खार राहों के फूलों में ढलने लगे
याद करके तुझे हम जो चलने लगे
सब नियम कायदे यार बह जायेंगे
इश्क का गर ये दरिया मचलने लगे
दुश्मनों से निपटना तो आसान था
तीर तो अपने घर से ही चलने लगे
घोंसलों में परिंदे थे महफूज़ पर
आसमाँ जब दिखा तो उछलने लगे
बस समझना की उसकी गली आ गयी
साँस रुकने लगे जिस्म जलने लगे
दिल तो बच्चे सा सीधा लगे है मगर
हाल करता है क्या जब मचलने लगे
इतने मासूम हैं हम किसे क्या कहें
फ़िर से बातों में उनकी बहलने लगे
तेरी चाहत का मुझपे असर ये हुआ
दिल में फूलों के गुलशन से खिलने लगे
वक्त का खेल देखो तो 'नीरज' जरा
जिनकी चाहत थे उनको ही खलने लगे
शानदार!
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया.
kya baat hai,kya kahne..........lajawaab
ReplyDeletebahut khuub...
ReplyDeleteनीरज जी, मन के विचार वास्तव में चलायमान होते हैं। यही प्रसन्न करते हैं, यही आशा दिलाते हैं, यही मायूस करते हैं और यही बहलाते हैं।
ReplyDeleteआपकी यह गजल हमें अपने मन की प्रतीत होती है।
दुश्मनों से निपटना तो आसान था
ReplyDeleteतीर तो अपने घर से ही चलने लगे
कॄष्ण बिहारी नूर का एक शेर याद आ गया:
मैं जिसके हाथ में देकर गुलाब आया था
उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है
बहुत खूब नीरज भाई
बेहतरीन, नीरज भाई.
ReplyDeleteघोंसलों में परिंदे थे महफूज़ पर
ReplyDeleteआसमाँ जब दिखा तो उछलने लगे
भला कैसे लिख पाते है आप ऐसा? क्या बात है!!!
वैसे तो सारी ही ग़ज़ल नपी तुली और बा-असर है। ये दो अशा'र बड़े पसंद आये।
ReplyDeleteइतने मासूम हैं हम किसे क्या कहें
फ़िर से बातों में उनकी बहलने लगे
वक्त का खेल देखो तो 'नीरज' जरा
जिनकी चाहत थे उनको ही खलने लगे
बहुत ख़ूब!
bahut khoob "जिनको खलने लगे, उनकी कसम का दम खाली /खुलते अल्फाज़ खिले, हाथ ले साथ टहलने लगे" - सादर -मनीष
ReplyDeleteaaj hi aapka blog dekha.
ReplyDeletebahut sunder rachanaaeyeiN hain.
bahut see badhai.