Friday, October 12, 2007

मासूम की मुस्कान




है सख्त हथेली बड़ा दिल जिसका नरम है
उसपर यकीन मानिए मालिक का करम है

लायक नहीं कहलाने के इंसान वो जिसमें
ना सच है ना इमां ना शराफत ना शरम है

इक पत्ता हिलाने की भी ताकत नहीं जिसमें
दुनिया को चलाने का महज़ उसको भरम है

जो चुक गए मजबूर वो सहने को सितम हैं
पर क्यों सहें वो खून अभी जिनका गरम है

महसूस गर किया है तो फिर मान जाओगे
मिटने का अपनी बात पे आनंद परम है

मासूम की मुस्कान में मौजूद है हरदम
तुम उसको ढूढते हो जहाँ दैरो - हरम है

गीता कुरान ग्रन्थ सभी पढ़ के रह गए
"नीरज" ना जान पाये क्या इंसां का धरम है




6 comments:

  1. बहुत बढ़िया, भैया..

    इतने दिनों के बाद....लेकिन इंतजार का फल मीठा होता है....फिर से साबित हो गया.

    ReplyDelete
  2. इक पत्ता हिलाने की भी ताकत नहीं जिसमें
    दुनिया को चलाने का महज़ उसको भरम है
    ---------------------------------

    इतने दिन बाद आये और आते ही हमारा "कर्ता" पन का गुमान धो डाला।
    यह गज़ल तो एक लुहार की है - बीच में हम लोग पोस्ट लिख-लिख सौ सुनार की ठुकठुकाते भर रहे!

    ReplyDelete
  3. बहुत सुंदर, सटीक पर अफ़सोस कि हम जानकर भी इस बात को समझना ही नही चाहते!!

    ReplyDelete
  4. नीरज जी,

    बहुत सुन्दर लिखा है.. सच्चाई यही है.. आपने सुन्दर लफ़्जों में इसे बयान किया है... बधाई

    ReplyDelete
  5. जो चुक गए मजबूर वो सहने को सितम हैं
    पर क्यों सहें वो खून अभी जिनका गरम है


    --बहुत उम्दा. दाद कबूलें.

    ReplyDelete
  6. लायक नहीं कहलाने के इंसान वो जिसमें
    ना सच है ना इमां ना शराफत ना शरम है

    तुसी ग्रेट हो पापाजी !

    ज्ञान भइया की बात सोलह आने सच.

    ReplyDelete

तुझको रक्खे राम तुझको अल्लाह रक्खे
दे दाता के नाम तुझको अल्लाह रक्खे