कहाँ मरजी से अपनी ही कहानी हम बनाते हैं
जब चलना चाहते सीधा तो आगे मोड़ आते हैं
उधर से तुम इधर से कुछ कदम हम भी बढ़ायें
यूँही चलने से सच है फासले कम होते जाते हैं
बहुत गाये हैं हमने गीत लोंगों के लिये अबतक
अभी सोचा है कुछ अपनी लिए भी गुनगुनाते हैं
कशिश उनमें जुदा होती सभी से बात सच्ची है
बिना रिश्ते के जोभी लोग मेरे दिल को भाते हैं
ये बहता खून सबसे कह रहा देखो ओ दीवानों
मुहब्बत की ज़ुबां वालों के सर पे संग* आते हैं
संग* = पत्थर
ना जाने कौन सी दुनिया में बसते लोग हैं ऐसे
जो दूजे की खुशी में झूम कर के गीत गाते हैं
किया महसूस ना हो ग़र तो कोइ जान ना पाये
मजा कितना है रूठा जब कोइ बच्चा मनाते हैं
मेरी ग़ज़लों को पढ़कर दोस्तों ने ये कहा नीरज
किया हमने जो तेरे साथ सबको क्यूं बताते हैं
वाह. अच्छी गजल है. ये मेरी अच्छी किस्मत ही है जब की जब भी खोलता हूँ कंप्युटर आपके पन्ने नज़र आते है.
ReplyDeleteजोर ऐ कलम और ज्यादा.
बहुत ही बेहतरीन गजल है नीरज जी,आप की इस गजल में वो सब है जो एक भावुक दिल का ब्यां होता है।बहुत-बहुत बधाई स्वीकारें।
ReplyDeleteगजल हम आपकी पढ़कर अक्सर सोचते हैं यूँ
ReplyDeleteइतने अच्छे भाव आखिर आप कैसे लेके आते हैं
बहुत बढ़िया, भैया....
ReplyDeleteनहीं लिख पाते हम ऐसी गजल, कोशिश भले कर लें
मगर हम याद रखते हैं औ अक्सर गुनगुनाते हैं
हमारी ज़िंदगी से रोज एक दिन, कम हुआ जाता
ये है किस्मत कि गजलें आपकी, पढ़ने को पाते हैं
उधर से तुम इधर से कुछ कदम हम भी बढ़ायें
ReplyDeleteयूँही चलने से सच है फासले कम होते जाते हैं
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सच है नीरज जी। हम लोग इस तरीके से ही सही; कुछ कदम साथ-साथ ब्लॉग पर चल ही लेते हैं। अब तो फासले लगते ही नहीं।
बहुत बढ़िया!! वाकई!!
ReplyDeletebahut sundar .........
ReplyDeleteनीरजजी
ReplyDeleteआपने मेल कर अपनी ग़ज़लों पे राय माँगी है,लीजिए
अभी नादान हो जानम ग़ज़ल कहना नहीं आता.
वज़न को तोड़ देते हो तुम्हें बहना नहीं आता.
हमारी चोट को कैसे सहोगे ये बताओ तो,
अभी नाज़ुक कमरिया है तुम्हें सहना नहीं आता.
जनाबे आली
आपके मिसरे ऊला में(शेर की प्रथम पंक्ति) का एक रुक्न वज़्न में कम है देखे.
उधर से तुम इधर से कुछ कदम हम भी बढ़ाये.
यहाँ अंतिम बढ़ाये.सिर्फ 122 ही है इसे 1222 होना
चाहिए.इसलिए तो को जोड़ना पड़ेगा.
बात मामूली मेरे लिए नहीं और आपके लिए भी नहीं होनी चाहिए.
जब 1222 मफाईलुन के चार गण इस्तेमाल अन्य जगह हो रहे हैं तो उसका निर्वाह ज़रूरी है.
आप अन्य ग़ज़लों में बहरों के जाने बगैर उपयोग करते हैं तो मैं क्या कहूँ.
ग़ज़ल का मामला संगीत से जुड़ा है जरा सी चूक मज़ा किरकिरा करदेती है.
मैं प्राया ग़ज़ल के नाम पर खेल करने वालों पर चुप ही रहता हूँ.फिर आप लोग सिद्धराज हैं ज्ञानियों की वाहवाही की आदत भी पढ़ गयी होगी.मेरी तल्खियां नागवार गुज़रेंगी.
रही मेरी ग़ज़लों में बालाओं की तस्वीर की बात सो क्या करें बाला तो बाला उनकी अम्माओं ने भी तवज्जों देना बंद कर दिया हैं. क्या करें ऐसे ही काम चला रहे हैं.
फिर हमारे गुजरात में चुनाव का दौर है सरकारी नौकरी मूतने पर आचार संहिता लगी हुई हैं.कही कुछ लिख दिया सीधा ट्राँसफर फिर न जाने कितने वियोग.सो ग़ज़लों से ग़म ग़लत कर रहे हैं.
जनाबे भदौरिया साहेब
ReplyDeleteनश्तर कातिल भी चलाते हैं और सर्जन भी एक जान लेता है और दूसरा जान बचाता है. इसलिए आप का कहना की "मेरी तल्खियां नागवार गुज़रेंगी." कतई जायज़ नहीं है. आप जो नश्तर चलाएंगे तो ग़ज़ल का रूप निखरेगा ही प्लास्टिक सर्जन साहेब.
नीरज