Monday, March 21, 2022

किताबों की दुनिया - 253

गर हो तेरा इशारा सेराब हो ये सहरा 
पलकों प एक आँसू कब से मचल रहा है 
*
बुलंदियों के मुसाफ़िर तुझे खबर भी है 
ये रास्ते में है आगे ढलान किसके लिए

इसी ज़मीन प जब तेरा आबो- दाना है 
फिर आसमान में ऊँची उड़ान किसके लिए
*
ज़ात के ग़म में कायनात के ग़म 
एक दरिया में कितने धारे थे

कैसे-कैसे निशान मिलते हैं 
क्या घरोंदे नदी किनारे थे
*
झुलसती रेत प इक बूंद ही उछाल कभी 
ये बारिशों में तो दरिया उबलते रहते हैं
*
वो हिज्र था कि अँधेरा सा छा गया दिल में 
वो याद थी कि चमकने लगे थे जुगनू से 

मेरे लिए तो वो दीवाने-मीर जैसा था 
हुआ था नम कभी काग़ज़ जो पहले आंँसू से 

तो आंँख भर के उन आंँखों में देखना होगा 
तो होगा ऐसे ही जादू का तोड़ जादू से 

हवा का ज़ोर है क्या धूप की है क्या शिद्दत 
कि आँसुओं की दुआएंँ बंँधी हैं बाज़ू से

बात थोड़ी घुमा फिरा के करते हैं। आप ये बताएँ कि भारत की भूतपूर्व राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल, उप राष्ट्रपति श्री भैरूसिंह जी शेखावत और उद्योगपति श्री जमनालाल बजाज जी का आपस में क्या सम्बन्ध है ? बहुत से लोग जवाब में शायद राजस्थान कहें ,  जवाब सही भी है लेकिन मेरे ख़्याल से बहुत कम लोग 'सीकर' तक पहुंचेंगे। जी हाँ ,ये तीनों सीकर जिले से सम्बंधित हैं । भैरूसिंह जी और जमना लाल जी का जन्मस्थान सीकर जिला है वहीँ प्रतिभा जी का ये जिला ससुराल है। हमारे आज के शायर भी सीकर जिले के ही हैं बल्कि यूँ कहूं कि सीकर शहर के हैं । 'सीकर' जिला जयपुर से 114 की मी दूर है और शेखावाटी क्षेत्र में आता है। सीकर अपने आसपास बने विशालकाय किलों और हवेलियों के लिए प्रसिद्द है जिसे देखने दूर दूर से पर्यटक आते हैं। 'सीकर' की ऐसी ही एक बहुत विशालकाय हवेली के पास आपको लिए चलते हैं। ये सीकर के एक बड़े जागीरदार साहब की हवेली है जिसका ये बड़ा सा दरवाज़ा आप देख रहे हैं वो किसी ज़माने में कभी नाच, गाने जैसी दूसरी ललित कलाओं के लिए नहीं खुलता था। शायरी की तो बात ही छोड़ दें। लेकिन साहब अपवाद स्वरुप ही सही, चट्टानों में भी फूल खिलते हैं। जो अब तक नहीं हुआ था वो 15 अगस्त 1960 को हुआ को जब इस किलेनुमा हवेली में एक बहुत ही प्यारे बच्चे की किलकारी गूँजी। इस बच्चे ने आगे चल कर वो किया जो पहले इस हवेली में जन्मे किसी बच्चे ने नहीं किया था। उसने शायरी की। बंजर ज़मीन को फूलों से भर दिया। किसी अंदाज़ा नहीं था कि बच्चा आने वाले वक़्त में 'सीकर' की शान बनेगा। 

कितने सूरज ज़मीन में सोये 
नूर फूटेगा ज़र्रे ज़र्रे से 

आँख में आ गया है इक आँसू 
दश्त सेराब एक क़तरे से 
दश्त :जंगल ,  सेराब :पानी से भरा हुआ , सींचा हुआ  

उम्र कितनी भी हो मगर शुहरत 
बाज़ आती कहाँ है नख़रे से 
*
बेज़रूरत घर से निकलें और फिर 
शय ख़रीदें कोई महँगे दाम पर 
*
दिल ढले होगा जश्ने-तन्हाई 
इल्तिजा है ग़मों से शिरकत की 
*
है बर्गो-बार का गिरना तो क़र्ज़ मौसम का 
हवा-ए-तुन्द! परिंदे कहाँ शजर के गये 
बर्गो-बार : पत्ते और फल , हवा-ऐ-तुन्द : तेज हवा 
*
वो साथ छोड़ गया तो मलाल क्या उस का 
बिछड़ गया जो कहीं उस का ग़म किया जाये 
*
सलीक़े से रक्खा हर इक चीज़ को 
यूँ कमरे को अपने कुशादा किया 
कुशादा: खुला हुआ या फैला हुआ   
*
बहुत शौक़ घर को सजाने का था 
मगर क्या करें अपना घर ही नहीं 
*
तजस्सुस अब नज़र का और क्या है 
जिधर सब देखते हैं देखता हूँ 
तजस्सुस :जिज्ञासा, तलाश 

बच्चे का नाम रखा गया 'मोहम्मद फ़ारूक़ निरबान'। फ़ारूक़ देखने में तो ख़ूबसूरत था ही पढ़ाई लिखाई में भी बहुत तेज़ था। हवेली वालों को उस पर फ़क्र था तो स्कूल वाले उसे देख फूले नहीं समाते थे। 'फ़ारूक़' पढाई के साथ साथ डिबेट और ड्रामा में भी किसी से कम नहीं था। डिबेट में उसके बोलने का अंदाज़ और ड्रामा में किये सहज अभिनय को देख उसके प्रसंशकों में लगातार इज़ाफ़ा होता रहा। पंद्रह-सोलह बरस की उम्र होगी जब फ़ारूक़ को उसके ड्रामा टीचर ने 'साहिर लुधियानवी' की किताब पढ़ने को दी। जैसे अलीबाबा को 'खुल जा सिमसिम' ने ख़ज़ाने का रास्ता दिखाया वैसे ही 'साहिर' ने फ़ारूक़ को शायरी के उस ख़ज़ाने से रूबरू करवाया जिसका उसे कभी इल्म ही नहीं था। कहते हैं कोई न कोई फ़न इंसान के भीतर होता है जरुरत उसे तराश कर बाहर लाने की होती है। अगर आपके भीतर कोई फ़न नहीं है तो आप उस्ताद से सीख कर उसे सिर्फ सतही तौर पर ही हासिल कर सकते हैं उसमें मास्टरी हासिल नहीं कर सकते। 'साहिर' को पढ़ कर ही फ़ारूक़ को अपने भीतर छुपी शायरी के फ़न का पता चला। 'साहिर' के बाद 'फ़ारूक़' ने 'फैज़' और दूसरे शायरों को पढ़ने का सिलसिला जारी रखा। शायरी से फ़ारूक़ को मोहब्बत सी हो गयी। मज़े की बात है कि घर में इसकी भनक भी किसी को नहीं लगी।

फ़ारूक़ जैसा मैंने बताया पढाई में होशियार था हायर सेकेंडरी के बाद उसका एडमिशन जोधपुर के एम.बी.एम. इंजीनियरिंग कॉलेज में हो गया , ब्रांच मिली 'इलेक्ट्रॉनिक्स ऐंड टेलिकमन्यूकेशन,, जो उस वक़्त सिर्फ अव्वल छात्रों को ही मिला करती थी।

ज़माने की दिल को हवा लग गयी है 
वगरना ये लड़का भले घर का है 
*
यादें उसकी ग़म अपने और दर्द ज़माने का 
छोटे से कमरे में आख़िर क्या क्या रक्खूँ मैं 
*
आँख हो और कोई ख़्वाब न हो 
नाज़िल ऐसा कहीं अज़ाब न हो 
नाज़िल:अवतरित , अज़ाब: पीड़ा 

सर्फ़ कीजे न इस क़दर ख़ुद को 
लाख चाहो तो फिर हिसाब न हो 
सर्फ़: खर्च 

कुछ तो महफूज़ रखिये सीने में 
ज़िंदगानी खुली किताब न हो 
*  
ग़म से ऐसे निढाल हूँ जैसे 
एक बच्चे की पीठ पर बस्ता 

एक जुगनू था आस की सूरत 
भर गया रौशनी से सब रस्ता 

बारिशों की दुआएँ माँगी हैं 
और दीवार घर की है ख़स्ता 

बाँध रक्खा है कब से रख़्त-ए-सफ़र 
कभी आवाज़ दे कोई रस्ता 
रख़्त-ए-सफ़र: सफ़र का सामान 

इश्क़ को बीमारी यूँ ही नहीं कहते। अव्वल तो ये हर किसी लगती नहीं और कहीं लग जाय तो कमबख़्त छूटती नहीं। मख़्मूर देहलवी साहब का ये शेर तो आपने पढ़ा ही होगा :

मोहब्बत के लिए कुछ ख़ास दिल मख़सूस होते हैं
ये वो नग़मा है जो हर साज़ पे गाया नहीं जाता

तो साहब यूँ समझें कि ये बीमारी फ़ारूक़ को भी लग गयी। हज़रत दिमाग से इंजीनियरिंग की मुश्किल पढाई करते और दिल से शायरी। साथ में डर भी कि इस बीमारी का किसी को पता न चल जाय। कहते हैं इश्क़ मुश्क़ छुपाये नहीं छुपते ,धीरे धीरे ही सही दोस्तों को खबर लग गयी कि फ़ारूक़ शायरी के इश्क़ में गिरफ़्तार हो चुका है। एक दोस्त ने सलाह दी कि वो अपना क़लाम विजिटिंग प्रोफ़ेसर जनाब डी डी हर्ष साहब को दिखाएँ जो शायरी के जानकार माने जाते थे। हिम्मत करके फ़ारूक़ ने अपना कलाम उन्हें दिखाया , देख कर वो चौंके और बोले कि बरख़ुरदार तुम तो खूब कहते हो। हर्ष साहब की बात से फ़ारूक़ का हौंसला बुलंद हुआ। हर्ष साहब ने आगे कहा कि मैं एक पर्ची पर तुमको एक पता लिख के देता रहा हूँ तुम इस पते पर जाओ और वहाँ रहने वाले शख़्स से मिलो। 'फ़ारूक़' अगले ही दिन सुबह सुबह हर्ष साहब की पर्ची लेकर उस पर लिखे पते पर जा पहुँचे। घर की घंटी बजाई और जिसने दरवाज़ा खोला वो थे उर्दू अदब के बहुत बड़े आलिम जनाब 'शीन काफ़ निज़ाम' साहब। जो बने 'फ़ारूक़' के पहले उस्ताद।
  .    
मुअत्तर है तुम्हारी याद से शब का हर इक पहलू 
महकना रात में कब रात-रानी का बदलता है   

बदलती ही नहीं सूरत किसी भी तौर गावों की 
यहाँ नक्शा तो अक्सर राजधानी का बदलता है 

बदल जाते हैं सब अपने पराये राज रजवाड़े 
मगर घनश्याम कब 'मीरा' दीवानी का बदलता है 
*
मैं अपने आप में गुम हूँ तो क्या जरूरी है 
हर एक काम का कोई न कोई मक़सद हो 

सुकून हमसे न खो जाये इस तरह इक दिन 
तलाश उस को करें और न वो बरामद हो 

तमाम उम्र न देखे किसी की राह कोई 
हो इंतज़ार तो फिर इंतज़ार की हद हो    

हंगामें दो चार क़दम 
फिर मीलों वीरानी है 
*
घर छोड़ आये आप भी अच्छा किया हुज़ूर 
ये तो जुनूँ की राह में पहला क़दम हुआ 
*
देखता हूँ बिखरते फूलों को 
अपना अंजाम भूल जाता हूँ 

निज़ाम साहब ने फ़ारूक़ को प्यार से घर में बिठाया और पूछा कैसे आये ?जब फ़ारूख़ ने बताया कि वो शायरी सीखना चाहते हैं और फ़िलहाल जोधपुर में इंजिनीयरिंग कर रहे हैं तो निज़ाम साहब मुस्कुराते हुए बोले तुमने भी मेरी तरह ये क्या रास्ता इख़्तियार कर लिया बरखुरदार मैं तो ये पढाई बीच छोड़ आया लेकिन तुम मत छोड़ना। बहुत कम लोग जानते हैं कि शायरी से मोहब्बत के चलते निज़ाम साहब इंजीनियरिंग की पढाई बीच ही में छोड़ आये थे , बाद में उन्होंने ग्रेजुएशन की। अब तो फ़ारूख़ रोज ही निज़ाम साहब से मिलने लगे। कॉलेज ख़त्म करने के बाद लंच करते और साइकिल उठा कर सीधे निज़ाम साहब के ऑफिस पहुँच जाते और उनका ऑफिस ख़त्म होने पर साइकिल पर उनके घर तक साथ जाते। निज़ाम साहब ने उन्हें उरूज़ की जानकारी के साथ साथ क्या लिखना चाहिए कैसे लिखना चाहिए सिखाया और भरपूर ज़िन्दगी जीने के गुर भी बताये। पढ़ने के लिए ढेरों किताबें दीं। निज़ाम साहब के साथ जोधपुर में बिताये तीन साल 'फ़ारूक़' को 'मोहम्मद फ़ारूक़ निरबान' से 'फ़ारूक़ इंजिनियर' बना गए।

हमारे सामने जनाब 'फ़ारूक़ इंजिनियर' साहब की दूसरी ग़ज़लों की किताब 'कितने सूरज' खुली हुई है जिसे सं 2018 में माई बुक्स पब्लिकेशन नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है। इस किताब का संपादन श्रेष्ठ युवा ग़ज़लकार जनाब 'इरशाद खान सिकन्दर' साहब ने किया हैआप ये किताब, जो अमेजन पर भी मौजूद है, माई बुक्स को 9910482906/ 99104 91424 पर फोन कर मँगवा सकते हैं।


उसी की है अदालत उसी के मुंसिफ़ हैं 
उसी के सब हैं तो मेरा बयान किसके लिये 
*
जां से बढ़कर नहीं कोई लेकिन 
लोग कुछ जान से भी प्यारे थे  
*
लिखूँ ज़ख़्म को फूल दिल को चमन 
नहीं मुझमें ऐसा हुनर ही नहीं 
*
कोई चराग़ सरे-रहगुज़र भी रौशन हो 
मुँडेर पर तो दिये सबकी जलते रहते हैं 
*
इसे अब भी 'फ़ारूक़' कहते हो घर 
अब इस में तो घर सा बचा कुछ नहीं 
*
अगर हुनर है तो सर चढ़ के बोलता है ज़रूर 
गो लाख ऐब निकाले निकालने वाला  
*
इश्क़ है तो फिर इश्क़ ही रहे 
खेल ख़त्म हो जीत हार का
*
ख़ज़ाने कर दिए क्या क्या अता मुझे उस ने 
कुछ और ढूंँढने निकला था मैं समंदर में 

अजीब धुन है गले से लगा के देखता हूंँ
तुम्हारा लम्स हो जैसे हर एक मफ़्लर में
*
इस से बढ़कर क्या दिलासा है कोई 
हाथ उसने रख दिया है हाथ पर

इंजीनियरिंग के बाद 'फ़ारूक़' साहब को कोटा थर्मल प्लांट में नौकरी मिल गयी। नौकरी के साथ-साथ बाकायदा शायरी भी चलने लगी। अपने दिलकश और बिलकुल अलहदा लबो-लहज़े की वज़ह से जल्द ही लोग उन्हें जानने, पसंद करने लगे। इस्लाह के लिए उनकी निज़ाम साहब से खतो क़िताबत होती रहती थी। धीरे धीरे उनका कलाम अख़बारों और रिसालों में भी छपने लगा। अस्सी के बाद वाले दौर में आये नए मोतबर शायरों में उनका नाम लिया जाने लगा। तभी उन्होंने अपनी कुछ ग़ज़लें ऐवाने उर्दू दिल्ली से छपने वाले मशहूर रिसाले को भेजीं। मख्मूर सईदी साहब उस रिसाले के संपादक थे। बाद मख़्मूर साहब का फोन 'फ़ारूक़' साहब के पास आया बोले की ग़ज़लों की तारीफ़ करते हुए बोले 'बरखुरदार तुम कौन हो जो इतनी पुख्ता ग़ज़लें कहते हो हमने तो तुम्हारा नाम भी नहीं सुना था। इसके बाद उन्होंने ग़ज़लों में थोड़ी बहुत तब्दीली कर के कहा कि देखो इस हलकी सी फेर बदल से तुम्हारी ग़ज़ल कितनी खूबसूरत बन पड़ी है।' इसके बाद तो दोनों के बीच ऐसा राब्ता कायम हुआ जो मख़्मूर साहब के दुनिया-ऐ-फ़ानी से रुख़्सत होने के बाद ही टूटा। मख़्मूर सईदी साहब को फ़ारूक़ साहब अपना दूसरा उस्ताद मानते हैं। जब भी मख़्मूर साहब किसी मुशायरे में शिरकत के सिलसिले में कोटा आते तो अपना वक़्त 'फ़ारूक़' साहब के साथ ही गुज़ारते। लफ़्ज़ों को ख़ूबसूरती से बरतने का सलीका फ़ारूक़ साहब ने मख़्मूर सईदी साहब से ही सीखा। उन्होंने ही 'फ़ारूक़' साहब का पहला शेरी मजमुआ 'सहरा में गुम नद्दी' नाज़िश पब्लिकेशन दिल्ली से छपवाया।उनके पहले मजमुए को सं 1999-2000 को उत्तर प्रदेश का उर्दू अकादमी पुरूस्कार मिल चुका है। इस से पूर्व राजस्थान उर्दू अकादमी ने भी उन्हें 1997-1998 में सम्मानित किया था।

अपनी शायरी के आगाज़ के 19 साल के बाद याने सं 1999 में 'फ़ारूक़' साहब का पहला शेरी मजमुआ शाया हुआ और फिर उसके 20 साल बाद 2019 में ये दूसरा। इससे अंदाज़ा हो जाता है कि जब तक फ़ारूक़ साहब को अपने कलाम से तसल्ली नहीं हो जाती वो उसे प्रकाशित करने की जल्दी नहीं करते। ये ही एक बड़े शायर की पहचान है।
स्वभाव से बेहद शर्मीले शोर शराबे और अपनी मशहूरी को लेकर बेहद ठन्डे 'फ़ारूक़' साहब एक बेहतरीन इंसान हैं। इस पोस्ट के सिलसिले में वादा करने के बावजूद वो अपने बारे में ज्यादा कुछ बताने से बचते रहे हैं। उनके बारे में इतनी सी जानकारी भी जयपुर के शायर जनाब 'आदिल रज़ा मंसूरी साहब' से हुई उनकी एक गुफ़्तगू से मिल पायी है। आप उन्हें उनकी इस लाजवाब शायरी के लिए 9414203120 पर फोन कर बधाई दे सकते हैं। यकीन मानिये आपको उनसे गुफ़्तगू कर अच्छा अनुभव होगा।

'फ़ारूक़' साहब नज़्में भी कमाल की लिखते हैं। उम्मीद है उनकी नज़्मों का संकलन जल्द ही हमें पढ़ने को मिलेगा

आखिर में उनके कुछ और शेर पढ़िए :

सुबह का नूर, फब शाम की, रात की नींद, दिल का सुकूँ
एक बाज़ी थी दिल की मगर दाव पर जाने क्या क्या लगा
*
अब वो मौसम भी कहांँ आएगा 
जुल्फ़ उसकी है न शाना मेरा
*
 अभी मसरूफ हूंँ ऐ याद थम जा 
इबादत भी तो फ़ुर्सत चाहती है 

गज़ब ये है जहाने- इल्मो- फ़न पर 
जहालत भी हुकूमत चाहती है
*
जिसमें आबाद हो न वीरानी 
घर में ऐसा है कोई गोशा भी 

कोई उम्मीद, आरज़ू , न उमंग 
और कहते हैं ख़ुद को ज़िंदा भी
*
ये सच है कि मसरूफ़ रहा कारे जहाँ में 
ये बात ग़लत है कि तेरा ध्यान नहीं था


Monday, March 7, 2022

किताबों की दुनिया -252

मोहब्बत बोझ बन कर ही भले रहती हो काँधों पर
मगर यह बोझ हटता है तो काँधें टूट जाते हैं 

बहुत दिन मस्लिहत की क़ैद में रहते नहीं जज़्बे 
मोहब्बत जब सदा देती है पिंजरे टूट जाते हैं
मस्लिहत: लाभ-हानि सोचकर निर्णय लेना
*
घरों का हुस्न हँसते-बोलते रिश्तों से क़ायम है
अगर पत्ते न हो तो टहनियांँ अच्छी नहीं लगतीं
*
तेरी हर बात हंँसकर मान लेना 
मोहब्बत है ये समझौता नहीं है
*
अ'जीब लोग थे सूरज की आरजू लेकर 
तमाम उम्र भटकते रहे अंधेरे में
*
मोहब्बत को वफ़ा को जानता हूंँ 
ये सब कपड़े मेरे पहने हुए हैं 

इसी को तो हवस कहती है दुनिया 
कि तन भीगे हैं मन सूखे हुए हैं
*
ये ख़्वाहिशों का असर है तमाम दुनिया पर 
हर आदमी जो अधूरा दिखाई देता है 
*
पथरीले रास्तों पर सफ़र कर रहे हैं हम 
रिश्तों की नर्म घास कहीं छोड़ आए हैं
*
ये देखना है किस घड़ी दफ़नाया जाऊंँगा 
मुझको मरे हुए तो कई साल हो गए

तुम सारी उम्र कैसे सँभालोगे नफ़रतें 
हम तो ज़रा सी देर में बेहाल हो गए  

शाम के 7:00 बजे की बात का वक्त है कि जिस शख़्स के मोबाइल पर घंटी बजती है वो लपक कर उसे उठाता है, किसका फोन है ये देखता है और फिर मुस्कुराता है । खिचड़ी दाढ़ी, चौड़े माथे और मोटे प्रेम का चश्मा लगाए इस इंसान के मोबाइल पर अब रात 12:00 और कभी-कभी तो 1 या 2 बजे तक ये मोबाइल पर घंटियाँ बजने का सिलसिला यूंँ ही चलता रहेगा। फोन पर बातचीत कुछ यूँ शुरु होती है 'कैसे हो बरखुरदार? खैरियत!! आज नया क्या कहा ?और फिर ये गुफ़्तगू चलती रहती है। किसी को शायरी की बारीकियां समझाई जा रही हैं किसी को लफ़्जों को बरतने का तरीका सिखाया जा रहा है ।ये गुफ़्तुगू एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी और उसके बाद चौथी कॉल पर इसी तरह चलती रहती है। इन चार पांच घंटों में यह शख़्स मुकम्मल तौर पर शायरी में डूबा रहता है। घर वालों को वर्षों से चल रहे इस सिलसिले का पता है और उन्हें ये भी पता है कि इस गुफ़्तगू से इस शख़्स को रूहानी सुकून मिलता है, खुशी मिलती है आराम मिलता है ।

कौन है यह शख़्स? इस दुनिया का तो नहीं लगता। आज के दौर में जब हर इंसान सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने पर ही फोकस चाहता है अपनी ही बात करता है और अपनी ही बात सुनना चाहता है, ये इंसान दूसरों को इत्मीनान से न सिर्फ़ सुन रहा है बल्कि उन्हें अपनी बेशकीमती राय से नवाज़ता भी है। पूछने पर मुस्कुराते हुए कहता है कि मैं उन पौधों को खाद और पानी दे रहा हूं जो आगे चलकर एक विशालकाय पेड़ बनेंगे। ऐसे पेड़ जो फूल और फलों से लदे हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करेंगे। जिनकी छाया में बैठकर लोगों को अच्छा लगेगा। मैं तो हमेशा नहीं रहूंगा मेरे बाद ये हरे भरे पेड़ ही मेरी पहचान बनेंगे। ऐसे ही गिने-चुने इंसानों की वजह से ये दुनिया अभी तक खूबसूरत बनी हुई है। ऐसे इंसान जो अपने वजूद की परवाह किए बिना दूसरों का मुस्तकबिल सँवारने में लगे हैं तालियों के हक़दार हैं। ये नींव के वो पत्थर हैं जिन पर आने वाले कल की खूबसूरत इमारत तामीर होने वाली है। 

किसे बताऊंँ कि अंदर से तोड़ देता है 
कभी-कभार ये बाहर का रख रखाव मुझे 
*
ये ज़िंदगी भी अ'जब इम्तिहान लेती है 
जिसे मिज़ाज न चाहे उसी के साथ रहो 
*
बहुत से राज भी आएंगे आ'ली-जाह फिर बाहर 
ख़फ़ा होकर हवेली से अगर नौकर निकल आए
*
तुम्हारे नाम के आंँसू है मेरी आंँखों में 
ये बात भूल न जाना मुझे रुलाते हुए
*
पुराने ज़ख़्म कहीं फिर न मुस्कुरा उठ्ठें 
मैं डर रहा हूं तअ'ल्लुक बहाल करते हुए
*
अदाकारी हर इक इंसान के बस की नहीं होती 
ज़ियादा देर तक हंँसने में दुश्वारी भी होती है 

मोहब्बत फूल देगी आपको तब होगा अंदाज़ा 
कि दुनिया में कोई शय इस क़दर भारी भी होती है 
*
तुम से बिछड़े तो कोई ख़्वाब न देखा हमने 
रख लिया आंँखों का उस दिन से ही रोज़ा हमने 

क्या हिमाक़त है कि बस एक अना की ख़ातिर 
कर लिया तुमसे बिछड़ना भी गवारा हमने
*
धूल से महफ़ूज़ रखना था मुझे तेरा बदन 
इसलिए मुझको तेरी पोशाक होना ही पड़ा

आज हम ऐसे ही एक शायर की किताब खोल कर बैठे हैं जो शायरी जीता है, ओड़ता है बिछाता हैऔर अपना इल्म दूसरों में बाँटता है ।

अफ़सोस आज बाजार में पैकिंग पर सारा ध्यान दिया जाता है ,पैक की हुई चीज़ पर नहीं। लुभावने चमकीले पैकेट में जो कुछ भी बिक रहा है उसकी गुणवत्ता या क्वालिटी कैसी है यह सोचने का वक्त खरीददार के पास नहीं है ।इसीलिए असली हीरे धूल खा रहे हैं और नकली शोरूम में महंगे दाम बिक रहे हैं।

बाजार रोज़मर्रा की चीजों पर ही नहीं अदब पर भी कब्जा किए बैठा है ।आज शायर की उसकी शायरी की वजह से नहीं उसके इंस्टाग्राम, यूट्यूब या फेसबुक पर उसकी फॉलोअर्स की संख्या की वजह से पूछ है। तभी फालोअर की संख्या बढ़ाने के लिए स्टेज पर नौटंकी का सहारा लिया जाता है शायरी अब परफॉर्मिंग आर्ट हो चुकी है ।

ये बहस का विषय है इसलिए इस बात को यहीं छोड़ कर हम हमारे आज के शायर जनाब वसीम नादिर (वसीम अहमद खाँ )साहब की किताब रंगो की मनमानी पर आते हैं जिसे रेख़्ता बुक्स ने प्रकाशित किया है ।


तुझे भुलाने को सीखा था शाइ'री का हुनर 
हर एक शे'र में अब तुझको याद करते हैं 

तेरा ख़याल सलामत तो क्या है तन्हाई 
चराग़ वाले कहीं तीरगी से डरते हैं
*
मैं भटकता ही रहा भूख के सहराओं में 
मेरे कमरे में सजा मेरा हुनर रक्खा रहा
*
बीती रूतों का एल्बम लेकर बैठ गए 
हम आंँधी में रेशम लेकर बैठ गए 

दिल की बातें दुनिया को समझाओगे
 तुम भी धूप में शबनम लेकर बैठ गए
*
बिछड़ते ही किसी से हो गया एहसास ये हमको 
कि रस्ता किस तरह इक मील का सौ मील होता है 

ये ऊंँचे लोग खुल कर मिल नहीं सकते कभी तुमसे 
समंदर भी सिमट कर क्या कहीं पर झील होता है
*
लपेट रक्खा है खुद को अना की चादर में 
सबब यही है कि अंदर से दाग़-दाग़ हैं हम
*
इतना हुआ कि आप जो सांँसों में बस गए 
सांँसो का एहतराम भी करना पड़ा मुझे 

इस दिल की रहनुमाई में चलने से ये हुआ 
दलदल में ख़्वाहिशों की उतरना पड़ा मुझे

15 जुलाई 1974 को उत्तर प्रदेश के जिले बदाऊं के कस्बे ककराला में जन्मे वसीम साहब को शायरी विरसे में नहीं मिली। घर में उर्दू पढ़ने बोलने का चलन जरूर था, जिसके चलते उन्हें इस शीरीं ज़बान से बेपनाह मोहब्बत हो गयी । उनके बुजुर्ग वहां के जाने माने हक़ीम थे लेकिन उन में से किसी का शायरी से कोई सीधा ताल्लुक़ नहीं था। शायरी वसीम साहब के भीतर कहीं छुपी बैठी थी। लड़कपन से ही उन्हें घर के आस-पास और दूर-दराज़ होने वाले ऑल इण्डिया लेवल के मुशायरों में जाने और वहां सारी-सारी रात बैठ कर शायरी सुनने का शौक़ था। इब्तिदाई तालीम उन्होंने ककराला और बदाऊं में हासिल की।

इसी बीच 1997 में उन्हें सऊदी अरब जाने का मौका मिला। वतन से दूर जा कर वतन की याद आना एक बहुत स्वाभाविक बात है। तन्हाई और उदासी को कम करने के लिहाज़ से उन्होंने बाकायदा रोज डायरी लिखना शुरू किया। इसी लेखन के दौरान यूँ ही अचानक एक दिन उन्होंने ये शेर कहा :' बस्ती तो दूर मुझको वतन छोड़ना पड़ा ,मुझको कहाँ कहाँ मेरे हालात ले गए'। जब उन्होंने इसे दोस्तों को सुनाया तो बहुत दाद मिली। इस शेर के कहने तक उन्हें शायरी के उरूज़ के बारे में कोई इल्म नहीं था लेकिन उन्हें लगने लगा था कि शायरी करने का हुनर उनके अंदर कहीं मौजूद है। जल्द ही सऊदी से वो शायरी के फ़न को अपने दिल में बसाये वापस अपने वतन लौट आये। घर आकर वो बाकायदा शेर कहने लगे। शायरी के लिए बेहद जरूरी उरूज़ की तालीम के लिए उन्हें अपने आस-पास जब कोई उस्ताद नहीं मिला तो उन्होंने किताबों का सहारा लिया और उन्हें रात-दिन पढ़ पढ़ कर ग़ज़ल का व्याकरण सीखा।        .         
ठहर गया मेरी आंँखों में दर्द का मौसम 
तेरा ख़याल मुझे जाने कब रुलाएगा 

वो जिनके घर में किताबों को खा गई दीमक 
उन्हें बताओ कहांँ से शऊ'र आएगा 
*
ग़म तो हर हाल में आंँखों से छलक जाएगा 
लाश सीने में समंदर भी छुपाने से रहा 

रूठना है तो बड़े शौक़ से तू रूठ मगर 
ज़िंदगी मैं तुझे इस बार मनाने से रहा
*
मेरा वजूद है क़ायम इसी तअ'ल्लुक से 
हवाएंँ उसकी हैं और बादबान मेरा है 

अभी तो पर भी नहीं खोले उसने उड़ने को 
अभी से कहने लगा आसमान मेरा है 
*
सितम ये है कि मैं जिनके लिए मसरूफ़ रहता हूंँ 
उन्हीं से बात करने की मुझे फ़ुर्सत नहीं मिलती
*
ऐ ज़िंदगी ये सितम है कि तेरे होते हुए 
ज़माना आने लगा मेरी ताज़ियत के लिए 
ताज़ियत: शोक प्रकट करना
*
इतना भी बेकार न समझो याद-ए-माज़ी को नादिर 
ये तिनका ही एक न इक दिन दरिया पार कराएगा
*
तेरे बग़ैर भी कहती है मुझसे जीने को  
ये ज़िंदगी भी सही मशवरा नहीं देती

बदाऊं से कारोबार के सिलसिले में वसीम साहब का दिल्ली जाना हुआ।  दिल्ली में जल्द ही उनके बहुत से शायर दोस्त बन गए जिनके साथ वहां होने वाली अदबी बैठकों और  नशिस्तों में आना जाना होने लगा। सीनियर शायरों से गुफ़तगू का सिलसिला जारी हो गया। ऐसी ही अदबी महफिलों में उनकी मुलाक़ात जनाब इक़बाल अशर से हुई जो जल्द ही बेतकल्लुफ़ दोस्ती में तब्दील हो गयी। हालाँकि इक़बाल अशर साहब वसीम साहब से उम्र में बड़े हैं लेकिन जब ख़्यालात मिलने लगें तो उम्र दोस्ती के बीच नहीं आती। हफ्ते में चार पाँच दिन दोनों रात आठ बजे मिलते और किसी चाय खाने में चाय की चुस्कियां लेते शायरी पर बातचीत करते हुए रात के एक या दो बजा देते। ऐसी ही बेतकल्लुफ़ दोस्ती वसीम साहब की जनाब हसीब सोज़ साहब से भी है। इन सीनियर शायरों से हुई बातचीत से वसीम साहब के सामने शायरी के खूबसूरत मंज़र खुलने लगे। हालाँकि वसीम साहब ने इन शायरों को कॉपी नहीं किया बल्कि उनसे अपने शेर कहने और लफ़्ज़ों को सलीक़े से बरतने के इल्म में इज़ाफ़ा किया।   

वसीम साहब को शेर में बरती गयी ज़बान बहुत अपील करती है। जनाब बशीर बद्र और नासिर काज़मी साहब उनके पसंदीदा शायर इसीलिए हैं। पानी की तरह बहती ज़बान और आसान लफ़्ज़ों में मफ़हूम को लपेटे शेर उनको बेहद पसंद हैं। आसान लफ़्ज़ों में गहरी बात कह देने का  फ़न बहुत मुश्किल से हासिल होता है. इसके लिए बड़ी मश्क़ करनी पड़ती है। अपने लिखे के प्रति कड़ा रुख अपनाना पड़ता है। ज़बान पसंद न आने पर दस में से अपनी आठ ग़ज़लें खारिज़ कर देने से वसीम साहब को जरा भी गुरेज़ नहीं होता। उनका मानना है कि अगर आप अपने कहे हर शेर से मोहब्बत करेंगे तो बेहतर शायर नहीं बन सकते। यही बात वो हर उस नौजवान को समझाते हैं जो उनसे ग़ज़ल कहने का फ़न सीखता है। शायरी में मफ़हूम तो है ही लेकिन सारा हुस्न ज़बान का है। वसीम साहब के देश विदेश में फैले 35-40 शागिर्द एक दिन अपने साथ साथ अपने उस्ताद का नाम तो रौशन करेंगे ही, उर्दू अदब को अपनी शायरी से मालामाल भी करेंगे। यहाँ उनके सभी शागिर्दों के नाम देना तो मुमकिन नहीं लेकिन बानगी के तौर पर आप जनाब यासिर ईमान , बालमोहन पांडेय, सलमान सईद और सरमत खान जैसे युवा शायरों को यू-ट्यूब  पर अपना कलाम पढ़ते हुए सुनिए।   
 
बहुत तेजाब फैला है गली कूचों में नफ़रत का 
मोहब्बत फिर भी अपने काम से बाहर निकलती है
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लाख तरक्की कर लें बच्चे फिर भी फ़िक्रें रहती हैं 
बुनियादों पर दीवारों का बोझ हमेशा रहता है

बाहर निकलूँ तो अन्जानी भीड़ डराती है दिल को 
घर के अंदर सन्नाटों का शोर सताता रहता है
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वो अगर ख्वाब है आंँखों में रहे बेहतर है 
और हक़ीक़त है तो आंँखों से निकल कर आए 

हमको हालात ने शर्मिंदा किया किस हद तक
बारहा अपने ही घर भेस बदल कर आए
*
दुनिया तेरी लिखाई समझ में न आ सकी 
अनपढ़ रहे हम इतनी पढ़ाई के बाद भी 
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गिरवी रखे हैं कान ज़रूरत की सेफ़ में 
अब हम बहल न पाएंगे लफ़्ज़ों की बीन से
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तुम्हारे बा'द अब जिसका भी जी चाहे मुझे रख ले 
ज़नाज़ा अपनी मर्जी से कहां कांँधा बदलता है
*
उस सम्त जा रहे हैं जिधर ज़िंदगी नहीं 
आंखें खुली हुई है मगर सो रहे हैं लोग
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किसी ने देखा नहीं आस पास थी जन्नत 
थे आस्माँ की तरफ़ हाथ सब पसारे हुए
*
आख़िर मैंने ख़ून से अपने वो तस्वीर मुकम्मल की 
कब तक बेबस बैठा रहता रंगों की मनमानी पर

आज के इस दौर में जब हर कोई ज्यादा से ज्यादा लाइक्स या व्यूज बटोरने के फेर में लगा है वसीम साहब सोशल मिडिया पर उतने एक्टिव नहीं हैं जितने उनके हमउम्र दूसरे शायर हैं। ये बात उनसे पूछने पर उन्होंने बड़ी मासूमियत से कहा कि 'कुछ शायर बहुत प्रेक्टिकल होते हैं , अपने आप को बड़ा मार्केटिंग का आदमी बना लेते हैं हालाँकि इसमें कोई बुराई भी नहीं है ,लेकिन कुछ फ़नकारों में बड़ी बेज़ारी होती है अपने आप में ग़ुम रहने की, जैसा हो रहा है चलने दो वाली ,शायद मैं भी उसी खाने का आदमी हूँ।' उनकी ये बात सही भी है सोशल मिडिया पर बहुत एक्टिव रहने से या मुशायरों के मंच से भीड़ की वाह वाह पाने से आप बड़े शायर नहीं बनते अलबत्ता लोकप्रिय जरूर हो जाते हैं लेकिन ये लोकप्रियता बहुत थोड़े वक़्त तक साथ देती है। शायर बड़ा अपनी शायरी की वजह से कहलाता है लोकप्रियता की वजह से नहीं। लम्बे समय तक आप नहीं आपकी शायरी ज़िन्दा रहती है। वसीम साहब कहते हैं कि 'शायरी वो बड़ी शायरी है जो कागज़ पर पढ़ने वाले से दाद लेले।' वसीम साहब का मानना है कि 'ये कहना कि अब पहले जैसी शायरी नहीं होती ग़लत है।' ये जरूर है कि अब शायर पहले जैसी मेहनत नहीं करते और रातों रातों रात मशहूर होना चाहते हैं। ये सूरते हालात सिर्फ शायरी में ही नहीं बल्कि ज़िन्दगी में हर कहीं है। एक अजीब सी बेचैनी और घुटन में लोग जी रहे हैं किसी को किसी से कोई मतलब नहीं है धीरे धीरे इंसान छोटे छोटे जज़ीरों में तब्दील होता जा रहा है अपने आप में सिमटा हुआ। उन्हें ज़माने और इंसान में होने वाले इस बदलाव से गिला नहीं है वो जनाब शौकत साहब के इस शेर से दिल को तसल्ली दे लेते हैं : 'शौकत हमारे साथ अजब हादसा हुआ , हम रह गए हमारा ज़माना चला गया।'

वसीम साहब का पहला ग़ज़ल संग्रह 'शाम से पहले' सं 2015 में उर्दू रस्मुलख़त में मंज़र-ऐ-आम पर आया। इस किताब को बेहद मक़बूलियत मिली और ये अदबी हलक़ों में चर्चित भी रही। इसे उर्दू अकादमी देहली ने सम्मानित भी किया।

हिंदी में 'रंगो की मनमानी' 2021 में पाठकों के हाथों में पहुंची। इस किताब का इज़रा आगामी 26 मार्च 2022 को बदाऊं में होना है। मेरी आप सभी पाठकों से गुज़ारिश है कि खूबसूरत शायरी और किताब के इज़रे की अग्रिम बधाई वसीम साहब को उनके मोबाइल न. 8851953082 पर जरूर दें।

आखिर में पेश हैं इसी किताब से कुछ और शेर :-

सब अपने नाम की तख़्ती लगाए बैठे हैं 
पता सभी को है ये सल्तनत ख़ुदा की है
*
जिसे चिराग़ मिले हों जले जलाए हुए 
वो रोशनी का ज़रा भी अदब करेगा क्यों
*
कितने दरवाजों पे झुकता है तुम्हें क्या मालूम 
वो जो इक शख़्स किसी घर का बड़ा होता है 

उसने ता'रीफ़ के पत्थर से किया है जख़्मी 
ये निशाना बड़ी मुश्किल से ख़ता होता है 
ख़ता: चूकना
*
बस एक गुज़रा तअ'ल्लुक़ निभाने बैठे हैं 
वरना दोनों के कप में ज़रा भी चाय नहीं
*
क़ैद- ख़ाने में यही सोच के वापस आया 
मुझको मालूम है तन्हा पड़ी ज़ंजीर का दुख
*
थकन से चूर होकर गिर गया बिस्तर पे मैं अपने 
मगर अब तक तेरी तस्वीर से बाज़ू नहीं निकले
*
धुएँ से शक्ल बनाना उदास लम्हों की 
नए ज़माने तेरी सिगरेटों ने छोड़ दिया
*
सुब्ह तक सरगोशियों का रक़्स कमरे में रहा 
रात एल्बम से कई चेहरे निकल कर आ गए 
*
अब इससे बढ़ के मोहब्बत किसी को क्या देगी 
किसी की आंँख का आंँसू किसी की आंँख में है