इंतज़ार में कम्पित हो कर थकी आँख के खुले कपाट
पलकें झुकी नज़र शरमाई बड़े दिनों के बाद यहाँ
कैसी पूनो ये आई है महारास के रचने को
फिर चरणों ने ली अंगडाई बड़े दिनों के बाद यहाँ
मन के सूनेपन में कूकी आज कहीं से कोयलिया
मोरों से महकी अमराई बड़े दिनों के बाद यहाँ
है वैसी की वैसी इसमें परिवर्तन तो नहीं हुआ
आज ये दुनिया क्यूँ मन भाई बड़े दिनों के बाद यहाँ
दुःख में तो रोतीं थी अक्सर रह रह कर आतुर आँखें
सुख में भी कैसे भर आयीं बड़े दिनों के बाद यहाँ
दोस्तों मैंने शायद पहले भी कभी कहा था की कोई किताब खरीदने से पहले आप उसके चंद पन्ने पलटिये और एक शेर भी अगर कहीं पसंद आ जाये तो खरीदने में देर मत कीजिये. ये "खुशबू उधर ले आये" किताब इस मायने में मेरे कथन से एक कदम आगे रही क्यूँ की किताब के पन्ने पलटते ही जहाँ निगाह ठहरी वहां एक शेर नहीं बल्कि ऊपर दी हुई पूरी ग़ज़ल मिली, जिसका हर शेर लाजवाब लगा. शायर का नाम "उपेन्द्र कुमार" है, जिसे मैंने किताब खरीदने का मानस बनाने के बाद में पढ़ा. मेरी ये आदत है की मैं किताब पहले हाथ में लेता हूँ और पन्ने पलटता हूँ और लेखक का नाम बाद में पढता हूँ, इसका लाभ ये रहता होता है कई बार अनजान लेखकों का लिखा खजाना हाथ लग जाता है.
अब कुछ नहीं तो वार निहत्थों पे कीजिये
ये हक़ तो वर्दियों को मिला है विधान से
सब भागने लगे थे फिर अपने घरों की और
कितने बिदक गए थे वो जलते मकान से
"उपेन्द्र कुमार" साहेब की शायरी पर प्रसिद्द लेखक "कमलेश्वर" इस किताब की भूमिका में लिखते हैं की "मैं प्रगतिवादी हूँ-गलत हूँ या सही हूँ-यह तो वक्त ही बताएगा, पर समय की शिला पर जब लेखन और संवेदना का इतिहास परखा जायेगा, तो हिंदी में लिखी जा रही ग़ज़ल अपनी पहचान और उपस्तिथि दर्ज करेगी और इस उपस्तिथि में उपेन्द्र कुमार की गज़लें भी शामिल रहेंगी.....उपेन्द्र कुमार की ग़ज़लों में वह सब मौजूद है जो हमारे दिलो-दिमाग को कचोटता है और वे सारे सवाल मौजूद हैं जो संवेदी दिल से अपने उत्तर मांगते हैं "
भटकन त्याग, छुई है देहरी किस जोगी के पांवों ने
फिर से चाँद उतर आया है घर के रौशनदानों में
तुमसे बिछुडे तो सच मानो गुमसुम मन का फूल रहा
और निरंतर रहे भटकते हरे भरे बागानों में
गैरों की राहों से चुनना शूल समर्पित हाथों से
फूल खिला जाता है अक्सर जीवन के सुनसानों में
छोटी बहर में शेर कहने और पढ़ने का अपना मज़ा है, देखिये एक ग़ज़ल के चंद शेर जिन्हें पढ़ कर ग़ालिब साहेब की मशहूर ग़ज़ल याद आ जाती है क्यूँ की इसका रदीफ़ काफिया वही है जो उस ग़ज़ल का था...
बेअसर हो तो फिर दुआ क्या है
चल के रुक जाये तो हवा क्या है
लोग हंसते हुए झिझकते हैं
ये इन्हें रोग सा लगा क्या है
ग़म हैं, मजबूरियां हैं, किस्मत में
फिर ये कोशिश, ये हौसला क्या है
"किताब घर प्रकाशन, 24 अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली -110032" से प्रकाशित मात्र पचास रुपये कीमत की ये किताब अपने शुरू के तीन चार पन्नो में ही अपनी कीमत वसूल करवा देती है बाकि के सत्तर पन्ने तो बोनस के समझिये. सीधे सादे शब्दों में कमाल के शेर भरे पड़े हैं इस किताब में और हिंदी ग़ज़ल के प्रेमियों के लिए तो ये किसी वरदान से कम नहीं.
मन मंदिर में एक ही बुत की भिन्न भिन्न तस्वीरें हैं
यादों की भरमार ने उफ़ ये क्या कुहराम मचाया है
जो पाया था वैसा ही बस इस दुनिया में छोड़ चले
अपनी तरफ से हमने कुछ कब जोड़ा और घटाया है
सितम्बर 1947 को बिहार के बक्सर में जन्में उपेन्द्र ने इंजिनीयरिंग की डिग्री के अलावा विधि में स्नातक की उपाधि प्राप्त की है जो अपने आप में विशेष बात है,189-दीनदयाल मार्ग दिल्ली- 110002 में रहने वाले उपेन्द्र जी ने हिंदी शब्दों का अद्भुत प्रयोग अपनी शायरी में किया है जो विस्मित कर देने वाला है. आखरी में चलते चलते उनके हुनर का ये करिश्मा भी आप देख लीजिये....
कहें वे कुछ, मगर मतलब कुछ उनका और होता है
नए अक्षर, नयी भाषा, नया ही व्याकरण देखा
मशीनी ज़िन्दगी इस शहर की इक कारखाना है
जहाँ हमने स्वयं इंसान ही को उपकरण देखा
इस किताब के बारे में अभी इतना ही...इस से आगे की जानकारी के लिए आप किताब खरीदें और पता करें...सभी कुछ यहाँ बता देंगे तो क्या फिर भी आप इस किताब को खरीदेगें? दिल पर हाथ रख कर जवाब दीजियेगा.... चलिए छोडिये परेशां न हों, हम है ना आपके लिए एक और किताब ढूँढने को.