आज जिस किताब का जिक्र मैं कर रहा हूँ वो मेरे फ्लेट की खिड़की तरह ही है जिसमें जिंदगी के अलग अलग मंज़र नज़र आते हैं. आम जिंदगी के सुख दुःख को खूबसूरती से समेटती किताब "आँखों में कल का सपना है" जिस के शायर हैं जनाब "अमर ज्योति 'नदीम'". इस किताब की सबसे बड़ी खासियत है इसकी भाषा, बिना कलिष्ट शब्दों का आडम्बर ओढे जिंदगी के सारे रंगों को बेबाकी से प्रस्तुत करती है .
दीवारों का ये जंगल जिसमें सन्नाटा पसरा है
जिस दिन तुम आ जाते हो, सचमुच घर जैसा लगता है
उसका चर्चा हो तो मन में लहरें उठने लगती हैं
उसका नाम झील में गिरते कंकर जैसा लगता है
पानी, धूप, अनाज जुटा लूं
फिर तेरा सिंगार निहारूं
दाल खदकती, सिकती रोटी
इनमें ही करतार निहारूं
तेज़ धार ओ' भंवर न देखूं
मैं नदिया के पार निहारूं
खेत में बचपन से खुरपी फावडे से खेलती
उँगलियों से खून छलके, मेंहदियाँ कैसे लिखें
हर गली से आ रही हो जब धमाकों की सदा
बांसुरी कैसे लिखें , शहनाइयाँ कैसे लिखें
दूर तक कांटे ही कांटे, फल नहीं, साया नहीं
इन बबूलों को भला अमराइयाँ कैसे लिखें
कभी शाम को ट्यूशन पढ़ कर घर आने में देर हुई तो
चौके से देहरी तक कैसी फिरती थी बोराई अम्मा
भूला नहीं मोमजामे का रेनकोट हाथों से सिलना
और सर्दियों में स्वेटर पर बिल्ली की बुनवाई अम्मा
बासी रोटी सेंक चुपड़ कर उसे परांठा कर देती थी
कैसे थे अभाव, और क्या क्या करती थी चतुराई अम्मा
बच्चा एक तुम्हारे घर भी कचरा लेने आता है
कभी किसी दिन, उसके सर पर, तुमने हाथ फिराया क्या ?
बिटिया है बीमार गाँव में, लिक्खा है - घर आ जाओ
कैसे जाएँ! घर जाने में, लगता नहीं किराया क्या?
इस किताब में आपको कचरा बीनने वाले बच्चे, तेज धूप में रिक्शा हांकते इंसान, परेशानियों से झूझते बेरोजगार, धर्म और देश के ठेकेदार, लफ्फाजी और चापलूसी करने वाले लेखक, किसान, फुटपाथ पर जिंदगी बसर करते लोग सभी अपनी दास्ताँ सुनाते मिल जायेंगे. ये किताब हमारे आज के हिन्दुस्तान की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करती है.
महकते गेसुओं के पेच-ओ-ख़म गिनने से क्या होगा
सड़क पर घूमते बेरोजगारों को गिना जाये
वो मज़हब हो, की सूबा हो, बहाना नफरतों का है
वतन में दिन-ब-दिन उठती दिवारों को गिना जाये
कोई कहता है 'गाँधी का वतन' तो जी में आता है
कि गाँधी की अहिंसा के शिकारों को गिना जाये
"आँखों में कल का सपना है" किताब को "अयन प्रकाशन, 1/20, महरौली, नयी दिल्ली ने प्रकाशित किया है. .इस किताब का विमोचन इक्कीस जून को पदम् भूषण श्री गोपाल दास 'नीरज' जी ने किया था.(देखें चित्र) आप में से बहुत से लोग शायद न जानते हों की जनाब "अमर ज्योति 'नदीम' " साहेब का अपना ब्लॉग "random rumblings" है जिसमें समय समय पर वो अपनी रचनाओं से हमें नवाजते हैं. अमर साहेब ने अग्रेजी और हिंदी में एम्. ऐ.करने के बाद अंग्रेजी भाषा में पी.एच.डी. भी की है आप अलीगढ में रहते हैं. उनसे आप 09756720422 नंबर पर संपर्क कर इस किताब के लिए बधाई दे सकते हैं.
शुरू से आखिर तक एक से बढ़ कर एक कमाल के अशआरों से भरी इस किताब को पढना एक सुखद अनुभूति है. सिर्फ 86 ग़ज़लों में नदीम साहेब ने सारी दुनिया समेट दी है. इस से पहले की मैं अगली किताब की खोज पर निकलूं 'नदीम' साहेब का शुक्रिया अदा करना चाहूँगा जिन्होंने मुझे इस नायाब किताब को तोहफे के रूप में भेजा.
दे दीजियेगा बाद में औरों को मशविरा
फ़िलहाल अपना गिरता हुआ घर समेटिये
फूलों की बात समझें, कहाँ हैं वो देवता
ये दानवों का दौर है, पत्थर समेटिये