क्या पूछो हो ! सन्यासी की दौलत को
एक कमंडल इक मृगछाला जय सियाराम
खुले किवाड़ों सोए तेरे दीवाने
कैसी साँकल ! किसका ताला, जय सियाराम
*
कोई बुरा भी कहे, तो जवाब क्या देना !
ये मान लीजिए, ऊंँचा सुनाई देता है
तेरी गली में तुझे, देखते ही दिल ने कहा
यहां तो चांँद भी, दिन में दिखाई देता है
*
हटाई नफ़रतों की पट्टियां जब अपनी आंखों से
मुझे हर आदमी में कुछ न कुछ अच्छा नज़र आया
*
होश वाले भी तो किस, दीवानगी में लग गए
अपनी कमियांँ छोडकर, मेरी कमी में लग गए
इस बदलते दौर के ये नौजवाँ भी खूब हैं !
मौत से डरते भी हैं और आशिक़ी में लग गए
*
यह आंँधियांँ मेरी आंँखों का क्या बिगाड़ेंगी
कि इतनी धूल मेरी, जूतियों में रहती है
*
सोहबत से भी किस्मत का बदलना नहीं मुमकिन
असरात न फूलों के कभी खार में आए
हसरात :प्रभाव
*
राम बनकर क्यों कोई जंगल में कांटे चौदह साल
कैसी कुर्बानी ! सभी को, राजधानी चाहिए
सबसे पहले पढ़िए जो हमारे आज के शाइर.ने 28 जनवरी 2006 को लाल किले दिल्ली में आयोजित गणतंत्र दिवस पर होने वाले अखिल भारतीय मुशायरे में अपनी रचनाएँ पढ़ने हे पहले लोगों से कहा कि 'जैसे भी हो सके अदब यानी साहित्य को प्रोपेगैंडा होने से बचाइए । तमाम इंसानियत के लिए कोई पैग़ाम होना चाहिए। मानव मूल्यों को समझकर काव्य में रखा जाना चाहिए । नमक-मिर्च सी चटपटी बातें या क़ौम-ओ-मज़हब का सहारा बैसाखियों की तरह इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए । ये कमज़ोरी है, गिरावट है और साहित्य में रंगे सियारों का आ जाना है। साहित्य, और वो भी विशेष रूप से काव्य के गिरते हुए स्तर को देखकर आज दुख होता है। कवि सम्मेलनों और मुशायरों का मेयार भी दिन-ब-दिन नीचे आ रहा है ।वो कुछ लिखा और पढ़ा जा रहा है जो न तो लिखा ही जाना चाहिए न पढ़ा ही जाना चाहिए। अग्रिम श्रेणी के लोग पिछली पंक्ति में खड़े हैं ।इस सब का कारण है कवियों-शायरों का एक मात्र व्यवसायिक हो जाना और धड़े बाज़ियों में तक़्सीम हो जाना। पाठकों और श्रोताओं की मामूली सोच भी ऐसे-वैसों को सफल बना रही है।'
एक इतने बड़े साहित्यिक मंच से ऐसी सच्ची ख़री बात वही कर सकता है जिसके लिए काव्य साधना एक इबादत है, जो किसी धड़े से जुड़ा हुआ नहीं है और न जिसे झूठी शोहरत और उससे कमाए पैसे की परवाह है। शायद यही कारण है कि उसे जिंदगी में वो बुलंदी हासिल नहीं हुई जिसका वो हक़दार है क्योंकि इस गला काट स्पर्धा से वो बाहर है लेकिन उसे वो सुकून हासिल है जो न शोहरत से आता है न पैसे से। उसे चाहने वालों की तादाद भले कम हों पर जितनी भी है वो सब उसे दिल से चाहने वाले हैं।
नहीं रोने से कुछ हासिल तो फिर किस वास्ते रोएं
हम ऐसे कामगर ठहरे जो बेगारी नहीं करते
*
तुझे जब देखता हूंँ तो दिखाई कुछ नहीं देता
तेरी सूरत मुझे महफ़िल में तन्हा डाल देती है
*
कहीं महफ़ूज़ रह जाते हैं तिनके बिजलियों तक में
कहीं फूलों की बारिश में भी पत्थर टूट जाते हैं
सियासत कैसे कैसे रंग दुनिया में बदलती है
यहां तो रहज़नों के हक़ में रहबर टूट जाते हैं
*
मैंने जिस रोज़ तेरे हंँसने की तारीफें कीं
कितने फूलों ने तेरे घर का पता पूछा है
*
इस बार कर तू सोच-समझ कर मदद की बात
ऐसा न हो कि फिर मैं अकेला खड़ा रहूंँ
हंँस-हंँस के मुश्किलों का मजज़ा ले रहा हूंँ मैं
पलकों पै आंँसुओं की तरह क्यों सजा रहूँ
*
जो एक कांटे के चुभने का ग़म मनाते हैं
मुझे सलीब की क़ीमत पै आज़माते हैं
हम अपने आप पै फिर किसलिए न इतराएं!
फ़रेब देते नहीं हैं फ़रेब खाते हैं
*
इस शहर के लोगों की हर इक फूँक है आंँधी
हाथों में चराग़ों को लिए, कौन खड़ा है!
हमारे आज के शायर जनाब 'विजेंद्र सिंह परवाज' साहब का जन्म 28 मार्च 1943 को 'मेरठ' जिले के तहसील 'सरधना' के गांँव 'भूनी' के त्यागी ब्राह्मण परिवार के यहां हुआ। घर का वातावरण धार्मिक था ।पिता को उर्दू साहित्य से बेहद लगाव था। विजेन्द्र जी का कविता लिखने की ओर रूझान जब वो छठी कक्षा में पढ़ते थे तब से ही हो गया था। सबसे पहले जो कविता उन्होंने लिखी उसकी पहली पंक्ति थी ' कितना सुंदर मेरा फूल' ये पंक्ति ही वो गुमुख है जिससे उनके जीवन में अब तक काव्य की गंगा लगातार बह रही है।
'परवाज़' साहब का कहना है कि शायरी एक पैदाइशी फन है जो आपमें जन्म से ही ऊपर वाला अता कर देता है बाद में जिंदगी के हादसात और वाक़यात इसे और डवलप कर देते हैं। प्राइमरी शिक्षा 'भूनी' में पूरी करने के बाद आगे पढ़ने के लिए इन्हें 'सरधना' आना पड़ा। सरधना में इंटरमीडिएट के दौरान ये अच्छी खासी शायरी करने लगे थे। शायरी करते तो थे लेकिन उसमें पुख़्तगी नहीं थी। उर्दू के अल्फ़ाज़ तो सीख लिए लेकिन शायरी के जरूरी इल्मे अरूज की जानकारी बिल्कुल नहीं थी। उन्होंने इस बात का ज़िक़्र अपने वालिद जनाब विष्णु दत्त त्यागी साहब से किया। पिता उन्हें हापुड़ के मशहूर और मुकम्मल शाइर स्व. जनाब क़ाज़ी मुफ़्ती अमीर अहमद 'सरीर' साहब के पास ले गये। एक अच्छा उस्ताद बहुत मुश्किल से मयस्सर होता है ,परवाज़ साहब इस मामले में खुशकिस्मत निकले क्योंकि उस्ताद से मिल कर उन को लगा जैसे उन्हें अपनी मंजिल,जिसकी तलाश थी, मिल गई। उन्हीं के क़दमों में बैठ कर परवाज़ साहब ने अपनी शायरी का आग़ाज़ किया।
भंँवर का और किनारे का फ़र्क़ मत पूछो
मैं डूबता था वो आँचल संवारने में रहा
*
अब मेरे इख़लाक़ की परवाज़ ऊँची हो गई
रास्ते में जो भी घर आया वो अपना घर लगा
इख़लाक़: चरित्र
*
मैं दीप बनके जिनके, अंँधेरों में जल उठा
वो दिन की रोशनी में, मुझे भूल जाएंँगे
ज़ंजीर टूट जाएगी उस रोज ज़ब्त की
जब वो मेरे क़रीब मुझे छोड़ जाएंगे
*
हंँसने का कोई लुत्फ़, न रोने का कुछ मज़ा
यूंँ भी तो कहकहे हैं यहांँ !सिसकियों के बीच
ये ताक-झांक छोड़िए अंदर तो आईए
दरवाज़ा किस लिए है! मेरी खिड़कियों के बीच
*
हम खरा सोना थे जब तक इस ज़मीं में दफ़्न थे
हाथ में लोगों के जब आए, तो पीतल हो गए
*
किसी के साथ लड़ाई भी मुस्तकिल तो नहीं
न दुश्मनी को हमेशा दिमाग़ में रखना
किसी को पाने का अरमाँ, तो जान ले लेगा
ये एक जिन है, इसे तुम चराग़ में रखना
*
तुम मेरे किरदार को रुस्वा न कर पाओगे दोस्त
बहते पानी पर महल कर पाएगा तामीर कौन
उस्ताद की रहनुमाई में सबसे पहले उन्होंने उर्दू रस्मुल ख़त लिखने पढ़ने में महारत हासिल की। उसके बाद उर्दू के शायरों को एक एक करके पढ़ा ।उन शायरों पर की गई तनक़ीद को भी पढ़ा। उस्ताद उनको उर्दू शायरों के क़लाम की बारीकियों समझाते उनके इस्तेमाल किये लफ़्ज़ों पर गौर फरमाने को कहते। शायरी में ख़्यालों को सरलता से पिरोने का हुनर सिखाते। बी.ए. और एम.ए. मेरठ से करने के दौरान उन्होंने मीर, ग़ालिब, इक़बाल और मज़ाज की कुलियात एक बार नहीं कई कई बार पढ़ी। विजेंद्र सिंह परवाज पहले ऐसे छात्र हैं जिन्होंने मेरठ विश्विद्यालय से पोस्ट ग्रेजुएट की पहली डिग्री हासिल की थी.जिस समय उन्होंने एनएएस कॉलेज से एमए अंग्रेजी किया था.तब चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय में एक ईट तक नहीं लगी थी.उस दौर में सभी परीक्षाएं आगरा विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित होती थीं.इन चारों शायरों के क़लाम के अलावा जनाब मज़रूह सुल्तान पुरी साहब की शायरी से भी बहुत मुत्तासिर हुए। उर्दू के इन शोअरा के अलावा आपने हिंदी में कबीर, निराला, बच्चन और दिनकर जी और अंग्रेज़ी में शैक्सपियर, मिल्टन और कीट्स को पढ़ा और कॉलेजो़ में पढ़ाया भी ।इतना सब अधय्यन करने के बाद ही आपने शेर कहने शुरू किये। उन्होंने एक पुरानी कहावत कि 'एक मेट्रिक टन पढ़ो और दस ग्राम लिखो' का जीवन में पूरा पालन किया।
हमारे सामने विजेन्द्र सिंह 'परवाज़' साहब की ग़ज़लों, नज़्मों, गीत और दोहों की अनूठी किताब 'ग़ज़ल की बात करूँ' खुली हुई है। इस किताब को रवि पब्लिकेशन, मेरठ ने प्रकाशित किया है, इसे आप फ्लिपकार्ट से ऑन लाइन भी मँगवा सकते हैं। उनके दिलकश क़लाम के लिए आप उन्हें 9412285618 पर बधाई भी दे सकते हैं।
तुम अपने प्यार का किस्सा उठा के बैठ गए
हज़ार कश्तियां दरियाओं में उतरती हैं
जो बात ख़त्म हुई उस पै लड़ रहे हैं लोग
यहांँ तो डूब के लाशें, बहुत उभरती हैं !
*
मेरे ख़िलाफ सारा मोहल्ला है आज-कल
तू मुझसे खुश रहे तो कोई क्यों ख़फ़ा न हो
*
उम्र भर खाए हैं हमने यूंँ सराबों के फ़रेब
होंठ रखवाए हमारे, तिश्नगी ने रेत पर
*
ज़रा सी बात की ख़ातिर ज़मीर क्यों बेचें!
ज़रूरतों का सफ़र सिर्फ़ ज़िंदगी तक है
*
ख़्वाहिश का मारा हुआ इंसाँ ऊंँचे दाम लगाता है
एक तवायफ़ के कोठे पर, बिक जाते हैं मँहगे फूल
*
तितलियों का पर हिलाना भी कहां बर्दाश्त है
बनके शबनम, फूल की पत्ती पै सोती है ग़ज़ल
*
अश्कों को पौंछने लगा खंजर की नौक से
क़ातिल के रू-ब-रू मेरा रोना फ़िज़ूल था
*
नीम की टहनी से बच्चा खेलता है धूप में
छाँव का अहसास मर जाए, तो तन जलता नहीं
*
वह मेरे ज़नाजे में, शामिल नहीं है
उसे ज़िंदगी से कुछ उम्मीद होगी
मशहूर शायर निदा फ़ाज़ली साहब ने अख़बार इंकलाब में उन पर एक लेख लिखा था जिसमें वो लिखते हैं कि ' विजेन्द्र परवाज़' साहब मेरठ की मुश्तरका अदबी तहज़ीब के नुमाइंदे हैं ।इनकी उर्दू ग़ज़लें भी इस नुमाइंदगी की वाज़ह तर्जुमान हैं। उर्दू इन्हें विरसे में नहीं मिली । इसे उन्होंने अपनी ज़ाति दिलचस्पी और मेहनत से हासिल किया है। परवाज़ उर्दू को किसी मज़हब से जोड़ने के अमल को सियासत का तमाशा समझते हैं।
मुरारी बापू ने इस किताब में परवाज़ के साहब बारे में लिखा है कि ' हमारे आदरणीय परवाज़ साहब की लेखनी में कलम तो है ही - साथ साथ बलम और सदा सदा मस्ती में डूबने वाली चलम की फूँक भी है। वैसे शब्द तो ब्रह्म है लेकिन कभी कभी सिद्ध कवि से निकला शब्द परब्रह्म का अनुभव करा देता है।'
मेरठ के जनाब तालिब ज़ैदी साहब विजेंद्र सिंह जी के बारे में लिखते हैं कि 'परवाज़ साहब कौम से त्यागी, पेशे से लेक्चरर, खानदान से ज़मींदार और मज़हब से इंसान हैं ।परवाज़ के सीने में एक हस्सास और दर्दमंद दिल है। परवाज़, सहल, आसान और हल्के अल्फाज़ से बड़ा भारी काम लेते हैं ।उनके यहां बादलों की घन गरज नहीं, वादे सबा की सुबुक ख़रामी है। उनकी बात आँखो के ज़रिये दिल के रास्ते होती हुई ज़हन में उतर जाती है।
लोकप्रिय 'भड़ास' ब्लॉग पर यशवंत जी लिखते हैं कि वे उम्दा शायर हैं, लड़ाकू शख्सीयत है, क्रांतिकारी व्यक्तित्व है, आध्यात्मिक मन है, मोरारी बापू के अनन्य भक्त हैं, औघड़ों का तन है, फकीरी रास आती है। परवाज साहब बेहद यारबाज आदमी हैं। जिसको दिल दिया फिर उसी के हो गए। जिसको अपनाया तो कभी छोड़ा नहीं। दोस्त कम बनाए लेकिन चुनकर बनाए। दुश्मनों की कभी परवाह नहीं की। परवाज साहब में गजब की विविधता है। उनके शेर में रेंज बहुत है। अध्यात्म से लेकर राजनीति तक, हर विषय पर उन्होंने गजब की लाइनें कहीं हैं।।
जब अमीरी में मुझे, गुर्बत के दिन याद आ गए
कार में बैठा हुआ, पैदल सफ़र करता रहा
*
बाज़ारों तक आते-आते जंग लगा बेकार हुआ
हमने लोहे के टुकड़े पर, बरसों मीनाकारी की
*
ऐसे ज़ालिम के, मैं क़ैदखाने में हूंँ
एक ज़ंजीर तोड़ूँ दूं तो दो डाल दे
*
दामन पै दाग़ आए न आए मेरा नसीब
कीचड़ उछाल कर तेरी हसरत निकल गई
*
जिसकी तक़दीर का हासिल है अंँधेरा उसको
एक जुगनूँ का चमकना भी बुरा लगता है
*
ख़राब लोगों में, गुमनाम है मेरी नेकी
घने धुएंँ में उजाला नज़र नहीं आता
*
यूंँ लगा जैसे मेरे हाथों से जन्नत छिन गई
बेचकर बाजार से लौटा जो तेरी बालियांँ
*
सीपियांँ कौन किनारे से उठा कर भागा
ऐसी बातों को समंदर नहीं देखा करते
*
हिलने लगे तख़्त उछलने लगे हैं ताज
शाहों ने जब सुना कोई क़िस्सा फ़क़ीर का
*
शेरों की दहाड़ों से जंगल तो हिले लेकिन
इक फूल के खिलने का अंदाज़ नहीं बदला
ऊर्ज़ा से भरपूर परवाज़ साहब आज भी सृजन में पल पल व्यस्त रहते हैं और अपनी रचना धर्मिता को पूर्णरूप से समर्पित हैं। ग़ज़ल के अलावा वो मुक्तक दोहे नज़्म नात खंड काव्य आदि हर विधा पर कलम चला कर अपने हुनर का लोहा मनवा चुके हैं। सं 1970 पहली किताब 'हिंदी ग़ज़लें और मुक्तक' मन्ज़रे-आम पर आयी थी। उसके बाद 'रोटी का पेड़' जिसमें हिंदी उर्दू कवितायेँ हैं , 'शहद भगत सिंह' पर खंड काव्य, 'अंतिम दर्शन' (शोक गीत ), 'उर्दू अदब' (उर्दू नज़्म ) 'प्यासा रहा दरिया' जिसमें उनकी 201 ग़ज़लें संकलित हैं , 'मेरा प्याला' जो बच्चन साहब की मधुशाला के 69 वर्षों के बाद शराब के माध्यम से जीवन की बात करती रचनाएँ हैं जो मुरारी बापू को समर्पित है तथा 'मानस रुद्राक्ष' जिसमें मुरारी बापू की ओंकारेश्वर में पढ़ी रामकथा का अंग्रेजी में अनुवाद किया गया है किताबें प्रकाशित हो कर पाठकों में बहुत लोकप्रिय हो चुकी हैं। इनकी बहुत सी ग़ज़लें कराची पाकिस्तान में भी छपी हैं। अब तक उनकी हिंदी उर्दू और अंग्रेजी में 44 किताबें मंज़र-ऐ-आम पर हैं। इससे इनकी रचना धर्मिता का आप अंदाज़ा लगायें। रेडिओ टेलीविजन पर भी वो निरंतर अपना क़लाम पढ़ते आये हैं। दुनिया के 26 देशों में उनकी शायरी का डंका बज रहा है। अभी यू के में नॉटिंघम में उनसे स्वतंत्रता दिवस पर झंडा फहराने को बुलाया गया जहाँ सुनाये उनके शेरों ने लोगों को दीवाना बना दिया। रियाद के एक मुशायरे में उनके शेर सुन कर वसीम बरेलवी अपने आप को नहीं रोक पाए और उन्हें गले लगा लिया। प्रसिद्ध ग़ज़ल गायक अनूप जलोटा जी ने भी उनकी ग़ज़ल को अपना स्वर दिया है।
परवाज़ साहब का अमृत महोत्सव 23 जून को मोहन नगर ग़ज़िआबाद में बहुत धूमधाम से मनाया गया था। शहर के तकरीबन सभी गणमान्य लोग इसमें शरीक़ हुए थे। ये इनका तीसरा अमृत महोत्सव था इससे पूर्व 17 जून को राज कौशिक जी ने गुरुग्राम में भी ऐसा ही विशाल आयोजन किया था। पहले अमृत महोत्सव का आयोजन संत मुरारी बापू ने 27 मई 2018 को अपनी रामकथा के दौरान फरीदाबाद में किया था।
आखिर में पेश हैं उनकी इस किताब से कुछ और अशआर :
आह! इस हसरत ने, हम दोनों को बूढ़ा कर दिया
बात करने को यहांँ थोड़ी सी तन्हाई मिले
*
मुसीबत क्या बिगाड़ेगी भला ! ईमानवालों का
दरख़्तों की बुलंदी से फ़लक छोटा नहीं होता
*
किसी ग़रीब की मय्यत को देके हम कांँधा
समझ रहे हैं, ज़माना बदलने वाला है
*
चढ़ता था पेड़ पर कोई छूने को आसमान
और लोग कह रहे थे, बड़ा होशियार है
*
अपनी ख़राबियों को छुपाना पड़ा मुझे
भूले से जब किसी ने,समझदार कह दिया
*
ज़िंदगी भर वो ग़ज़ल का शेर कह सकता नहीं
सुब्ह से पहले जो कमरे का बुझाता है चराग़
*
मैं नाहक ही अपनी ग़ज़लों पर यूंँ इतराता फिरता हूंँ
जैसे अपनी जुल्फ़ किसी ने, पहले-पहले सँवारी हो