Monday, July 27, 2009

किताबों की दुनिया - 14

दोस्तों मैं एक कोलोनी में रहता हूँ जहाँ बहुत सारे फ्लैट्स हैं. जब भी शाम या सुबह मैं अपनी खिड़कियाँ खोलता हूँ तो उसमें से मुझे बाहर बाग़ में खिलते फूल, टूटे पत्ते, सड़क पर सर झुकाए चलते मजदूर, खिलखिलाते बच्चे, परेशानियों को बांटती गृहणियां, भाग कर बस पकड़ते लोग, फेरीवाले, अल्हड चाल में चलती लड़कियां, अपने आपको घसीट कर चलते वृद्ध और भी बहुत से अलग अलग दृश्य नज़र आते हैं. इन खिड़कियों से दिखने वाले दृश्यों की विविधता से ही ये महसूस होता है की मैं एक बस्ती में हूँ किसी बियाबान जंगल में नहीं.




आज जिस किताब का जिक्र मैं कर रहा हूँ वो मेरे फ्लेट की खिड़की तरह ही है जिसमें जिंदगी के अलग अलग मंज़र नज़र आते हैं. आम जिंदगी के सुख दुःख को खूबसूरती से समेटती किताब "आँखों में कल का सपना है" जिस के शायर हैं जनाब "अमर ज्योति 'नदीम'". इस किताब की सबसे बड़ी खासियत है इसकी भाषा, बिना कलिष्ट शब्दों का आडम्बर ओढे जिंदगी के सारे रंगों को बेबाकी से प्रस्तुत करती है .

दीवारों का ये जंगल जिसमें सन्नाटा पसरा है
जिस दिन तुम आ जाते हो, सचमुच घर जैसा लगता है

उसका चर्चा हो तो मन में लहरें उठने लगती हैं
उसका नाम झील में गिरते कंकर जैसा लगता है

छोटी बहर में हर शायर की कोशिश होती है बेहतर शेर कहने की क्यूँ की छोटी बहर में ही शायर का असली कौशल नज़र आता है. कम शब्दों में गहरी बात करना इतना आसान नहीं होता जितना की लगता है.

पानी, धूप, अनाज जुटा लूं
फिर तेरा सिंगार निहारूं

दाल खदकती, सिकती रोटी
इनमें ही करतार निहारूं

तेज़ धार ओ' भंवर न देखूं
मैं नदिया के पार निहारूं

आज हम बहुत बुरे दौर से गुज़र रहे हैं, इंसान इंसान के खून का प्यासा हो रहा है, इंसानियत सिसकती हुई दम तोड़ रही है ऐसे में शायर का दुखी होना जायज़ है. वो ना चाहते हुए भी इनके बारे में लिखने को मजबूर है. शायर आँखें बंद करके आशिक़ और माशूक़ के किस्से नहीं लिख सकता शराब और शबाब की शान में क़सीदे नहीं पढ़ सकता, अपनी इसी मजबूरी को नदीम साहेब के इन शेरों में देखें:

खेत में बचपन से खुरपी फावडे से खेलती
उँगलियों से खून छलके, मेंहदियाँ कैसे लिखें

हर गली से आ रही हो जब धमाकों की सदा
बांसुरी कैसे लिखें , शहनाइयाँ कैसे लिखें

दूर तक कांटे ही कांटे, फल नहीं, साया नहीं
इन बबूलों को भला अमराइयाँ कैसे लिखें

पाठकों को याद होगा की मैंने जनाब "आलोक श्रीवास्तव" साहेब की किताब "आमीन" के बारे में लिखते हुए उनकी मशहूर ग़ज़ल "अम्मा" का जिक्र किया था. इस ग़ज़ल ने आलोक साहेब को बुलंदी पर पहुंचा दिया था. उनकी ग़ज़ल ने 'नदीम' साहेब को भी अम्मा पर लिखने को प्रोत्साहित किया, आईये उनके अम्मा पर लिखे चंद शेरों पर नज़र दौडाएं और दाद दें....

कभी शाम को ट्यूशन पढ़ कर घर आने में देर हुई तो
चौके से देहरी तक कैसी फिरती थी बोराई अम्मा

भूला नहीं मोमजामे का रेनकोट हाथों से सिलना
और सर्दियों में स्वेटर पर बिल्ली की बुनवाई अम्मा

बासी रोटी सेंक चुपड़ कर उसे परांठा कर देती थी
कैसे थे अभाव, और क्या क्या करती थी चतुराई अम्मा

जीवन की त्रासदियों पर हर शायर ने अपने अशआरों में खूब कहा है और अलग अलग अंदाज़ में कहा है. नदीम साहेब के ये शेर पढने के बाद जिस्म में सिहरन पैदा कर देते हैं, आँखें गीली हो जाती हैं . ये एक शायर की सच्ची आवाज़ का असर ही तो है:

बच्चा एक तुम्हारे घर भी कचरा लेने आता है
कभी किसी दिन, उसके सर पर, तुमने हाथ फिराया क्या ?

बिटिया है बीमार गाँव में, लिक्खा है - घर आ जाओ
कैसे जाएँ! घर जाने में, लगता नहीं किराया क्या?

इस किताब में आपको कचरा बीनने वाले बच्चे, तेज धूप में रिक्शा हांकते इंसान, परेशानियों से झूझते बेरोजगार, धर्म और देश के ठेकेदार, लफ्फाजी और चापलूसी करने वाले लेखक, किसान, फुटपाथ पर जिंदगी बसर करते लोग सभी अपनी दास्ताँ सुनाते मिल जायेंगे. ये किताब हमारे आज के हिन्दुस्तान की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करती है.

महकते गेसुओं के पेच-ओ-ख़म गिनने से क्या होगा
सड़क पर घूमते बेरोजगारों को गिना जाये

वो मज़हब हो, की सूबा हो, बहाना नफरतों का है
वतन में दिन-ब-दिन उठती दिवारों को गिना जाये

कोई कहता है 'गाँधी का वतन' तो जी में आता है
कि गाँधी की अहिंसा के शिकारों को गिना जाये

"आँखों में कल का सपना है" किताब को "अयन प्रकाशन, 1/20, महरौली, नयी दिल्ली ने प्रकाशित किया है. .इस किताब का विमोचन इक्कीस जून को पदम् भूषण श्री गोपाल दास 'नीरज' जी ने किया था.(देखें चित्र) आप में से बहुत से लोग शायद न जानते हों की जनाब "अमर ज्योति 'नदीम' " साहेब का अपना ब्लॉग "random rumblings" है जिसमें समय समय पर वो अपनी रचनाओं से हमें नवाजते हैं. अमर साहेब ने अग्रेजी और हिंदी में एम्. ऐ.करने के बाद अंग्रेजी भाषा में पी.एच.डी. भी की है आप अलीगढ में रहते हैं. उनसे आप 09756720422 नंबर पर संपर्क कर इस किताब के लिए बधाई दे सकते हैं.

शुरू से आखिर तक एक से बढ़ कर एक कमाल के अशआरों से भरी इस किताब को पढना एक सुखद अनुभूति है. सिर्फ 86 ग़ज़लों में नदीम साहेब ने सारी दुनिया समेट दी है. इस से पहले की मैं अगली किताब की खोज पर निकलूं 'नदीम' साहेब का शुक्रिया अदा करना चाहूँगा जिन्होंने मुझे इस नायाब किताब को तोहफे के रूप में भेजा.

दे दीजियेगा बाद में औरों को मशविरा
फ़िलहाल अपना गिरता हुआ घर समेटिये

फूलों की बात समझें, कहाँ हैं वो देवता
ये दानवों का दौर है, पत्थर समेटिये




Monday, July 20, 2009

बरसे बदरिया सावन की




मुंबई से मेंरे मित्र श्री देवमणि पांडे जी ने मुझे ई-मेल भेजा जिसे मैं बिना कांट छाँट के आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ. देवमणि जी आयकर विभाग में कार्यरत हैं और ग़ज़ब के गीत ग़ज़लें लिखते हैं, उनके गीत उन्हीं से सुनना एक ऐसा अनुभव है जिसे भुलाना आसान नहीं. चुम्बकीय व्यक्तित्व के मालिक देवमणि जी सच्चे अर्थों में साहित्य के पुजारी हैं.

13 जुलाई को सावन माह का पहला सोमवार था । सावन में तीज का त्योहार मनाया जाता है । राजस्थान में इसे हरियाली तीज और उत्तर प्रदेश में कजरी तीज या माधुरी तीज कहा जाता है । हरापन समृद्धि का प्रतीक है । स्त्रियाँ हरे परिधान और हरी चूड़ियाँ पहनती हैं । हरे पत्तों और लताओं से झूलों को सजाया जाता है । झूले और कजरी के बिना सावन की कल्पना नहीं की जा सकती । हमारे यहाँ हर त्योहार के पीछे कोई न कोई सामाजिक या वैज्ञानिक कारण होता है । कुछ लोगों का कहना है कि बरसात में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है । झूला झूलने से हमें अधिक ऑक्सीजन मिलती है ।

कजरी में प्रेम के दोनों पक्ष यानी संयोग और वियोग दिखाई देते हैं । कभी-कभी इसके पीछे बड़ी मार्मिक दास्तान भी होती है । आज़ादी के आंदोलन का दौर था । शहर में कर्फ़्यू लगा हुआ था । एक नौजवान अपने प्रियतम से मिलने जा रहा था । एक अँग्रेज़ सिपाही ने गोली चला दी । मारा गया । मगर वह आज भी कजरी में ज़िंदा है - 'यहीं ठइयाँ मोतिया हेराय गइले रामा हो...।'

मॉरीशस और सूरीनाम से लेकर जावा-सुमात्रा तक जो लोग आज हिंदी का परचम लहरा रहे हैं, कभी उनके पूर्वज एग्रीमेंट पर यानी गिरमिटिया मज़दूर के रूप में वहाँ गए थे । इन लोगों को ले जाने के लिए मिर्ज़ापुर सेंटर बनाया गया था । वहाँ से हवाई जहाज़ के ज़रिए इन्हें रंगून पहुँचाया जाता था । जहाँ पानी के जहाज़ से ये विदेश भेज दिए जाते थे । बनारस की कचौड़ी गली में रहने वाली धनिया का पति जब इस अभियान पर रवाना हुआ तो कजरी बनी । उसकी व्यथा-कथा को सहेजने वाली कजरी आपने ज़रूर सुनी होगी-

मिर्ज़ापुर कइले गुलज़ार हो ...कचौड़ी गली सून कइले बलमू
यही मिर्ज़ापुरवा से उड़ल जहजिया
पिया चलि गइले रंगून हो... कचौड़ी गली सून कइले बलमू

इस कजरी को शास्त्रीय गायिका डॉ.सोमा घोष जब मुम्बई के एक कार्यक्रम में गा रही थीं तो उनके साथ संगत कर रहे थे भारतरत्न स्व.उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ । उन्होंने शहनाई पर ऐसा करुण सुर उभारा जैसे कलेजा चीरकर रख दिया हो । भाव भी कुछ वैसे ही कलेजा चाक कर देने वाले थे । प्रिय के वियोग में धनिया पेड़ की शाख़ से भी पतली हो गई है । शरीर ऐसे छीज रहा है जैसे कटोरी में रखी हुई नमक की डली गल जाती है -

डरियो से पातर भइल तोर धनिया
तिरिया गलेल जैसे नोन हो... कचौड़ी गली सून कइले बलमू

डॉ.सोमा घोष को स्व.उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ अपनी पुत्री मानते थे । .सोमा जी हर साल उस्तादजी की याद में कार्यक्रम करती हैं । पिछले साल के कार्यक्रम में उन्होंने 'यादें' नामक सीडी रिलीज़ की । उसमें यह लाइव कजरी शामिल है ।
25 साल से मुंबई में हूँ । अपने गाँव में आख़िरी बार जो झूला देखा था उसकी स्मृतियाँ अभी भी ताज़ा हैं । आँख बंद करता हूँ तो झूले पर कजरी गाती हुई स्त्रियाँ दिखाईं पड़ती हैं - 'अब के सावन मां साँवरिया तोहे नइहरे बोलइब ना ।' उन्हीं स्मृतियों के आधार पर लिखे गए तीन गीत आपके लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ ।

महीना सावन का

उमड़-घुमड़ आए कारे-कारे बदरा
प्यार भरे नैनों में मुस्काया कजरा
बरखा की रिमझिम जिया ललचाए
भीग गया तनमन भीग गया अँचरा

सजनी आंख मिचौली खेले बांध दुपट्टा झीना
महीना सावन का
बिन सजना नहीं जीना महीना सावन का

मौसम ने ली है अंगड़ाई
चुनरी उड़ि उड़ि जाए
बैरी बदरा गरजे बरसे
बिजुरी होश उड़ाए

घर-आंगन, गलियां चौबारा आए चैन कहीं ना

खेतों में फ़सलें लहराईं
बाग़ में पड़ गये झूले
लम्बी पेंग भरी गोरी ने
तन खाए हिचकोले

पुरवा संग मन डोले जैसे लहरों बीच सफ़ीना

बारिश ने जब मुखड़ा चूमा
महक उठी पुरवाई
मन की चोरी पकड़ी गई तो
धानी चुनर शरमाई

छुई मुई बन गई अचानक चंचंल शोख़ हसीना

कजरी गाएं सखियां सारी
मन की पीर बढ़ाएं
बूंदें लगती बान के जैसे
गोरा बदन जलाएं

अब के जो ना आए संवरिया ज़हर पड़ेगा पीना

( इस गीत को radiosabrang.com के सुर संगीत में सुना जा सकता है )

सावन के सुहाने मौसम में

खिलते हैं दिलों में फूल सनम सावन के सुहाने मौसम में
होती है सभी से भूल सनम सावन के सुहाने मौसम में ।

यह चाँद पुराना आशिक़ है
दिखता है कभी छिप जाता है
छेड़े है कभी ये बिजुरी को
बदरी से कभी बतियाता है

यह इश्क़ नहीं है फ़िज़ूल सनम सावन के सुहाने मौसम में।

बारिश की सुनी जब सरगोशी
बहके हैं क़दम पुरवाई के
बूंदों ने छुआ जब शाख़ों को
झोंके महके अमराई के

टूटे हैं सभी के उसूल सनम सावन के सुहाने मौसम में

यादों का मिला जब सिरहाना
बोझिल पलकों के साए हैं
मीठी सी हवा ने दस्तक दी
सजनी कॊ लगा वॊ आए हैं

चुभते हैं जिया में शूल सनम सावन के सुहाने मौसम में


बरसे बदरिया (लोकधुन पर आधारित)

बरसे बदरिया सावन की
रुत है सखी मनभावन की

बालों में सज गया फूलों का गजरा
नैनों से झांक रहा प्रीतभरा कजरा
राह तकूं मैं पिया आवन की
बरसे बदरिया सावन की

चमके बिजुरिया मोरी निंदिया उड़ाए
याद पिया की मोहे पल पल आए
मैं तो दीवानी हुई साजन की
बरसे बदरिया सावन की

महक रहा है सखी मन का अँगनवा
आएंगे घर मोरे आज सजनवा
पूरी होगी आस सुहागन की
बरसे बदरिया सावन की


(मुंबई की एक काव्य गोष्ठी में देवमणि जी कविता पाठ करते हुए.)

रचनाएँ पसंद आने पर पाठक श्री देवमणि जी को सीधे ही इस पते पर धन्यवाद प्रेषित कर सकते हैं
M : 98210-82126 / R : 022 - 2363-2727
Email : devmanipandey@gmail.com

Monday, July 13, 2009

एक और संयुक्त प्रयास :"उस गली की रातरानी, भूल जा"


कुछ बातें अचानक ऐसी हो जातीं हैं जिनके होने के बाद लगता है कमाल हो गया. एक ग़ज़ल पर काम कर रहा था कुछ शेर बनते फिर उसके बाद दिमाग काम करना बंद कर देता था. किसी तरह खुदा खुदा करके ग़ज़ल मुकम्मल हुई तो उसे गुरुदेव पंकज सुबीर जी के पास इस्लाह के लिए भेजा. जैसा की मुझे उम्मीद थी वो ही बात हुई. गुरुदेव ने कुछ शेर पसंद किये और कुछ सिरे से खारिज कर दिए, और कहा की खारिज किये गए शेरों को सुधार कर फिर से लिखिए. खारिज कीगये शेर फिर से लिखे लेकिन वो फिर से खारिज हो गए. ये सिलसिला चलता रहा. तंग आ कर गुरु देव ने कहा देखिये मैं कुछ शेर उधाहरण के लिए इसी रदीफ़ काफिये पर दे रहा हूँ ताकि आपको पता चले की मैं आपसे क्या चाहता हूँ.

शेर आये मैंने पढ़े और गुरुदेव से बिनती की मुझे इन शेरों को उनके नाम से ही ग़ज़ल के रूप में प्रस्तुत करने की इजाज़त दें. गुरुदेव ने कहा ऐसा करते हैं की हम दोनों मिल कर अपने अपने शेर चुनते हैं और एक ग़ज़ल संयुक्त प्रयास से कहते हैं. प्रस्तुत है वोही ग़ज़ल जिसका एक शेर (लाल रंग वाला)गुरुदेव का है और एक मेरा(नीले रंग वाला).सिर्फ ग़ज़ल का मकता ही हम दोनों ने मिलकर लिखा है .

मित्रो उम्मीद है की संयुक्त प्रयास से किये गए ग़ज़ल लेखन के इस प्रयोग को आप सभी सुधि पाठक पसंद करेंगे और अपनी कीमती राय से अवगत करवाएंगे.

हर नदी में हो रवानी, भूल जा
बिन दुखों के जिंदगानी, भूल जा

पायेगा मेहनत का फल ही सिर्फ तू
कुछ मिलेगा आसमानी, भूल जा

याद करने से जिन्हें तकलीफ हो
वो सभी बातें पुरानी, भूल जा

अब कोई खुश्‍बू वहां रहती नहीं
उस गली की रातरानी, भूल जा

रोटियां देकर कहा ये शहर ने
गांव की अब रुत सुहानी, भूल जा

कह रहा विज्ञान, पत्‍थर हैं वहां
चांद पर बैठी है नानी, भूल जा

भीड़ है ये झूठ की इसमें तेरा
साथ देगी सच बयानी, भूल जा

शहर भी कव्‍वों का है और दौर भी
भूल जा कोयल की बानी, भूल जा

जिस्‍म की गलियों में उसको ढूंढ अब
इश्‍क वो कल का रुहानी, भूल जा

उसने ख़त में जो लिखा वो याद रख
जो कहा उसने जुबानी, भूल जा

खिल रहे 'पंकज' या 'नीरज' देख वो
है मलिन पोखर का पानी, भूल जा

( मकते में प्रयुक्त 'पंकज' और 'नीरज' का अर्थ कमल का फूल है )

Monday, July 6, 2009

किताबों की दुनिया - 13

(आज गुरु पूर्णिमा के पावन पर्व के पूर्व दिवस पर मैं अपनी पोस्ट समर्पित करता हूँ अपने परम आदरणीय गुरुजनों श्री प्राण शर्माजी, श्री पंकज सुबीर जी और श्री देवेन्द्र द्विज जी को ,जिनसे मुझे अभी तक रूबरू मिलने का सौभाग्य नहीं मिला लेकिन जिनकी अमृत वाणी और शब्दों का संबल हमेशा मिला है. आज मैं जो कुछ भी कहने का साहस कर पाता हूँ ये सब उन्हीं की बदौलत है.इश्वर से प्रार्थना करता हूँ की उनका आशीर्वाद सदा मुझ पर यूँ ही बना रहे.)

*****

मुसलसल* हादसे, टूटन, घुटन, खामोश पछतावे
मैं अपनी पुरखुलुसी** की बड़ी कीमत चुकाता हूँ
मुसलसल*=लगातार
पुरखुलुसी**=सच्चाई से भरा व्यवहार

निहायत सादगी, बेहद शराफत, गहरी हमदर्दी
ये डसते हैं मुझे अक्सर, मैं अक्सर तिलमिलाता हूँ

मैं बहुत उलझन में था, इस किताब को ना जाने कितनी बार हाथ में लिया पढ़ा और रख दिया. समझ ही नहीं आ रहा था की क्या करूँ. आप ही बताईये जिस किताब की हर ग़ज़ल बेहतरीन हो उसमें से कौनसी छोडूँ कौनसी रक्खूं ये तय करना कितना मुश्किल काम है. एक ग़ज़ल चुनता तो दूसरी कहती "हम से का भूल हुई जो ये सजा हम का मिली....". आखिर ये तय किया की आँख बंद कर के इस किताब के सफ़हे पलटूंगा और जो सफहा खुलेगा उस पर छपी ग़ज़ल में से ही एक आध शेर चुन लूँगा. नतीजा आपके सामने है.

मैं जिस किताब का जिक्र कर रहा हूँ उसका नाम है "नका़ब का मौसम" और शायर हैं जनाब "योगेन्द्र दत्त शर्मा" जी



योगेन्द्र जी की शायरी खूबसूरत लफ्जों में हम सब की दास्तान ही कहती है, कभी प्यार से दुलार से तो कभी फटकार से. अपने शेरों से वो हमें चौंकाते भी हैं और हर्षित भी कर जाते हैं, शब्द प्रयोग की एक बानगी देखिये...

हम जुड़े,पर अवान्छितों की तरह
पाए वरदान शापितों की तरह

हम उपेक्षित हैं गो की सम्मानित
फ्रेम में हैं सुभाषितों की तरह

दिग्विजय की महानता ढोते
जी रहे हैं पराजितों की तरह

डस गए सांप की तरह सहसा
जो थे कल तक समर्पितों की तरह

कवि कथाकार के रूप में चर्चित और बहुत से सम्मानों से सम्मानित,श्री योगेन्द्र जी पिछले पैंतीस सालों से साहित्य साधना कर रहे हैं. आपके चार कविता संग्रह, एक कहानी संग्रह और एक ग़ज़ल संग्रह छप कर प्रशंशा प्राप्त कर चुका है, उसी ग़ज़ल संग्रह की बात हम कर रहे हैं.

ग़ज़ल में हिंदी शब्दों का प्रयोग अब कोई नयी बात नहीं रह गयी है योगेन्द्र जी ने ग़ज़ल में शब्द यूँ पिरोये हैं की वे भरती के नहीं लगते बल्कि ये एहसास करवाते हैं की जो बात उस शेर में कही जा रही है उसे कहने के लिए वो ही शब्द बिलकुल सही है.

चांदनी, जंगल, मरुस्थल, भीड़, चौराहे, नदी
हर कहीं हिरनी बनी भटकी हुई है जिंदगी

टूटने का दर्द तुमको ही नहीं है आइनों
जिस्म के इस फ्रेम में चटकी हुई है जिंदगी

चुप्पियों के इस शहर में ऊंघती निस्तब्धता
छटपटाहट एक आहट की, हुई है जिंदगी

आप उनकी शायरी में जिंदगी जीने के हुनर ढूंढ सकते हैं. वो आपको सलाह भी देते हैं और आज के हालत पर सोचने को मजबूर भी करते हैं...बिना भारी बोझिल शब्दों का सहारा लिए उनके बात कहने का अंदाज़ मोह लेता है:

आ, कि अब मृतप्राय-से-इतिहास को जिन्दा करें
आदमियत के दबे एहसास को जिन्दा करें

सांस है तो आस है - कहते चले आए बुजुर्ग
चल, कि जीने, के लिए अब आस को जिन्दा करें

रेत में प्यासे हिरन को जिंदा रखता है सराब
वास्तविक चाहे न हो, आभास को जिन्दा करें

ऐसे मौसम में, जहाँ सच बोलना दुश्वार हो
मौन रहने के कठिन अभ्यास को जिन्दा करें

सब से खास बात इस किताब की ये है की इसमें कोई भूमिका नहीं है, किसी गणमान्य शायर या साहित्यकार की टिपण्णी नहीं है न ही किसी की शुभकामनाएं हैं. सीधी सादी इस किताब में आज का धड़कता वजूद है और वो भी अपने पूरे रंग में. आप ही बताईये जिस किताब की ग़ज़ल में ऐसे शेर हों उसे किसी सहारे या फिर आर्शीवाद की जरूरत पड़ेगी? धारदार सवाल हैं जो हमें, आप और हर संवेदन शील इंसान को व्यथित कर देते हैं :

हर तरफ अंधी सियासत है, बताओ क्या करें ?
रेहन में पूरी रियासत है , बताओ क्या करें?

झुंड पागल हाथियों का, रौंदता है शहर को
और अंकुश में महावत है, बताओ क्या करें?

जुल्म की दिलकश अदाएं, रेशमी रंगीनियाँ
गिड़गिड़ाती-सी बगावत है, बताओ क्या करें?

आँख में अंगार, मन में क्षोभ, साँसों में घुटन
ये बुजुर्गों की विरासत है, बताओ क्या करें?

बात कहने की उनकी इसी अनूठी विधा को अब जरा छोटी बहर में भी निहारें...और देखें की कम लफ्जों में कैसे असर पैदा किया जा सकता है:

सोच कर बोलता हूँ मैं सबसे
बात करने का अब मज़ा न रहा

हाय वो जुस्तजू , वो बेचैनी
बीच का अब वो फासला न रहा

अब चला है वो तोड़ने चुप्पी
जब कोई उसपे मुद्दआ न रहा

किताब घर प्रकाशन वालों ने मात्र पचास रुपये में, जिसे आप डिसकाउंट मांग कर पैंतालीस भी कर सकते हैं, शायरी की इस किताब को छाप कर हम पाठकों पर बहुत बड़ा उपकार किया है. "आर्य स्मृति साहित्य सम्मान" से सम्मानित इस ग़ज़ल संग्रह को प्रत्येक ग़ज़ल प्रेमी को पढना चाहिए. किताब के कवर पर छपी इस बात को नकारना इसे पढने के बाद असंभव है की: "इस संग्रह की ग़ज़लों में एक पूरम पूर जीवन की दमक और दिव्यता का काव्यांकन है तथा साथ ही गहन नियति के परिणाम स्वरुप धुंधलाते-बुझते असंख्य दीपो का खामोश क्रंदन भी, जो की जीवन की निजी और सार्वजनिक बोली है."

साथियों इस से पहले की मैं शायरी की अगली किताब खोजने चलूँ आपको योगेन्द्र जी की एक ग़ज़ल के चंद शेर पढ़वाता हूँ इस उम्मीद से की इन्हें पढ़ कर शायद आप इस किताब को खरीदने से अपने आप को ना रोक पायें:

हर कदम पर एक कौमी गीत गाते जाइये
मुफलिसों की खाल का जूता बनाते जाइये

ज़िन्दगी की तल्ख़ कीमत हम चुकायेंगे मगर
आप इस तकलीफ का ज़ज्बा भुनाते जाइये

पीजिये रंगीन मौसम की महक वाला अरक
वक्त का कड़वा ज़हर हमको पिलाते जाइये

कामयाबी का है ये नुस्खा इसे मत भूलिए
आप जिस सीढ़ी चढ़े, उसको गिराते जाइये

जैसा मैंने शुरू में ही कहा था की इस किताब में से आपके लिए शेर छांटना मेरे लिए बहुत मुश्किल काम था फिर भी मैंने किया और ये मैं ही जानता हूँ की इस ईमानदार कोशिश के बावजूद, मैं आपको कितने ही और दूसरे खूबसूरत शेर नहीं पढ़वा पाया हूँ, उम्मीद है आप मेरी मजबूरी समझते हुए मुझे माफ़ करेंगे और योगेन्द्र जी के इन शेरों को हमेशा अपने साथ रख कर मेरा मन ही मन शुक्रिया भी अदा करेंगे.

जिन्हें सुने तो कोई बेनकाब हो जाये
किसी से भूलकर ऐसे सवाल मत करना

उसूल*, दोस्ती, ईमान, प्यार, सच्चाई
तुम अपनी ज़िन्दगी इनसे मुहाल** मत करना

उसूल* = सिद्धांत, मुहाल = कठिन