भेडिओं से खामखा ही डर रहा है आदमी .
काटने से आदमी के मर रहा है आदमी
दुश्मनी की बात करता है कभी मज़हब नहीं
क़त्ल उसके नाम पर क्यों कर रहा है आदमी
प्यार की खुशबू से यारो जो महकता था चमन
अब धुंआ नफरत का उस में भर रहा है आदमी
मिट गया है हर निशां उसका हमेशा के लिए
बिन उसूलों के कभी भी गर रहा है आदमी
कातिलों को दे चुनौती बात "नीरज" तब बने
अब कहाँ महफूज़ अपने घर रहा है आदमी
(आदरणीय प्राण शर्मा साहेब के आशीर्वाद से संवरी ग़ज़ल)
काटने से आदमी के मर रहा है आदमी
दुश्मनी की बात करता है कभी मज़हब नहीं
क़त्ल उसके नाम पर क्यों कर रहा है आदमी
प्यार की खुशबू से यारो जो महकता था चमन
अब धुंआ नफरत का उस में भर रहा है आदमी
मिट गया है हर निशां उसका हमेशा के लिए
बिन उसूलों के कभी भी गर रहा है आदमी
कातिलों को दे चुनौती बात "नीरज" तब बने
अब कहाँ महफूज़ अपने घर रहा है आदमी
(आदरणीय प्राण शर्मा साहेब के आशीर्वाद से संवरी ग़ज़ल)
"प्यार की खुशबू से यारो जो महकता था चमन
ReplyDeleteअब धुंआ नफरत का उस में भर रहा है आदमी"
सच से भरपूर एक बहुत सुंदर रचना, बधाई!
दुश्मनी की बात करता है कभी मज़हब नहीं
ReplyDeleteक़त्ल उसके नाम पर क्यों कर रहा है आदमी
बहुत सटीक और सामयिक कहा आपने !
राम राम !
'काटने से आदमी के मर रहा है आदमी'
ReplyDeletebahut hi sahjta se itni ganbhir baaten apni is ghazal mein kah gaye aap!
bahut khuub!
badhayee!
भेडिओं से खामखा ही डर रहा है आदमी .
ReplyDeleteकाटने से आदमी के मर रहा है आदमी
""उफ़ इन्सान की हैवानियत का कितना सजीव चित्रण "
Regards
बहुत खूब कहा आपने...
ReplyDeleteदुश्मनी की बात करता है कभी मज़हब नहीं
क़त्ल उसके नाम पर क्यों कर रहा है आदमी
ये वो सच है जिसे जानबूझ कर वो नहीं समझना चाहते। वर्ना इतनी आसान सी बात क्या वो नहीं समझते ?
बहुत सामयिक रचना है...सुंदर तो है ही।
ReplyDeleteबहुत सामयिक कविता .... सुंदर भी है।
ReplyDeleteप्यार की खुशबू से यारो जो महकता था चमन
ReplyDeleteअब धुंआ नफरत का उस में भर रहा है आदमी
बिल्कुल सटीक समकालीन रचना। कोई वोट के नाम पर, कोई धर्म के नाम, कोई देश के नाम पर, कोई अपने स्वार्थ के नाम पर ,नफरत का धुंआ भर रहे हैं।
कातिलों को दे चुनौती बात "नीरज" तब बने
ReplyDeleteअब कहाँ महफूज़ अपने घर रहा है आदमी
आह करती हुई ग़ज़ल और बहुत ही बेहतरीन मक्ता उस पर दर्ज कर दिया नीरजजी आपने. क्या कहना ! वाह वाह !
aap ka kya kahana...un logo me hai.n jo kuchh bhi likhe achchha hi hota hai
ReplyDeleteनीरज जी,बहुत ही बेहतरीन गजल है।बधाई स्वीकारे।
ReplyDeleteकातिलों को दे चुनौती बात "नीरज" तब बने
अब कहाँ महफूज़ अपने घर रहा है आदमी
bahut sundar rachana neeraj ji
ReplyDeleteaaj ke desh ke haalat ho ek dum darshati hui rachana..
bahut badhai
vijay
प्यार की खुशबू से यारो जो महकता था चमन
ReplyDeleteअब धुंआ नफरत का उस में भर रहा है आदमी
...........
बहुत खूब......काश !इस नफरत से बाहर निकले आदमी
भेडिओं से खामखा ही डर रहा है आदमी .
ReplyDeleteकाटने से आदमी के मर रहा है आदमी
सच कहा नीरज जी......आदमी अपनी नफरतों में इस कदर मसरूफ है की इबादत घर में इबादते ख़त्म हो रही है......
नीरज जी
ReplyDeleteबधाई, एक और लाजवाब ग़ज़ल के लिए
पूरी ग़ज़ल मैं खूब रवानगी है, हर शेर पर वाह वाह निकलता है मुहं से
भेडिओं से खामखा ही डर रहा है आदमी .
काटने से आदमी के मर रहा है आदमी
दुश्मनी की बात करता है कभी मज़हब नहीं
क़त्ल उसके नाम पर क्यों कर रहा है आदमी
क्या बात है
kamaal likha hai aapne badhaai!
ReplyDeleteप्यार की खुशबू से यारो जो महकता था चमन
ReplyDeleteअब धुंआ नफरत का उस में भर रहा है आदमी
बहुत सही ..बहुत बढ़िया लिखते हैं आप नीरज जी ..
दुश्मनी की बात करता है कभी मज़हब नहीं
ReplyDeleteक़त्ल उसके नाम पर क्यों कर रहा है आदमी
mae gazal ki taareef kar saku is laayak apne ko nahin samjhtee hun par is kae peechay chhupi hui bhavan ki mae bahut kadr kartee hun
kaas ham sab is bhavna ko samjh sake aur is ko aagey lae jaa sakey
niranter likhae neeraj ji easa hi kuch
दुश्मनी की बात करता है कभी मज़हब नहीं
ReplyDeleteक़त्ल उसके नाम पर क्यों कर रहा है आदमी...
बात वाजिब है आपकी.... सवाल सटीक। कब सुधरेंगे ये
बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteनिश्चय ही आदमी आदमी का सबसे बड़ा मित्र है और सबसे बड़ा शत्रु भी।
'काटने से आदमी के मर रहा है आदमी' बहुत खूब !
ReplyDeleteमिट गया है हर निशा उसका हमेशा के लिए
ReplyDeleteबिन उसूलों के कभी भी गर रहा है आदमी
...वाह उस्ताद वाह
ना आंसू बहेंगे आंखों से किसी के
ReplyDeleteगर कटे कोई आदमी आदमी सा
ग़ज़ल का मकता तो मुझे अपने इस शे'र को याद दिलाया है कुछ कुछ . बहोत ही खूब लिखा है आपने नीरज बेहद भावपूर्ण रचना..ढेरो बढ़िया स्वीकारें...
अर्श
सीधी सच्ची बात कही है आपने इस ग़ज़ल में !
ReplyDeleteSatik shabdon me gehri baat.
ReplyDeletebahut umdaa saahab...laazavaab...!!
ReplyDeleteकातिलों को दे चुनौती बात "नीरज" तब बने
ReplyDeleteअब कहाँ महफूज़ अपने घर रहा है आदमी
इस सुंदर गजल के लिये आप का धन्यवाद
इस नफरत की आँधी को कैसे दूर करेँ ?
ReplyDeleteआपने हमेशा की भँति बढिया लिखा है
- लावण्या
'काटने से आदमी के मर रहा है आदमी"
ReplyDeleteआज का कठोर सत्य!
बधाई।
बिल्कुल ठीक कहा आपने..
ReplyDeleteएक सामयिक एवं सार्थक गजल।
ReplyDeleteबहुत खूब...हमेशा की तरह बढ़िया गजल.
ReplyDeleteकातिलों को दे चुनौती बात "नीरज" तब बने
ReplyDeleteअब कहाँ महफूज़ अपने घर रहा है आदमी
क्या बात है सर हकीक़त है आज पहले तो लोग रात को अपने द्वार भी बंद करना भी भूल जाते थे अब बार-बार जाकर चेक करते हैं कहीं कुछ खुला छुट तो नही गया....
शायरी मेरी तुम्हारे ज़िक्र से मोगरे की यार डाली हो गयी...
dhanywaad sabki taraf se......
माला (ग़ज़ल) का हर मोती (शेर) सुंदर है. बधाई !
ReplyDeleteदुश्मनी की बात करता है कभी मज़हब नहीं
ReplyDeleteक़त्ल उसके नाम पर क्यों कर रहा है आदमी
काश कि यह बात लोगों की समझ में आ जाए
वाहवा.... नीरज जी, क्या बात है.... बेहतरीन रचना... आनंद आ गया. बधाई...
ReplyDeleteक्या खूब नीरज जी,
ReplyDeleteआपकी ग़ज़ल बेहद अच्छी है। एक स्थान पत ध्यान दें कि 'निशा' लिख गया है जबकि "निशां" होना चाहिए था शायद। आप लिखते ही अच्छा नहीं बल्कि लिखने वालो को बेहद प्रोत्साहन भी देते जो बेहद सराहनीय है।
नमस्कार नीरज जी,
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल है, हर शेर अपने में उम्दा है.
ज़िंदगी के उसूलों की तरह
ReplyDeleteसाफ़-सुथरी, सुलझी हुई प्रस्तुति.
बधाई नीरज जी.
आप सचमुच कविता में जीने वाले
कलमकार और कलाकार भी है.
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन