फ़ाक़ाकशी में जी रहे हैं लोग आजकल
पूरा ही साल तो कोई, रमजान नहीं है
***
गडरिये हो गए हैं, इन दिनों सब मौलवी पण्डे
उतारी जा रही है, आदमी की ऊन सड़कों पर
जीवन में हम सब फूल देख कर खुश होते हैं. फूल जिन्हें हम अपने घर के गमले में , पास के बाग़ में या फिर चित्रों में देखते हैं. कुछ फूल ऐसे भी होते हैं जिन्हें हम देख नहीं पाते और वो फूल हमारे द्वारा देखे गए फूलों से किसी मायने में कम नहीं होते बल्कि कुछ फूल तो अत्यधिक सुन्दर होते हैं. ये फूल जिन्हें बनफूल कहा जाता है बन में खिलते हैं अपने आस पास के वातावरण को अपनी खुशबू से महकाते हैं और अपनी ख़ूबसूरती से मुग्ध करते हैं और फिर वहीँ झड़ कर गिर जाते हैं. इन फूलों को कोई फरक नहीं पड़ता के इन्हें किसी ने देखा या नहीं देखा ये फूल अपनी ख़ुशी से खिलते हैं और महकते हैं. मुझे सत्तर के दशक में आयी जीतेन्द्र साहब की फिल्म "बनफूल" का ये गीत याद आ रहा है " मैं जहाँ चला जाऊं बहार चली आये, महक जाए राहों की धूल मैं बनफूल...."
आज हम जिस शायर का जिक्र करने जा रहे हैं वो एक बनफूल ही है , पुरुस्कारों और तालियों की पहुँच से दूर अपने हाल में मस्त:
सिर्फ किताबें पढ़-पढ़ करके टेप सरीखे बजते लोग
अब दुनिया में कहाँ बचे हैं, सीधे सादे ज्ञानी लोग
मिनरल वाटर के आगे अब गंगाजल की कौन बिसात
ब्रेड और मख्खन के मारे, भूल गए गुड़ धानी लोग
आज के युग में गुड धानी की बात करने वाले अनूठे शायर हैं जनाब प्रमोद रामावत "प्रमोद" जिनकी किताब "सोने का पिंजरा " का जिक्र हम आज करने जा रहे हैं.प्रमोद जी की शायरी में आप तल्ख़ मगर सच्ची बातों को बहुत ख़ूबसूरती से पिरोया हुआ पायेंगे. परिस्तिथियों से लड़ते हुए वो जीवन में मुहब्बत और इज्ज़त तलाशते रहे और इसी की तलाश में लफ्ज़ उनकी शायरी में ढलने लगे .वो इस पुस्तक में एक जगह कहते हैं "ग़ज़ल में मुझे अपनी मंजिल नज़र आ गयी. मेरी अतृप्त प्यास मुझे ग़ज़ल के दरिया के नजदीक ले आयी. बस फिर यहाँ से उठ न सका. मेरी पीडाओं का आकाश, अशआर बनकर झरता रहा."
सोने का पिंजरा बनवाकर, तुमने दाना डाला दोस्त
हम तो थे नादान पखेरू, अच्छा रिश्ता पाला दोस्त
हम तो कोरे कागज़ भर थे, अपना था बस दोष यही
तुमने पर अखबार बना कर, हम को खूब उछाला दोस्त
लोग वतन तक खा जाते हैं, इसका इसे यकीन नहीं
मान जाएगा, तू ले जाकर दिल्ली इसे दिखा ला दोस्त
दुनिया के रंगों में छुपी स्याही, मुस्कुराहटों के पीछे के आंसूं ,रिश्तों की आड़ में मतलब परस्ती, पीठ पीछे मखौल उड़ाने वालों की भीड़ आपको प्रमोद जी की शायरी में अपने पूरे तेवर और धार के साथ नज़र आएगी. वो खुद कहते हैं " जैसे जैसे मुझे दुनिया दारी समझ में आती गयी शेर शिराओं में दौड़ने लगे. ग़ज़ल धमनियों का लहू हो गयी."
आईने बनकर खड़े हो जाओ, उनके सामने
फिर नहीं, उठ पायेंगे, वो हाथ पत्थर के लिए
मजलिसें, तो सिर्फ नक्कालों की हो कर रह गयीं
अब कोई मौक़ा नहीं, बेबाक शायर के लिए
आपके गुलदान में यूँ, आपका चेहरा दिखा
इक कबूतर मार डाला, सिर्फ इक पर के लिए
बकौल प्रमोद जी " मुल्क के हालात, सियासत दां लोगों की मक्कारी और लूटे पिटे लोगों की बेचारगी ने मेरी ग़ज़लों को पनपने के लिए ज़मीन दी. जहाँ शोषण व्यापारियों का, बेईमानी राजनीतिज्ञों का और रिश्वत खोरी अफसरों का ईमान हो जाए उस मुल्क में जिंदा रहने के हालात किस तरह पैदा किये जा सकते हैं? तीखी ग़ज़लें मेरा परिचय बनती गयीं. आंसुओं और सिसकियों के तर्जुमे ही मेरे लेखन का मकसद रह गया."
एक रिश्ता है हंसी का, आंसुओं के साथ
जिस तरह रातें जुड़ी हैं, जुगनुओं के साथ
कौन ज्यादा पुर ख़तर पहचानना मुश्किल
जब से नेता जा मिले हैं, साधुओं के साथ
फिर वोही मक्कार चेहरे, वोट मांगेंगे
आप दरवाज़े पे रहिये, झाडुओं के साथ
आईये आपको प्रमोद जी की किताब तक पहुँचने का रोचक किस्सा भी सुनाता चलूँ. हुआ यूँ के दिसंबर की अंतिम तारीख़ को ब्लोग्स खंगालते हुए अचानक नज़र "असुविधा" नमक ब्लॉग पर अटक गयी जहाँ रामावत जी की चार ग़ज़लें पोस्ट की गयीं थीं. ग़ज़लों से प्रभावित हो कर मैंने उनके परिचय में दिए मोबाईल नम्बर से उन्हें संपर्क किया. उनसे उनकी शायरी और किताब की बात की. रामावत जी ने अपनी बातों और विचारों से मुझे बहुत प्रभावित किया. उन्होंने अपने एक मित्र समीर यादव जी का जिक्र किया और कहा के वो आपसे किताब को लेकर शीघ्र बात करेंगे. समीर जी भी अपना एक ब्लॉग "मनोरथ" चलाते हैं. समीर जी का फोन आया और वो भी मेरी तरह रामावत जी की शायरी के प्रशंशक निकले. रामावत जी चूँकि कम्यूटर आदि से दूर रहते हैं इसलिए जन संपर्क के लिए उनका काम समीर जी देखते हैं. समीर जी ने अगले दो दिनों में मुझे रामावत जी की किताब कोरियर से भेज दी जिसे आज मैं आपके साथ शेयर कर रहा हूँ.
सत्य कहने की ज़रुरत अब नहीं है दोस्तों
झूठ को गाली बको तुम, देवता हो जाओगे
तुम तरक्की के लिए. आगे बढ़ो या मत बढ़ो
तुम तो बस पीछे धकेलो, क्या से क्या हो जाओगे
प्यास को पानी दिखा कर, तुम गरजना जोर से
फिर बिना बरसे चले जाना, घटा हो जाओगे
आपको यदि ये किताब चाहिए तो वो ही सब करना पड़ेगा जो मैंने किया है तब आप भी मेरी तरह प्रमोद जी की ग़ज़लों की आनंद सरिता में डुबकी लगा पायेंगे. काम जितना लगता है उस से भी अधिक आसान है आप सबसे पहले प्रमोद जी को उनके मोबाईल न. 09424097155 पर बधाई दें और फिर उनके मित्र और शुभ चिन्तक श्री समीर जी को उनके इ-मेल आ.इ डी. sameer.yadav@gmail.com पर एक छोटी सी मेल डाल दें . मुझे विश्वाश है जैसे समीर जी ने जैसे मुझे निराश नहीं किया आपको भी नहीं करेंगे. आज के युग में प्रमोद जी और समीर जी जैसे मोहब्बत से भरे इंसान भी इस दुनिया में बसते हैं इसका यकीन आपको उनसे बातचीत करके ही हो सकेगा.
लोग जाने क्यूँ समंदर हो गए हैं
शख्स कोई भी नदी जैसा नहीं लगता
फूलने फलने लगीं कालीन की नस्लें
एक भी कुनबा दरी जैसा नहीं लगता
उम्र भर आंसू पिये शायद इसी से अब
प्यास में भी तिश्नगी जैसा नहीं लगता
आज की किताब का जिक्र यहीं पर समाप्त करते हुए चलते हैं हम किसी दूसरे अलबेले शायर की किताब की तलाश में. आप तब तक रामावत जी को फोन करिया ना...इतना भी क्या हिचकिचा रहे हैं?
पूरा ही साल तो कोई, रमजान नहीं है
***
गडरिये हो गए हैं, इन दिनों सब मौलवी पण्डे
उतारी जा रही है, आदमी की ऊन सड़कों पर
जीवन में हम सब फूल देख कर खुश होते हैं. फूल जिन्हें हम अपने घर के गमले में , पास के बाग़ में या फिर चित्रों में देखते हैं. कुछ फूल ऐसे भी होते हैं जिन्हें हम देख नहीं पाते और वो फूल हमारे द्वारा देखे गए फूलों से किसी मायने में कम नहीं होते बल्कि कुछ फूल तो अत्यधिक सुन्दर होते हैं. ये फूल जिन्हें बनफूल कहा जाता है बन में खिलते हैं अपने आस पास के वातावरण को अपनी खुशबू से महकाते हैं और अपनी ख़ूबसूरती से मुग्ध करते हैं और फिर वहीँ झड़ कर गिर जाते हैं. इन फूलों को कोई फरक नहीं पड़ता के इन्हें किसी ने देखा या नहीं देखा ये फूल अपनी ख़ुशी से खिलते हैं और महकते हैं. मुझे सत्तर के दशक में आयी जीतेन्द्र साहब की फिल्म "बनफूल" का ये गीत याद आ रहा है " मैं जहाँ चला जाऊं बहार चली आये, महक जाए राहों की धूल मैं बनफूल...."
आज हम जिस शायर का जिक्र करने जा रहे हैं वो एक बनफूल ही है , पुरुस्कारों और तालियों की पहुँच से दूर अपने हाल में मस्त:
सिर्फ किताबें पढ़-पढ़ करके टेप सरीखे बजते लोग
अब दुनिया में कहाँ बचे हैं, सीधे सादे ज्ञानी लोग
मिनरल वाटर के आगे अब गंगाजल की कौन बिसात
ब्रेड और मख्खन के मारे, भूल गए गुड़ धानी लोग
आज के युग में गुड धानी की बात करने वाले अनूठे शायर हैं जनाब प्रमोद रामावत "प्रमोद" जिनकी किताब "सोने का पिंजरा " का जिक्र हम आज करने जा रहे हैं.प्रमोद जी की शायरी में आप तल्ख़ मगर सच्ची बातों को बहुत ख़ूबसूरती से पिरोया हुआ पायेंगे. परिस्तिथियों से लड़ते हुए वो जीवन में मुहब्बत और इज्ज़त तलाशते रहे और इसी की तलाश में लफ्ज़ उनकी शायरी में ढलने लगे .वो इस पुस्तक में एक जगह कहते हैं "ग़ज़ल में मुझे अपनी मंजिल नज़र आ गयी. मेरी अतृप्त प्यास मुझे ग़ज़ल के दरिया के नजदीक ले आयी. बस फिर यहाँ से उठ न सका. मेरी पीडाओं का आकाश, अशआर बनकर झरता रहा."
सोने का पिंजरा बनवाकर, तुमने दाना डाला दोस्त
हम तो थे नादान पखेरू, अच्छा रिश्ता पाला दोस्त
हम तो कोरे कागज़ भर थे, अपना था बस दोष यही
तुमने पर अखबार बना कर, हम को खूब उछाला दोस्त
लोग वतन तक खा जाते हैं, इसका इसे यकीन नहीं
मान जाएगा, तू ले जाकर दिल्ली इसे दिखा ला दोस्त
दुनिया के रंगों में छुपी स्याही, मुस्कुराहटों के पीछे के आंसूं ,रिश्तों की आड़ में मतलब परस्ती, पीठ पीछे मखौल उड़ाने वालों की भीड़ आपको प्रमोद जी की शायरी में अपने पूरे तेवर और धार के साथ नज़र आएगी. वो खुद कहते हैं " जैसे जैसे मुझे दुनिया दारी समझ में आती गयी शेर शिराओं में दौड़ने लगे. ग़ज़ल धमनियों का लहू हो गयी."
आईने बनकर खड़े हो जाओ, उनके सामने
फिर नहीं, उठ पायेंगे, वो हाथ पत्थर के लिए
मजलिसें, तो सिर्फ नक्कालों की हो कर रह गयीं
अब कोई मौक़ा नहीं, बेबाक शायर के लिए
आपके गुलदान में यूँ, आपका चेहरा दिखा
इक कबूतर मार डाला, सिर्फ इक पर के लिए
बकौल प्रमोद जी " मुल्क के हालात, सियासत दां लोगों की मक्कारी और लूटे पिटे लोगों की बेचारगी ने मेरी ग़ज़लों को पनपने के लिए ज़मीन दी. जहाँ शोषण व्यापारियों का, बेईमानी राजनीतिज्ञों का और रिश्वत खोरी अफसरों का ईमान हो जाए उस मुल्क में जिंदा रहने के हालात किस तरह पैदा किये जा सकते हैं? तीखी ग़ज़लें मेरा परिचय बनती गयीं. आंसुओं और सिसकियों के तर्जुमे ही मेरे लेखन का मकसद रह गया."
एक रिश्ता है हंसी का, आंसुओं के साथ
जिस तरह रातें जुड़ी हैं, जुगनुओं के साथ
कौन ज्यादा पुर ख़तर पहचानना मुश्किल
जब से नेता जा मिले हैं, साधुओं के साथ
फिर वोही मक्कार चेहरे, वोट मांगेंगे
आप दरवाज़े पे रहिये, झाडुओं के साथ
आईये आपको प्रमोद जी की किताब तक पहुँचने का रोचक किस्सा भी सुनाता चलूँ. हुआ यूँ के दिसंबर की अंतिम तारीख़ को ब्लोग्स खंगालते हुए अचानक नज़र "असुविधा" नमक ब्लॉग पर अटक गयी जहाँ रामावत जी की चार ग़ज़लें पोस्ट की गयीं थीं. ग़ज़लों से प्रभावित हो कर मैंने उनके परिचय में दिए मोबाईल नम्बर से उन्हें संपर्क किया. उनसे उनकी शायरी और किताब की बात की. रामावत जी ने अपनी बातों और विचारों से मुझे बहुत प्रभावित किया. उन्होंने अपने एक मित्र समीर यादव जी का जिक्र किया और कहा के वो आपसे किताब को लेकर शीघ्र बात करेंगे. समीर जी भी अपना एक ब्लॉग "मनोरथ" चलाते हैं. समीर जी का फोन आया और वो भी मेरी तरह रामावत जी की शायरी के प्रशंशक निकले. रामावत जी चूँकि कम्यूटर आदि से दूर रहते हैं इसलिए जन संपर्क के लिए उनका काम समीर जी देखते हैं. समीर जी ने अगले दो दिनों में मुझे रामावत जी की किताब कोरियर से भेज दी जिसे आज मैं आपके साथ शेयर कर रहा हूँ.
सत्य कहने की ज़रुरत अब नहीं है दोस्तों
झूठ को गाली बको तुम, देवता हो जाओगे
तुम तरक्की के लिए. आगे बढ़ो या मत बढ़ो
तुम तो बस पीछे धकेलो, क्या से क्या हो जाओगे
प्यास को पानी दिखा कर, तुम गरजना जोर से
फिर बिना बरसे चले जाना, घटा हो जाओगे
आपको यदि ये किताब चाहिए तो वो ही सब करना पड़ेगा जो मैंने किया है तब आप भी मेरी तरह प्रमोद जी की ग़ज़लों की आनंद सरिता में डुबकी लगा पायेंगे. काम जितना लगता है उस से भी अधिक आसान है आप सबसे पहले प्रमोद जी को उनके मोबाईल न. 09424097155 पर बधाई दें और फिर उनके मित्र और शुभ चिन्तक श्री समीर जी को उनके इ-मेल आ.इ डी. sameer.yadav@gmail.com पर एक छोटी सी मेल डाल दें . मुझे विश्वाश है जैसे समीर जी ने जैसे मुझे निराश नहीं किया आपको भी नहीं करेंगे. आज के युग में प्रमोद जी और समीर जी जैसे मोहब्बत से भरे इंसान भी इस दुनिया में बसते हैं इसका यकीन आपको उनसे बातचीत करके ही हो सकेगा.
लोग जाने क्यूँ समंदर हो गए हैं
शख्स कोई भी नदी जैसा नहीं लगता
फूलने फलने लगीं कालीन की नस्लें
एक भी कुनबा दरी जैसा नहीं लगता
उम्र भर आंसू पिये शायद इसी से अब
प्यास में भी तिश्नगी जैसा नहीं लगता
आज की किताब का जिक्र यहीं पर समाप्त करते हुए चलते हैं हम किसी दूसरे अलबेले शायर की किताब की तलाश में. आप तब तक रामावत जी को फोन करिया ना...इतना भी क्या हिचकिचा रहे हैं?
नीरज जी
ReplyDeleteआपकी पारखी नज़र् की दाद देनी पडेगी ……………अब तक जितने भी पढे है उनमे सबसे हट्कर और सबसे बढकर लगे रामावत जी……………पहले शेर ने ही ऐसा असर किया कि उसके बाद तो पता ही नही चला कहाँ आखिरी पंक्ति तक पहुँच गयी……………हर शेर एक आईना दिखा रहा है कभी इंसान का तो कभी नेता का तोकभी समाज का……………गज़ब के शायर हैं …………आप सच मे जौहरी हैं जो हीरे की सही कीमत आंकता है………………आभार्।
मजलिसें, तो सिर्फ नक्कालों की हो कर रह गयीं
ReplyDeleteअब कोई मौक़ा नहीं, बेबाक शायर के लिए
is zikra mein kitna kuch saajha karte hain aap ... bahut badhiya
उम्र भर आंसू पिये शायद इसी से अब
ReplyDeleteप्यास में भी तिश्नगी जैसा नहीं लगता
बहुत ही खूबसूरती से आपने इसे प्रस्तुत किया आभार ।
प्रमोद जी सचमुच गजब का लिखते हैं। अच्छा लगा उनकी रचना से मिलना।
ReplyDelete---------
ब्लॉगवाणी: ब्लॉग समीक्षा का एक विनम्र प्रयास।
प्रमोद जी की शायरी का मेयार क़ाबिले-तारीफ है.खूबसूरत किताब की खूबसूरत समीक्षा.अच्छा लगा पढ़कर.
ReplyDeleteएकदम ताज़ी हवा के झोंके की तरह है प्रमोद जी की शायरी.. धार का तो कोइ जवाब ही नहीं.. शुक्रिया आपका इस नायाब शायर से परिचय करवाने के लिए...
ReplyDeleteबहुत नायाब.
ReplyDeleteरामराम.
सत्य कहने की ज़रुरत अब नहीं है दोस्तों
ReplyDeleteझूठ को गाली बको तुम, देवता हो जाओगे
बहुत सुंदर जिक्र किया आप ने इन सुंदर ओर अमूल्य लेखो ओर किताबो का धन्यवाद
एक और शायर ... से मुलाक़ात. शुक्रिया !!
ReplyDeleteआपकी नज़र कहाँ कहाँ से नगीने ढूँढ लाती है... बड़े भाई कमाल करते हैं आप भी!!
ReplyDelete"प्रमोद रामावत" जी से मिलने और उनकी गजल संग्रह "सोने का पिंजरा" पढ़ने के बाद उनकी सोच और शायरी का मैं प्रशंसक हो गया. अशोक कुमार पाण्डेय जी के ब्लॉग "असुविधा" पर उन्हें
ReplyDeleteनीरज गोस्वामी जी [ ब्लाग नीरज ] ने भी पढ़ा तो फिर एक सिलसिला ही चल निकला. प्रमोद
रामावत जी भी उसी वर्ग के रचनाकार हैं जो रचनाकर्म में लीन रहते रचित को अधिक से
...अधिक पाठकों तक पहुंचाने के उपक्रम नहीं कर पाते. इस प्रयास में नीरज जी का सहयोग और स्नेह अमूल्य है. शुक्रिया आपको.
हाँ नीरज जी,मेरा ईमेल आईडी sameer.yadavsp@gmail.com तथा sameer.sps02@gmail.कॉम है.
ReplyDeleteComment received through e-mail:-
ReplyDeleteलोग वतन तक खा जाते हैं, इसका इसे यकीन नहीं
मान जाएगा, तू ले जाकर दिल्ली इसे दिखा ला दोस्त
Ab dilli bhi kya dikhana, TV hi dikha raha hai sab kuchh..............
Pramod ji ko hamari hardik shubhkamanayein.
Chandra Mohan Gupta
एक रिश्ता है हंसी का, आंसुओं के साथ
ReplyDeleteजिस तरह रातें जुड़ी हैं, जुगनुओं के साथ.... नीरज भाई साहब सुन्दर ग़ज़ल हैं खास तौर पर यह शेर तो दिल को छू गया...
....एक रिश्ता है हंसी का, आंसुओं के साथ
जिस तरह रातें जुड़ी हैं, जुगनुओं के साथ.....
और उनका परिचय भी.. अभी फ़ोन करके मंगवाता हूँ उनकी किताब..
Comment received through mail:-
ReplyDeleteshri neerraj ji
thnks for snding such a good intro of a new book of shri pramod ji
it is really worth reading.
some time, drop in here, if possible,
regds,
-om sapra, delhi-9
मेरे पास अलफ़ाज़ नही समीर जी आपके लिए | क्योकि प्रमोद जी को तो रूबरू सबसे आप ही ने करवाया | मालिक आपको हमेशा हमदर्द रखे |
ReplyDeleteबहुत सुंदर.
ReplyDeleteनीरज जी, यूं तो पेश किया गया पूरा कलाम दिल में उतरने वाला है...
ReplyDeleteसत्य कहने की ज़रुरत अब नहीं है दोस्तों
झूठ को गाली बको तुम, देवता हो जाओगे
तुम तरक्की के लिए. आगे बढ़ो या मत बढ़ो
तुम तो बस पीछे धकेलो, क्या से क्या हो जाओगे
ये दो शेरों को बार बार पढ़ता रहा हूं...देखें कब तक ये सिलसिला चलता है.
bahut hi badhiya...saare sher kamaal ke hain.
ReplyDeleteकिताबो गजल से आपकी मोहब्बत देख आपकी तबियत का अंदाजा लगता है.........कभी मौका मिले तो कमलेश्वर के बारे में लिखी उनकी पत्नी गात्री कमलेश्वर की किताब पढ़िए .....
ReplyDelete"हम तो कोरे कागज़ भर थे, अपना था बस दोष यही
ReplyDeleteतुमने पर अखबार बना कर, हम को खूब उछाला दोस्त"
बस इस एक शेर के बिना पर पूरी किताब खरीदी जा सकती है। संपर्क किया जायेगा आज ही प्रमोद साब से...
अभी-अभी प्रमोद जी से बात हुई...मजा आ गया! आपको पता नहीं नीरज जी आप कितने पुण्य का काम कर रहे हैं इस किताबों को, इन अद्भुत शायरों को हमसब से मिलवा कर!!!
ReplyDeleteगडरिये हो गए हैं, इन दिनों सब मौलवी पण्डे
ReplyDeleteउतारी जा रही है, आदमी की ऊन सड़कों पर
क्या गज़ब का शेर है ... नीरज जी आप तो हीरे जैसे शेर निकाल कर लाये हैं प्रमोद जी के ....
बहुत शुक्रिया इस किताब से मिलवाने का ...
प्रमोद जी बहुत ही नायाब शायर हैँ । पुस्तक की समीक्षा अच्छी लगी । नीरज जी आप समीक्षा के माध्यम से शायरोँ से परिचय करा रहे है । ये बहुत ही उल्लेखनीय कार्य है । आभार जी !
ReplyDelete" सितारा कहूँ क्यूँ ? चाँद है तू मेरा.........गजल "
बहुत सुंदर प्रस्तुति भाई नीरज जी बधाई |आपकी ग़ज़ल भी बहुत खूबसूरत है |दोनों ही कमेन्ट एक साथ कर रहा हूँ |
ReplyDeleteबड़ा धारदार व दमदार लेखन, परिचय का आधार।
ReplyDeleteउम्र भर आंसू पिये शायद इसी से अब
ReplyDeleteप्यास में भी तिश्नगी जैसा नहीं लगता
बहुत ही खूबसूरत शेर !
प्रमोद जी से मिलवाने के लिए शुक्रिया !
aise nayaab shayer se milvane ke liye aabhar.
ReplyDeleteप्रमोद जी की शायरी गजब की है और नीरज जी का यह प्रयास कि अच्छे गीतकारों और गजलकारों को सामने लाना वाकई में प्रशंसनीय है। कृपया इस कार्य में लगे रहिए क्योंकि आज के जमाने में दूसरों को सामने लाने का काम कम लोग करते हैं। अनेक साधुवाद ।
ReplyDeleteप्रमोद जी की शायरी की सारी खूबसूरती सीधे-सीधे वार करते कटाक्षों में छुपी है। आपका शौक जिस तरह से औरों की मदद कर रहा है, वह भी एक विचित्र आनंदानुभव है।
ReplyDeleteकहा जाता है कि हीरे की परख जौहरी ही करता है ..और जो अच्छा गोताखोर होता है वही मोती निकलता है ..आप दोनों हैं ..आपका यह कार्य सराहनीय है ..धन्यवाद
ReplyDeleteएक और शायर से मुलाक़ात का धन्यवाद.
ReplyDeleteधन्यवाद प्रमोद जी से परिचय करवाने के लिये और सुन्दर समीक्षा के लिये। अथाह सागर मे से मोटी ढूँढ कर हमे भेंट करना इसके लिये धन्यवाद।
ReplyDeleteहम तो कोरे कागज़ भर थे, अपना था बस दोष यही
ReplyDeleteतुमने पर अखबार बना कर, हम को खूब उछाला दोस्त
बहुत खूब.. प्रमोद जी की शायरी से हमारा परिचय करने के लिए धन्यवाद।
बहुत अच्छा परिचय कराया आपने। आपकी जय हो, विजय हो! अब किताब का जुगाड़ करते हैं।
ReplyDeleteअपनी किताब कब छपा रहे हैं! छपा ली है तो बताइये भी न!
आभार का प्रयास..
ReplyDeleteसम्मानीय मनीषियों,
सादर अभिवादन !
मेरे अशआर आप तक पहुंचें, आपको अच्छे लगे.आपने उनकी सराहना करके मेरी हौसला अफ़जाई की, उसके लिए मैं आप सबके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करूँ, इस सबसे पूर्व अपने अतिप्रिय अनुजतुल्य समीर यादव जो एस.डी.ओ.[ पुलिस ] मनासा नीमच हैं, का जिक्र अनिवार्य रूप से करना चाहता हूँ. वे मुझे आप तक पहुँचाने की प्रक्रिया के मेरुदंड हैं. उन्होंने अपने पिता श्री बुधराम यादव को समर्पित ब्लॉग "मनोरथ" में मेरी रचनाओं को पोस्ट किया. इससे पहले सार्वजनिक होने का मैंने अपनी ओर से कभी कोई प्रयास नहीं किया. अनेक पत्र पत्रिकायें मुझे सम्मानपूर्वक छापना चाहती किन्तु उन्हें गजलें भेजना भी मेरे स्वभाव में नहीं है. मंच मदारियों और गवैयों के हाथ लग गये हैं इसलिए मैंने उधर से पीठ कर ली. मैं तो बस लिख कर इतिश्री कर लेता हूँ.
1962 में गजल के साथ जीने-मरने का अलिखित अनुबंध हुआ और मैं अपना काम कर रहा हूँ. मेरे कुछ मित्र मानते थे कि मैं अभिशप्त हूँ और मेरा लेखन यूँ ही डायरियों में दफ़न रहेगा. कहीं पहुंचेगा नहीं किन्तु अब यह अभिशाप खंडित हो रहा है. फेसबुक तथा ब्लॉग में मुझे पढ़कर अशोक कुमार पाण्डेय जी ब्लॉग "असुविधा", नीरज गोस्वामी जी ब्लॉग "नीरज" , और गौतम राजर्षि जी सहित जितने भी गजल प्रेमियों ने टिप्पणियाँ की हैं, मैं उनका अनुग्रही हो गया हूँ.
यह कहना चाह रहा हूँ कि गजल या कविता समय गुजारने और मनोरंजन करने का साधन मात्र कतई नहीं है, हर शेर चिंतन का बीज होता है. यदि उसे किसी संवेदनशील तथा उर्वर मन में बोया गया तो समय का खाद-पानी उसे अंकुरित करके ही रहेगा. यदि हमारा लेखन अगली पीढ़ी के लिए कोई सन्देश नहीं छोड़ता, किसी परिवर्तन की प्रस्तावना नहीं रचता तो हम अपना और दूसरों का समय बरबाद कर रहें हैं. तो तय है कि हम साहित्य के शत्रु हैं. कबीर और तुलसी के वंश को कलंकित करने का हमें क्या अधिकार है ? हमें अपना महत्त्व तथा सामाजिक उत्तरदायित्व समझना ही चाहिए. यह दायित्व-बोध ही हमारा मूल्य निर्धारित करता है. साहित्यकार वस्तुतः युगपुरुष होता है और उसका लेखन समाज की दिशा तय करता है.प्रत्येक रचना रचनाकार की प्रतिकृति होती है जिसके भीतर वह स्वयं उपस्थित रहता है. ऐसे में रचना पढ़कर पाठक रचनाकार की मनोदशा का अनुमान लगाता है.
मेरा सदैव प्रयास रहा है कि मैं अपने लेखन में कमोबेश इसी राष्ट्रधर्म का पालन कर सकूं. आपने मेरे इसी प्रयास को अपना उदार आशीर्वाद प्रदान किया है. इसके लिए मैं आत्मीयतापूर्वक आपका आभार व्यक्त करते हुए आपके सदभाव के लिए कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ.
स्नेहाकांक्षी ...
प्रमोद रामावत "प्रमोद"
२३-०२-२०११
“गडरिये हो गए हैं, इन दिनों सब मौलवी पण्डे
ReplyDeleteउतारी जा रही है, आदमी की ऊन सड़कों पर”
प्रमोद जी की गज़लों से रूबरू होना काफी सुखद अहसास रहा..काफी धारदार और आक्रोश भरी हैं उनकी ग़ज़लें. उनके लेखन के लिए ढेर सारी शुभकामनाएँ.
नीरज जी,
ReplyDeleteएक और हीरा आप की झोली से निकला है
जिसकी चमक से आँख फिर चुधिया गई ।
रामावत जी कासबसे सामयिक शेर,
फिर वोही मक्कार चेहरे, वोट मांगेंगे
आप दरवाज़े पे रहिये, झाडुओं के साथ
बाकी भी सब कमाल के ।