Wednesday, September 25, 2024

किताब मिली - शुक्रिया - 17


ऐसे तन मन पावन रखना 
दिल में ही वृंदावन रखना 

ठगिनी माया दाग लगाती 
उजाला अपना दामन रखना
*
किसी को भी कभी कमतर न आंकें आज ये कह दो 
समुंदर सूख जाता गर उसे दरिया नहीं मिलता
*
सुकूं पाया उसे यूं याद करने में 
थके पंछी के रस्ते में शजर आया
*
कुर्सी की अदला-बदली है 
लेकिन कहां निशाने बदले 

खेल वही है चौसर का ये 
गोटी के बस खाने बदले
*
मकां बन के रह जाए कभी ये 
अभी हम सब जिस घर बोलते हैं

इसमें कोई संदेह नहीं कि आप तीर्थराज 'पुष्कर' के बारे में जरुर जानते होंगे। वो, राजस्थान के अजमेर शहर के पास एक प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है, लेकिन मुझे इस बात पर जरूर संदेह है कि आप 'पुरातत्व के पुष्कर' के बारे में भी जानकारी रखते हों। 'गणेश्वर धाम' को 'पुरातत्व का पुष्कर' कहा जाता है। गणेश्वर से ताम्र युगीन संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं। यहां की खानों से तांबा लगभग 2800 ईसा पूर्व से याने आज से कोई 4800 वर्ष पूर्व,निकाला जाता रहा है।। यह भी निष्कर्ष निकाला गया है कि हड़प्पा, मोहनजोदड़ो तथा कालीबंगा जैसे विकसित सांस्कृतिक केन्द्रों को भी ताम्र एवं ताम्र सामग्री गणेश्वर से ही प्राप्त होती थी।

आप सोच रहे होंगे कि मैं अचानक गणेश्वर की चर्चा क्यों कर रहा हूं। दरअसल 'गणेश्वर' राजस्थान के 'नीम का थाना' जिले में आता है, हमारे आज के शायर श्री 'राजेन्द्र कुमार टेलर 'राही' भी 'नीम का थाना' के ही निवासी हैं। 'राही' जी का रचनात्मक काम ऐसा है जिसे तांबे की तरह कभी जंग नहीं लगेगा।
राजेंद्र जी का ताजा ग़ज़ल संग्रह ' ये ज़िन्दगी का सफ़र' हमारे सामने है जिसे 2024 में रवीना प्रकाशन, दिल्ली ने प्रकाशित किया है।

राजेंद्र जी की ग़ज़लों का मयार तो उनकी इस किताब से लिए गए चंद अशआर पढ़ कर आप को लग ही जाएगा। उनकी ग़ज़लों का कैनवस विशाल है और ये ग़ज़लें मेरी प्रशंसा की मोहताज नहीं हैं।

ये है मजबूरियां उसकी सियासत में 
जो दीवारें गिराओगे उठा देगा
*
हैं रिश्ते फीके फीके से 
तू लफ़्ज़ों में गुड़़धानी लिख 

इस दुनिया की दुनिया जाने 
ढाई आखर के मानी लिख
*
अब जाने क्यों झगड़े होते हैं इन पर 
मनते आए सब त्यौंहार बराबर 

जनहित के मुद्दों पर कब तक जागेंगे 
यूं पढ़ते हैं सब अख़बार बराबर
*
वो डरता ही नहीं जितना उछालो तुम 
वो बच्चे का यूं अम्मी पे यकीं हूं मैं

कभी मंदिर में ढूंढे औ कभी मस्जिद 
बदन तेरा मकां है औ मकीं हूं मैं
*
जब सही को भी सही कहना हो मुश्किल 
बेबसी ऐसी न देना रब किसी को 

आइए राजेन्द्र जी के बारे में उन्हीं की जबानी जानते हैं। वो लिखते हैं कि :
'ग्रामीण परिवेश में बचपन बीता है। वहां से सादगी, सरलता, अपनापन, श्रमशीलता, सहकार, उदारता, सदाशयता जैसे विचार ग्रहण किये।जो बेचैनी, अंतर्वेदना दिल में महसूस की उसका असर लेखन पर रहा है। ग्रेजुएशन के बाद एम ए के लिए जयपुर आ गया। राजस्थान विश्वविद्यालय से एम ए करना वाक़ई अविस्मरणीय अनुभव रहा।

आदरणीय विश्वम्भरनाथ उपाध्याय सुरेंद्र उपाध्याय जैसे उदभट विद्वान कभी कोई भी नहीं भूल सकता।
बाद में शीघ्र ही राजस्थान लोक सेवा आयोग ने लेक्चरर बना दिया।करीब 22 बरस हिंदी साहित्य पढ़ाया।प्रिंसीपल का दायित्व दिया गया।वहां भी बच्चों के मन पढ़ने का अवसर मिला।

जाने कब लिखने का मन हुआ और एक बार शुरुआत हुई तो अब तक जारी है।खूब लिखा। कविताएं, बच्चों के गीत, लम्बी कविताएं, दोहे, कुण्डलिया, भर्तृहरि के नीति शतक का भावानुवाद भी किया है।

बच्चों के गीत की दो किताबें हैं।उनका अच्छा स्वागत हुआ।मगर मन है कि ग़ज़लों की तरफ बार बार जाता है।ग़ज़लें लिखकर एक खास सुकून मिलता है।

ग़ज़ल की संक्षिप्तता, सांकेतिकता विषय वैविध्य, चौंकाने की प्रवृत्ति, सब उसे लोकप्रिय बनाते हैं। कुछ कहना कुछ छुपाना ग़ज़ल की खासियत रहती है। शेर की दो लाइनों के बीच भी बहुत कुछ ऐसा रहता है जो कहा नहीं गया मगर पाठक महसूस करता है।

अच्छी शायरी वो है जब पाठक पढ़ने के बाद देर तक उसी भावभूमि में में विचरण करे।या कहें कि जेहन में शेर गूंजता रहे।'

ये तेरा प्यार मिसरी के जैसा रहा 
घुल गया है मगर जायक़ा रह गया 

वो नगर थे जो आगे निकलते गए 
मैं रहा गांव जो ताकता रह गया
*
सफ़र इस ज़िंदगी का तुम जरा यूं भी समझ लेना 
बड़ा गहरा है दरिया औ तेरी कश्ती पुरानी है
*
टूट पड़ती है हवा अक्सर पुराने पेड़ पर 
इस ज़माने में जिधर देखो यही किस्सा मिला 
*
ग़ज़ल सी जिंदगी पहले से तय है औ मुकम्मल है 
ये हम नादान हैं जो ख़ामख़ा इस्लाह करते हैं
*
ज़रा पढ़ के कभी यूं छोड़ देना भी अखरता है 
ज़माने में बुजुर्गों का भी बस अखबार हो जाना
*
हवा ने गुफ्तगू की है गुलों से यूं 
है खुशबू को तो आदत ही बिखरने की

[9/24, 6:34 PM] Neeraj: जुलाई 1964 में जन्मे राजेंद्र कुमार टेलर 'राही' जी के साथी श्री 'हितेश व्यास' जी इस पुस्तक के बारे में लिखते हैं कि:
 'राही जी की ग़ज़लों में वर्तमान की नब्ज पकड़ते हुए झूठ का बोलबाला, जड़ों की अनदेखी, नकलियत की बहुतायत, मोबाइल का शिकार बच्चे और उनका बचपन, सब कुछ हड़पने की दिली ख्वाहिश, बाहरी आकर्षण, आत्म केंद्रितता, कमाऊ की हक़ीक़त, वृद्धो की उपेक्षा और अकेलापन आदि खूबसूरती से रेखांकित हुए हैं।'

वर्तमान ग़ज़ल संग्रह से पूर्व राही जी की निम्न कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं , 'अहसास' , 'ये खुशबू का सफ़र' , 'ये दस्तक दिल के दर पर',( सभी ग़ज़ल संग्रह), ये लम्हों का सफ़र (गीत एवं ग़ज़ल संग्रह), 'वक्त की दहलीज पर' (लंबी कविताओं का संग्रह), भर्तृहरि मंजरी (भावानुवाद), 'बच्चों के गीत' भाग एक एवं दो।
इसके अतिरिक्त राही जी की ग़ज़लों को भारत के अनेक राज्यों से प्रकाशित पत्रिकाओं में विशेष स्थान मिला है।उनका एक और ग़ज़ल संग्रह शीघ्र ही प्रकाशन के लिए तैयार है।

इतना कुछ लिख लेने के बावजूद भी 'राही' जी अपने आप को ग़ज़ल का विद्यार्थी ही मानते हैं और लगातार कुछ नया सीखने की कोशिश में लगे रहते हैं।

'ये जिंदगी का सफ़र' ग़ज़ल संग्रह जिसमें राही जी की 69 ग़ज़लें शामिल हैं, पढ़ने के इच्छुक पाठक इस किताब को 'अमेजॉन' से ऑनलाइन मंगवा सकते हैं। आप 'राही' जी को मुबारकबाद देने के लिए आप उनसे 9680183886 पर संपर्क कर सकते हैं।





Wednesday, September 18, 2024

किताब मिली - शुक्रिया -16


लगाया था किसी ने आंख से काजल छुटाकर जो 
मेरे बचपन के अल्बम में वो टीका मुस्कुराता है 

दिया था उनको हामिद ने कभी लाकर जो मेले से 
अमीना की रसोई में वो चिमटा मुस्कुराता है 

किताबों से निकलकर तितलियां ग़ज़लें सुनाती हैं 
टिफिन रखती है मेरी मां तो बस्ता मुस्कुराता है
*
मुझे रदीफ़ बनानी पड़ी उदासी की 
कि काफ़ियों से तो बनना था क्या उदासी का
*
किसी के हाथ में सिक्के कभी नहीं डाले 
जो हाथ ख़ाली थे उनको कुदाल दी मैंने
*
निहारता रहा दरिया वो देर तक बैठा 
फिर उसके बाद उठा और उसी में डूब गया
*
एलान फ़त्ह का न अभी से करें रक़ीब 
ज़ख़्मी हुआ हूं क़ब्र के अंदर नहीं हूं मैं

ये शेर जो आपने अभी पढ़े हमारे आज के शायर की उस किताब से नहीं है जिसकी बात हम करने वाले हैं। अब आप पूंछेंगे ही तो फिर किस किताब से हैं? बताते हैं, ये हमारे आज के शायर की पहली किताब "क्या तुम्हें याद कुछ नहीं आता" से हैं जो 2021 में 'एनी बुक्स' इंदौर से छपी थी और मक़बूल हुई थी। इससे पहले कि आप पूछें हम बता देते हैं कि इन शेरों को पढ़वाने का मक़सद आपको सिर्फ़ युवा शायर 'सिराज़ फ़ैसल ख़ान' की शायरी की बानगी देने का था। 

अपनी पहली किताब से ही हमारे आज की युवा शायर ने अपनी कलम का लोहा मनवा लिया था। जिस युवा शायर को 'मयंक अवस्थी' और 'सर्वत जमाल' जैसे कद्दावर शायरों का मार्गदर्शन मिला हो उसकी शायरी तो पुख़्ता होनी ही है।

हमारे सामने 'सिराज फ़ैसल ख़ान' साहब की दूसरी किताब "चांद बैठा हुआ है पहलू में" खुली हुई है। ये किताब हाल ही में याने इसी साल One Align Publication - Delhi से प्रकाशित हो कर मंजर ए आम पर आई है और धूम मचा रही है। इस किताब को आप अमेज़न से ऑन लाइन मंगवा सकते हैं या प्रकाशक को उनके मोबाइल नंबर 6264443917 पर फोन कर मंगवा सकते हैं।

रात हर कोई बिता लेगा मगर उम्र नहीं 
उसको ये बात समझ आई मगर मेरे बाद
*
मानता हूं नहीं मिली मंज़िल 
दाद दीजे कि चल रहा हूं मैं 
*
ग़ज़ल के फूल अपनी डायरी में टांक देता हूं 
किसी की गोद में बच्चा कोई जब मुस्कुराता है
*
क्यों मरें अश्क बहते हुए हम सहरा में 
आइए पेड़ लगाते हुए मर जाते हैं
*
न जाने उसको सिखाया है किस रक़ीब ने ये 
कि हो ख़फ़ा तो बुके में गुलाब कम कर दे

शहीदों के नगर 'शाहजहांपुर' के गांव 'महानंदपुर' में 10 जुलाई 1991 को 'सिराज' का जन्म हुआ। 'सिराज' अपने पुराने दिनों को याद करते हुए लिखते हैं कि "ना तो घर ना ही गांव में शायरी पढ़ने लिखने का कोई माहौल था और ना ही कहीं साहित्यिक किताबें मिलती थीं। कोर्स की हिंदी की किताबों के अलावा साहित्य पढ़ने के लिए उस वक्त कुछ भी नहीं होता था। ये वो दौर था जब गांव में अख़बार भी नहीं पहुंचते थे। वालिद साहब तहसील में 'संग्रह अमीन' के पद पर कार्यरत थे और वो इतवार का 'अमर उजाला' सोमवार को घर लाया करते थे। साहित्य से मेरा परिचय इस इतवार की अख़बार से हुआ था क्योंकि उस दिन उसमें कहानियां, कविताएं और ग़ज़लें प्रकाशित होती थीं। मैं उन्हें काटकर एक फाइल में रख लेता था। कोर्स की किताबों में मेरी सबसे पसंदीदा किताब हिंदी की होती थी और मैं अपने से बड़े बच्चों की भी हिंदी की किताबें घर लाकर पढ़ा करता था।"

सिराज आगे लिखते हैं की "पांचवी क्लास के बाद मैं शाहजहांपुर चला गया और इस्लामिया इंटर कॉलेज में दाखिला ले लिया यहां मुझे मोइनुद्दीन आजाद मिले जिनकी दिलचस्पी साहित्य में थी। हमने साथ मिलकर बहुत सी किताबें खरीदी।"
साहित्य में उनकी रुचि इस क़दर बढ़ती चली गई की हाई स्कूल में आते-आते उन्होंने अपने हॉस्टल की सीनियर साथियों की भी और एम.ए की अंग्रेजी किताबों तक में शामिल सभी कहानियां, कविताएं गाइड की मदद से पढ़ डालीं।

राहत इंदौरी साहब की किताब 'चांद पागल है' पढ़ने के बाद सब कुछ बदल गया। जैसे बारूद के ढेर में कोई चिंगारी गिरे, ठीक इसी तरह राहत साहब की शायरी ने सिराज की मन को छुआ। वो अपने दोस्तों और सहपाठियों को राहत साहब के शेर सुनाया करते थे। उन दिनों उनकी कॉपियां पर नोट्स कम और राहत साहब के शेर ज्यादा लिखे मिलते थे।

आज ढीला था बाजुओं में वो 
इब्तिदा है ये क्या जुदाई की 
*
उतर जाता है कुछ नोटों पे सब कुछ 
तवायफ़ की अदा क़ानून में है 

वतन दुनिया मैं रुसवा हो रहा है 
रिआया धर्म की पतलून में है
*
अगर मतलब है केवल जीत से तो 
करो पीछे से उस पर वार अब के 

बहुत महंगा पड़ेगा ख़ूं बहाना 
कि हैं मज़लूम भी तैयार अब के 
*
फिर कोयले सुलग उठे उसके ख़्याल के 
फिर आज मैं घुटन में बहुत देर तक रहा
*
जाने कब के मर गए होते बिछड़ कर उससे हम 
'मीर' के शेरों ने जीने के वसीले कर दिए

सिराज अपनी इस किताब की भूमिका में आगे लिखते हैं कि "मैं अपने आसपास जो घटित होते देखता था या अखबारों में पढ़ता था वो मेरी शायरी का हिस्सा बनता चला गया। इसके चलते अक्सर मुझे कई लोगों के मैसेज मिला करते थे कि मैं जो लिख रहा हूं वह ग़ज़ल नहीं है बल्कि ग़ज़ल की रवायत से खिलवाड़ है। कई बार इस तरह के मैसेज मुझे डिमोटिवेट भी करते थे लेकिन मैं खुशनसीब रहा कि मुझे "मयंक अवस्थी" भाई और "सर्वत जमाल" साहब का साथ और मार्गदर्शन मिला जिन्होंने मेरी रचनात्मकता को किसी दायरे में सीमित नहीं किया और ना ही हिंदी उर्दू ग़ज़ल के बंटवारे में उलझने दिया।"

उर्दू के मशहूर शायर जनाब "हसीब सोज़" साहब लिखते हैं की "नई नस्ल के शायरों की एक लंबी फेहरिस्त है मगर कभी-कभी कोई नाम इस तरह चौंकाता है कि मजबूरन पन्ने पलटना पढ़ते हैं। 'सिराज फ़ैसल ख़ान' उन्हीं शायरों में शामिल हैं जिनके लिए पन्ने पलटना पढ़ते हैं।"

अपनी तरह के अकेले लाज़वाब शायर जनाब 'मयंक अवस्थी' साहब ने इस किताब की भूमिका में लिखा है की "जिस तरह एक फूल सिर्फ पंखुड़ियां और खुशबू का जोड़ नहीं है बल्कि उससे अधिक है ठीक उसी तरह ग़ज़ल के शेर के दो मिसरों के बीच अगर शायर खुद मौजूद नहीं है तो उसकी शायरी भावानुवाद से अधिक कुछ नहीं होती और मुझे फ़ख़्र है कि सिराज अपनी शायरी में अपने इब्तिदाई दौर से ही मौजूद था। मुकम्मल मिसरों की टहनियां, पत्ते पत्ते, बूटे बूटे में मिज़ाज का तसलसुल,जदीदियत की कोंपलें ,सड़क पर चलने वाले लफ़्ज़ों को ऐशो इशरत की छांव अता करना अपने अशआर में और पूरी ग़ज़ल में शेरियत की फ़ज़ा क़ायम रखने के हुनर ने सिराज को बेहद खूबसूरत शायरी का दरख़्त बना दिया है।

सिराज खूबसूरत शायरी ही नहीं करते बल्कि बेखौफ हो कर ऐसे तमाम लोगों को गरियाते भी हैं जो इंसानियत के दुश्मन हैं। मुहब्बत में यकीन रखने वाले युवा सिराज फेसबुक के अपने चाहने वालों के ही नहीं बल्कि इस दौर के कद्दावर शायरों के भी चहेते हैं।
"चांद बैठा हुआ है पहलू में" से पहले उनकी नज़्मों की किताब 'परफ्यूम' बहुत चर्चित हो चुकी है।
'सिराज' जी को आप उनकी बेहतरीन ग़ज़लों के लिए 
+91 76686 66278 पर फोन कर मुबारकबाद दे सकते हैं।

इसका नहीं मलाल उन्हें ख़ुद ना उठ सके 
उनको ख़ुशी ये है कि मुझे भी गिरा दिया 

ये डर भी इब्तिदा से मोहब्बत में साथ है 
इक रोज़ तुम कहोगी मुझे तुमने क्या दिया
*
पहले पहल तो सबने दिखाई बड़ी ही फ़िक्र 
कुछ दिन में ऊब हर कोई बीमार से गया 
*
बात तो कोई बची नहीं है कहने को 
फिर भी दोनों फ़ोन लगाए बैठे हैं
*
जो शख़्स अंजुमन में हुआ ही नहीं शरीक 
वो शख़्स अंजुमन में बहुत देर तक रहा