सब को अपना हाल सुनाना, ठीक नहीं
औरों के यूँ दर्द जगाना, ठीक नहीं
हम आँखों की भाषा भी पढ़ लेते हैं
हमको बच्चों सा फुसलाना, ठीक नहीं
ये चिंगारी दावानल बन सकती है
गर्म हवा में इसे उडाना, ठीक नहीं
बातों से जो मसले हल हो सकते हैं
उनके कारण बम बरसाना, ठीक नहीं
बच्चों को अपना बचपन तो जीने दो
यूँ बस्तों का बोझ बढ़ाना, ठीक नहीं
ज़िद पर अड़ने वालों को छोडो यारो
दीवारों से सर टकराना, ठीक नहीं
देने वाला घर बैठे भी देता है
दर दर हाथों को फैलाना, ठीक नहीं
सोते में ही ये मुफलिस मुस्काता है
'नीरज' इस को अभी जगाना, ठीक नहीं
(इस ग़ज़ल को,बिना छोटे भाई तिलक राज कपूर जी की मदद के, इस रूप में लाना मुमकिन नहीं था."धन्यवाद" शब्द उनके इस सहयोग के लिए बहुत छोटा है)
अद्भुत! सुबह-सुबह पढ़कर धन्य हो गए. जब भी आते हैं सबकुछ यादगार ही लेकर जाते हैं. मिष्टी की फोटो ने चार चाँद लगा दिए हैं.
ReplyDeleteबेहतरीन, नीरज जी, ऐसी ही मिलती जुलती आपकी एक और सुन्दर कविता मैंने करीब डेड-दो साल पहले भी पढी थी !
ReplyDeleteसुन्दर कविता हमेशा की तरह..आभार
ReplyDeletebahut sunder rkhe apane bhav.........abhar
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन रचना बन पड़ी है। बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteबच्चों को अपना बचपन तो जीने दो
ReplyDeleteयूँ बस्तों का बोझ बढ़ाना, ठीक नहीं
कहीं पढ़ा था
आज देखो हो गया बालक कितना सस्ता,
पाँच किलो का खुद है, दस किलो का बस्ता ।
बेहतरीन्…………………लाजवाब्……………शानदार्।
ReplyDeleteक्या बात है नीरज साहब ! एक बेहतरीन बात कही जी आपने। आपको और तिलक जी को भी बधाई।
ReplyDeleteMishtiki pyari-si tasveer aur yah rachana..wah!
ReplyDeleteसब को अपना हाल सुनाना, ठीक नहीं
ReplyDeleteऔरों के यूँ दर्द जगाना, ठीक नहीं
सोते में ही ये मुफलिस मुस्काता है
'नीरज' इस को अभी जगाना, ठीक नहीं
आरंभ और अंत बेमिसाल....
बेहद सुंदर!
ReplyDeleteबहुत ही श्रेष्ठ, बधाई।
ReplyDeleteनीरज जी ,नमस्कार,
ReplyDeleteबहुत उम्दा ग़ज़ल है ,मतला ही उस लिफ़ाफ़े की तरह है जिसे देख कर मज़मून समझ में आ जाए ,बहुत ख़ूब !
ये चिंगारी दावानल बन सकती है
गर्म हवा में इसे उडाना, ठीक नहीं
बातों से जो मसले हल हो सकते हैं
उनके कारण बम बरसाना, ठीक नहीं
बहुत सच्ची बात कही है आप ने ,
बच्चों को अपना बचपन तो जीने दो
यूँ बस्तों का बोझ बढ़ाना, ठीक नहीं
बच्चों की व्यथा को आप ने बहुत सुंदरता से पाठकों के समक्ष रखा है
इस सुंदर रचना के लिए बधाई
बहुत ही अच्छी और सामयिक ग़ज़ल है... और चिंताएं एवं सुझाव भी बेहद इमानदार है...
ReplyDeleteफुर्सत में एक बात आयें यहाँ---
http://knkayastha.blogspot.com/2010/04/blog-post.html
E-mail received from Ankur:
ReplyDelete" सोते में ही ये मुफलिस मुस्काता है
'नीरज' इस को अभी जगाना, ठीक नहीं "
Good night !!
अरे बिटिया जेसे पूछ रही हो..... देखो अंकल मेरा वजन ज्यादा है या मेरे बस्ते का...
ReplyDeleteवेसे होना युं चाहिये कि बच्चो की कापियो की जगह हर स्व्जेकट के लिये एक दो पेज हो होम वर्क के लिये, जब होम वर्क पुरा हो तो उस पेज को चेक करने के बाद एक फ़ाईल मै लगा दे, ओर हर विषय की अलग अलग फ़ाईल हो... आधा वजन कम हो जायेगा. अभी बच्चा पुरे साल की कापियां साथ मै ठोता है...
कविता तो बहुत सुंदर है मगर बिटिया की मासुमियत उस से भी प्यारी लगी
बच्चों को अपना बचपन तो जीने दो
ReplyDeleteयूँ बस्तों का बोझ बढ़ाना, ठीक नहीं
लाजवाब ... नीरज जी आपको पढ़ना हमेशा सुकून देता है ... ताज़ा शेर आपकी ख़ासियत है ... शिल्प मे तो आप मास्टर हैं ही ... पूरी ग़ज़ल पढ़ कर मज़ा आ गया बहुत ही ...
सीधी काम की बातें शानदार तरीके से !
ReplyDeletebahut khub
ReplyDeleteachi rachana
shkehar kumawat
http://kavyawani.blogspot.com/
वाह, बहुत खूब कहा है। बस्तों का बोझ बहुत कम होना ही चाहिए।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
सरकार का नाम लेना तो ठीक न होगा लेकिन एक वाकया बच्चों पर पुस्तकों के बोझ से संबंधित है, कहे बिना नहीं रुक पाउँगा।
ReplyDeleteबच्चों पर किताबों का बोझ बहुत अधिक हो गया है इसपर विचार कर किताबों का बोझ कम करने का एक नायाब तरीका एक विद्वान मंत्रीजी ने निकाला कि दो-दो तीन-तीन विषयों को मिलाकर एक पुस्तक में कर दिया जाये। विषयवार पठन सामग्री कम किये बिना अमल भी हो गया।
मुझे आज तक समझ नहीं आया कि बोझ कम हुआ या बढ़ गया। ये कोई गणित का सवाल नहीं है, आप भी हल कर सकते हैं।
फोटो सेशन के लिये नीरज भाई साहब ने मिष्ठी को एक नया बस्ता भेंट किया है तभी वह इतना बोझ उठा कर भी सामान्य है।
बच्चों को अपना बचपन तो जीने दो
ReplyDeleteयूँ बस्तों का बोझ बढ़ाना, ठीक नहीं
बेमिसाल की क्या मिसाल
बहुत ही बेहतरीन रचना बन पड़ी है। बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteहम आँखों की भाषा भी पढ़ लेते हैं
ReplyDeleteहमको बच्चों सा फुसलाना, ठीक नहीं
..........अद्भुत ।
nice
ReplyDeleteवाह नीरज जी फिर से सिक्स सर लगा दिया।
ReplyDeleteबच्चों को अपना बचपन तो जीने दो
यूँ बस्तों का बोझ बढ़ाना, ठीक नहीं
इस शेर से अपनी बॆटी की बात याद आती है जो हर रोज कहती पापा जी गोदी ले लो बैग भारी है। फिर मैं कहता हूँ कि बैग मुझे दे दो तो मना करती है। क्योंकि उसको बैग टाँगना अच्छा लगता है। वैसे गजल बहुत खूब लिखी है।
आदरणीय नीरज सर,
ReplyDeleteआपकी ग़ज़लों के पानी में आपके सुन्दर विचारों का सुन्दर प्रतिबिम्ब झलकता है. काश ऐसी ही सुलझी हुई, संवेदनशील और समझदार सोच सबकी होती.
E-mail received from Dr.Bhoopendra Ji:--
ReplyDeleteबहुत सुंदर बहर के साथ कही ग़ज़ल /उम्दा ग़ज़ल के लिए हार्दिक धन्यवाद
सस्नेह
Dr.bhoopendra
Rewa M.P
सब को अपना हाल सुनाना, ठीक नहीं
ReplyDeleteऔरों के यूँ दर्द जगाना, ठीक नहीं
वाह नीरज जी, बहुत खूब....
हम आँखों की भाषा भी पढ़ लेते हैं
हमको बच्चों सा फुसलाना, ठीक नहीं
हासिले-ग़ज़ल शेर लगा
बहुत ही श्रेष्ठतम रचना.
ReplyDeleteरामराम
बच्चों को अपना बचपन तो जीने दो
ReplyDeleteयूँ बस्तों का बोझ बढ़ाना, ठीक नहीं
बेशकीमती बात कही है नीरज जी ।
सुन्दर रचना ।
अपने तीन साल के बेटे को यही सोचकर इस बार एडमिशन नहीं करवाया। एक साल और मौज करले, फिर तो बोझ ही उठाना है।
ReplyDeleteसुंदर कविता बन पड़ी है।
" सोते में ही ये मुफलिस मुस्काता है
ReplyDelete'नीरज' इस को अभी जगाना, ठीक नहीं "
छा गये, नीरज साहब।
बहुत बढ़िया।
बातों से जो मसले हल हो सकते हैं
ReplyDeleteउनके कारण बम बरसाना, ठीक नहीं
बच्चो के बसतो से लेकर दुनिया के हर मसलो पर आपकी सोच का अंदाज़ और उस की अभिव्यक्ति लाजवाब है. अर्थपूर्ण शायरी.
-mansoor ali hashmi
http://aatm-manthan.com
पूरी ग़ज़ल शानदार ! सारे अश्आर बेहतरीन !
ReplyDeleteख़ास तौर से ये …
ये चिंगारी दावानल बन सकती है
गर्म हवा में इसे उडाना, ठीक नहीं
बातों से जो मसले हल हो सकते हैं
उनके कारण बम बरसाना, ठीक नहीं
बच्चों को अपना बचपन तो जीने दो
यूँ बस्तों का बोझ बढ़ाना, ठीक नहीं
और इस शे'र में व्यक्त ख़ुद्दारी बहुत भायी ।
देने वाला घर बैठे भी देता है
दर दर हाथों को फैलाना, ठीक नहीं
आप जयपुर रहे हैं ,
शायद राजस्थानी भाषा समझ लेते होंगे ।
इसी मिज़ाज का मेरा लिखा राजस्थानी दोहा
आपकी शान में -
घर-घर, दर-दर जाय क्यूं, म्हैं फैलावूं हाथ!
माथै रो कांईं करूं ? नाक कट्यां' हे नाथ !!
- राजेन्द्र स्वर्णकार
ज़िद पर अड़ने वालों को छोडो यारो
ReplyDeleteदीवारों से सर टकराना, ठीक नहीं ...bilkul theek ...
बहुत ही बेहतरीन रचना.
ReplyDeletebachpan ki tarah masoom aur bahut hi pyaari gazal hai...dil khush ho gaya. muskura uthe ham...aap jab bhi likhte hain aisa hi khoobsoorat likhte hain.
ReplyDeleteहमेशा की तरह ... लाजवाब.
ReplyDeleteE-mail received from Shukla Ji:--
ReplyDeleteRespected Neeraj Jee,
Bahut sundar rachana ban padi hai.
Aap aur Kapoor Sahab bahut hee achchhe vichar pathkon ke samne
rakhte hain.
Sahitya premiyon ke liye to ye Murli ki dhun jaisi hai aur sahitya premi gwaal-baal...Aap ki hi tarz par...
"Gwaal-Baal Sun Daudh padhe murli ki dhun"
Aur Jin logon ka kavya jagat aur sahitya se door-door tak koyee rishta naheen wo to bas ek bhains ki tarah hain...
Phir, aap ki hi tarz par...doosree line un ke liye...
"Bhains Ke Aage Been Bajana Theek Naheen"
Bahut bahut mubaraq...
Satish Shukla"Raqeeb"
E-mail received from Gurudev Pran Sharma JI:--
ReplyDeleteACHCHHEE GAZAL KE LIYE BADHAAEE.YE SHER KHOOB HAI---
BAATON SE BHEE MASLE HAL SAKTE HAIN
UNKE KAARAN BAM BARSAANA THEEK NAHIN
-- PRAN SHARMA
बच्चों को अपना बचपन तो जीने दो
ReplyDeleteयूँ बस्तों का बोझ बढ़ाना, ठीक नहीं
नीरज जी आपने बिलकुल मेरे दिल की बात कह दी
स्कूल खुल गए है और हम दूकान में जब १२ किलो १५ किलो का बण्डल बाँध कर कापी किताब अभिवावक को देते है तो उसे उठा कर अभिवावक जिस बेचारगी से हमारी तरफ देखते है बस जी मुस्कुरा कर रह जाते है ,,,कुछ कहते नहीं
बहुत अच्छी ग़ज़ल है.
ReplyDeleteबच्चों को अपना बचपन तो जीने दो
यूँ बस्तों का बोझ बढ़ाना, ठीक नहीं
-और ये हाल सभी बच्चों का है क्या करें!
पूरी गज़ल बहुत अच्छी है
ReplyDeleteमतले और मक्ते का शेर तो लाज़वाब है।
नीरज जी बहुत बढ़िया रचना...बेहतरीन भाव और शब्द तो हैं ही कमाल के....प्रभावी ग़ज़ल के लिए ढेरो सारी बधाई
ReplyDeleteशानदार गज़ल..और बिटिय रानी मिष्टी की तस्वीर देख दिन बन गया....
ReplyDeleteजाने क्यूँ...
हमेशा देर कर देता हूँ मैं आने में..
E-mail received from Ratan Kumar -Newzealand.
ReplyDeleteMaja aa gaya. .Neeraj Uncle..
Mishti ki kya amazing pic lagayi hai aapne.. wah .. sooooo cute..
.
ReplyDelete.
.
बेहतरीन…………………लाजवाब……………शानदार !
अति सुन्दर गजल !
एक अर्से के बाद कुछ मन को भाता पढ़ने को मिला...
बहुत-बहुत आभार,
आज दिन अच्छा बीतेगा मेरा!
ये चिंगारी दावानल बन सकती है
ReplyDeleteगर्म हवा में इसे उडाना, ठीक नहीं
बातों से जो मसले हल हो सकते हैं
उनके कारण बम बरसाना, ठीक नहीं
बच्चों को अपना बचपन तो जीने दो
यूँ बस्तों का बोझ बढ़ाना, ठीक नहीं
---------पूरी ग़ज़ल सुन्दर है.
कुछ ऐसी ही एक ग़ज़ल मैंने भी कही है, इसी रदीफ़ पर, आपको जल्द सुनाऊंगा..
शुक्रिया!!
नमस्कार नीरज जी,
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत मतला और जिस अंदाज़ से कहा गया है उसकी तारीफ करने के लिए लफ्ज़ नहीं हैं.
मतले को बारहां पढ़ के मन झूम रहा है,
सब को अपना हाल सुनाना, ठीक नहीं
औरों के यूँ दर्द जगाना, ठीक नहीं
मिष्टी की फोटो ने इस शेर की कीमत कई गुना और बड़ा दी.
बच्चों को अपना बचपन तो जीने दो
यूँ बस्तों का बोझ बढ़ाना, ठीक नहीं
वाह, एक आम बात को बहुत अच्छे से पिरोया है...........
ज़िद पर अड़ने वालों को छोडो यारो
दीवारों से सर टकराना, ठीक नहीं
जैसे मतले की तारीफ के लिए लफ्ज़ नहीं मिल रहे थे वैसे ही परिस्थिति मकते के साथ भी है, एक मासूम सा ख्याल एक खूबसूरत शेर कि शक्ल में निखार गया है, एक बेहतरीन शेर..........जिसका कोई जवाब नहीं, सलाम आपको.
सोते में ही ये मुफलिस मुस्काता है
'नीरज' इस को अभी जगाना, ठीक नहीं
सोते में ही ये मुफलिस मुस्काता है
ReplyDelete'नीरज' इस को अभी जगाना, ठीक नहीं!
आपको पढना जैसे -गंगा की मंथर निर्मल
शीतल गति ! एक अनोखा सुकून ! मेरी कविता
को आपने पसंद किया ! मेरे पास धन्यवाद के शब्द नही हैं !
ऐसा लगता है जैसे झरने पर से किसी पत्थर हटा दिया !
जनाबे नीरज साहिब
ReplyDeleteआपकी नई नवेली ग़ज़ल का हर शेर कारी के साथ
गुफ्तो शनीद करता दिखाई देता है कवि ने जिंदगी के
फलसफे को उजागर किया है और अपने नायक को नींद
में मुस्कराने के लिए आमादा कर लिया है वोह उसे दीवारों
पे सर टकराने की इजाज़त भी नहीं देता हिंदी के शब्दों ने
ग़ज़ल की रूह को बड़े सकून से सहलाया है दुलारा है
और ग़ज़ल मुस्करा रही है
हम तो बहुत ख़ुश थे तुझे दिल से भुला कर
देखा तो तिरी याद का हर ज़ख्म नया है
चाँद शुक्ला हदियाबादी
डेनमार्क
सोते में ही ये मुफलिस मुस्काता है
ReplyDelete'नीरज' इस को अभी जगाना, ठीक नहीं
बहुत हृदयस्पर्शी रचना है ! विशेष रूप से यह बंदिश दिल को गहराई तक छू गयी !
http://sudhinama.blogspot.com
http://sadhanavaid.blogspot.com
नीरज जी, बहुत ही सुंदर ग़ज़ल है. इसी काफिये पर पवन जी ने भी एक ग़ज़ल लिखी थी जिसका पहला शेर था-
ReplyDeleteयूँ तो हर पल इन्हें भिगोना ठीक नही
लेकिन आँख का बंजर होना ठीक नही.
ग़ज़ल के शेरों में आपने अपने समय के कई ज्वलंत प्रश्नों को उठा कर पाठकों को सोचने पर मजबूर किया है. ढेर सारी बधाई.
ये चिंगारी दावानल बन सकती है
ReplyDeleteगर्म हवा में इसे उडाना, ठीक नहीं
बहुत सुन्दर गज़ल है नीरज जी. बहुत से लोग इस समय चिंगारियां उड़ाने का ही काम कर रहे हैं.
सहज और सुंदर भावों से परिपूर्ण लगी ये रचना...
ReplyDeletepahli baar aapko padha. aap ki ye rachna bahut acchhi lagi. badhayi.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कविता !!
ReplyDelete______________
'पाखी की दुनिया' में इस बार माउन्ट हैरियट की सैर करना न भूलें !!
पहले तो इतनी खूबसूरत फोटो ही दिल ले लेती है..फिर यह ग़ज़ल..उसमे भी यह शे’र हमारे वक्त के सबसे समझदार माने जाने वाले लोगों की समझ पर सवालिया निशान लगाता है..
ReplyDeleteबातों से जो मसले हल हो सकते हैं
उनके कारण बम बरसाना, ठीक नहीं
और इन बढ़ते वजन वाले बस्तों मे है क्या..माँ-बाप की ही बढ़ती उम्मीदों और अनर्गल अपेक्षाओं का बोझ..कि बस्ते बढ़ते जाते हैं और बचपन छोटा होता जाता है..
kya khoobsurati bilkul satya baat kah di aapne par is par sabhi amal karen to baat bane.
ReplyDeleteये चिंगारी दावानल बन सकती है
गर्म हवा में इसे उडाना, ठीक नहीं
बातों से जो मसले हल हो सकते हैं
उनके कारण बम बरसाना, ठीक नहीं
बहुत सच्ची बात कही है आप ने ,
बच्चों को अपना बचपन तो जीने दो
यूँ बस्तों का बोझ बढ़ाना, ठीक नहीं
poonam
Neeraj ji bahut hi kam shabdon me apne bahut hi badi baat kahi.
ReplyDeleteबातों से जो मसले हल हो सकते हैं
उनके कारण बम बरसाना, ठीक नहीं
yah line wakai me bahut sahi hai.
ise me nacsal samsya ke liye dekhti hun.
.
बच्चों को अपना बचपन तो जीने दो
यूँ बस्तों का बोझ बढ़ाना, ठीक नहीं
yah line bhi sahi hai...
bahut hi acchi lagi yah post..
aapko bahut sari shubhkamnayen.
बहुत बढ़िया लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!
ReplyDelete///////////////////////////////////
ReplyDeleteइसे "टी" न कहिए यही शुध्द है "घी"।
विचारों की जो चेतना आपने दी॥
बहुत खूबसूरत कलम है चलाई॥
बधाई.....बधाई.....बधाई....बधाई!!
सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी
///////////////////////////////////
आपकी रचना के समर्थन में एक
हिंदी टप्पा नज़र करता हूँ-
इस पढ़ाई से बड़ों-बड़ों की हालत हो गई खस्ता।
पाँच किलो के शिशु के ऊपर बीस किलो का बस्ता॥
कि मैं कोई झूठ बोलया?
कि मैं कोई कुफ़र तोलया?
कि मैं कोई जहर घोलया?
भाई कोई ना,भाई कोई ना,भाई कोई ना,
कितनी सीधी, सदा, सच्ची बातें बहुत अच्छा लगा पढ़ कर ......... आप की गजल बेहतरीन है.
ReplyDeleteबच्चों को अपना बचपन तो जीने दो
ReplyDeleteयूँ बस्तों का बोझ बढ़ाना, ठीक नहीं
कित्ती सुन्दर बात कही ..अच्छा लगा.
************
'पाखी की दुनिया में' पुरानी पुस्तकें रद्दी में नहीं बेचें, उनकी जरुरत है किसी को !
वाह....
ReplyDeleteपहले की तरह आज भी पढ़कर नतमस्तक हूँ मै.....
हर बार एक सोच दी है आपकी नज्मो ने.........
बातों से जो मसले हल हो सकते हैं
ReplyDeleteउनके कारण बम बरसाना, ठीक नहीं ।
पूरी की पूरी रचना खूबसूरत पर ऊपर वाला बहुत ही सामयिक ।
सोते में ही ये मुफलिस मुस्काता है
ReplyDelete'नीरज' इस को अभी जगाना,theek nahin...
DOOG MORNING.............
:)
उलझन में डाल देते हैं आप नीरज जी...अब बताइये हम ग़ज़ल की तारीफ़ करें कि क्योट मिष्टी की?
ReplyDeleteनीरज भाई, आप नाचीज़ का जर्रा बराबर ख्याल नहीं रखते. इस गजल को पढने के बाद मुझ पर बिजली सी गिर पड़ी. अभी तक सदमे में डूबा हुआ हूँ. आप से ऐसी उम्मीद कभी नहीं थी. लेकिन जब बुरे दिन आते हैं तो साया भी साथ छोड़ जाता है. आपने भी वही किया.
ReplyDeleteमैं ईर्ष्या जल-भुन कर खाक होने के कगार पर हूँ. आप ऐसी नायब गजलें कहेंगे, उन्हें पोस्ट भी करेंगे, फिर खाकसार को पूछेगा कौन? कुछ तो ध्यान रखा होता, उम्र में भी छोटा हूँ, ब्लोगिंग में भी जूनियर हूँ, फिर आप तो जाने-माने, प्रतिष्ठित शायर हैं. इस नाचीज़ की पहचान बन जाने से आपका कोई नुकसान थोड़ी हो जाता.
अब तो सिर्फ गाता फिर रहा हूँ--------
जो दर्द मिला अपनों से मिला, गैरों से शिकायत कौन करे
जो जख्म दिया, फूलों ने दिया, काँटों से शिकायत कौन करे.
itni behtrin ghazal padke !
ReplyDeleteChup-Chap chle jana, tik nhi !!
अरे वाह, कसम से न बताते तो आपकी फोटो देखकर हम समझते कि ग्रेड केनियन में घूम रहे हैं.
ReplyDeleteअब तो पक्का समझो कि अगली भारत यात्रा में समीर लाल धमक रहे हैं आपके पास माथेरन जाने के लिए.
आप खुद ही जिम्मेदार हैं ऐसा वृतांत देकर हमारे धमकने के लिए. :)
झेलो झेलो भाई.. हमें...:)
बेहतरीन रचना...
ReplyDeletehttp://rohitler.wordpress.com
हम आँखों की भाषा भी पढ़ लेते हैं
ReplyDeleteहमको बच्चों सा फुसलाना, ठीक नहीं