू की आग" का जिक्र आज हम यहाँ करने जा रहे हैं. "निश्तर खानकाही" के नाम से शायद हिंदी के पाठक बहुत अधिक परिचित न हों क्यूँ की निश्तर साहब उन शायरों की श्रेणी में आते हैं जो अपना ढोल पीटे बिना शायरी किया करते थे.


सारे जग की प्यास बुझाना, इतना आसाँ काम है क्या?
पानी को भी भाप में ढलकर बादल बनना पड़ता है

जलते दिए की लौ ही जाने उसकी आँखें जानें क्या?
कैसी कैसी झेल के बिपता , काजल बनना पड़ता है

'मीर' कोई था 'मीरा' कोई, लेकिन उनकी बात अलग
इश्क न करना, इश्क में प्यारे पागल बनना पड़ता है

'निश्तर' साहब! हमसे पूछो, हमने जर्बें झेली हैं
घायल मन की पीड़ समझने घायल बनना पड़ता है
ज़र्बें :चोटें

घायल मन की पीड़ समझ कर उसे अपने अशआरों में ढालने वाले इस शायर ने अपने जन्म के बारे में एक जगह लिखा है: " 'कोई रिकार्ड नहीं है, लेकिन मौखिक रूप में जो कुछ मुझे बताया गया है, उसके अनुसार 1930 के निकलते जाड़ों में किसी दिन मेरा जन्म हुआ था, जहानाबाद नाम के गाँव में, जहाँ मेरे वालिद सैयद मौहम्मद हुसैन की छोटी-सी जमींदारी थी". पाठकों की सूचना के लिए बता दूं के जहानाबाद उत्तर प्रदेश के 'बिजनौर जनपद का एक गाँव है. बिजनोर में जीवन के अधिकांश वर्ष गुज़ारने के बाद 7 मार्च 2006 को खानकाही साहब ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया.

बस सफ़र, पैहम सफ़र, दायम, मुसलसल, बे क़याम
चलते रहिये, चलते रहिये, फासला मत पूछिए
पैहम: निरंतर, दायम: हमेशा, मुसलसल: लगातार, बे-क़याम: बिना रुके

ज़िन्दगी का रूप यकसां, तजरुबे सबके अलग
इस समर का भूल कर भी जायका मत पूछिए
यकसां: एक जैसा, समर: फल

क्या खबर है कौन किस अंदाज़, किस आलम में हो
दोस्तों से उनके मस्कन का पता मत पूछिए
मस्कन: घर

खानकाही साहब के वालिद बहुत सख्त मिजाज़ इंसान थे । इस कारण उनका लगाव माँ से अधिक था। उनकी माँ फ़ारसी ज़बान में शायरी करने वाली एक विदुषी महिला थीं। उन्होंने बचपन में ही आपको फारसी के महान शायरों- हाफ़िज शीराजी, सादी और नज़ीरा का काव्य कंठस्थ करा दिया था। शायद बचपन में अपनी अम्मी से मिले ये संस्कार ही थे कि वे एक सफल शायर बन सके। अपनी वालिदा के इन्तेकाल के बाद उनकी याद में लिखी एक ग़ज़ल के चंद शेर पढ़ें जिस से आपको अंदाज़ा हो जायेगा के निश्तर साहब अपनी अम्मी से किस कदर बेपनाह मोहब्बत करते थे, इन अशआर को पढ़ते हुए आँखें अपने आप नम हो जाती हैं:.

कौन अब रक्खेगा मुझको अपनी तस्बीहों में याद
कौन अब रातों को जीने की दुआ देगा मुझे
तस्बीहों: माला

भीग जाएगी पसीने से जो पेशानी मेरी
कौन अपने नर्म आँचल की हवा देगा मुझे

कौन अब पूछेगा मुझसे मेरी माज़ूरी का हाल
कौन बीमारी में जिद करके दवा देगा मुझे
माज़ूरी: लाचारी

निश्तर साहब बहुत संवेदन शील व्यक्ति थे और वो अपनी इस संवेदन शीलता से परेशान भी थे उन्होंने एक जगह कहा भी है "'अपने जीवन में मेरे लिए सबसे बड़ा अभिशाप मेरा संवेदनशील होना रहा है। संवेदनशील न होता, केवल भावुक होता तो हालात अथवा अपने-परायों के व्यवहार की प्रतिक्रिया में चीख़ सकता था, शोर मचा सकता था, विद्रोह कर सकता था। किंतु मैं ऐसा नहीं कर सका, क्योंकि संवेदनशील आदमी की प्रवृत्ति ही चुपचाप महसूस करना और देर तक घुलते रहना होती है। वह भडक़ता नहीं धीरे-धीरे सुलगता है और अंतत: स्वयं अपनी ही आग में जल-बुझकर राख हो जाता है।"

मेरे लहू की आग ही झुलसा गयी मुझे
देखा जो आईना तो हंसी आ गयी मुझे

मैं जैसे एक सबक था कभी का पढ़ा हुआ
उठ्ठी जो वो निगाह तो दोहरा गयी मुझे

तेरी नज़र भी दे न सकी ज़िन्दगी का फ़न
मरने का खेल सहल था, सिखला गयी मुझे
सहल: आसान

निश्तर साहब ने लगभग दस वर्ष की उम्र से ही लेखन आरम्भ कर दिया था. इतनी छोटी उम्र में लेखन शुरू करने के हिसाब से हमारे पास उनके द्वारा रचे साहित्य का बहुत बड़ा ज़खीरा होना चाहिए था, लेकिन नहीं है. इसके पीछे दो कारण हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं की कोई प्रति अपने पास नहीं रखी। आकाशवाणी से प्रकाशित होने वाली अथवा पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली रचनाओं- रूपकों, कहानियों, लेखों, नज़्मों अथवा ग़ज़लों की प्राय: कोई प्रति उनके पास नहीं रही। दूसरा कारण तो और भी कष्टप्रद है। उन्हीं के शब्दों में- 'उस्तादों की तलाश से निराश होकर जब मैंने अभ्यास और पुस्तकों को अपना गुरु माना तो हर साल रचनाओं का एक बड़ा संग्रह तैयार हो जाता, किंतु मैं हर साल स्वयं उसे आग लगा देता। यह सिलसिला लगभग बीस वर्ष तक चलता रहा। हर पांडुलिपि पाँच सौ से सात सौ पृष्ठों तक की होती थी।' .ग़ज़लकार निश्तर जी के इस कथन से ही कल्पना की जा सकती है कि यदि उनके द्वारा रचित साहित्य का व्यवस्थित रूप से प्रकाशन होता तो साहित्य-जगत् को आज उनका विपुल साहित्य पढ़ने को उपलब्ध होता।

दस्तकों पे दोस्तों के भी खुलते नहीं हैं दर
हर वक्त इक अजीब सी दहशत घरों में है

क्या फिर कहीं पे कोई बड़ा हादिसा हुआ
क्यूँ आज इतनी भीड़ इबादत घरों में है

अच्छे दिनों की आस में दीवारो-दर हैं चुप
सड़कों पे कहकहें हैं, हकीक़त घरों में है

निश्तर साहब के लिए किसी भी विधा में लिखना सामान्य-सी बात थी , किंतु उनके व्यक्तित्व का एक प्रभावशाली पक्ष ये था कि उनकी दृष्टि सदैव आदमी और उसके भीतर के आदमी, समाज और उसके भीतर के समाज पर टिकी रहती थी , जो यथार्थ को कला के सुंदर रूप में प्रस्तुत करती है. निश्तर ख़ानक़ाही के नाम की साहित्यिक रूप में व्याख्या कर डा. मीना अग्रवाल लिखती हैं- 'नश्तर या निश्तर का अर्थ है चीर-फाड़ करने का यंत्र। साहित्य में चीर-फाड़ शब्दों के स्तर पर भी होती है। निश्तर साहब की शायरी भी एक ऐसा ही नश्तर है कि पाठक के दिल में स्वयं बिंध जाता है। उनकी शायरी हृदय को छूने वाली है।'

अब फर्श हैं हमारे छतें दूसरों की हैं
ऐसा अज़ाब पहले कहाँ था घरों के साथ

बिस्तर है पास पास मगर कुर्बतें नहीं
हम घर में रह रहे हैं अजब फासलों के साथ
कुर्बतें: निकटता

मैय्यत को अब उठाके ठिकाने लगाइए
मौके के सब गवाह हुए क़ातिलों के साथ

निश्तर साहब की लाजवाब शायरी से ये किताब "हिंदी साहित्य निकेतन" बिजनोर से प्रकाशित हुए है. इसकी और ऐसे उनके सांकलों की बेहतरीन ग़ज़लें आप http://nishtar-khanqahi.blogspot.com ब्लॉग पर भी पढ़ सकते हैं जिसे उनकी बेटी शगुफ्ता, जो स्वयं डाक्टर हैं, चलाती हैं. ये किताब आपको आन लाइन मंगवाने के लिए इस पते पर क्लिक कर आर्डर देना होगा :http://www.simplybooks.in/authorsrch/Nishtar+Khanqahi मैंने भी ये किताब जिसमें खानकाही साहब की लगभग स्व सौ ग़ज़लें हैं इसी पद्धति से मंगवाई हैं..

खुदा हाफिज़ कहने से पहले चलिए पढ़ते हैं निश्तर साहब की एक अलग ही रंग में कही ग़ज़ल के चंद शेर जिसे अंदाज़ा हो जाता है के वो किस पाए के शायर थे और अपनी बात किस ख़ूबसूरती से कहने में माहिर थे :

रात एक पिक्चर में, शाम एक होटल में, बस यही बसीले थे
मेज़ की किनारे पर, चाय की पियाली में, उसके होंट रक्खे थे

मैंने तुमको रक्खा था, बक्स में सदाओं के, तह-ब-तह हिफाज़त से
रात मेरे घर में तुम इक महीन फीते पर गीत बनके उभरे थे

दस्तखत नहीं बाकी, बस हरूफ टाइप के, कागजों में जिंदा हैं
याद भी नहीं आता, प्यार के ये ख़त जाने, किसने किसको लिक्खे थे

अरेरे जाते जहाँ हैं? इतनी भी क्या जल्दी है? आप जरा "नशा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिले " का लुत्फ़ तो लेते जाइए, याने शायरी और मौसिकी के मिलन का मज़ा भी तो उठाइए. याद कीजिये जगजीत सिंह जी की आवाज़ में ग़ालिब साहब की ग़ज़ल सुन कर जैसे मज़ा दुगना हो जाता है उसी तरह निश्तर साहब की ग़ज़ल को आप इन मोहतरमा की आवाज़ में सुन कर लुत्फ़ उठाइए और हमें बताइए ये किसकी आवाज़ है?


Monday, November 7, 2011

आप थे फूल टहनियों पे सजे


दीपावली के शुभ अवसर पर हमेशा की तरह इस बार भी गुरुदेव पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर एक शानदार तरही मुशायरे का आयोजन हुआ था. तरही का मिसरा था "दीप खुशियों के जल उठे हर सू". इस मुशायरे में देश-विदेश के नामी गरामी शायरों /कवियों ने अपनी एक से बढ़ कर एक एक ग़ज़लें/ काव्य रचनाएँ प्रस्तुत कीं. उसी मुशायरे में खाकसार ने भी अपनी इस ग़ज़ल के साथ, जिसे मैं आप सब के लिए यहाँ ले आया हूँ, शिरकत की थी.

ढूंढते हो कहाँ उसे हर सू
बंद आँखें करो दिखे हर सू

दीप से दीप यूँ जलाने के
चल पड़ें काश सिलसिले हर सू

एक रावण था सिर्फ त्रेता में
अब नज़र आ रहे मुझे हर सू

छत की कीमत वही बताएँगे जो
रह रहे आसमां तले हर सू

आप थे फूल टहनियों पे सजे
हम थे खुशबू बिखर गए हर सू

वार सोते में कर गया कोई
आँख खोली तो यार थे हर सू

दिन ढले क़त्ल हो गया सूरज
सुर्ख ही सुर्ख दिख रहा हर सू

(ये दो शेर मेरी हाल ही में जन्मी छोटी पोती जिसके निमकी/मधुरा/इष्टी/मिश्री जैसे कई नाम हैं के लिए)

जब से आई है वो परी घर में
दीप खुशियों के जल उठे हर सू

जब कभी छुप के मुस्कुराती है
फूटते हैं अनार से हर सू

है दिवाली वही असल 'नीरज'
तीरगी दूर जो करे हर सू