Monday, May 16, 2022

किताबों की दुनिया - 257

तू वही नींद जो पूरी न हुई हो शब-भर 
मैं वही ख़्वाब कि जो ठीक से टूटा भी न हो
*
मेरी आंखे न देखो तुमको नींद आए तो सो जाओ 
ये हंगामा तो इन आँखों में शब भर होने वाला है
*
झिझक रहे थे बहुत ज़िंदगी के आगे हम 
सो आँख उठाई नहीं और सलाम कर लिया है
*
ज़िंदगी वो जो मेरे साथ ही करना थी उसे 
ज़िंदगी वो जो मेरे साथ नहीं की उसने
*
वहीं पे ज़िक्र हमारा किया गया अक्सर 
वो महफ़िलें जहां अक्सर नहीं गए हम लोग 

कहीं का सोग कहीं और क्या मनाते हम 
तो घर से रूठ के दफ़्तर नहीं गए हम लोग
*
जितनी जल्दी हो बस अब हम से किनारा कर ले 
तू सफ़ीना है मेरी जान भंँवर हैं हम लोग

कट तो सकते हैं तेरी राह से हट सकते नहीं 
तू ज़मीं है तो समझ ले कि शजर हैं हम लोग
*
इश्क़ आँगन में बरसता है विरह का बादल 
आस बर्तन है कोई जिसमें भरे दुख हैं हम 

खोल दरवाज़ा-ए-जाँ दिल में जगह दे अपने 
तूने पहचाना नहीं हमको ! अरे दुख हैं हम

मोबाइल की घंटी बजी , देखा जिगरी विडिओ कॉल पे था ! जिगरी अपना दोस्त है जो कभी भी फ़ोन कर सकता है। 
"बोल" ? मैंने कहा। 
"यार, अभी लख़नऊ में हूँ" -ज़वाब आया।
"तो" ? मैंने पूछा।
"मुझे जलेबी खानी है" - उसने कहा।
"तो खाले -परेशानी क्या है" ? मैंने कहा 
"ये ही तो परेशानी है , कहाँ खाऊँ ?" उसने कहा 
"गूगल से पूछ, मुझसे क्यों पूछ रहा है ?" मैंने झल्ला कर कहा 
"अरे यार गूगल तो पता नहीं क्या क्या बता रहा है किसी से पूछ के यहाँ आया हूँ यहाँ भी चार दुकानें हैं -देख" वो मोबाईल घुमा कर विडिओ से चारों तरफ़ दिखाने लगा।  
"रुक रुक -वो देख दाईं तरफ़ जो दो लोग जाते दिख रहे न हैं न तुझे" - मैं चिल्लाया 
"कौनसे ? वो एक सेहत मंद के साथ जो ठीक-ठाक सेहत वाला जा रहा है वो" ?- वो बोला  
"हाँ हाँ वही" -मैंने कहा 
"वो जो बातें कम कर रहे हैं और ठहाके ज्यादा लगा रहे हैं" - वो बोला 
"अरे हाँ , उनमें से जो सेहतमंद वाला है उससे पूछना, देखना वो फिल्म ,'मेरे हुज़ूर' के अभिनेता 'राजकुमार' की तरह शाल एक तरफ करते हुए कहेगा 'लख़नऊ में ऐसी कौनसी जलेबी की दूकान है जिसे हम नहीं जानते" - मैंने आगे कहा कि "जलेबी उनके नाम से मशहूर है या वो जलेबी के नाम से ये शोध का विषय हो सकता है लेकिन उनका जलेबी प्रेम किसी शोध का मोहताज़ नहीं क्यूंकि वो सबको पता है।"     
"दूसरे उसके साथ वाले से नहीं पूछूँ ?" उसने कहा 
"नहीं , वो हिमांशु बाजपेयी है उससे नहीं"- मैंने कहा 
"कौन हिमांशु बाजपेयी ?" - उसने चौंक कर पूछा 
"अमां यार लख़नऊ में हो और हिमांशु बाजपेयी नहीं जानते ? लानत है - किस्सागोई या दास्तानगोई कुछ भी कहो के उस्ताद, साहित्य अकादमी युवा पुरूस्कार 2021 से सम्मानित 'क़िस्सा क़िस्सा लखनऊवा' किताब के लेखक और ढेरों ख़ूबियों के मालिक" - मैंने बताया
  
जिगरी की शक्ल देख कर मुझे अंदाज़ा हो गया कि मैं भैंस के आगे बीन बजा रहा हूँ। आप तो जानते होंगे हिमांशु बाजपेयी को ? क्या कहा नहीं जानते ? फिर तो आप हमारे आज के शायर के बारे में भी बिल्कुल नहीं जानते होंगे।हिमांशु और इनकी जोड़ी लखनऊ में 'जय -वीरू' की जोड़ी के नाम से प्रसिद्ध है अलबत्ता इनमें से जय कौन और वीरू कौन है ये खुलासा अब तक कोई नहीं कर पाया।
 
दोस्त पहचाने गए अपने निशाने से, और 
हम भी सीने में लगे तीर से पहचाने गए 
*
होना था तुझको और नहीं है तू हाय-हाय 
मैं हूंँ अगर्चे मेरे न होने के दिन हैं ये 

दु:ख मोल ले रहा है जिन्हें कौड़ियों के भाव
क़ीमत लगाई जाए तो सोने के दिन हैं ये 

फीका है कायनात का हर रंग इन दिनों 
उनसे हमारी बात न होने के दिन हैं ये
*
उसी निगाह में अक्सर जुनून पलता है 
जो अपने ख़्वाब बड़ी बेदिली से मारती है
*
न ठहरी तुझ पे तो इस वाक़ये को तूल न दे 
ख़ुद अपने आप में इक सरसरी निगाह हूंँ मै
*
इरादतन तो कहीं कुछ नहीं हुआ लेकिन 
मैं जी रहा हूंँ ये साँसों की ख़ुशगुमानी है
*
हम ऐसे लोग कि मिट्टी हुए हैं इस धुन में 
कि उसके पांँव का हम पर निशान भी पड़ता 

हमीं जहान के पीछे पड़े रहें कब तक 
हमारे पीछे कभी ये जहान भी पड़ता
*
चंद लम्हों में यहाँ से भी गुज़र ही जाऊंँगा 
देर तक अपने ही अंदर कौन सा रहता हूं मैं

हमारा आज का शायर एक ऐसा शायर है जो सबमें शामिल होते हुए भी सब से अलग लगता है। वो अकेला शायर है जो किसी को अपने पर हँसने और अपनी मज़ाक बनाने का मौका ही नहीं देता क्यूंकि वो खुल्लमखुल्ला अपनी ख़ुद की मज़ाक इतनी बनाता है कि किसी दूसरे को अलग से कुछ करने /कहने की गुंजाईश ही नहीं बचती।

अब तो आप समझ ही गए होंगे कि मैं किसकी बात कर रहा हूँ। नहीं ? हद है जी। इतनी बात करने के बाद अगर अमिताभ बच्चन साहब 'कौन बनेगा करोड़पति' के सेट की हॉट सीट पर बैठे व्यक्ति से शायर के नाम का सवाल पूछते तो मेरा दावा है कि वो उनके चार ऑप्शन बताने से पहले ही बोल पड़ता 'अभिषेक शुक्ला'।

अभिषेक शुक्ला जी की पहली ग़ज़लों की किताब 'हर्फ़-ए-आवारा' जिसे राजकमल प्रकाशन ने सन 2020 में प्रकाशित किया था हमारे हाथ में हैं और हम इसके वर्क़ पलटते हुए इस बात से परेशान हो रहे हैं कि उनके कौनसे शेर छोड़े जाएँ और कौनसे आपको पढवाये जाएँ। ऐसी दुविधा पूर्ण स्तिथि हमारे सामने बहुत कम दफ़ा आयी है इसलिए सोचा है कि वर्क़ पलटते जाएँगे और जिस शेर पर नज़र टिकी आप तक पहुंचा देंगे। इस किताब में अभिषेक जी की क़रीब 125 ग़ज़लें शामिल हैं जो उन्होंने पिछले 7-8 सालों में कही हैं।

एक बात आपको बताता चलूँ कि अभिषेक शुक्ला जी की इस किताब का शीर्षक अभिषेक का नहीं बल्कि उनके दोस्त हिमांशु बाजपेयी का दिया हुआ है।      


ये इत्तिफ़ाक़ ज़रूरी नहीं दोबारा हो 
मैं तुझको सोचने बैठूंँ तो ज़ख्म भर जाए 

फिर उसके बाद पहनने को सारी दुनिया है 
मगर वो शख़्स मेरे ज़ेहन से उतर जाए
*
वस्ल होता भी तो हम दोनों फ़ना हो जाते 
आग उसमें में थी भरी मुझ में भरा था पानी 

बीच में ख़्वाब थे सहरा था मेरी आँखें थी 
उस कहानी का फ़क़त एक सिरा था पानी 

मुझको मालूम है दरिया की हक़ीक़त क्या है 
मुझसे तन्हाई में एक रोज़ खुला था पानी
*
तुमसे इक जंग तो लड़नी है सो लड़ते हुए हम
अपने खे़मे में किसी रोज़ मिला लेंगे तुम्हें
*
जो चुप रहूंँ तो यही इक ज़वाब काफ़ी है 
जो कुछ कहूंँ तो वो अपना सवाल बदलेगा
*
जिंदगी इक जुनून है माना 
ये जुनूँ कौन ता-हयात करे
*
मेरी क़ीमत न लगा पाएगी दुनिया लेकिन 
तू ख़रीदे तो मेरा दाम ज़ियादा नहीं है
*
घूम-फिर कर उसी इक शख़्स की ख़ातिर जीना 
ज़िंदगी तुझसे कोई और बहाना न हुआ

भगवत गीता का एक बहुत ही प्रसिद्ध श्लोक है 'यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत.....'  दुःख की बात है कि ये श्लोक अपना अर्थ खो चुका है क्यूँकि अब धर्म की हानि इस तेज़ रफ़्तार से हो रही है कि ईश्वर को समझ ही नहीं आ रहा कि वो कहाँ कहाँ कितने अवतार ले। ईश्वर ने धर्म को हानि पहुँचाने वालों को उनके हाल पर छोड़ दिया है नतीज़ा लोगों के जीवन में दुःख और असंतोष की मात्रा बढ़ती जा रही है। लेकिन जब उर्दू ज़बान के साथ खिलवाड़ हद से बढ़ने लगी जैसा कि 'फ़रहत एहसास' साहब ने इस किताब की भूमिका में अस्सी दशक के दशक में उर्दू शाइरी के बारे में लिखा है कि ' शाइरी का आसमान तेज़ी से अपने आफ़ताबोँ ,माहताबों और सितारों से ख़ाली होने लग गया था और उनकी जगह बरेलवियों, इन्दोरियों, भोपालियों,देबन्दियों और कानपुरियों से भरी जाने वाली थी। अदबी शाइरी की बिसात चंद रिसालों के औराक़ (पन्नो) तक महदूद (सिमटी हुई) थी और इस का बेशतर हिस्सा जितना ठंडा और बेमज़ा था ,उतने ही मुर्दा-ज़ौक़(आनंद) और कुहना-एहसास(मरे हुए अनुभव) उसके पढ़ने वाले थे।' ऐसे हालात में ईश्वर ने चंद लोगों को पृथ्वी पर इसलिए भेजा कि वो उर्दू ज़बान को फिर से सँवार कर अवाम के सामने लाएँ .उन लोगों में से एक हैं 14 सितम्बर 1985 को ग़ाज़ीपुर उत्तर प्रदेश में जन्में 'अभिषेक शुक्ला'

अभिषेक जी के घर का माहौल शायराना कतई नहीं था इसलिए उर्दू से उनको मोहब्बत भी नहीं थी , बचपन में वो हिंदी, जो उनकी मादरी ज़बान है' में छुट छूट-पुट कवितायेँ लिखा करते थे। शुरूआती तालीम सरस्वती शिशु मंदिर ग़ाज़ीपुर से लेने के बाद वो अपने पापा के लखनऊ ट्रांसफर होने के कारण लखनऊ चले आये और छठी से पोस्ट- ग्रेजुएशन तक की पढाई लखनऊ से की।  स्कूल कॉलेज के दिनों में वो नस्र लिखा करते और डिबेट में भाग लिया करते। डिबेट में उन्होंने बहुत से ईनाम जीते।  ऐसे ही किसी डिबेट कॉम्पिटिशन में उन्हें पहला स्थान मिला जिसका पुरूस्कार लेने वो जहाँ गए वहाँ पुरूस्कार वितरण से पहले एक मुशायरे का आयोजन किया गया था। कुछ करने को था नहीं इसलिए वो बेमन से मुशायरा सुनने बैठ गए। मुशायरे में पद्मश्री गोपालदास नीरज जी के अलावा  लख़नऊ के लोकप्रिय शायर जनाब निर्मल दर्शन साहब भी थे। मुशायरे में शाइरों के पढ़ने का अन्दाज़ ,शाइरी और उस पर मिलने वाली दाद से वो इतने मुतासिर हुए कि उन्होंने वहीं फैसला कर लिया कि वो भी इस विधा को सीखेंगे। ये सन 2004 की बात है तब अभिषेक 19 वर्ष के थे, वो अपने से 13 साल बड़े डा निर्मल दर्शन जी से पहली बार वहीँ मिले और फिर उसके बाद मिलते ही रहे। दुःख की बात ये है कि निर्मल जी का 48 वर्ष की आयु में अक्टूबर 2020 में कैंसर की वजह से देहांत हो गया।   

मैं उस पे खिलता न खिलता ये बहस बाद की थी 
वो एक बार पहन कर तो देखता मुझको
*
मैंने जब अपनी तरफ़ गौर से देखा तो खुला 
मुझको इक मेरे सिवा कोई परेशानी नहीं
*
अपनी सम्त पलट कर आना अच्छा है 
अच्छा है सब दुनियादारी खत्म हुई 

चेहरे पर आने वाली उदासी हो की ख़ुशी 
धीरे-धीरे बारी-बारी खत्म हुई
*
किसी की याद अगर ज़िंदगी हो ऐसे में 
किसी को याद न करना भी एक फ़न ही है 

बस इतना है कि मोहब्बत नहीं किसी से मुझे 
वगर्ना नाम तो मेरा भी कोकहन ही है 
कोकहनी : पहाड़ तोड़ने वाला
*
सबकी सुनोगे सबकी करोगे पागल हो 
अपने मिज़ाज़ में थोड़ी सी ना-फ़र्मानी लाओ 

ऐसे तो तुम हुस्न को रुसवा कर दोगे 
ग़ौर से देखो आँखों में हैरानी लाओ
*
मेरा मिलना भी न मिलना भी मेरी मर्ज़ी है 
मैं न चाहूं तो वो हासिल नहीं कर सकता मुझे
*
अक़्ल हर बार यह कहती थी ज़ियाँ है इसमें 
दिल ने हर बार तेरे ग़म की तरफ़दारी की
ज़ियाँ: नुक़सान
*
अजीब जंग लड़ी हमने भी ज़माने से 
न जीत पाए किसी से न ख़ुद को हारा गया

सब जानते हैं कि शाइरी पढ़ने सुनने में जितनी आसान नज़र आती है उतनी होती नहीं। एक ढंग का शेर कहने में पसीने आ जाते हैं और साहब कभी तो महीनों एक शेर नहीं होता। अभिषेक जी ने तय तो कर लिया कि शाइरी करनी है लेकिन कैसे ये बताने वाला कोई नहीं मिला। कुछ ने कहा उसके लिए उरूज़ सीखो तो कुछ ने कहा कि अगर उरूज़ के चक्कर में पड़े तो एक भी शेर नहीं कह पाओगे। ऐसे असमंजस के हालात में अभिषेक जी 2004 से 2008 तक तुकबंदी करते रहे आखिर एक दिन उन्होंने डा निर्मल से गुज़ारिश की कि वो उन्हें किसी ऐसे शख़्स से मिलवाएं जो उनकी ग़ज़लें ठीक कर सके। निर्मल साहब ने जिस शख़्स से उन्हें मिलवाया उनका मिज़ाज़ अभिषेक से बिल्कुल जुदा था इसलिए बात बनी नहीं। थक हार कर उन्होंने किताबों से दोस्ती की और उन्हें पढ़ पढ़ कर सीखने की कोशिश करते रहे। सन 2008 से 2011 के बीच अभिषेक बड़ी मुश्किल से चार पांच ग़ज़लें ही कह पाए।
2011 में उनकी मुलाक़ात उर्दू अरबी और फ़ारसी के विद्वान जनाब 'आजिज़ मातवी' साहब से हुई । आजिज़ साहब से अपनी मुलाक़ात को अभिषेक ने कुछ यूँ बयाँ किया है :

"आजिज़ साहब से मेरी पहली मुलाक़ात लखनऊ महोत्सव के युवा मुशायरे में हुई थी जहाँ मैं अपना “नामौज़ून” कलाम पढ़ने के लिए पहुँचा था। ज़ाहिर है सीखने की प्रक्रिया में ये सब होता ही है।वहाँ मेरे सामने डॉक्टर निर्मल दर्शन और आजिज़ साहब बैठे हुए थे, डॉक्टर निर्मल दर्शन ने कहा कि अभिषेक ख़ुशनसीब हो तुम के पंडित जी के सामने अपने शे’र पढ़ रहे हो मैं यह तो समझ गया कि पंडित जी कोई बड़ी शख़्सियत हैं मगर वह इतनी बड़ी शख़्सियत हैं यह उनके साथ रहकर धीरे धीरे मुझ पर खुला। मैंने बहुत हिम्मत करके एक रोज़ उनका मोबाइल नंबर लिया और फ़ोन करके कहा कि आपसे मिलना चाहता हूँ। वह लखनऊ से, जहाँ मेरा घर है,वहाँ से कोई 30 किलोमीटर दूर रहा करते थे, उन्होंने मुझसे कहा कि तुम इतनी दूर कहाँ आओगे बेटा, अपना पता दो मैं तुम्हारे पास आता हूँ। मैं उनके इस बर्ताव से हैरान रह गया लेकिन यह हैरत मज़ीद बढ़नी ही थी कि उनकी शख़्सियत में इतना कुछ था कि कोई सीखने वाला हैरान होने के सिवा कर भी क्या सकता था! वो घर आये, उनसे मुलाक़ात हुई। फिर तो उनसे मुलाक़ातों का एक लंबा सिलसिला रहा। मेरी जो भी दिलचस्पी है ज़बान में,अरुज़ की मेरी जितनी भी समझ है वह सब उनकी दी हुई है, उन्होंने ही मुझे अरूज़ की किताबें पढ़ने के लिए कहा और यह हौसला पैदा किया मुझ में कि मैं उसे सीख सकता हूँ। वो अक्सर कहा करते थे कि बड़ा आदमी वही है जिसके साथ बैठकर आप छोटा महसूस न करें और वो इसकी सबसे बड़ी मिसाल आप थे।"
 
मातवी साहब की रहनुमाई में अभिषेक का शायर अभिषेक में बदलने की क्रिया को आप अभिषेक के ही इस शेर से समझ पाएंगे
अब यूँ दमक रहा हूँ कि कुंदन को लाज आये 
मिट्टी का ढेर था मैं किसी के चरन लगे 

मातवी साहब के अलावा अभिषेक की जिन्होंने रहनुमाई की उनमें स्व. डा निर्मल दर्शन और जनाब फ़रहत एहसास साहब का नाम सबसे ऊपर है।अभिषेक ने फ़िराक़ साहब के साथ अपनी ज़िन्दगी के बेहतरीन साल गुज़ारने वाले जनाब रमेश चंद्र द्विवेदी साहब के साथ भी काफी वक़्त गुज़ारा और उनसे बहुत कुछ सीखा।

कोई सुने न सुने कोई कुछ कहे न कहे 
तुम्हें तो बात ही रखनी है बात रक्खा करो
*
अजीब रिश्ता-ए-दीवार-ओ-दर बना हुआ है 
कि जिस में रहना नहीं है वो घर बना हुआ है

ये और बात कि देखा भी है तो बस तुमको 
ये और बात कि ज़ौक़-ए-नज़र बना हुआ है 
ज़ौक़े नज़र: देखने की अभिरुचि
*
आड़े आ जाएगी हर बार मेरी नादानी 
मेरे आगे कोई दानाई न कर पाएगा तू 
दानाई: अक़्लमंदी
*
पहले मिसरे में तुझे सोच लिया हो जिसने 
जाना पड़ता है उसे मिसरा-ए-सानी की तरफ़

हम तो एक उम्र हुई अपनी तरफ़ आ भी चुके 
और दिल है कि उसी दुश्मन-ए-जानी की तरफ़
*
तुम भड़क कर जो न जल पाओ तो फिर दूर रहो 
ख़ुद को देखो कि ये लौ इश्क़ की मद्धम है अभी
*
सहर की आस लगाए हुए हैं वो कि जिन्हें 
कमान-ए-शब से चले तीर की ख़बर भी नहीं

यही हुजूम कि हाथों में तेग़ है जिसके 
यही हुजूम कि शाने पे जिसके सर भी नहीं
*
न जाने अब के बिछड़ना कहाँ हो दुनिया से 
न जाने अब के तेरी याद किस मक़ाम पर आए

पेशे से बैंकर 'अभिषेक' के परिवार में पत्नी 'जूली' और प्यारा सा बेटा 'मीर' है। ये अभिषेक का उर्दू के सबसे बड़े शायरों में से एक मीर तक़ी 'मीर' के प्रति प्रेम को प्रदर्शित करता है। अपने लेखन के बारे में पूछने पर एक इंटरव्यू में अभिषेक कहते हैं की 'आप जो कर रहे हैं उसमें झोल नहीं होना चाहिए। आपका विजन साफ़ होना चाहिए। मैं जो करता हूँ कन्विक्शन से करता हूँ। मुझे यूनिवर्सिटी के एक साहब ने कहा कि मैं एक किताब छाप रहा हूँ जिसमें उर्दू के ग़ैर मुस्लिम शायरों का काम होगा, आप अपनी ग़ज़लें भेजें तो मैंने उन्हें साफ़ मना कर दिया। मुझे शायरों को धर्म के नाम पर बाँटना गवारा नहीं। मेरी नज़र में जो शेर कहता है वो शायर है फिर वो चाहे किसी भी मज़हब भाषा या देश का हो।

घमंड अभिषेक को छू भी नहीं गया और ये ही उनकी सफलता और लोकप्रियता का राज़ है। वो कहते हैं कि मुझे लगता ही नहीं कि मैं कोई ऐसा काम कर रहा हूँ जो मुझे बाकि लोगों से अलग करे। दुनिया में हर आदमी की अपनी जंग है , हर कोई अपनी चीजों में काम कर रहा है मैं कहीं से ये नहीं मानता कि मैं शेर कह कर कोई अलग या बड़ा काम कर रहा हूँ। कोई मज़दूर अगर सड़क पर बैठा गिट्टी तोड़ रहा है तो मुझसे कमतर है , नहीं वो भी मेहनत कर रहा है और मैं भी मेहनत कर रहा हूँ। मैं उससे अलग नहीं हूँ और अलग होना भी नहीं चाहता।

शायरा 'अस्मा सलीम' अभिषेक को 'निरा शायर' कहती हैं जिसका अक़ीदा भरपूर इश्क़, भरपूर ज़िन्दगी और भरपूर शाइरी पर है।

एक तू है कि मयस्सर नहीं आने वाला 
एक मैं हूँ कि मचलता ही चला जाता हूँ
*
मुझ में भी चिराग़ जल उठेंगे 
तू खुद को अगर हवा बनाए 

मैं रात बना रहा हूँ खुद को 
है कोई कि जो दिया बनाए
*
मैं आबला था सो मेरी निजात का लम्हा 
मुझे मिला भी तो फिर नोक-ए-ख़ार हो के मिला 

यह बस्तियांँ है कि बाज़ार कुछ नहीं मालूम 
यहाँ तो जो भी मिला इश्तिहार हो के मिला
*
मौत आए तो यह मुमकिन है मेरे ज़ख़्म भरें
ज़िंदगी तू मेरा मरहम नहीं होने वाली
*
नमी थी जब तलक आँखों में मुस्कुराते रहे 
भर आई आंँख तो हम लोग खुल के हंँसने लगे 

न आई नींद तो आँखों से कर लिया झगड़ा 
न आए ख़्वाब तो नीदों पे हम बरसने लगे
*
इधर-उधर से पढ़ा जा रहा हूं मैं अफ़सोस 
न जाने कब वो तमन्ना का बाब देखेगी
बाब: अध्याय
*
मैं अपने आप से कुछ दूर छुपके बैठा हूँ 
ये देखने के लिए कौन देखता है मुझे

शायरी के अलावा अभिषेक आजकल सोशल मिडिया पर अपने चुस्त और चुटीले व्यंग्य लेखों से बहुतों को गुदगुदाते हैं तो कुछ को मन ही मन तिलमिलाने और खीझने पर मज़बूर भी करते हैं। वो इंसान को रंग, मज़हब और बोली की बिना पर बाँटने वालों के ख़िलाफ़ खुल कर बोलते हैं साथ ही अपनी सेहत और आदतों पे बेख़ौफ़ और दिलचस्प कमेंट भी करते हैं। आजकल नज़्म लिखने की कोशिशों में भी लगे हैं। देश-विदेश में अपनी शायरी से धूम मचाने वाले अभिषेक, युवाओं में तो लोकप्रिय हैं ही बुजुर्गों में भी हैं।

जनाब फ़रहत एहसास साहब लिखते हैं कि "अभिषेक चन्द ख़ुशक़िस्मतों में शामिल हैं जिन्हें शाइरी ने इस ज़माने में अपना तर्जुमान मुक़र्रर किया है। ख़ामोशी अभिषेक की शाइरी की जन्मभूमि है। उसके पास से ख़ामोशी की ख़ुश्बू और आँच आती है कि उसके अंदर तज्रबों का एक आतिशख़ाना है जो बाग़ की तरह खिला हुआ है। ख़ामोशी उसका चाक भी है जिस पर वो लफ्ज़ों की कच्ची मिट्टी से मा'नी की शक्लें बनाता है। "

शमीम हनफ़ी साहब ने उनके बारे में लिखा था कि "अभिषेक एक अनोखे अंदाज में सोचते हैं और अपने इज़हार के लिए नई ज़मीन ढूंढ लेते हैं इसलिए उनकी ज़मीन में, ज़हन में, ज़बान-ओ-बयान में और उस्लूब में एक अनोखी ताज़गी का एहसास होता है |उनकी शख्स़ियत अवध की मुश्तरका तहज़ीब और एक गहरी इंसानी दोस्ती की रिवायत के पसमंज़र पर मबनी है |वो कभी ग़ैर दिलचस्प नहीं हुए |"

आप अभिषेक से उनके मोबाइल नंबर 9559934440 पर बात कर उनको इस लाज़वाब शायरी के लिए बधाई दे सकते हैं। बेहतर तो ये रहेगा अगर आप उनसे सम्पर्क के लिए उन्हें shayar.abhishek @gmail.com पर मेल करें।

आख़िर में पढ़िए उनके कुछ और चुनिंदा शेर :

उसने तो बस यूँ ही पूछा था मेरे हो के नहीं 
और मैं डर गया इतना कि ज़बाँ देने लगा
*
बातें करता हूं तो करता ही चला जाता हूँ 
इन दिनों यूँ भी कोई दूसरा घर में नहीं है
*
ये जो कजलाई हुई लगती हैं आँखें मेरी 
मैंने उठ उठ के यहाँ आग जलाई है बहुत
*
यूँ टहनियों से हवा फूल लेकर आई है 
कि जैसे अपनी उदासी को पूजना है मुझे
*
तमाम शह्र पर इक ख़ामुशी मुसल्लत है 
अब ऐसा कर कि किसी दिन मेरी जबाँ से निकल 
मुसल्लत: छाई
*
तेरी कमी में रोज़ इज़ाफ़ा करेगी उम्र 
और इस कमी को कम भी नहीं कर सकूंँगा मैं

उनके ये ताज़ा शेर इस क़िताब का हिस्सा नहीं हैं लेकिन उनकी इस खूबी को भरपूर दर्शाते हैं कि वो उर्दू अरबी और फ़ारसी के लफ्ज़ इस्तेमाल किये बिना हिंदी में भी शायरी कर सकते हैं :
 
पानी में स्वाद आए पवन भी पवन लगे 
मैं क्या करूंँ कि तुझसे बिछड़ कर ये मन लगे 

पीड़ा के पेड़, दुख की लताएं, विरह के फूल 
मैं मैं लगूंँ लगूँ न लगूँ बन तो बन लगे 

सुध ली है जब से अपनी चला जा रहा हूंँ मैं 
कितना चलूंँ तुझ ओर कि मुझको थकन लगे 

बेआस भी अधीर भी प्यासे भी नीर भी 
मैं क्या कहूंँ कि क्या मुझे उनके नयन लगे


Monday, May 2, 2022

किताबों की दुनिया - 256

जो भी कहूँगा सच कहूँगा 
ये झूठ तो आम चल रहा है 

हम तुम हैं जो चल रहे हैं तह में 
दरिया का तो नाम चल रहा है 
*
वो सामने था तो कम कम दिखाई देता था 
चला गया तो बराबर दिखाई देने लगा 

वो इस तरह से मुझे देखते हुए गुज़रा 
मैं अपने आप को बेहतर दिखाई देने लगा 

कुछ इतने ग़ौर से देखा चराग़ जलता हुआ 
कि मैं चराग़ के अंदर दिखाई देने लगा
*
मंजिलें ऐसी जहांँ जाना तो है इस इश्क़ में 
क़ाफ़िले ऐसे कि जिनके साथ जा सकते नहीं
*
ख़ाली दिल फिर ख़ाली दिल है ख़ाली घर की भी न पूछ 
अच्छे ख़ासे लोग हैं और अच्छा ख़ासा शोर है
*
हम में बाग़ों की सी बेबाकी कहांँ से आ गई 
यू महक उठना तुम्हारा और महकाना मेरा

अपनी अपनी ख़ामोशी में अपने अपने ख़्वाब में 
मुझक दोहराना तुम्हारा तुमको दोहराना मेरा
*
घरों से हो के आते जाते थे हम अपने घर में 
गली का पूछते क्या हो गली होती नहीं थी 

तुम्हीं को हम बसर करते थे और दिन मापते थे 
हमारा वक़्त अच्छा था घड़ी होती नहीं थी
*
अब जैसा भी अंजाम हो इस कूज़ागरी का
मिट्टी से मगर हाथ छुड़ाया नहीं जाता
कूज़ागरी: कुम्हार का काम

सोशल मिडिया का चारों और बोलबाला है। आपने कभी सोचा कि सोशल मिडिया किसका भला कर रहा है ? मेरे ख़याल से बहुत से ऐसे लोग,जो इस मुग़ालते में हैं कि दुनिया में उनके काम की वज़ह से उनके नाम का डंका बज रहा है, गुमनामी के अँधेरे में दफ़्न होते अगर सोशल मिडिया न होता। जिनके पास वाकई हुनर है कुछ नया करने को है वो सोशल मिडिया के मोहताज़ न कभी थे न कभी होंगे। लगता है बहुतों को मेरी ये बात नाग़वार गुज़रे क्यूंकि ये ज़रूरी नहीं कि मेरी हर बात से आप इत्तेफ़ाक़ रखें। तुलसीदास जी की रामायण , ग़ालिब की ग़ज़लें, सूरदास के दोहे , मीरा के भजन जैसे हज़ारों उदाहरण हैं जो जन जन तक पहुँचे तब, जब सोशल मिडिया तो दूर की बात है प्रिंट मिडिया भी नहीं था। इनकी लोकप्रियता के पीछे आम लोगों का योगदान रहा। एक ने दूसरे को दूसरे ने तीसरे को और तीसरे ने चौथे को इनके बारे में बताया। ये अलग बात है कि इनकी लोकप्रियता तुरंत नहीं फैली। उनके जीते जी उन्हें वो सम्मान या नाम नहीं मिला जो उन्हें उनके जाने बाद मिला। लेकिन जब मिला तो ऐसा मिला कि लोगों के दिलो-दिमाग़ पर अमिट हो गया। आप माने न माने लेकिन सोशल मिडिया की वजह से लोकप्रिय हुए लोग सोशल मिडिया से हटते ही भुला दिए जाते हैं। सोशल मिडिया आपको कुछ वक़्त तक ही लोकप्रियता की रौशनी में रख सकती है अगर हमेशा रौशन होने की चाह है तो आपको खुद दीपक की तरह जलना होगा। याद वो रहते हैं जो ओरिजिनल हैं . जिनके पास ऐसा कुछ नया है, अपना है जो दूसरों के पास नहीं है। हमारे आज के शायर उसी श्रेणी के हैं जिनकी सोच और कहन अनूठा और सबसे अलग है और जो लोकप्रिय होने के लिए सोशल मिडिया मोहताज़ नहीं हैं। ये पोस्ट न सोशल मिडिया के ख़िलाफ़ है और न उनके जो सोशल मिडिया पर छाये हुए हैं या छाने की कोशिश में लगे हुए हैं।

अश्क अंदर कभी देखा भी है पैदा होते 
आ तुझे ले चलें इस मौज की गहराई में हम
*
दिन ढले सब कश्तियां ओझल हुई आंँखों से और 
देखते रहने को दरिया की रवानी रह गई

हांँ क़बा-ए-जाँ बदलने से भी दिन बदले नहीं 
हांँ नए कपड़ों में भी ख़ुशबू पुरानी रह गई
क़बा-ए-जाँ: ज़िंदगी का लिबास
*
अचानक मिस्रा-ए-जाँ से बरामद होने वाले 
कहांँ होता था तू जब शाइरी होती नहीं थी 

कहो तो गुफ़्तगू सुनवाऊँ तुमको उन दिनों की 
हमारे दरमियांँ जब बात भी होती नहीं थी
*
अगर इस पार से आवाज़ें मेरे साथ न आएंँ 
मुझे उस पार उतरने में सहूलत रहेगी 

शजर-ए-जाँ से एक बार उड़ाने की है देर 
इन परिंदों को कहां मेरी ज़रूरत रहेगी
*
यह मस्अला अभी दरिया से तय नहीं होगा 
कहीं पे शाम किनारा कहीं किनारा दिन 

गुज़र गया तेरी आंखों में शाम होते ही 
गुज़ारे से जो गुज़रता न था हमारा दिन

हमारा कुछ भी नहीं दिल की धूप छांँव में 
ये रात रात तुम्हारी ये दिन तुम्हारा दिन

अगर आप सोशल मिडिया पर बहुत एक्टिव हैं लेकिन हिंदी भाषी हैं और उर्दू लिख पढ़ नहीं सकते तो हो सकता है आपने हमारे आज के शायर का कलाम शायद ही पढ़ा या सुना हो। ये तो एक दिन मैं मुंबई के युवा और बेजोड़ शायर स्वप्निल तिवारी को दुबई के एक मुशायरे में अपना क़लाम पढ़ते हुए की विडिओ देख रहा था कि उसी विडिओ में मैंने पहली बार हमारे आज के शायर का नाम और क़लाम सुना। पता चला कि ये पाकिस्तानी शायर 'शाहीन अब्बास' साहब हैं। इंटरनेट पर खोजने से पता लगा कि इनकी ग़ज़लों की एक क़िताब रेख़्ता से प्रकाशित हुई है। उनकी किताब 'शाम के बाद कुछ नहीं' जो अभी मेरे सामने खुली हुई है तुरंत अमेजन से मँगवाई गयी। बार बार पढ़ी गयी। फिर उनके बारे में जानने की खोज शुरू हुई। इंटरनेट खंगाल डाला।  उनके एक आध विडिओ जरूर यू ट्यूब पर मिले लेकिन उनके बारे में कहीं कोई लेख या उनका कोई इंटरव्यू नहीं मिला। 

आखिर स्वप्निल को ये काम सौंपा।  स्वप्निल उनके प्रशंशक हैं लिहाज़ा उन्होंने शाहीन साहब से संपर्क किया और उनके बारे में जो भी पता लगा सकते थे पता लगाया और मुझे भेजा। शाहीन साहब अपने बारे में बताने से संकोच करते हैं , लिहाज़ा उनकी प्राइवेसी का सम्मान करते हुए उनके बारे में जितना मुझे पता चला आपके साथ साझा कर रहा हूँ। थोड़े को बहुत समझें और उनकी लाजवाब शायरी का आनंद लें :


वो भी क्या दिन थे कि जिस जिस मौज पर पड़ता था पाँव 
ख़ुद किनारे तक समंदर छोड़ने आता रहा 
*
राख सच्ची थी तभी तो सर उठाकर चल पड़ी 
शो'ला झूठा था दिलों के बीच बल खाता रहा 

इश्क़ आखिर इश्क़ था जैसा भी था जितना भी था 
सर ज़मीन-ए-दिल पे इक परचम तो लहराता रहा
*
बाग़-ए-दिल इस बार किस रफ़्तार से ख़ाली हुआ 
फूल मेरे गुम हुए खुशबू तेरी गुम हो गई 

दो किनारे ख़ामोशी के एक हम और एक तुम 
दरमियांँ जिस जिस की भी आवाज़ थी गुम हो गई
*
चलना पड़ता है मोहब्बत की सी रफ़्तार के साथ 
आप चल कर नहीं आ जाता ज़माना दिल का
*
था मगर ऐसा अकेला मैं कहांँ था पहले 
मेरी तन्हाई मुकम्मल तेरे आने से हुई

अपने बारे में वो इक बात जो होती नहीं थी 
तेरी आवाज़ में आवाज़ मिलाने से हुई
*
मैं बस एक जिस्म सा रह गया तुझे भूल कर 
ये वो मोड़ था जहांँ दिल भी हाथ छुड़ा गया 

तुझे बे-सबब नहीं देखते थे ये लोग सब 
तुझे देख कर इन्हें देखना भी तो आ गया

पाकिस्तान के मशहूर शहर लाहौर से अगर कोई कव्वा सीधा तीर की तरह उड़े तो वो 39 किलोमीटर उड़ता हुआ शेखुपुरा पहुँच सकता है, किसी इंसान के लिए ये दूरी लगभग 70 किलोमीटर होगी क्यूंकि इंसान सीधा चलता कब है ? इसी शेखुपुरा में 29 नवम्बर 1965 को 'शाहीन अब्बास' साहब का जन्म हुआ। एम.सी प्राइमरी स्कूल शेखुपुरा से अपनों पढा़ई का आगाज़ करने के बाद उन्होंने गोवेर्मेंट हाई स्कूल शेखुपुरा से मेट्रिक पास की और इंटरमीडिएट एफ.एस.सी की परीक्षा, प्री इंजीनियरिंग की परीक्षा के साथ गोवेर्मेंट डिग्री कॉलेज शेखुपुरा से बेहतरीन नंबरों के साथ पास की। प्री इंजीनियरिंग करने के बाद सिवा इंजीनियरिंग करने के और कोई विकल्प बचता ही नहीं और क्यूंकि शेखुपुरा में इंजीनियरिंग पढ़ने की सुविधा नहीं थी लिहाज़ा उन्हें घर छोड़ कर लाहौर के इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ने जाना पड़ा। प्री इंजीनियरिंग की परीक्षा में आये नंबरों के आधार पर उन्हें इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग ब्रांच में दाख़िला मिला।तब इंजीनियरिंग कालेजों में मेकेनिकल और इलेक्ट्रिकल दो विशेष ब्रांच हुआ करती थीं जिनमें हर किसी को दाखिला नहीं मिलता था। उस ज़माने में आज की तरह हर गली मोहल्ले में इंजीनियरिंग कॉलेज नहीं होता था, बहुत कम कॉलेज हुआ करते थे, जिनमें दाखिला मिलना बहुत फ़क्र की बात हुआ करती थी। इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला मिलने के साथ ही एक बड़ी ज़िम्मेदारी का एहसास भी जाग जाता था। क्यूंकि मैंने भी, 50 साल पहले ही सही, इंजीनियरिंग की है तो मैं जानता हूँ कि इंजीनियरिंग की पढा़ई आसान नहीं होती। आप रट कर पास नहीं हो सकते। ये पढ़ाई आपका पूरा ध्यान और समय मांगती है।

तारीफ़ करनी होगी शाहीन साहब की जिन्होंने अपनी शायरी की शमअ मात्र 15 साल की उम्र में याने सं 1980 में रौशन की और जिसे उन्होंने इंजीनियरिंग की पढाई की तेज आँधियों में बुझने नहीं दिया बल्कि उसे और ज्यादा रौशन कर दिया। उनका इंजीनियरिंग की कठिन पढ़ाई के साथ साथ अपनी  शायरी को ज़िंदा रखने का काम किसी करिश्मे से कम नहीं।  

पिछले पानी अभी आंखों ने संभाले नहीं थे 
दिल निकल आया है एक और समंदर की तरफ़ 

बाहर आवाजें ही आवाज़ें हैं और कुछ भी नहीं 
ख़मोशी खींच रही है मुझे अंदर की तरफ़
*
यूँ न हो मैं अपनी गहराई में गुम कर दूंँ तुझे 
जा किनारा कर अगर मुझसे किनारा हो सके
*
 बहते बहते उन्हीं आंखों में कहीं डूब गए 
चलिए अच्छा है किसी तौर ठिकाने लगे हम
*
वक़्त गुज़रे चला जाता है बस अपनी धुन में 
इक सदा आएगी और इसको ठहरना होगा
*
हिज़्र और वस्ल तेरे आने से पहले भी तो थे 
तेरा आना तो फ़क़त एक बहाना हुआ है 

तू भी चलता तो वहांँ तक नहीं जाता शायद 
तेरी आंँखों में जहांँ तक मेरा जाना हुआ है
*
मेरी आंँखों ने खो दिया था जो ख़्वाब 
तेरी आंँखों ने ला दिया है मुझे 

दश्त ओ दरिया ने मुझसे मिल मिल कर 
अपने जैसा बना दिया है मुझे
*
मैंने इस तरह भी उस शख़्स का रखा है ख़याल 
कहीं जाता ही नहीं अपने सिवा ध्यान मेरा

सवाल ये है कि ऐसा उन्होंने किया कैसे ? जवाब शायद ये होगा कि ये करिश्मा उनसे उनके जूनून ने करवाया। इंसान में अगर जूनून हो तो वो कुछ भी कर सकता है। शाहीन साहब लगता है ज़ज़्बाती इंसान हैं तभी वो अपने ज़ज़्बात के इज़हार के बहाने ढूंढते हैं कभी शायरी तो कभी नस्र के जरिये। उन्होंने ज्यादातर तो शायरी ही की, इब्तिदा में कम नस्र लिखी ,इंजीनियरिंग में एक अफ़साना 'छाजो' के नाम से लिखा जो कहीं छपा नहीं। इंजीनियरिंग करते ही उनकी नौकरी एक पॉवर प्लांट में लग गयी, जो आज तक चल रही है । नौकरी के बाद शादी और  बाद में उससे जुडी मसरूफ़ियात के चलते लिखने की रफ़्तार थोड़ी धीमी पड़ी लेकिन उसके बाद ज़िन्दगी पटरी पर आते ही लिखने का जूनून फिर से हावी हो गया जो अब तक मुसलसल चल रहा है।

पहला शेरी मज़्मुआ 'तहय्युर' 1998 में (ग़ज़लें )मंज़र-ए-आम पर आया उसके बाद 2002 में 'वाबस्ता'(ग़ज़लें ), 2009 में 'खुदा के दिन'(ग़ज़लें ), 2013 में 'मुनादी' (नज़्में ), 2014 में 'दरस धारा'(नज़्में), 2020 में 'पारे -शुमारे' (नॉवल ) , 2020 ही में 'गलियों गलियों (ग़ज़लें ) और 2021 में अफसानों का मज़्मुआ 'कहानी काफ़िर' भी मंज़र-ए-आम पर आ चुका है। उनका एक अफसाना 'सुरख़ाब सुपुर्दे ख़ाक' बेहद मक़बूल हुआ।     

 शाहीन अब्बास साहब का शुमार 1990 के बाद के अहम-तरीन पाकिस्तानी लेखकों में होता है। 

मैं था कि अपने आप में खाली सा हो गया 
उसने तो कह दिया मेरा हिस्सा जुदा करो 

इक नक़्श हो न पाए इधर से उधर मेरा 
जैसा तुम्हें मिला था मैं वैसा जुदा करो
*
इस बार तेरे ख़्वाब में रक्खा है अपना ख़्वाब 
इस बार रौशनी में संभाली है रौशनी
*
वो बेबसी है कि हर जख़्म भर गया जैसे 
मैं रो न दूंँ तेरे जीने से यूँ उतरता हुआ
*
नक़्ल करती है मेरे चलते में वीरानी मेरी 
ये जो मेरे शोर-ए-पा से मिलता-जुलता शोर है
शोर-ए-पा: चलने की आवाज़
*
जख़्म इक चौखटे पर जैसे मुजस्सम हो जाए 
मैं वो तस्वीर कि हर रंग रुलाता है मुझे 
मुजस्सम: साकार

आमद-आमद है ये किस आ'लम-ए-तन्हाई की 
एक इक जख़्म मेरा छोड़ता जाता है मुझे 
आमद: आना
*
किसी और ताल पर रक़्स मुझको रवा नहीं 
तू फिर आप अपने बदन की लय से विसाल कर 
रवा:उचित
*
गया जो मौज में उसकी वो डूबता ही गया 
उस आँख की किसी तैराक से नहीं बनती
*
रात बची न दिन बचे वक़्त बहुत सा बच गया 
वा'दे की रात काटकर वादे का दिन गुज़ार कर

एक बात अक्सर शाहीन साहब से पूछी जाती है कि इंजिनियर और शायर, इंजिनियर  और फिक्शन निगार -कैसे मुमकिन है ? पूछने वालों के दिमाग़ में शायद ये बात होती है किसी जुबान का इतिहास, उसकी पहचान, उस पर की गयी आलोचना को पढ़ने वाले और उस पर अनुसंधान  करने वाले लोग ही बेहतर लेखक हो सकते हैं। इस पर शाहीन साहब जवाब देते हैं कि 'मैं समझता हूँ कि लेखन एक बिलकुल अलग चीज का नाम है इसका आपकी तालीम से कोई सीधा रास्ता नहीं, ये बात दुनिया भर के डॉक्टरी से, सिविल सर्विसेज से, कंम्यूटर साइंस और बहुत से विभिन्न कामों से जुड़े लेखकों ने साबित कर दिया है इसलिए अच्छा शायर होने के लिये इंजीनियर या गैर इंजीनियर होना जरूरी नहीं, इंसान होना शर्त है

तो क्या हर इंसान शायर या लेखक हो सकता है ? जवाब है 'नहीं'। ये वो फ़न है जो ऊपरवाला किसी किसी को ही अता करता है। अगर आपके भीतर ये फ़न नहीं है तो आप चाहे कितनी ही किताबें पढ़ लें कितने ही उस्ताद बदल लें ,ढंग के दो लफ्ज़ नहीं लिख पाएंगे। किताबें या उस्ताद आपके भीतर छिपे इस फ़न को सिर्फ तराशने का काम कर सकते हैं ये फ़न आपके भीतर डाल नहीं सकते। 

लोग अक्सर 'शाहीन' साहब के अफ़साने नॉवल और शायरी पढ़ कर पूछते हैं कि जो लिखा गया है उसका मतलब क्या है , कुछ समझ नहीं आया इस पर शाहीन साहब फ़रमाते हैं कि मेरे लिए ये सवाल ऐसे ही है जैसे कोई मुझसे पूछे की ये क़ायनात क्या है ? इंसान और उसकी ज़ात किस चीज का नाम है और ज़ाहिर है इन सवालों का कोई एक जवाब नहीं।मैं समझता हूँ कि जब तक क़ायनात,ज़ात और क़ायनात का रहस्य बाकी है, शेर बाक़ी है,अदब बाक़ी है और ज़िन्दगी बाक़ी है। मैं तो क्रिएटिविटी या लेखन को बस इतना ही समझ सका हूँ कि हर बड़ा लिखने वाला जब अंदर छुपे रहस्य के साथ क़ायनात से जब हमकलाम होता है तो बात बनती है।'

शाहीन साहब की किताब जब भारत से छप कर आयी तो उसे पढ़ने और चाहने वालों की  तादात उनके पाकिस्तानी चाहने वालों से कई गुना ज्यादा मिली। ये तब है जब वो सोशल मिडिया पर बिलकुल एक्टिव नहीं हैं। ऐसा क्यों हुआ इसके जवाब के लिए आपको जो बात मैंने शुरू में लिखी है उसे फिर से पढ़ना होगा।  

हाल ही में शाहीन साहब के नॉवल 'पारे-शुमारे' को 'रशीद अमजद' अदबी अवार्ड मिला है, उनकी ग़ज़लों की किताब 'गलियों गलियों' को परवीन शाक़िर ट्रस्ट की तरफ से 'सर अब्दुल क़ादिर' अदबी अवार्ड मिल चुका है। इस से पहले उनकी नज़्मों  की दोनों किताबों को बाबा 'गुरुनानक' अदबी अवार्ड मिल चुका है। इन दिनों शाहीन साहब अपना दूसरा नॉवल लिख रहे हैं।

आईये आखिर में पढ़ते उनके चंद शेर इसी किताब से :

अपनी आंँखों की अमल दारी में रहने दे मुझे 
ये ठिकाना मेरे होने का बहाना ही न हो 
अलमदारी:शासन
*
ये बताना जरा मुश्किल है कि देखा क्यों है 
मैंने देखा है जहां तक नज़र आया है कोई
*
वस्ल गया तो हिज्र था हिज्र गया तो कुछ न था
 ख़ास के बा'द आ'म हूँ आ'म के बाद कुछ नहीं 

जिस्म का नश्शा पी चुके अपनी तरफ़ से जी चुके 
चलिए कि जाम उलट चुका जाम के बाद कुछ नहीं
*
इक शाम मेैं ढलते हुए सायों पे हंसा था 
अब तक नहीं निकली मेरे अंदर की उदासी
*
हवा से कहते तो रहते हैं क्यों बुझाया चराग़ 
कहीं चराग़ की अपनी हवा खराब न हो
*
कोई शय और भी होती है कि बस होती है 
घर ही काफ़ी नहीं घर-बार बनाने के लिए
*
हमें इतनी बड़ी दुनिया का पता थोड़ी था 
जहां हम तुम हुआ करते थे वहांँ रह गए हम 

एक आवाज के दो हिस्से हुए ठीक हुआ 
तुम वहां रह गए ख़ामोश यहांँ रह गए हम
*
यह दो बाजू हैं सो थोड़ी हैं खोलूँ और बता दूंँ 
मेरे अतराफ़ में किस-किस का आना रह गया है 
अतराफ़: आसपास




Monday, April 18, 2022

किताबों की दुनिया - 255

देख लेंगे दुश्मनों की दोस्ती 
दोस्तों की दुश्मनी तो आम है 

जिस ने राहत की तमन्ना छोड़ दी 
बस उसे आराम ही आराम है 
राहत: सुख
*
इस  क़दर दिलकश कहां होती है फ़रज़ाने की बात 
बात में करती है पैदा बात दीवाने की बात 
फ़रज़ाने :बुद्धिमान

बात जब तय हो चुकी तो बात का मतलब ही क्या
बात में फिर बात करना है मुकर जाने की बात  

बात पहले ही न बन पाये तो वो बात और है 
सख़्त हसरत नाक है बन कर बिगड़ जाने की बात
*
मैंने जिस वक्त किनारों की तमन्ना छोड़ी 
खुद ब खुद लेने चले आए किनारे मुझको 

सोचता हूं तो सहारों का सहारा मैं हूं 
फिर कहांँ देंगे सहारा ये सहारे मुझको
*
इश्क में जब हमको जीना आ गया 
मौत को दांतों पसीना आ गया 

लब पे नाले है  आंसू आंख में 
मुझको जीने का क़रीना आ गया
*
तेग़े-अबरू, तेग़े-चीं, तेग़े-नज़र, तेग़े अदा 
कितनी तलवारों का पहरा रख लिया मेरे लिए 
तेग़े-अबरू: भौं रुपी तलवार, तेग़े-चीं: माथे की शिकन रूपी तलवार

हमारे आज के शायर के बारे में हिंदी के मूर्धन्य कवि स्वर्गीय श्री रमानाथ अवस्थी साहब के गीत का ये मुखड़ा मुझे सबसे सटीक लगता है :-
भीड़ में भी रहता हूँ वीरान के सहारे
जैसे कोई मंदिर किसी गाँव के किनारे
क़स्बा श्री हरगोविन्दपुर,तहसील बटाला,जिला गुरदासपुर,पंजाब का एक गाँव जिसके बाहर सुनसान इलाक़े में एक शिव मंदिर बना हुआ है। चारों और पेड़ और हरियाली से घिरे इस मंदिर में कभी कबार ही कोई भक्त आता है वर्ना ये वीरान ही रहता है। वीरानी का ये आलम था कि सुबह होने से पहले ही जंगली मोर इस मंदिर की मुंडेरों पर बैठ कर शोर मचाते हैं और इसके के प्रांगण में पंख फैला कर दिन भर नाचते हैं। गिलहरियां हर वक़्त पेड़ो से जमीन और फिर मंदिर की छत, दीवारों पर उधम मचाती दौड़ती फिरती हैं। मंदिर से थोड़ी ही दूर व्यास नदी कलकल बहती है। रात के सन्नाटे में उसकी लहरों से उठने वाला संगीत सुनाई देता है। इस मंदिर में रहने वाला जो एकमात्र इंसान है कायदे से उसे कोई महात्मा या साधू या जोगी या पुजारी होना चाहिए लेकिन वो एक शायर है।

अभी सुबह के 4:00 भी नहीं बजे हैं। एक इकहरे बदन का बुज़ुर्ग, मंदिर से पगडण्डी पर चलते हुए चारों और फैली बेलों और झाड़ियों से बचता हुआ, व्यास नदी के ठंडे पानी में गोते लगाता है। बाहर आ कर हल्के बादामी रंग का कुर्ता और सफेद धोती पहनता है, सर पर सफेद रंग की पगड़ी पहनता है, आँख पर मोटे फ्रेम का चश्मा लगाता है, कन्धों पर सफेद गमछा डालता है और गले में रुद्राक्ष की माला पहनता है | मंदिर आ कर शिव लिंग के समक्ष हाथ जोड़ कर बैठता है ,आँखें बंद करता है और ध्यान मग्न हो जाता है।ये उसका रोज का काम है।

तअज्जुब है तसव्वुर तो तेरा करता हूं ऐ हमदम 
मगर फिरती है मेरी अपनी ही तस्वीर आंखों मे
*
का'बे में भटकता है कोई दैर में कोई 
धोखे में हैं दोनों ही, ख़ुदा और ही कुछ है
*
हस्ती-ओ-मर्ग में कुछ फ़र्क न देखा हम ने 
अपने ही घर से चला अपने ही घर तक पहुंचा 
हस्ती-ओ-मर्ग: जीवन और मृत्यु

कितना दुश्वार है मंजिल पे पहुंचना या रब 
मिटने वाला ही मुसाफ़िर तेरे दर तक पहुंचा
*
ये खु़द अंधेरे में जा रहे हैं चिराग़े-ईमां जलाने वाले 
जनाबे-वाइज़ के दिल को देखो तो हर तरफ़ तीरगी मिलेगी
*
जब तुझ को मेरे सामने आने से आर है 
किस हौसले पे तुझको ख़ुदा मानता रहूं 
आर: लाज 

इक तू कि मेरे दिल ही में छुपकर पड़ा रहे 
इक मैं कि हर चहार तरफ ढूंढता रहूं
*
ये भी क्या उल्फ़त भी हो नफ़रत भी हो 
क्या हमारे दिल में है दिल एक और 

इश्क में मरने में क्या दिलचस्प है 
ज़िंदगी होती है हासिल एक और
*
नाकामियां तो शौक़े शहादत की देखना 
ख़ंजर ब-कफ़ वो सामने आकर चले गए 
ख़ंजर ब-कफ़ :हाथ में खंजर लिए हुए

हम जिस बुजुर्ग की बात कर रहे हैं उनका जन्म पंजाब के गुरदासपुर जिले की बटाला तहसील के छोटे से गाँव पंडोरी में 7 जुलाई 1907 को एक ग़रीब ब्राह्मण पंडित मथुरादास भारद्वाज खट शास्त्री के यहाँ हुआ। फ़रवरी 1922 में उन्होंने फ़ारसी मिडल अप्रेल 1925 में नार्मल की परीक्षा पास की। मात्र 18 वर्ष की उम्र में वो बोलेवाल गाँव के एक प्राइमरी स्कूल में सहायक अध्यापक की हैसियत से बच्चों को पढ़ाने लगे। गाँव में कोई लाइब्रेरी नहीं थी सबसे नज़दीक की लाइब्रेरी पचास मील दूर थी और वहाँ पहुँचने के बहुत से साधन भी नहीं थे। अपनी इल्म-ओ-फ़न की प्यास बुझाने वो पैदल सफ़र करते हुए लाइब्रेरी जाते अपनी पसंद की किताब लाते गाँव आ कर उसकी नक़ल एक रजिस्टर में उतारते और उसे वापस लौटा कर दूसरी क़िताब लाते। ऐसा जनून अब बहुत कम देखने को मिलता है। मोबाइल पर गूगल ने अब सब कुछ सहजता से घर बैठे ऊँगली की एक क्लिक पर उपलब्ब्ध करवा दिया है। जब कोई चीज़ सहजता से उपलब्ध हो तो उसे पाने की प्यास भी कम हो जाती है।    
      
किताबों की तलाश के शौक़ ने उन्हें लाहौर के ओरियंटल कॉलेज के प्रोफ़ेसर 'शादाँ बिलगीरामि' तक पहुँचाया वो प्रोफ़ेसर बीरभान कालिया संपर्क में भी आये। इन दो रहनुमाओं की ने मेहरबानी की वजह से ये 'मुंशी फ़ाज़िल' और सं 1936 में 'अदीब फ़ाज़िल' की परीक्षाएं भी पास कर लीं और डिस्ट्रिक्ट बोर्ड हाई स्कूल श्री हरगोविन्दपुर तहसील बटाला में फ़ारसी पढ़ाने लगे। ज़िन्दगी एक पटरी पर चलने लगी। इसी स्कूल से पचपन वर्ष की उम्र में आप रिटायर हुए।

दम भर में बुलबुले का घरौंदा बिगड़ गया 
कहता था किस हवा में कि फ़ानी नहीं हूं मैं

मंजिल पे जा के ग़ौर से देखा तो ये खुला 
पहले था जिस मक़ाम पर अब तक वहीं हूं मैं
*
अगर ये जानते हम भी उन्हीं की सूरत हैं 
कमाल शौक़ से अपनी ही जुस्तजू करते
*
अपने ही घर में मिला ढूंढ रहे थे जिस को 
उस को पाने के लिए खुद ही को पाये कोई 

ज़िंदगी क्या है फक़त मौत का जामे- रंगीं
हस्त होना है तो हस्ती को मिटाये कोई
*
भूल जाओ खुद को उनकी याद में 
उनसे मिलने की यही तदबीर है

सर को सज्दों से भला फुर्सत कहां 
 ज़र्रा ज़र्रा हुस्न की तस्वीर है
*
रौंद जाता है हर कोई मुझ को 
नक्शे-पा है कि मेरी हस्ती है

ख़ाकसारी की शान क्या कहिए 
किस क़दर औज पर ये बस्ती है 
औज: ऊंचाई
*
इंसां बना के अशरफ-ए-आलम बना दिया 
इस पर भी ये हरीस बशर मुतमइन नहीं 
अशरफ-ए-आलम: सब जीवों से उत्तम, हरीस: लालची

आप सोच रहे होंगे कि जिसका ज़िक्र हो रहा है आखिर वो शख़्स है कौन ? तो साहब जिनका ज़िक्र हो रहा है उनका नाम था जनाब 'रतन पंडोरवी' जिनका शुमार उर्दू के बड़े उस्तादों में होता है। 'रतन' साहब को फ़ारसी पढ़ते पढ़ते शायरी से इश्क़ हो गया और वो महज़ चौदह पंद्रह की उम्र से शेर कहने लगे। उन दिनों शिक्षा के पाठ्यक्रम की किताबों में जनाब उफुक़ लखनवी का क़लाम शामिल हुआ करता था। फ़ारसी पढ़ते हुए रतन साहब को उफ़ुक़ साहब का कलाम रट सा गया , वो सुबह शाम उसे ही गुनगुनाते और उनकी तरह ही शेर कहने की कोशिश करते। उनका पहला शेर कुछ यूँ हुआ :
ऐ बशर किस हस्ती-ए-बातिल पे तुझको नाज़ है
है अदम अंजाम इसका और फ़ना आग़ाज़ है
बातिल: व्यर्थ ,मिथ्या , अदम: परलोक , फ़ना: मिटना
स्कूल की नौकरी के दौरान उर्दू शायर जनाब 'जोश मल्सियानी' मशवरे पर 'रतन पंडोरवी' जी ने जनाब 'दिल शाहजहांपुरी' की शागिर्दगी इख़्तियार कर ली।रतन साहब की शायरी में सूफ़ी रंग है वो जनाब 'दिल शाहजहांपुरी' की देन है। दिल साहब जब बीमारी की वज़ह से रतन साहब के साथ ज्यादा नहीं रह पाए तो उनके जाने के बाद वो 'जोश मल्सियानी' साहब के शागिर्द हो गए बरसों इस्लाह लेते रहे।

'रतन पंडोरवी' साहब ने लगभग दो दर्ज़न किताबें लिखीं जिनमें 14 किताबें नस्र की और 9 किताबें शायरी की हैं जिनमें ग़ज़लें नज़्में रुबाइयाँ आदि शामिल हैं। हमारे सामने जो आज किताब है उसमें उनकी चुनिंदा ग़ज़लों को उनके अज़ीज़ और बेहद मशहूर शागिर्द शायर जनाब 'राजेंद्र नाथ 'रहबर' साहब ने 'हुस्ने-नज़र' नाम से संकलित किया है। ये किताब दर्पण पब्लिकेशन पठानकोट से सन 2009 में शाया हो कर बहुत मक़बूल हुई थी।   

ये पूरी किताब अब इंटरनेट पर 'कविताकोश' की साइट पर पढ़ी जा सकती है।   


किस-किस का दीन उसकी शरारत से लुट गया 
मुझसे न पूछ अपनी ही क़ाफ़िर नज़र से पूछ 

ढल जायेंगी ये हुस्न की उठती जवानियां 
ये राज़े-इंकलाब तू शम्स-ओ-क़मर से पूछ 
शम्स-ओ-क़मर :सूरज और चांद
*
तय हुआ यूं मोहब्बत का रस्ता 
कुछ इधर से हुआ कुछ उधर से 

ज़िंदगी क्या है चलना सफ़र में 
मौत क्या है पलटना सफ़र से
*
मेरा जीना भी कोई जीना है 
जिसने चाहा मिटा के देख लिया 

मुतमइन ऐ 'रतन' जबीं न हुई 
हर जगह सर झुका के देख लिया
*
बात चुप रह के भी नहीं बनती 
बात करते हुए भी डरता हूं 

मार डाला है मुझ को जीने ने 
ऐसे जीने पे फिर भी मरता हूं
*
ज़िंदगी मौत की आग़ोश में हंसती ही रही 
जीने वालों को ये नैरंग दिखाया हमने 
नैरंग :जादू 

बर्क़ का ख़ौफ़ न आंधी का रहा अब खटका 
अपने हाथों से नशेमन को जलाया हमने

स्कूल में नौकरी के दौरान अपने पहले उस्ताद जनाब 'दिल शाहजहांपुरी' और उनके बाद जनाब  'जोश मल्सियानी' साहब  की शागिर्दगी से 'रतन' साहब की शायरी में निरंतर सुधार आता गया और अदबी हलकों में उनके चर्चे होने लगे। वक़्त साथ उनकी शोहरत बटाला से निकल कर पूरे पंजाब में फैली और फिर पंजाब के बाहर देश के उन गली कूचों में भी फ़ैल गयी जहाँ उर्दू शायरी पढ़ी और पसंद की जाती है, यहाँ तक की पड़ौसी मुल्क़ में भी उनके चाहने वालों की तादात अच्छी खासी हो गयी। युवा शायर उनसे इस्लाह लिया करते ,होते होते उनके करीब तीन दर्ज़न शाग़िर्द ऐसे हुए जिन्होंने उनका नाम रौशन किया। उनमें से एक जनाब 'राजेंद्र नाथ 'रहबर' साहब हैं जिनकी एक नज़्म 'तेरे ख़ुश्बू से भरे ख़त मैं जलाता कैसे' जगजीत सिंह साहब ने गा कर पूरी दुनिया में मक़बूल कर दी। 

शायरी के अलावा 'रतन पंडोरवी' साहब को ज्योतिष में महारत हासिल थी। उनकी भविष्य वाणियाँ शत प्रतिशत सच साबित होतीं। देश के दूर-दराज़ हिस्सों से लोग उनके पास अपना भविष्य जानने आया करते थे। लोगों के पूछे प्रश्नों का वो एक दम सटीक उत्तर देते। रतन साहब की शायरी और ज्योतिष विद्या ने एक योगी की सिद्धि का दर्ज़ा इख़्तियार कर लिया था। वो तन्हा पसंद इंसान थे इसलिए उन्होंने स्कूल की नौकरी के बाद व्यास नदी के किनारे बने एक पुराने खंडहर से सुनसान वीरान मंदिर को अपने रहने और साधना का ठिकाना बनाया। मंदिर की साफ़ सफाई और उसके पास बनाये एक छोटे से बाग़ की देखभाल उनके नित्यकर्म का हिस्सा थी। उनके शागिर्द उसी मंदिर में उनके पास इस्लाह के लिए आते। उन्होंने किसी से कभी कुछ नहीं माँगा और फकीरों सी सादगी से ज़िन्दगी जी। हमेशा उन्होंने पूरे दिन में सिर्फ एक बार ही खाना खाया। उनके भतीजे श्री निशिकांत भारद्वाज ने उनसे ज्योतिष विद्या सीखी वो अब 'चामुंडा स्वामी' के नाम से मशहूर हैं।        

अज़ीज़ तर है हमें किस क़दर वतन की हवा 
क़फ़स में जिंदा रहे शाख़े-आशियां के लिए
*
रोते रोते सो गई हर शम्अ परवानों के साथ 
होते होते हो गई आखिर हर फुर्क़त की रात 
फुर्क़त की रात: विरह की रात

हर तरफ़ तारीकियां, खामोशियां, तन्हाइयां 
हू का आलम बन गया है घर का घर फुर्क़त की रात
*
दोनों ने थाम रक्खी है क़िस्मत की बागडोर 
कुछ आदमी के हाथ है कुछ है खुदा के हाथ 

तेरी निगाहों में है मेरे दिल की आरज़ू 
फिर तुझसे मांगता फिरुं मैं क्या उठा के हाथ
*
यह कौन सा मक़ाम है ऐ जोशे बे-खु़दी 
रस्ता बता रहा हूं हर इक रहनुमा को मैं

क्यों उसकी जुस्तजू का हो सौदा मुझे 'रतन' 
मुझ से अगर जुदा हो तो ढूंढू खुदा को मैं 
सौदा: पागलपन
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उलझते हैं भला शैख़-ओ-बरहमन किसलिए 
हरम हो दैर हो दोनों में है तस्वीर पत्थर की
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रंज, ग़म, हसरत, तमन्ना, दर्द, गिर्या फ़र्तै यास
 मेरे दिल ने परवरिश की है बराबर सात की 

देखिए मैदान किसके हाथ रहता है 'रतन' 
चश्मे-गिरिया के मुकाबिल है घटा बरसात की
 चश्मे गिरिया: रोती हुई आंख
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जोगी शायर के नाम से मशहूर रतन साहब बेहद विनम्र स्वभाव के इंसान थे। एक बार जो उनसे मिलता बस उन्हीं का हो कर रह जाता। वो बड़े धार्मिक विचारों के थे। नियम से योग और शिव की आराधना करते। रहबर साहब लिखते हैं कि 'रतन साहब ने अपने इष्टदेव को सामने रख कर राज़ो-नियाज़ की बातें कीं और मज़ाज से हक़ीक़त को नुमायां करने की कोशिश की।'

उनकी किताबों पर बिहार उर्दू अकादमी, बंगाल उर्दू अकादमी और उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी ने एवार्ड दिए। भाषा विभाग पंजाब की तरफ़ से उन्हें 'शिरोमणि साहित्यकार' का ख़िताब, नक़दी, शॉल और प्रमाणपत्र भेंट किये गए। चंडीगढ़ की 'कला दर्पण' संस्था द्व्रारा 18 मई 1980 को टैगोर थियेटर में 'जश्न-ऐ-रतन पंडोरवी' मनाया गया। 19 मई 1981 को शाहजहांपुर में एक बहुत बड़ा जलसा हुआ जिसमें 'दिल शाहजहांपुरी' के बेटे शब्बीर हसन ने उन्हें दिल शाहजहांपुरी का जा-नशीन (उत्तराधिकारी) मुकर्रर किया।

रतन साहब 16 दिसंबर 1989 को पंडोरी को हमेशा हमेशा के लिए ख़ैरबाद कह कर पठानकोट जा कर बस गए और 4 नवम्बर 1990 को इस दुनिया-ऐ-फ़ानी को अलविदा कह गए। अफ़सोस ,गायत्री मंत्र और भगवत गीता का उर्दू नज़्म में अनुवाद करने वाले इस अपनी तरह के अकेले शायर को याद करने वाले अब बहुत कम लोग बचे हैं। इस किताब को मंज़र-ऐ-आम पर लाने के लिए आप रहबर साहब को 9417067191 पर फोन कर मुबारकबाद दे सकते हैं।
जब अपनी ज़िंदगी तुम हो फिर उसक मुद्दआ तुम हो
तो इसमें हर्ज ही क्या है अगर कह दे खुदा तुम हो

न होता आशियां तो बिजलियां पैदा ही क्यों होतीं
सुनो ऐ चार तिनको अस्ल में बर्के-बला तुम हो
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इतनी कहां मजाल कि बेपर्दा देखते 
तेरे निशान हम को मिले हैं कहीं-कहीं

ऐ शैख़ मयकदे की मज़म्मत फुज़ूल है 
मिलती है क्या बहिश्त में ऐसी जमीं कहीं
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इस तरफ आग कि सीने में भड़क उठ्ठी है 
उस तरफ हुक्म कि हरगिज़ न मिलेगा पानी