भाषा को ले कर अक्सर बवाल उठते रहे हैं लेकिन आदरणीय प्राण शर्मा साहेब ने भाषा को एक बहुत दिलचस्प ग़ज़ल नुमा नज़्म के अंदाज़ में प्रस्तुत किया है. आप भी इसका लुत्फ़ लीजिये और महसूस कीजिये की प्राण साहेब ने अपने हुनर का जलवा दिखाते हुए कितनी सादगी से मादरी जबान ( मदर टंग) की वकालत की है
पहले अपनी बोली बोलो
फ़िर चाहे तुम कुछ भी बोलो
इंग्लिश बोलो रुसी बोलो
तुर्की बोलो स्पेनिश बोलो
अरबी बोली चीनी बोलो
जर्मन बोलो डेनिश बोलो
कुछ भी बोलो लेकिन पहले
अपनी माँ की बोली बोलो
अपनी बोली माँ की बोली
हर बोली से न्यारी न्यारी
अपनी बोली माँ की बोली
मीठी मीठी प्यारी प्यारी
अपनी बोली माँ की बोली
अपनी बोली से नफरत क्यों
अपनी बोली माँ की बोली
दूजे की बोली में ख़त क्यों
अपनी बोली का सिक्का तुम
दुनिया वालों से मनवाओ
ख़ुद भी मान करो तुम इसका
औरों से भी मान कराओ
माँ बोली के बेटे हो तुम
बेटे का कर्तव्य निभाओ
अपनी बोली माँ होती है
क्यों ना सर पे इसे बिठाओ
शुक्रिया नीरज जी ....इसे यहाँ पढ़वाने के लिए .सच कहा आपने जितने भी तरक्की पसंद देश है वे अपनी बोली नही छोड़ते...
ReplyDeleteबढिया प्रेरक रचना है।
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत धन्यवाद इस रचना को यहा प्रकाशित करने के लिए.. सौ फीसदी सही बात है..
ReplyDeleteभाई नीरज जी,
ReplyDeleteप्राण साहब की कविता "मां की बोली" से रू-ब-रू करवाने के लिय धन्यवाद.
पर आर्थिक युग में जहाँ हर कार्य फायदे से जुड़ा है, वंहा जब कि लोग रिश्तों को शर्मिन्दगी का बाना पहनाने से नहीं चूक रहे हैं, वहां "मां की बोली" की परवाह कौन कर रहा है?
आज हम -आप ही भले ही घर में "मां की बोली" में बात करें, पर सोसाईटी में इसी "मां की बोली" को तिरस्कार भरी निगाहों से क्यों कर देखने लग जाते हैं, शायद अपने को महत्वपूर्ण दिखाने का फायदा या अन्य कोई फायदा, पर "आर्थिक युग के फायदे" का डंका ही सर चढ़ कर बोल रहा है, यही अल्पकालिक हकीकत है और यही हमारी सारी बीमारियों, परेशानियों की जड़ भी है, संतोष शब्द तो जैसे शब्दावली से हे नेस्त-न- बूद कर दिया गया है. इसी विषय में मेरी "श्रद्धा" पर लिखी कविता पर गौर फरमाएं :
श्रद्धा
(३९)
कहते हैं कि आज का जीवन
अत्यधिक त्वरित हो गया है
अमन-चैन, भाई-चारा तो अब
आपाधापी को तिरोहित हो गया है
हो सहज ज़रा प्रकृति तो निहारें
बिखेरती स्फूर्ति जो संजोग के सहारे
हो श्रद्धानत सीखोगे जीना संयम से
लगेगा जीवन बाधा रहित हो गया है
चन्द्र मोहन गुप्त
बहुत सुन्दर - पहले मां की बोली।
ReplyDeleteशायद यही प्रेरणा है कि जोड़-तोड़ कर हिन्दी में लिखने लगे हैं।
बहुत सुंदर रचना है. प्राण साहेब ने माँ की बोली का महत्व बखूबी समझाया है.
ReplyDeleteअपनी भाषा में बात करना यानी की दिल की बात करना ..शुक्रिया इसको यहाँ पढ़वाने के लिए
ReplyDeleteइस अच्छी रचना के लिए आभार !
ReplyDeleteइसे यहाँ प्रस्तुत करने का आभार. आनन्द आ गया.
ReplyDeleteBahut hi achha sandesh deti hui rachna
ReplyDeletePran ji ko padhna naseeb ki baat hai
Pran ji ko badhai or is prastuti ke liye aapko sadhuwad.........
ReplyDeleteप्रेरक रचना ,,आभार..
ReplyDeletebahut sundar kavita padhwai aapne...dhanyvaad.
ReplyDeleteमाँ की बोली में ममत्व, मिठास और मान है
ReplyDeleteजो उसे बोले समझ लो वह अदद इंसान है.
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प्राण जी को बधाई....
नीरज जी, आपका आभार.
डा.चन्द्रकुमार जैन
माँ बोली के बेटे हो तुम
ReplyDeleteबेटे का कर्तव्य निभाओ
अपनी बोली माँ होती है
क्यों ना सर पे इसे बिठाओ
"atee sunder, very inspiring"
Regards
मेरे दिल के ज़ख्म वोह सहला गई
ReplyDeleteगुनगुनाती याद माँ की आ गई
चाँद शुक्ला हदियाबादी डेनमार्क
प्राण जी शब्दों के शिल्पकार हैं। इस कविता में भी भावों में शब्दों को नगीने की तरह
ReplyDeleteजड़ दिए हैं। प्राण जी की रचनाओं से नए पुराने कवियों को प्रेरणा तो मिलती है, उन्हें
कुछ सीखने को भी मिलता है। पढ़ कर आनंद-विभोर होगया।
नीरज जी को समय समय पर उनकी रचनाएं पढ़वाने के लिए साधुवाद।
Priy Neerajjee, Pranjee ki is sundar kavita se roo-b-roo karaane ke liye aabhaar.
ReplyDeleteDil kee jagah sil type ho gaya muaf keejiyega.
ReplyDeleteअपनी बोली का सिक्का तुम
ReplyDeleteदुनिया वालों से मनवाओ
ख़ुद भी मान करो तुम इसका
औरों से भी मान कराओ
माँ बोली के बेटे हो तुम
बेटे का कर्तव्य निभाओ
अपनी बोली माँ होती है
क्यों ना सर पे इसे बिठाओ
नीरज जी आप का धन्यवाद इस कविता को हमारे तक पहुचाने का, ओर प्राण जी कॊ भी धन्यवाद, काश सभी भारतीयए ऎसा सोचते.
is rachana se rubaroo karwaane ke liye shukriya...
ReplyDeletebahut hi pyaari rachana ko sach ki aur aankhen kholti hahi..