Monday, February 21, 2022

किताबों की दुनिया -251

क्या पूछो हो ! सन्यासी की दौलत को 
एक कमंडल इक मृगछाला जय सियाराम 

खुले किवाड़ों सोए तेरे दीवाने 
कैसी साँकल ! किसका ताला, जय सियाराम
*
कोई बुरा भी कहे, तो जवाब क्या देना !
ये मान लीजिए, ऊंँचा सुनाई देता है 

तेरी गली में तुझे, देखते ही दिल ने कहा 
यहां तो चांँद भी, दिन में दिखाई देता है
*
हटाई नफ़रतों की पट्टियां जब अपनी आंखों से 
मुझे हर आदमी में कुछ न कुछ अच्छा नज़र आया
*
होश वाले भी तो किस, दीवानगी में लग गए 
अपनी कमियांँ छोडकर, मेरी कमी में लग गए

इस बदलते दौर के ये नौजवाँ भी खूब हैं !
मौत से डरते भी हैं और आशिक़ी में लग गए
*
यह आंँधियांँ मेरी आंँखों का क्या बिगाड़ेंगी 
कि इतनी धूल मेरी, जूतियों में रहती है
*
सोहबत से भी किस्मत का बदलना नहीं मुमकिन 
असरात न फूलों के कभी खार में आए 
हसरात :प्रभाव
*
राम बनकर क्यों कोई जंगल में कांटे चौदह साल 
कैसी कुर्बानी ! सभी को, राजधानी चाहिए

सबसे पहले पढ़िए जो हमारे आज के शाइर.ने 28 जनवरी 2006 को लाल किले दिल्ली में आयोजित गणतंत्र दिवस पर होने वाले अखिल भारतीय मुशायरे में अपनी रचनाएँ पढ़ने हे पहले लोगों से कहा कि 'जैसे भी हो सके अदब यानी साहित्य को प्रोपेगैंडा होने से बचाइए । तमाम इंसानियत के लिए कोई पैग़ाम होना चाहिए। मानव मूल्यों को समझकर काव्य में रखा जाना चाहिए । नमक-मिर्च सी चटपटी बातें या क़ौम-ओ-मज़हब का सहारा बैसाखियों की तरह इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए । ये कमज़ोरी है, गिरावट है और साहित्य में रंगे सियारों का आ जाना है। साहित्य, और वो भी विशेष रूप से काव्य के गिरते हुए स्तर को देखकर आज दुख होता है। कवि सम्मेलनों और मुशायरों का मेयार भी दिन-ब-दिन नीचे आ रहा है ।वो कुछ लिखा और पढ़ा जा रहा है जो न तो लिखा ही जाना चाहिए न पढ़ा ही जाना चाहिए। अग्रिम श्रेणी के लोग पिछली पंक्ति में खड़े हैं ।इस सब का कारण है कवियों-शायरों का एक मात्र व्यवसायिक हो जाना और धड़े बाज़ियों में तक़्सीम हो जाना। पाठकों और श्रोताओं की मामूली सोच भी ऐसे-वैसों को सफल बना रही है।'

एक इतने बड़े साहित्यिक मंच से ऐसी सच्ची ख़री बात वही कर सकता है जिसके लिए काव्य साधना एक इबादत है, जो किसी धड़े से जुड़ा हुआ नहीं है और न जिसे झूठी शोहरत और उससे कमाए पैसे की परवाह है। शायद यही कारण है कि उसे जिंदगी में वो बुलंदी हासिल नहीं हुई जिसका वो हक़दार है क्योंकि इस गला काट स्पर्धा से वो बाहर है लेकिन उसे वो सुकून हासिल है जो न शोहरत से आता है न पैसे से। उसे चाहने वालों की तादाद भले कम हों पर जितनी भी है वो सब उसे दिल से चाहने वाले हैं।

नहीं रोने से कुछ हासिल तो फिर किस वास्ते रोएं 
हम ऐसे कामगर ठहरे जो बेगारी नहीं करते
*
तुझे जब देखता हूंँ तो दिखाई कुछ नहीं देता 
तेरी सूरत मुझे महफ़िल में तन्हा डाल देती है
*
कहीं महफ़ूज़ रह जाते हैं तिनके बिजलियों तक में 
कहीं फूलों की बारिश में भी पत्थर टूट जाते हैं

सियासत कैसे कैसे रंग दुनिया में बदलती है 
यहां तो रहज़नों के हक़ में रहबर टूट जाते हैं
*
मैंने जिस रोज़ तेरे हंँसने की तारीफें कीं 
कितने फूलों ने तेरे घर का पता पूछा है
*
इस बार कर तू सोच-समझ कर मदद की बात 
ऐसा न हो कि फिर मैं अकेला खड़ा रहूंँ 

हंँस-हंँस के मुश्किलों का मजज़ा ले रहा हूंँ मैं 
पलकों पै आंँसुओं की तरह क्यों सजा रहूँ
*
जो एक कांटे के चुभने का ग़म मनाते हैं 
मुझे सलीब की क़ीमत पै आज़माते हैं 

हम अपने आप पै फिर किसलिए न इतराएं!
फ़रेब देते नहीं हैं फ़रेब खाते हैं
*
इस शहर के लोगों की हर इक फूँक है आंँधी 
हाथों में चराग़ों को लिए, कौन खड़ा है!

हमारे आज के शायर जनाब 'विजेंद्र सिंह परवाज' साहब का जन्म 28 मार्च 1943 को 'मेरठ' जिले के तहसील 'सरधना' के गांँव 'भूनी' के त्यागी ब्राह्मण परिवार के यहां हुआ। घर का वातावरण धार्मिक था ।पिता को उर्दू साहित्य से बेहद लगाव था। विजेन्द्र जी का कविता लिखने की ओर रूझान जब वो छठी कक्षा में पढ़ते थे तब से ही हो गया था। सबसे पहले जो कविता उन्होंने लिखी उसकी पहली पंक्ति थी ' कितना सुंदर मेरा फूल' ये पंक्ति ही वो गुमुख है जिससे उनके जीवन में अब तक काव्य की गंगा लगातार बह रही है।

'परवाज़' साहब का कहना है कि शायरी एक पैदाइशी फन है जो आपमें जन्म से ही ऊपर वाला अता कर देता है बाद में जिंदगी के हादसात और वाक़यात इसे और डवलप कर देते हैं। प्राइमरी शिक्षा 'भूनी' में पूरी करने के बाद आगे पढ़ने के लिए इन्हें 'सरधना' आना पड़ा। सरधना में इंटरमीडिएट के दौरान ये अच्छी खासी शायरी करने लगे थे। शायरी करते तो थे लेकिन उसमें पुख़्तगी नहीं थी। उर्दू के अल्फ़ाज़ तो सीख लिए लेकिन शायरी के जरूरी इल्मे अरूज की जानकारी बिल्कुल नहीं थी। उन्होंने इस बात का ज़िक़्र अपने वालिद जनाब विष्णु दत्त त्यागी साहब से किया। पिता उन्हें हापुड़ के मशहूर और मुकम्मल शाइर स्व. जनाब क़ाज़ी मुफ़्ती अमीर अहमद 'सरीर' साहब के पास ले गये। एक अच्छा उस्ताद बहुत मुश्किल से मयस्सर होता है ,परवाज़ साहब इस मामले में खुशकिस्मत निकले क्योंकि उस्ताद से मिल कर उन को लगा जैसे उन्हें अपनी मंजिल,जिसकी तलाश थी, मिल गई। उन्हीं के क़दमों में बैठ कर परवाज़ साहब ने अपनी शायरी का आग़ाज़ किया।

भंँवर का और किनारे का फ़र्क़ मत पूछो 
मैं डूबता था वो आँचल संवारने में रहा
*
अब मेरे इख़लाक़ की परवाज़ ऊँची हो गई 
रास्ते में जो भी घर आया वो अपना घर लगा 
इख़लाक़: चरित्र
*
मैं दीप बनके जिनके, अंँधेरों में जल उठा 
वो दिन की रोशनी में, मुझे भूल जाएंँगे

ज़ंजीर टूट जाएगी उस रोज ज़ब्त की 
जब वो मेरे क़रीब मुझे छोड़ जाएंगे
*
हंँसने का कोई लुत्फ़, न रोने का कुछ मज़ा 
यूंँ भी तो कहकहे हैं यहांँ !सिसकियों के बीच 

ये ताक-झांक छोड़िए अंदर तो आईए 
दरवाज़ा किस लिए है! मेरी खिड़कियों के बीच
*
हम खरा सोना थे जब तक इस ज़मीं में दफ़्न थे 
हाथ में लोगों के जब आए, तो पीतल हो गए
*
किसी के साथ लड़ाई भी मुस्तकिल तो नहीं 
न दुश्मनी को हमेशा दिमाग़ में रखना 

किसी को पाने का अरमाँ, तो जान ले लेगा
ये एक जिन है, इसे तुम चराग़ में रखना
*
तुम मेरे किरदार को रुस्वा न कर पाओगे दोस्त 
बहते पानी पर महल कर पाएगा तामीर कौन

उस्ताद की रहनुमाई में सबसे पहले उन्होंने उर्दू रस्मुल ख़त लिखने पढ़ने में महारत हासिल की। उसके बाद उर्दू के शायरों को एक एक करके पढ़ा ।उन शायरों पर की गई तनक़ीद को भी पढ़ा। उस्ताद उनको उर्दू शायरों के क़लाम की बारीकियों समझाते उनके इस्तेमाल किये लफ़्ज़ों पर गौर फरमाने को कहते। शायरी में ख़्यालों को सरलता से पिरोने का हुनर सिखाते। बी.ए. और एम.ए. मेरठ से करने के दौरान उन्होंने मीर, ग़ालिब, इक़बाल और मज़ाज की कुलियात एक बार नहीं कई कई बार पढ़ी। विजेंद्र सिंह परवाज पहले ऐसे छात्र हैं जिन्होंने मेरठ विश्विद्यालय से पोस्ट ग्रेजुएट की पहली डिग्री हासिल की थी.जिस समय उन्होंने एनएएस कॉलेज से एमए अंग्रेजी किया था.तब चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय में एक ईट तक नहीं लगी थी.उस दौर में सभी परीक्षाएं आगरा विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित होती थीं.इन चारों शायरों के क़लाम के अलावा जनाब मज़रूह सुल्तान पुरी साहब की शायरी से भी बहुत मुत्तासिर हुए। उर्दू के इन शोअरा के अलावा आपने हिंदी में कबीर, निराला, बच्चन और दिनकर जी और अंग्रेज़ी में शैक्सपियर, मिल्टन और कीट्स को पढ़ा और कॉलेजो़ में पढ़ाया भी ।इतना सब अधय्यन करने के बाद ही आपने शेर कहने शुरू किये। उन्होंने एक पुरानी कहावत कि 'एक मेट्रिक टन पढ़ो और दस ग्राम लिखो' का जीवन में पूरा पालन किया।

हमारे सामने विजेन्द्र सिंह 'परवाज़' साहब की ग़ज़लों, नज़्मों, गीत और दोहों की अनूठी किताब 'ग़ज़ल की बात करूँ' खुली हुई है। इस किताब को रवि पब्लिकेशन, मेरठ ने प्रकाशित किया है, इसे आप फ्लिपकार्ट से ऑन लाइन भी मँगवा सकते हैं। उनके दिलकश क़लाम के लिए आप उन्हें 9412285618 पर बधाई भी दे सकते हैं।


तुम अपने प्यार का किस्सा उठा के बैठ गए 
हज़ार कश्तियां दरियाओं में उतरती हैं 

जो बात ख़त्म हुई उस पै लड़ रहे हैं लोग 
यहांँ तो डूब के लाशें, बहुत उभरती हैं !
*
मेरे ख़िलाफ सारा मोहल्ला है आज-कल 
तू मुझसे खुश रहे तो कोई क्यों ख़फ़ा न हो
*
उम्र भर खाए हैं हमने यूंँ सराबों के फ़रेब 
होंठ रखवाए हमारे, तिश्नगी ने रेत पर 
*
ज़रा सी बात की ख़ातिर ज़मीर क्यों बेचें!
ज़रूरतों का सफ़र सिर्फ़ ज़िंदगी तक है
*
ख़्वाहिश का मारा हुआ इंसाँ ऊंँचे दाम लगाता है 
एक तवायफ़ के कोठे पर, बिक जाते हैं मँहगे फूल
*
तितलियों का पर हिलाना भी कहां बर्दाश्त है 
बनके शबनम, फूल की पत्ती पै सोती है ग़ज़ल
*
अश्कों को पौंछने लगा खंजर की नौक से 
क़ातिल के रू-ब-रू मेरा रोना फ़िज़ूल था
*
नीम की टहनी से बच्चा खेलता है धूप में 
छाँव का अहसास मर जाए, तो तन जलता नहीं
*
वह मेरे ज़नाजे में, शामिल नहीं है 
उसे ज़िंदगी से कुछ उम्मीद होगी

मशहूर शायर निदा फ़ाज़ली साहब ने अख़बार इंकलाब में उन पर एक लेख लिखा था जिसमें वो लिखते हैं कि ' विजेन्द्र परवाज़' साहब मेरठ की मुश्तरका अदबी तहज़ीब के नुमाइंदे हैं ।इनकी उर्दू ग़ज़लें भी इस नुमाइंदगी की वाज़ह तर्जुमान हैं। उर्दू इन्हें विरसे में नहीं मिली । इसे उन्होंने अपनी ज़ाति दिलचस्पी और मेहनत से हासिल किया है। परवाज़ उर्दू को किसी मज़हब से जोड़ने के अमल को सियासत का तमाशा समझते हैं। 

मुरारी बापू ने इस किताब में परवाज़ के साहब बारे में लिखा है कि ' हमारे आदरणीय परवाज़ साहब की लेखनी में कलम तो है ही - साथ साथ बलम और सदा सदा मस्ती में डूबने वाली चलम की फूँक भी है। वैसे शब्द तो ब्रह्म है लेकिन कभी कभी सिद्ध कवि से निकला शब्द परब्रह्म का अनुभव करा देता है।'

मेरठ के जनाब तालिब ज़ैदी साहब विजेंद्र सिंह जी के बारे में लिखते हैं कि 'परवाज़ साहब कौम से त्यागी, पेशे से लेक्चरर, खानदान से ज़मींदार और मज़हब से इंसान हैं ।परवाज़ के सीने में एक हस्सास और दर्दमंद दिल है। परवाज़, सहल, आसान और हल्के अल्फाज़ से बड़ा भारी काम लेते हैं ।उनके यहां बादलों की घन गरज नहीं, वादे सबा की सुबुक ख़रामी है। उनकी बात आँखो के ज़रिये दिल के रास्ते होती हुई ज़हन में उतर जाती है।

लोकप्रिय 'भड़ास' ब्लॉग पर यशवंत जी लिखते हैं कि वे उम्दा शायर हैं, लड़ाकू शख्सीयत है, क्रांतिकारी व्यक्तित्व है, आध्यात्मिक मन है, मोरारी बापू के अनन्य भक्त हैं, औघड़ों का तन है, फकीरी रास आती है। परवाज साहब बेहद यारबाज आदमी हैं। जिसको दिल दिया फिर उसी के हो गए। जिसको अपनाया तो कभी छोड़ा नहीं। दोस्त कम बनाए लेकिन चुनकर बनाए। दुश्मनों की कभी परवाह नहीं की। परवाज साहब में गजब की विविधता है। उनके शेर में रेंज बहुत है। अध्यात्म से लेकर राजनीति तक, हर विषय पर उन्होंने गजब की लाइनें कहीं हैं।।

जब अमीरी में मुझे, गुर्बत के दिन याद आ गए 
कार में बैठा हुआ, पैदल सफ़र करता रहा
*
बाज़ारों तक आते-आते जंग लगा बेकार हुआ 
हमने लोहे के टुकड़े पर, बरसों मीनाकारी की
*
ऐसे ज़ालिम के, मैं क़ैदखाने में हूंँ 
एक ज़ंजीर तोड़ूँ दूं तो दो डाल दे
*
दामन पै दाग़ आए न आए मेरा नसीब 
कीचड़ उछाल कर तेरी हसरत निकल गई
*
जिसकी तक़दीर का हासिल है अंँधेरा उसको 
एक जुगनूँ का चमकना भी बुरा लगता है
*
ख़राब लोगों में, गुमनाम है मेरी नेकी 
घने धुएंँ में उजाला नज़र नहीं आता
*
यूंँ लगा जैसे मेरे हाथों से जन्नत छिन गई 
बेचकर बाजार से लौटा जो तेरी बालियांँ
*
सीपियांँ कौन किनारे से उठा कर भागा 
ऐसी बातों को समंदर नहीं देखा करते
*
हिलने लगे तख़्त उछलने लगे हैं ताज 
शाहों ने जब सुना कोई क़िस्सा फ़क़ीर का
*
शेरों की दहाड़ों से जंगल तो हिले लेकिन 
इक फूल के खिलने का अंदाज़ नहीं बदला

ऊर्ज़ा से भरपूर परवाज़ साहब आज भी सृजन में पल पल व्यस्त रहते हैं और अपनी रचना धर्मिता को पूर्णरूप से समर्पित हैं।  ग़ज़ल के अलावा वो मुक्तक दोहे नज़्म नात खंड काव्य आदि हर विधा पर कलम चला कर अपने हुनर का लोहा मनवा चुके हैं। सं 1970  पहली किताब 'हिंदी ग़ज़लें और मुक्तक' मन्ज़रे-आम पर आयी थी। उसके बाद 'रोटी का पेड़' जिसमें हिंदी उर्दू कवितायेँ हैं , 'शहद भगत सिंह' पर खंड काव्य, 'अंतिम दर्शन' (शोक गीत ), 'उर्दू अदब' (उर्दू नज़्म ) 'प्यासा रहा दरिया' जिसमें उनकी 201 ग़ज़लें संकलित हैं , 'मेरा प्याला' जो बच्चन साहब की मधुशाला के 69 वर्षों के बाद शराब के माध्यम से जीवन की बात करती रचनाएँ हैं जो मुरारी बापू को समर्पित है तथा 'मानस रुद्राक्ष' जिसमें मुरारी बापू की ओंकारेश्वर में पढ़ी रामकथा का अंग्रेजी में अनुवाद किया गया है किताबें प्रकाशित हो कर पाठकों में बहुत लोकप्रिय हो चुकी हैं। इनकी बहुत सी ग़ज़लें कराची पाकिस्तान में भी छपी हैं। अब तक उनकी हिंदी उर्दू और अंग्रेजी में 44 किताबें मंज़र-ऐ-आम पर हैं। इससे इनकी रचना धर्मिता का आप अंदाज़ा लगायें। रेडिओ टेलीविजन पर भी वो निरंतर अपना क़लाम पढ़ते आये हैं। दुनिया के 26 देशों में उनकी शायरी  का डंका  बज रहा है। अभी यू के में नॉटिंघम में उनसे स्वतंत्रता दिवस पर झंडा फहराने को बुलाया गया जहाँ सुनाये उनके शेरों ने लोगों को दीवाना बना दिया। रियाद के एक मुशायरे में उनके शेर सुन कर वसीम बरेलवी अपने आप को नहीं रोक पाए और उन्हें गले लगा लिया। प्रसिद्ध ग़ज़ल गायक अनूप जलोटा जी ने भी उनकी ग़ज़ल को अपना स्वर दिया है।     

परवाज़ साहब का अमृत महोत्सव 23 जून को मोहन नगर ग़ज़िआबाद में बहुत धूमधाम से मनाया गया था। शहर के तकरीबन सभी गणमान्य लोग इसमें शरीक़ हुए थे। ये इनका तीसरा अमृत महोत्सव था इससे पूर्व 17 जून को राज कौशिक जी ने गुरुग्राम में भी ऐसा ही विशाल आयोजन किया था। पहले अमृत महोत्सव का आयोजन संत मुरारी बापू ने 27 मई 2018 को अपनी रामकथा के दौरान फरीदाबाद में  किया था।   

आखिर में पेश हैं उनकी इस किताब से कुछ और अशआर :       

आह! इस हसरत ने, हम दोनों को बूढ़ा कर दिया 
बात करने को यहांँ थोड़ी सी तन्हाई मिले
*
मुसीबत क्या बिगाड़ेगी भला ! ईमानवालों का
दरख़्तों की बुलंदी से फ़लक छोटा नहीं होता
*
किसी ग़रीब की मय्यत को देके हम कांँधा 
समझ रहे हैं, ज़माना बदलने वाला है
*
चढ़ता था पेड़ पर कोई छूने को आसमान 
और लोग कह रहे थे, बड़ा होशियार है
*
अपनी ख़राबियों को छुपाना पड़ा मुझे 
भूले से जब किसी ने,समझदार कह दिया
*
ज़िंदगी भर वो ग़ज़ल का शेर कह सकता नहीं 
सुब्ह से पहले जो कमरे का बुझाता है चराग़
*
मैं नाहक ही अपनी ग़ज़लों पर यूंँ इतराता फिरता हूंँ 
जैसे अपनी जुल्फ़ किसी ने, पहले-पहले सँवारी हो

Monday, February 7, 2022

किताबों की दुनिया - 250

इश्क़ का राग जो गाना हो, मैं उर्दू बोलूंँ 
किसी रूठे को मनाना हो, मैं उर्दू बोलूंँ 

बात नफरत की हो करनी तो ज़बानें हैं कई 
जब मुझे प्यार जताना हो, मैं उर्दू बोलूंँ 

उर्दू ज़बान से बेइंतहा मुहब्बत करने वाले हमारे आज के शायर से तमाम उर्दू और हिंदी पढ़ने वाले तो मुहब्बत करते ही हैं इसके अलावा जितने भी देश-विदेश के बड़े ग़ज़ल गायक हैं वो भी इनकी ग़ज़लों के दीवाने हैं । यही कारण है कि इनकी ग़ज़लों को इतने जाने माने गायकों ने अपना स्वर दिया है कि यहाँ उन सब का नाम देना तो संभव नहीं है अलबत्ता कुछ का नाम बता देता हूँ ताकि सुधि पाठकों को उनके क़लाम के मयार और लोकप्रियता का अंदाज़ा हो जाये। इस फेहरिश्त की शुरुआत जनाब चन्दन दास जी से होती है जो जगजीत सिंह जी, पंकज उधास,अनूप जलोटा, तलत अज़ीज़ ,भूपेंद्र -मिताली, अनुराधा पौडवाल, सुरेश वाडेकर, रेखा भारद्वाज, पीनाज़ मसानी , ग़ुलाम अब्बास खान , शिशिर पारखी और सुदीप बनर्जी पर भी ख़तम नहीं होती बल्कि ग़ज़ल गायक राजेश सिंह तक जाती है। यहाँ मैं ख़ास तौर पर गायक 'राजेश सिंह' साहब का ज़िक्र जरूर करना चाहूंगा जिन्होंने हमारे आज के शायर के क़लाम को जिस अनूठे अंदाज़ में गाया है उसकी मिसाल ढूंढें नहीं मिलती।
 
उम्र भर कुछ न किया जिसकी तमन्ना के सिवा 
उसने पूछा भी नहीं मेरी तमन्ना क्या है 

इश्क़ इक ऐसा जुआ है जहांँ सब कुछ खोकर 
आप ये जान भी पाते नहीं खोया क्या है
*
मेरे अंदर जो इक फ़क़ीरी है 
यही सबसे बड़ी अमीरी है 

तुझसे रिश्ता कभी नहीं सुलझा 
इसकी फ़ितरत ही काश्मीरी है
*
अश्क का नाम भी हंसी रख कर 
हमने ग़म से निजात पायी है
*
काश लौटे मेरे पापा भी खिलौने लेकर 
काश फिर से मेरे हाथों में ख़ज़ाना आए
*
इल्म आए ना अगर काम किसी मुफ़लिस के 
आ के मुझसे मेरी दानाई को वापस ले ले 

या तो सच कहने पर सुक़रात को मारे न कोई 
या तो संसार से सच्चाई को वापस ले ले
*
हर सम्त क़त्ले आम है मज़हब के नाम पर 
सारी अक़ीदतों की खुदापरवरी की ख़ैर 

उर्दू ग़ज़ल के नाम पर चलते हैं चुटकुले 
फ़ैज़ो-फ़िराक़ो-मीर की उस साहिरी की ख़ैर
साहिरी: जादूगरी

हमारे आज के शायर जनाब अजय पांडेय 'सहाब' का जन्म 29 अप्रेल 1969 को रायपुर, छत्तीसगढ़, में हुआ जहाँ उस समय वहाँ न तो कोई उर्दू बोलता था न लिखता था और न ही कोई समझता था। हर तरफ सिर्फ़ और सिर्फ़ हिंदी का ही बोलबाला था। उनके घर का माहौल भी हिन्दीमय था। उनके परदादा श्री मुकुटधर पांडेय ने अपना समस्त जीवन हिंदी को समर्पित कर दिया था। मात्र 14 वर्ष की उम्र में उनकी पहली कविता आगरा से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'स्वदेश बांधव' में प्रकाशित हुई तथा 24 वर्ष की आयु में उनका पहला कविता संग्रह ‘पूजा के फूल’ प्रकाशित हुआ। श्री मुकुटधर पांडेय जी की कविता 'कुरकी के प्रति' को पहली छायावादी कविता और उन्हें छायावाद का जनक माना जाता है। भारत सरकार द्वारा उन्हें सन् 1976 में `पद्म श्री’ से नवाजा गया। पं० रविशंकर विश्‍वविद्यालय द्वारा भी उन्हें मानद डी लिट की उपाधि प्रदान की गई। परदादा के अलावा दादा और पिता भी हिंदी प्रेमी थे और तो और स्वयं अजय जी ने भी हिंदी साहित्य की नेशनल कॉम्पिटिशन में प्रथम स्थान प्राप्त किया था। तो फिर ऐसा क्या हुआ कि अजय जी हिंदी छोड़ उर्दू से मुहब्बत करने लगे ?

बात तब की है जब अजय जी कोई दस-बारह बरस के रहे होंगे। अजय जी की माताजी को गीत, ग़ज़ल और संगीत का बेहद शौक था,अभी भी है । घर के कैसेटप्लेयर पर अक्सर संगीत के कैसेट बजते। उन्हीं दिनों जगजीत सिंह-चित्रा सिंह जी की गायी ग़ज़लों का कैसेट 'दी अनफॉर्गेटबल' धूम मचा रहा था। अजय जी की माताजी उसे खूब सुना करतीं । एक दिन उस कैसेट में सईद राही जी की ग़ज़ल 'दोस्त बन बन के मिले --' पर अजय जी का ध्यान गया। उस ग़ज़ल में एक शेर है 'मैं तो अख़लाक़ के हाथों ही बिका करता हूँ, और होंगे तेरे बाज़ार में बिकने वाले ', बालक अजय ने अख़लाक़ शब्द को इकलाख समझा और दौड़ते हुए अपनी माताजी के पास गए और उन से बोले कि देखिये ये गायक 'इक लाख' को कैसे गलत तरीके से 'अख़लाक़' बोल रहे हैं। माताजी ने हँसते हुए उन्हें बताया कि नहीं ये लफ्ज़ 'इक लाख' नहीं 'अख़लाक़' याने नैतिकता है और ये उर्दू ज़बान का लफ्ज़ है।

अगर यूँ कहा जाय कि अजय जी की शायरी की गंगा का गोमुख 'अख़लाक़' लफ्ज़ है तो ये गलत न होगा। इस एक लफ्ज़ ने उन्हें उर्दू ज़बान सीखने को प्रेरित किया।

वही ग़ालिब है अब तो जो ख़रीदे शोहरतें अपनी 
रुबाई बेचने वाला उमर ख़य्याम है साक़ी 
*
उम्र गुज़री है जैसे कानों से 
सरसराती हवा गुज़र जाये
*
क्या लोग हैं दे जाते हैं अपनों को भी धोके 
हमको कभी दुश्मन से भी नफ़रत नहीं होती 

हर सच की ख़बर इसको हर इक झूठ पता है 
दिल से बड़ी कोई भी अदालत नहीं होती
*
दिल में हज़ार दर्द हों आंँसू छुपा के रख 
कोई तो कारोबार हो, बिन इश्तहार के
*
क्यों-कर करूं उमीद तू मुझ सा बनेगा दोस्त 
जैसा मैं चाहता हूंँ वो ख़ुद भी न बन सका 

रह कर भी दूर सुन सके अब्बा की खांसियाँ 
बेटा कभी भी बाप की बेटी न बन सका
*
वो दौर आया कि नन्हा सा एक जुगनू भी 
चमकते चांँद में कीड़े निकाल देता है
*
जिसके आने से कभी मिलती थी राहत दिल को 
आज उस शख़्स के जाने से है राहत कितनी
*
भीड़ घोंघों की है और रहबरी कछुओं को मिली 
कोई बतला दे मैं रफ़्तार कहांँ से लाऊंँ

'अख़लाक़' लफ्ज़ ने कुछ ऐसा जादू अजय साहब पर किया कि वो सब छोड़ छाड़ कर उर्दू ज़बान सीखने की क़वायद में रात-दिन एक करने लगे। जिस उम्र के लड़के सड़क पे क्रिकेट, फ़ुटबाल खेलते हैं, पार्कों में मटरगश्तियाँ करते हैं,रोमांटिक कहानियां और शायरी पढ़ते हैं उस उम्र में अजय साहब बाजार से मिर्ज़ा ग़ालिब का दीवान ख़रीद लाये। ग़ालिब की शायरी जो आज भी उर्दू के कथाकथिक धुरन्दरों को समझ में नहीं आती भला कच्ची उम्र के बच्चे को कहाँ पल्ले पड़ती ? एक हिंदी भाषी घर और हिंदी भाषी शहर में ग़ालिब को उन्हें कोई समझाता तो समझाता कौन ? सभी पहचान वाले कन्नी काट जाते। किसी ने उन्हें सलाह दी कि मस्जिद के मौलवी साहब से मिलो शायद वो समझा देंगे। एक दिन मौलवी साहब अजय साहब को सड़क पर साइकिल से आते नज़र आ गए। अजय साहब ने जब उन्हें ग़ालिब का दीवान समझाने को कहा तो वो साईकिल वहीँ पटक भागते हुए बोले तौबा करो बरखुरदार उर्दू रस्मुलख़त (याने लिपि ) पढ़ाने को कहो तो वो मैं कर सकता हूँ लेकिन ग़ालिब को समझाना मेरे बस में नहीं , मेरे ही क्या ,पूरे शहर में शायद ही किसी के बस में ग़ालिब को समझाने की समझ हो।    

अजय साहब की हिम्मत, जिद और हौंसले को सलाम क्यूंकि इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी उनकी उर्दू ज़बान सीखने की ललक जरा सी भी कम नहीं हुई। । गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर के गीत 'एकला चालो रे --" से प्रेरणा ले कर लेकर वो अकेले ही उर्दू सीखने के इस मुश्किल मिशन को पूरा करने में व्यस्त हो गए। इस मिशन की शुरुआत उन्होंने मोहम्मद मुस्तफ़ा खां मद्दाह की उर्दू-हिंदी डिक्शनरी खरीदने से की।उसके बाद अपनी एक डायरी बनाई जिसमें मुश्किल उर्दू अल्फ़ाज़ और उनके अर्थ उसमें नोट करने शुरू किये। अजय साहब को जल्द ही समझ में आ गया कि अगर उर्दू लफ़्ज़ों को याद करने और उनके अर्थ जानने से ही शायरी का फ़न आ जाता तो डिक्शनरी लिखने वाले लोग ही सबसे बड़े शायर होते।

डिक्शनरी के अलावा पंडित अयोध्या प्रसाद गोयलीय की उर्दू शायरी पर लिखी लम्बी सीरीज़ जो 'शेरो सुख़न' के नाम से छपी है ने भी अजय जी को उर्दू शायरी समझने का रास्ता दिखाया। कच्ची उम्र में उनके 'साहिर' फ़िराक़ और फ़ैज़ साहब की शायरी की किताबें इकठ्ठा हो गयीं। किताबें तो इकठ्ठा हो गयीं लेकिन शायरी समझना अभी भी टेढ़ी खीर थी।

इस ज़माने का चलन हमको सिखाता है यही 
अच्छा होने से बुरा कुछ नहीं होता यारो
*
इसमें खबरें हैं मुहब्बत की रफ़ाक़त की हुजूर 
ये मेरे मुल्क का अख़बार नहीं हो सकता 
रफ़ाक़त: मित्रता
*
जब तलक अश्क थेआंँखों में, तबस्सुम ढूंँढा 
आज होठों पर हंँसी है तो मैं आंँसू खोजूं
*
सुब्ह होते ही जिसे छोड़ गए हम दोनों 
रह गया रिश्ता भी हम दोनों का बिस्तर बनकर
*
दुनिया से तो छुपा गया, अपने सभी गुनाह 
लेकिन मेरे ज़मीर ने नंगा रखा मुझे
*
सारे जहांँ की आफ़तें और एक तेरी याद 
जैसे अकेली शमअ हो सूने मज़ार में
*
उस मुसाफिर ने नहीं पाई कभी भी मंजिल 
जिस की आदत है हर इक गाम से शिकवा करना
*
कैसा दुश्वार है रिश्ता कोई बुनना देखो 
जैसे काग़ज़ कोई बारिश में उड़ाया जाए

जिसके दामन में न हों दाग़ लहू के लोगो 
एक मज़हब मुझे ऐसा तो बताया जाए 

उम्र भर रेंगते रहने से कहीं बेहतर है 
एक लम्हा जो तहे दिल से बिताया जाए

एक कहावत आपने ज़रूर सुनी होगी 'हिम्मत-ए-मर्दां मदद-ए-ख़ुदा' याने हिम्मत वाले मर्द की मदद ख़ुदा करता है , इसी कहावत के चलते ख़ुदा ने अजय साहब की मदद को अपना नुमाइंदा उर्दू के महान विद्वान नागपुर के डॉ.'विनय वाईकर' साहब के रूप में भेज दिया। डॉ वाईकर साहब की डॉ ज़रीना सानी साहिबा के साथ हिंदी और मराठी भाषा में लिखी उर्दू-हिंदी डिक्शनरी की क़िताब 'आईना-ए-ग़ज़ल', ग़ज़ल सीखने वालों के लिए किसी वरदान से कम नहीं। तो हुआ यूँ कि 'देशबंधु' अख़बार में डॉ विनय वाईकर' जी का लेख हफ्तावार छपने लगा जिसमें वो हर हफ्ते ग़ालिब की किसी एक ग़ज़ल की विस्तार से चर्चा करते, उस ग़ज़ल में प्रयुक्त मुश्किल उर्दू फ़ारसी के लफ़्ज़ों का अर्थ समझाते और उन लफ़्ज़ों को बरतने के पीछे छुपे कारण भी बताते। उनका लेख ग़ालिब की ग़ज़ल और उसके भाव को सरल भाषा में पूरी तरह से अपने पाठक तक पहुंचाने में क़ामयाब होता। अफ़सोस की बात है कि वो लेख कहीं क़िताब की शक्ल में हिंदी में उपलब्ध नहीं हैं ,शायद मराठी में उनकी किताब 'क़लाम-ए-ग़ालिब' अमेजन पर जरूर उपलब्ध है। ख़ैर !! उन लेखों को काट काट कर अजय जी ने एक फ़ाइल बना ली जिसे वो जब समय मिलता पढ़ते। नतीज़ा ये निकला कि उन्हें न केवल ग़ालिब की ग़ज़लें याद हो गयीं बल्कि उनके अर्थ भी समझ में आ गए। यही कारण है कि उनसे ग़ालिब की ग़ज़लों पर बहस करने से उर्दू के बड़े बड़े शायर भी घबराते हैं।

एक बार का वाक़या है कि किसी मुशायरे में जहाँ उर्दू के बहुत से नामचीन शायर भी शिरक़त कर रहे थे ,अजय साहब ने ग़ालिब की एक मुश्किल ज़मीन पर कही ग़ज़ल के मिसरे पर फिलबदीह ग़ज़ल पढ़ी। ग़ज़ल इस क़दर पुख्ता थी कि अगर उसे कोई कहीं बिना उसका बैक ग्राउंड जाने पढता तो उस ग़ज़ल को ग़ालिब की ही ग़ज़ल समझता। अजय साहब को मंच पर बैठे उस्ताद शायरों से दाद की उम्मीद थी लेकिन वहाँ तो जैसे सबको साँप सा सूँघ गया लगता था। कारण ? या तो उन्हें ग़ालिब की ज़मीन पर कही ग़ज़ल समझ नहीं आयी या वो अहसास-ए-कमतरी के शिकार हो गए। मंच पर नौटंकी कर वाह वाह बटोरना अलग बात है और ग़ालिब को समझना अलग।

संक्षेप में कहूँ तो डॉ विनय वाईकर साहब के ग़ालिब की ग़ज़लों पर लिखे लेखों से अजय साहब में ग़ज़ल कहने की इच्छा बलवती हो गयी और वो बाकायदा शेर कहने लगे। दोस्तों ने तारीफ़ की तो ख़ुद को शायर भी समझने लगे। उन्हीं दिनों रायपुर में एक मुशायरा हुआ जिसमें मशहूर शायर निदा फ़ाज़ली साहब भी तशरीफ़ लाये। मुशायरे के बाद अजय साहब उनसे मिलने गए और उन्हें अपना एक शेर सुनाया जिसकी निदा साहब ने भरपूर तारीफ़ की और कहा की बरखुरदार तुम अपना कोई तख़ल्लुस रखो और उन्होंने फिर ख़ुद ही 'सहाब' याने बादल तख़ल्लुस सुझाया जो अजय जी को भी बेहद पसंद आया। तब से अजय पांडेय जी अजय 'सहाब' हो गए।  

अब तक कभी आया न वो आएगा बचाने 
किस दौर-ए-मुसीबत में ख़ुदा ढूंढ रहे हो
*
टूट जाता है ये शीशे का तसव्वुर मेरा 
याद तेरी किसी पत्थर की तरह आती है 

सिर्फ़ क़तरों की तरह बूंँद में मिलती है ख़ुशी 
और उदासी तो समंदर की तरह आती है
*
मैंने लगाए आज उदासी में क़हक़हे
 रोना भी इस जहान में दुश्वार देखकर 

मैं शर्म से मरा हूंँ , मेरे क़त्ल से नहीं 
सब दोस्तों के हाथ में तलवार देखकर
*
हर रिंद में अभी तक इंसानियत बची है 
इन पर नहीं पड़े हैं दैर-ओ हरम के साए
*
तू कितना लाजवाब है तुझ क पता चले 
इक बार ख़ुद को देख तू मेरी निगाह से
*
कुछ भी मजबूरियां न थी उसकी 
फिर भी वो बेवफ़ा हुआ हमसे
*
तनहाई की क़मीज़ है यादों की एक शॉल 
मेरा यही लिबास है मौसम कोई भी हो
*
रोक लूंँ मैं न कहीं हाथ पकड़ कर उसको 
अब तो तन्हाई भी घर आने से कतराती है

अक्सर ऐसा होता है कि जब आप बहुतसी किताबें पढ़ कर या शायरों को सुनकर ग़ज़ल कहने की कोशिश करते हैं तो अधिकतर ग़ज़लें ग़ज़ल के व्याकरण याने अरूज़ पर ठीक उतरती हैं। मंच के ऐसे बहुत से कामयाब शायर जो बे-बहर ग़ज़लें कहते हैं भले ही अपनी ग़ज़लों की वाह वाही के नशे में अरूज़ सीखने को महत्व न देते हों वो मंच से दूर होते ही भुला दिए जाते हैं। किसी भी ग़ज़लकार को ग़ज़ल का अरूज़ आना ही चाहिए। अजय जी को इस बात का पता तब चला जब वो बहुत सी ग़ज़लें कह चुके थे। उनकी जगह कोई और होता तो शायद इस बात को महत्त्व नहीं देता लेकिन अजय जी उर्दू ग़ज़ल के सच्चे आशिक़ हैं इसलिए उन्होंने अरूज़ सीखने के लिए ऐड़ी से चोटी तक का जोर लगा दिया। अरूज़ सीखने के इस प्रयास में उन्हें भिलाई के जनाब 'साकेत रंजन' मिल गए जिनके बारे में अजय साहब ने लिखा है कि "हिंदुस्तान में उनसे आसान ज़बान में अरूज़ समझा सकने वाला उस्ताद शायद ही कोई हो।"
 
उस्ताद शायरों के क़लाम को दिल से पढ़ कर और अरूज़ का पूरा ज्ञान लेकर जब अजय 'सहाब जी ने ग़ज़लें कहने शुरू पहली की तो छा गए। उनकी उनकी शायरी की पहली किताब 'उम्मीद' सन 2014 में मंज़र-ए-आम पर आयी दूसरी 'मैं उर्दू बोलूँ' सन 2019 में दुबई से उर्दू रस्मुलख़त में और यही किताब हिंदी में सं 2021 में विजया बुक्स दिल्ली से प्रकाशित हुई है। आप इस किताब को विजया बुक्स से सीधे ही 9910189445 पर फ़ोन करके मँगवा सकते हैं। ये किताब अमेजन से ऑन लाइन भी मंगवाई जा सकती है।


घर-घर से ठुकराई अम्मा 
वृद्धाश्रम में आई अम्मा 

यूँ तो कोई हाल न पूछे 
पर गीतों मैं छाई अम्मा 

कितने ही बेटों ने बनाया 
तुझको आया, दाई अम्मा 

रिश्तों का तू देख ले चेहरा 
आएगी उबकाई अम्मा
*
सारे भगवान हैं इंसान के डर की तख़लीक़ 
तल्ख़ सच मैं यहांँ इरशाद करूं या न करूंँ 
तख़लीक़: रचना
*
उसका अपना ही सामने कर दो 
आदमी को अगर हराना हो 

पहले रोना तो सीख लो यारो 
इससे पहले कि खिलखिलाना हो
*
घोंघे रहे हैं हर तरफ यहांँ इन्सां के भेष में 
कुछ भी हुआ तो खोल में अपनी सिमट गए
*
बस सांस लिए जाते हैं इक रस्म है ये भी 
ज़िंदा हमें कहती है यह दुनिया का भरम है
*
न तो लफ़्ज़ खूँ से रंँगे हुए न शराब है कहीं अश्क की
ये सुखनवरी भी नमाज़ है इसे पढ़ सकोगे न बेवुज़ू

अजय 'सहाब' जी की ग़ज़लों के एक दर्ज़न से अधिक अल्बम बाजार में आ चुके हैं जिसमें पंकज उधास के स्वर में 'सेंटीमेंटल', 'ख़ामोशी आवाज़' और 'मदहोश' विशेष हैं , मदहोश अल्बम की सभी ग़ज़लें 'सहाब' जी की लिखी हुई हैं। एक मिलियन व्यूज के जादुई आंकड़े को फेसबुक पर पार करने वाली पहली ग़ज़ल 'काश' जिसे अनूप श्रीवास्तव साहब ने स्वर दिया अजय 'सहाब' जी की क़लम का ही करिश्मा है। इसके अलावा सुदीप बनर्जी ' के साथ  'धड़कन-धड़कन', शिशिर पारखी जी के साथ वन्स मोर' और रुमानियत, गुलाम अब्बास खान साहब के साथ रूहे ग़ज़ल' आदि उल्लेखनीय हैं।

अजय 'सहाब' जी की ग़ज़लों के एक दर्ज़न से अधिक अल्बम बाजार में आ चुके हैं जिसमें पंकज उधास के स्वर में 'सेंटीमेंटल', 'ख़ामोशी की आवाज़' और 'मदहोश' विशेष हैं , 'मदहोश' अल्बम की सभी ग़ज़लें 'सहाब' जी की लिखी हुई हैं। एक मिलियन व्यूज के जादुई आंकड़े को फेसबुक पर पार करने वाली पहली ग़ज़ल 'काश' जिसे अनूप श्रीवास्तव साहब ने स्वर दिया अजय 'सहाब' जी की क़लम का ही करिश्मा है। इसके अलावा सुदीप बनर्जी ' के साथ 'धड़कन-धड़कन', शिशिर पारखी जी के साथ 'वन्स मोर' और 'रुमानियत', गुलाम अब्बास खान साहब के साथ 'रूहे ग़ज़ल' आदि उल्लेखनीय हैं।

जैसा मैंने बताया कि सभी जाने-माने ग़ज़ल गायकों ने अजय जी की ग़ज़लों को स्वर दिया लेकिन उनमें श्री राजेश सिंह जी का विशेष उल्लेख करना जरूरी है। श्री राजेश सिंह एक छोटी सी नशिस्त में कहीं गा रहे थे जिसे अजय जी ने सुन कर सोचा कि इतनी मधुर आवाज़ को जन-जन तक पहुँचना चाहिए। ये सोच कर उन्होंने 'अल्फ़ाज़ और आवाज़' ( https://www.youtube.com/channel/UCDVgZQ9dEe5lKgzFO2yORqQ/featured) कार्यक्रम की कल्पना की जिसमें राजेश जी, अजय जी की ग़ज़लें तो गाते ही हैं साथ में कुछ पुराने गाने और उस्ताद शायरों की ग़ज़लें भी गाते हैं इन गानों और ग़ज़लों में 'अजय' जी अपने लिखे नए अशआर कुछ इस तरह पिरोते हैं कि वो ओरिजिनल गाने या ग़ज़ल का ही हिस्सा लगते हैं। ये अपनी तरह का का एक अनूठा और हैरत अंगेज़ काम है जिसकी, बिना सुने और देखे, आप कल्पना भी नहीं कर सकते। यू ट्यूब पर 'अलफ़ाज़ और आवाज़' सर्च करें और इन दोनों को परफॉर्म करते देखें-सुनें तो आप दांतों तले उँगलियाँ दबाये बगैर नहीं रह पाएंगे।मुझे यक़ीन है कि जिस तरह अजय जी ने साहिर साहब की कालजयी नज़्म 'चलो इक बार फिर से...' में अपने क़लम का जलवा दिखाया उसे राजेश जी और ज्ञानिता द्विवेदी जी की आवाज़ में अगर साहिर साहब सुन पाते तो अजय जी को दाद देने से ख़ुद को नहीं रोक पाते।ये दुधारी तलवार पर चलने जैसा काम था जिसे अजय जी क्या खूब कर दिखाया है। ये नज़्म यू ट्यूब पर देखें और आप भी दाद दें.( https://youtu.be/QqFynaqDwak)

इस कार्यक्रम का आगाज़ हैदराबाद के सालारजंग म्यूजियम से हुआ उसके बाद इस कार्यक्रम ने देश में ही नहीं विदेशों में भी धूम मचा रखी है। 

अजय जी छत्तीसगढ़ में कमीश्नर और एडिशनल डायरेक्टर जनरल जी.एस.टी के रसूख़दार और अतिव्यस्त ओहदे पर होने के बावजूद अपने पैशन के लिए समय निकालते हैं और राजेश जी के साथ देश-विदेश घूमते हैं। उर्दू ज़बान के प्रति उनके समर्पण को लफ़्ज़ों में बयाँ करना मुमकिन नहीं। उर्दू से इसक़दर मुहब्बत करने वाले अजय जी को आप 9981512285 पर फोन कर बधाई दे सकते हैं।       

मुशायरे के मंचों पर जाने से अजय जी बचते हैं। उर्दू, जिसे एक धर्म विशेष की भाषा मान लिया गया है में किसी दूसरे मज़हब के इंसान को आगे बढ़ता देख कुछ संकीर्ण प्रवर्ति के तथाकथिक महान शायर असहज हो कर घटिया हरकतें करने लगते हैं। उनकी ओछी हरकतें अजय जी को बर्दाश्त नहीं होतीं। शायरी 'अजय' जी का पेशा नहीं शौक है इसलिए वो किसी से दबते नहीं और उस शायर की हैसियत की परवाह किये बगैर जिसने छींटाकशी या घटिया हरक़त की है, मुँह-तोड़ जवाब देते हैं। मुशायरों के बाज़ार में अब शायरी को भाव नहीं मिलता उसकी जगह अदाकारी और गुलूकारी को अच्छी क़ीमत मिलती है। हो सकता है ये बात किसी को ग़वारा न हो इसलिए इसे यहीं छोड़ आपको अंत में उनकी ग़ज़लों के कुछ और चुनिंदा शेर पढ़वाते हैं :- 

मेरे हमदम तू मुझे काट के छोटा कर दे 
यही चारा है तेरे क़द को बढ़ाने के लिए
*
इन्किसार आया तो चूमा है ज़मीं को मैंने 
जब तकब्बुर था, मेरा अर्श से सर लगता था
इन्किसार: नम्रता, तकब्बुर: घमंड
*
सिर्फ़ शैतान को दिखता है नतीजा इसमें 
जो है इंसान उसे जंग से डर लगता है
*
तुझको देखे बिना धड़कता है 
अब तो इस दिल पे शर्म आती है 
*
अभी भी वक्त है यलगार रोको इन अंधेरों की 
वगरना भूल जाओगे उजाला किसको कहते हैं 
यलगार: हमला
*
कितना दुश्वार है अंदाज समझना तेरा 
जिंदगी तू मुझे ग़ालिब की ग़ज़ल लगती है 
*
वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन
मुझे हिस्सा नहीं बनना कभी ऐसी कहानी का 
*
तेरे जाने की दास्ताँ लिखकर 
मेरे लफ्जों ने ख़ुदकुशी कर ली
*
रोटी पे सुनके शेर वो भूखा तो चुप रहा 
भरपेट खाए लोगों ने बस वाह-वाह की
(ये ही वो शेर है जिसे सुनकर निदा फ़ाज़ली साहब ने तारीफ़ की और अजय पांडेय जी को 'सहाब' तख़ल्लुस रखने का मशवरा दिया था )