पीछे बंधे हैं हाथ मगर शर्त है सफ़र
किस से कहें कि पाँव के कांटे निकाल दे
चलिए शायरी के दीवानों से एक पहेली पूछी जाय इस पहेली को मेरे जैसे पुरानी हिंदी फिल्मों के प्रेमी शायद सुलझा पाएं लेकिन नई नस्ल के पाठकों से इस पहेली का जवाब मिलना अगर असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर है। जरा इन पुराने फ़िल्मी गानों को याद करें 1. यूँ तो हमने लाख हसीं देखे हैं तुमसा नहीं देखा --- 2. माँग के साथ तुम्हारा मैंने माँग लिया संसार ---3. जरा हौले हौले चलो मेरे साजना ,हम भी पीछे हैं तुम्हारे---4. मैं रंगीला प्यार का राही, दूर मेरी मंज़िल ---5 पिया पिया पिया मेरा जिया पुकारे ---6. ये क्या कर डाला तूने दिल तेरा हो गया ---7. एल्लो जी सनम हम आ गए आज फिर दिल लेके --- ठीक? कर लिया याद ? एक बार फिर कर लें ! क्या कहा जरुरत नहीं, याद हैं ? अच्छा तो बतायें कि इन गानों में क्या एक चीज कॉमन है ? संगीतकार कॉमन है ? गीतकार कॉमन है ? कलाकार कॉमन है ? या *कुछ और* कॉमन है ?
अब आप ऐसा करें कि आगे पढ़ने से पहले यहाँ रुक जाएँ और इस पहेली जवाब कहीं लिख लें ,यदि नहीं आता तो फिर आगे बढ़ जाएँ।
जवाब है कि इनमें *कुछ और* कॉमन है और वो कॉमन है 'ताँगा' ! ये सभी गीत ताँगे पर फिल्माए गए हैं। सवाल ये उठता है कि किताबों की दुनिया में ताँगे का ज़िक्र क्यों ? वो यूँ कि हमारे आज के शायर भोपाल के हैं और भोपाल में बड़ा तालाब और ताज-उल-मस्ज़िद के अलावा कभी जो एक और चीज मशहूर हुआ करती थी वो थी 'ताँगा'। भोपाल के ताँगे पूरे भारत में मशहूर थे। दिलीप कुमार की फिल्म नया दौर में दिलीप साहब ने भोपाल का ताँगा चलाया था। तो ताँगे का जिक्र इसलिए क्यूंकि हमारे आज के शायर ने भी अपने लड़कपन में ताँगा चलाया। चलाया क्या यूँ कहें उनसे चलवाया गया। ताँगा चलाना निहायत गैर रूमानी काम है ,ये जो फिल्मों में हीरो के ताँगा चलाने और हीरोइन के साथ बैठ कर उसके सुर में सुर मिलाने को आप देख कर खुश होते हैं वो हक़ीक़त से कोसों दूर है।ताँगा चलाते हुए मटक कर गाना गा कर देखिये या तो आप खुद सड़क पर चित गिरे होंगे या ताँगे को किसी नाली में गिरा पाएंगे।
बाप सैय्यद रमज़ान अली ने जब देखा कि उनके बरख़ुरदार पढ़ने लिखने में कोई दिलचस्पी नहीं रखते बस सारा दिन आवारागर्दी करते हैं और रात में दोस्तों के साथ शायरी करते हैं या मुशायरों में बैठे शायरों को सुनते रहते हैं तो उन्हें घबराहट हुई कि ये बड़ा हो कर ये करेगा क्या ? लिहाज़ा उन्होंने अपने एक दोस्त का ताँगा इन्हें चलाने को दे दिया और कहा कि ले बेटा 'मोहम्मद अली' सँभाल इसे और घर में चार पैसे कमा कर ला। बेटा यूँ इतना फ़रमाबदार तो नहीं था कि बाप के कहने पर ताँगा हाँकने लगता लेकिन घर के हालात ऐसे थे कि वो मना नहीं कर पाया। भोपाल की ऊंची-नीची,खुली-तंग सड़कों पर ताँगा चलाना बहुत हुनर का काम होता था और जो दिल से शायराना तबियत का हो वो ताँगा चलाने का ये हुनर कहाँ से लाएगा ? ताँगा चलाते चलाते कोई मिसरा दिमाग में आ जाता तो उसे सँवारने में मोहम्मद अली इतना खो जाता कि ताँगा बाएँ की जगह दाएँ घुमा लेता इसपे सवारी झिकझिक करती। इन सब बातों से तंग आकर वही हुआ साहब जो होना चाहिए था, याने एक दिन मोहम्मद अली साहब ने अचानक सोचा कि क्या मैं भोपाल की सड़कों पर ताँगा हाँकने के लिए पैदा हुआ हूँ? दिल ने जवाब दिया 'हरगिज़ नहीं' बस तुरंत ताँगा वापस अपने बाप के दोस्त को देते हुए कहा 'ये काम हमसे न हो सकेगा 'और मुस्कुराते हुए मोहम्मद अली ने बेरोज़गारी का दामन थाम लिया।
जब घर ये ख़बर पहुँची तो बाप रमज़ान अली को चिंता हुई कि अब इसका क्या होगा ? बाप तब भी बेटे के भविष्य को लेकर चिंतित रहते थे आज भी रहते हैं ,बेटे तब भी बे-फ़िक्र हुआ करते थे आज भी बे-फ़िक्र हैं लेकिन तब बेटे बाप की सुन लेते थे और मान भी लेते थे अब नहीं सुनते मानना तो दूर की बात है। ये बात बहुत पुरानी है जब भोपाल में ताँगे चला करते थे और बेटे बाप की बात मान लिया करते थे।
ज़मीं पर पांँव, आंँखें आसमा पर
रहोगे उम्र भर मग्मूम लोगो
मग्मूम: दुखी
अगर तेशा नहीं पत्थर उठा लो
रहोगे कब तलक मज़्लूम लोगो
तेशा: कुदाली
अभी तक शहर का जिंदाँ है खाली
दरो दीवार से महरूम लोगो
जिंदाँ: क़ैदखाना
*
शम्आ देहलीज़ पे रोशन रक्खो
क्या अजब है कि वो आ ही जाए
*
दर्द से चेहरे की ताबानी बढ़ी
घर जला तो आस्माँ रोशन हुआ
ताबानी: चमक
*
जाँ हथेली पे लिए फिरते हैं
इक यही शर्ते-वफा है जैसे
*
बढ़े चलो के वो मंजिल अभी नहीं आई
ये वो मुक़ाम है जिसका शुमार राह में है
न पाँव थमते हैं अपने न हौसले दिल के
सुना है जब से कोई ख़ारज़ार राह में है
ख़ारज़ार: कांटो की झाड़ियां
*
मौत से यूँ मिले जैसे महबूब हो
मौत हमसे मिली जिंदगी की तरह
*
जिसने सहरा में तुझको भेज दिया
उसका सब कुछ बिगाड़ सड़कों पर
रमज़ान अली साहब ने सोचा कि बेटे को सिवा उर्दू, फ़ारसी और थोड़ी बहुत गणित के अलावा कुछ आता जाता है नहीं इसलिए इसे कोई ढंग की नौकरी तो मिलेगी नहीं, तो फिर क्या किया जाय ?अचानक उनको अपने एक परिचित 'समद दादा' याद आये जिन्होंने उन्हें कभी एक ऐसे मुलाज़िम की तलाश करने को कहा था जो उनके गली इब्राहिमपुरा वाले 'अहद होटल' को संभाल सके। रमज़ान साहब अपने बेटे मोहम्मद को साथ लिए एक दिन सवेरे सवेरे 'अहद होटल' जा पहुँचे जहाँ 'समद दादा' किसी खानसामे पर इसलिए बरस रहे थे कि उसने चाय का एक कप तोड़ दिया था। काउंटर पर भाजी वाला, जो आलू प्याज़ की बोरी लाया था उसके, पैसे माँग रहा था, बावर्चीखाने से तेल ख़तम हो गया है की गुहार लग रही थी और रेस्टॉरेंट में बैठे ग्राहक गर्म समोसे नहीं आने पर शोर मचा रहे थे। इस शोरो-गुल और अफ़रा तफ़री के माहौल में 'समद दादा' अपने बाल नौंच रहे थे तभी 'रमज़ान अली' ने उनसे जा कर कहा कि 'समद दादा आपके इस होटल को सँभालने के लिए मैं अपने बेटे 'मोहम्मद अली' को आपकी मुलाज़मत के लिए लाया हूँ, ये इतना पढ़ा लिखा तो है कि काउंटर संभाल ले फिर भी आप एक बार देख-भाल कर तसल्ली कर लें।'समद दादा' को ऐसे लगा जैसे उखड़ती सांसों के मरीज़ को ऑक्सीजन सिलेंडर मिल गया हो। 'समद दादा' बिना 'मोहम्मद अली' की और देखे फ़ौरन अपनी कुर्सी से उठ कर बोले 'बरखुरदार मोहम्मद अली तुम बैठो, काम समझो, ये काउंटर संभालो, अब ये होटल तुम्हें चलाना है '। 'समद दादा' ये कह कर 'रमज़ान अली' के कंधे पर हाथ रख कर होटल से बाहर आते हुए बोले 'अली ये तुम्हारा बेटा है तो अब मुझे क्या देखना है ये संभाल लेगा ,तुमने मेरा बोझ हल्का कर दिया जो अपना बेटा मुझे सुपुर्द कर दिया-शुक्रिया।'
अगर उस वक़्त समद दादा मोहम्मद अली के उस हुलिए को ,जिसका बयान निदा साहब ने अपनी किताब 'चेहरे' में यूँ किया है कि 'मोहम्मद अली चाल-ढाल और चेहरे से एक साथ कई इलाकों के बाशिंदे लगते थे। पान में छालियों की भरमार, चुटकीदार चूने के ऐतबार से भोपाली, चेहरे की रंगत याने सियाही के लिहाज़ से बंगाली, मँझले कद की वजह से गढ़वाली और अंदर उतरी हुई छोटी आँखों और चपटी नाक से उन पर नेपाली होने का गुमान होता था, देख लेते तो शायद उसे काउंटर पर नहीं बिठाते लेकिन उस वक्त 'समद दादा', के पास और कोई दूसरा चारा भी नहीं था।
भोपाल की लम्बी सी गली इब्राहीम के 'अहद होटल' के काउंटर पर उस दिन बैठा तो 'मोहम्मद अली' लेकिन जब वो वहाँ से उठा तो 'ताज भोपाली' के नाम से पूरे देश में मशहूर हो चुका था। 'ताज भोपाली' साहब जिनका जन्म भोपाल में 1926 में हुआ था की ग़ज़लों का संकलन और संपादन भोपाल के प्रतिष्ठित शायर जनाब 'अनवारे इस्लाम' साहब ने 'किस से कहें' किताब में किया है, जिसे 'पहले पहल प्रकाशन' भोपाल ने प्रकाशित किया है। आप अनवारे इस्लाम साहब से 7000568495 पर संपर्क कर इस किताब को मँगवा सकते हैं। ये किताब अमेज़न से ऑन लाइन मँगवाई जा सकती है।
बर्फ सी जम रही है होठों पर
किसके रुख़्सारे-आतिशीं से कहें
हर जगह है तू इस फ़साने में
तू जहांँ से कहे वहीं से कहें
आंँसुओं की कहानियांँ ऐ 'ताज'
कब तक अपनी ही आस्तीं से कहें
*
तुम के हर मंजिलें-दुश्वार से हट जाते हो
हम, के हर मंज़िले-आसाँ पे हंँसी आती है
हमको इक खेल है यह तौको-सलासिल सैयाद
हमको ज़िन्दाँ में भी ज़िन्दाँ पे हँसी आती है
तौको-सलासिल: फंदा और बेड़ियाँ, ज़िन्दाँ:क़ैदखाना
*
चांँद इस तरह से मद्धम है सरे-शाख़े-गुलाब
सूरते-जख़्म पे जैसे के मसीहा चुप है
मसीहा: चिकित्सक
*
सोचेंगे सुब्ह, दिन ये गुज़ारेंगे किस तरह
फ़िलहाल फ़िक्र है कि कहांँ रात कीजिए
*
हमारे रंजो-ग़म की इंतहा है
मसीहा दाम पहले मांँगता है
फ़राहम कर नहीं सकता है ख़ुद को
कभी इंसान ऐसा टूटता है
फ़राहम: हासिल
*
तुम भी, ये दिल भी, दोस्त भी, मंज़िल की आग भी
एक-एक करके छूट गए हमसफ़र तमाम
नहीं नहीं ऐसा नहीं है कि ताज साहब को पहले दिन से ही ये नौकरी रास आ गयी थी। थोड़ा सा वक़्त तो लगना ही था वो लगा लेकिन उसके बाद तो उन्हें ये काउंटर इतना रास आया कि उनकी दुनिया हो गया। इस काउंटर पर बैठ कर उन्होंने होटल चलाने के सभी आदाब अच्छे से सीख लिए मसलन ग्राहकों का पुर ख़ुलूस इस्तक़बाल, बाबर्चीखाने और वेटरों पर नज़र और उनसे मोहब्बत भरा सुलूक़, नतीज़ा ? थोड़े ही वक़्त में 'अहद होटल' की लोकप्रियता में चार चाँद लगने लगे। टेबलें भरी रहने लगीं यहाँ तक कि होटल के दोनों और रखे तख्तों पर बैठने के लिए भी ग्राहकों को इंतज़ार करना पड़ता। 'समद दादा' अब अपने दूसरे बड़े होटल 'सलामिया' में ही बैठते उन्होंने 'अहद होटल' एक तरह से मोहम्मद अली 'ताज' के हवाले कर दिया जो उन्हें खूब कमा कर दे रहे थे।
'अहद होटल' ताज साहब की वजह से शायरों का अड्डा बन गया। ये देश की आज़ादी के कुछ सालों बाद की बात है जब ताज साहब की जवानी शबाब पर थी और अहद होटल के नाम का डंका पूरे भोपाल में बज रहा था। अनवारे इस्लाम साहब इस किताब की भूमिका में अहद होटल के बारे में कुछ यूँ बयान करते हैं 'अहद होटल' होटल क्या अच्छी ख़ासी नशिस्तगाह हुआ करती थी। नज़र घुमाते जाइये, एक टेबल पर शेरी भोपाली, सलाम सागरी और कैफ़ भोपाली गुफ़्तगू कर रहे हैं तो दूसरी पर मेहमान शायर ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ, गोपाल कृष्ण शौक़ और सहबा कुरैशी किसी मुद्दे पर बहस में उलझे हैं, ताज साहब हैं कि होटल की तमाम कारोबारी एक्टिविटीज को अपनी नज़रों की गिरफ़्त में लिए हुए उन बहसों किस्सों में अपनी बात भी रख रहे हैं और दूसरों सुन भी रहे हैं।
मुशायरों और दीगर साहित्यिक आयोजनों में भागीदारी कारण दूसरे शहरों के शायर और कलमकार भी यहाँ आना अपना फ़र्ज़ समझते।' बाहर से आने वालों में सबसे ऊपर जां निसार अख़्तर साहब का नाम आता है जिनको ताज साहब और उनकी शायरी से बेहद लगाव हो गया था। जां निसार अख़्तर साहब ने एक जगह लिखा भी कि 'ताज जो अपने शहर बल्कि अपने प्रदेश का सबसे लोकप्रिय और हरदिल अज़ीज़ शायर है, कल पूरे हिन्दुस्तान की भी शोहरत का मालिक बनेगा। ये मेरी सोची समझी हुई राय है। इसी होटल अहद में उनकी दोस्ती 'सरदार जाफरी' 'साहिर लुधियानवी', 'निदा फ़ाज़ली' 'मज़रूह सुल्तानपुरी' जैसे मशहूर शायरों से भी हुई।
इस चमन मैं गुलों की हंँसी जुर्म है
ये भी क्या जिंदगी, जिंदगी जुर्म है
तश्नगी लाख हो इतनी क़ातिल नहीं
ऐ मेरे दोस्तो, बेहिसी जुर्म है
बेहिसी: सम्वेदनहीनता
*
आंखों की क़ैद, जुल्फ़ की ज़ंजीर की क़सम
जब से जवाँ हुए हैं सराफा सज़ा है हम
*
ये कौन सी बरखा है बरसना है न खुलना
ऐ अब्र सभी सर्वो-समन चीख़ रहे हैं
अब्र: बादल, सर्वो-समन: पेड़ पौधे
*
मैं जिस जगह हूँ साथ मेरे कायनात है
तेरे सिवा कोई भी नहीं तू जहाँ है आज
*
मुझे इंसान के मरने का इतना ग़म नहीं होता
क़लक़ होता है जब इंसान में इंसान मर जाए
क़लक़: दुख, अफसोस
*
जिन अँखड़ियों ने सिखाई है मयकशी हमको
ग़ज़ब है अब सबक़े-पारसाई देती हैं
सबक़े-पारसाई: संयम की शिक्षा
शायरों और अदीबों की आमद से 'अहद होटल' गुलज़ार तो रहने लगा था लेकिन वहाँ जो भी आता वो पूरी फुरसत में आता, ऊपर से ताज साहब की मेज़बानी उन्हें बांधे रखती। ताज साहब भी बजाय होटल का फ़ायदा देखने के मेज़बानी में इतने खो जाते कि कहाँ क्या हो रहा है उसकी उन्हें ख़बर ही न रहती। अगर वो शायरों से किसी बहस में उलझे होते या किसी की शायरी को सुन रहे होते या किसी को सुना रहे होते तो उन्हें काउंटर पर जाने का होश ही न रहता। उनकी पसंद का, या शहर से बाहर का, कोई मशहूर शायर अगर आ जाता तो उसे और उसके साथ आये सभी दोस्तों को अपनी तरफ़ से चाय पिलाते गरमागरम समोसे खिलाते। चाय तो वो सभी अदीबों को अपनी तरफ़ से मुफ़्त पिलाते। आख़िर ऐसा घर फूँक तमाशा कब तक चलता ? जब तक 'समद दादा' इस होटल की बिगड़ी किस्मत को सँवारने के लिए कोई क़दम उठाते तब तक नुक्सान इस क़दर बढ़ गया था कि सिवा इसे बंद करने के और कोई चारा ही नहीं बचा था।
'अहद होटल' बंद हुआऔर ताज साहब के लिए बेरोज़गारी के दरवाज़े खुल गए। इस समय तक मुशायरों में जाने और अपने शेरों की लोकप्रियता के चलते ताज साहब भोपाल के सबसे चहेते शायर बन गए थे। भोपाल शहर के हर घर का दरवाज़ा उनके लिए हमेशा खुला रहता था। वो किसी भी वक़्त किसी भी घर पर दस्तक़ दे कर अंदर जा सकते थे और बिना तकल्लुफ़, बुजुर्ग हों या जवान उनके साथ वक्त बिता सकते थे। इसमें औरत मर्द की क़ैद नहीं थी। निदा फ़ाज़ली 'चेहरे' किताब में लिखते हैं कि ' शेरी भोपाली' और 'कैफ़ भोपाली' भोपाल से बाहर भले ही उनसे ज़्यादा मशहूर रहे हों लेकिन भोपाल में ताज की शोहरत की बराबरी भोपाल ताल के अलावा कोई दूसरा नहीं कर सकता था। भोपाल में उनकी लोकप्रियता ताँगे वालों और भिखारियों से मंत्री मंडल के मंत्रियों तक फैली हुई थी'।
हयात जहदो-अमल से है वरना मौत अच्छी
हयात गिरयाओ-मातम से बन नहीं सकती
जहदो-अमल: संघर्ष, गिरयाओ-मातम: रोना-धोना
*
तुझ से वफ़ा की उम्मीदें
देख मेरा दीवानापन
हम दुखियों से हँसकर मिल
क्या जोबन क्या माया, धन
*
जख्म़े-दिलो-जिगर की नुमाइश फ़िजूल है
हर एक से इलाज की ख़्वाहिश फ़िजूल है
*
इससे ज़ंजीर ही ग़नीमत है
ज़ुल्फ़ चूमी थी निकहतों के लिए
निकहत: खुशबू
*
वो मंज़िल क्या जो आसानी से तय हो
वो राही क्या जो थककर बैठ जाए
*
फ़िक्रे-मआश, ऐशे-बुताँ, यादे-रफ्तगाँ
मय इस हिसाब से तो बहुत कम है दोस्तो!
*
तुम्हारे कब्ज़ाए-क़ुदरत में मेहो-माह सही
मगर ये क्या कि मेरे पास एक किरन न रहे
मेहो-माह : सूरज चाँद
*
कभी-कभी ये ख़्याल आ के क्यों सताता है
हयात जैसे अदम के सिवा कुछ और नहीं
*
कातिल गुनाहगार नहीं हम हैं गुनहगार
हमने फ़रेब खाए मसीहा के नाम पर
मुसलसल बेरोज़गारी का असर जब फ़ाक़ों में तब्दील होता दिखाई दिया तो दोस्तों ने समझाया कि मियाँ तुम्हारी मुंबई में साहिर, मजरूह, सरदार जाफ़री, निदा फ़ाज़ली जैसे कद्दावर शायरों से दोस्ती है, क्यों नहीं मुंबई जा कर तुम फिल्मों में लिखते ? तुम इन से ज़्यादा नहीं तो कम भी नहीं हो। जैसे भोपाल में तुम्हारी तूती बोलती है वैसे मुंबई में भी बोलेगी ,जाओ क़िस्मत आजमाओ। बात एक दम सच थी ,भोपाल में जब कभी ये लोग किसी सिलसिले में आते तो अहद होटल में शाम को ताज साहब के साथ हम प्याला हुए बिना वापस नहीं जाते। ऐसी कितनी ही महफिलें ताज साहब को याद आईं जिनमें इन शायरों ने ताज साहब से गलबईयाँ करते हुए उनकी दोस्ती के लिए जान निछावर करने के वादे न किये हों। ताज साहब दोस्तों के कहने में आ गये, सोचा और कोई नहीं तो जांनिसार अख़्तर तो मेरे रहनुमा हैं वो तो मुंबई में मेरी मदद करेंगे ही।
यहाँ से ताज साहब की ज़िन्दगी का वो सफ़र शुरू हुआ जिसकी राह में बेशुमार काँटे होने के बावजूद चलना उनकी मज़बूरी थी। ताज साहब ने किसी तरह ट्रेन के टिकट की जुगाड़ की और जा पहुंचे सपनों की नगरी 'मुंबई' । मुंबई में ताज बहुत हुलस कर 'साहिर', 'मजरूह', 'निदा', 'सरदार जाफ़री' से मिले लेकिन उन्होंने महसूस किया कि ये 'साहिर' 'मजरूह' 'निदा' 'सरदार जाफ़री' देखने में तो बिलकुल वैसे ही थे जैसे भोपाल में दिखाई दिए थे लेकिन हक़ीक़त में ये वो थे नहीं, उनकी शक्लो-सूरत में कोई और ही थे जिनको ताज साहब नहीं जानते थे। ताज साहब जल्द ही समझ गए कि यहाँ ये सब अजनबी हैं। ताज साहब ने जब 'जांनिसार' साहब से मदद की गुहार की तो उन्होंने बताया कि वो तो खुद 'साहिर' की मदद के सहारे यहाँ पाँव जमाये हुए हैं , जिसके अपने पाँव दूसरे के सहारे टिके हों वो किसी और को क्या सहारा देगा ? भोपाल जैसी जगह से आये सहज सरल स्वाभाव के ताज साहब के लिए ये इंसानी फ़ितरत किसी अजूबे से कम नहीं थी । उन्हें समझ आ गया कि मुंबई में जंगल का कानून चलता है जहाँ अपनी हिफाज़त के साथ साथ खाने का इन्तेज़ाम भी खुद ही करना पड़ता है। फ़िल्मी दुनिया के इस जंगल में ताज साहब को छोटी और बी ग्रेड फिल्मों के प्रोड्यूसर एस.एम. सागर मिल गए जो अपनी फिल्म 'आँसू बन गए फूल' पर काम कर रहे थे।भोपाल में उनकी ताज साहब से 'अहद होटल' में मुलाक़ात भी हुई थी उन्होंने ताज साहब से अपनी फिल्म के गाने लिखने को कहा। ताज साहब ने गाने लिखे जो बहुत मक़बूल नहीं हुए एक आध फिल्मों में और गाने लिखे लेकिन जब बात नहीं बनी तो मुंबई को अलविदा कह कर वापस अपने वतन भोपाल आ गए।
रात भर गर्दने-मीना को झुकाए रक्खो
चाँदनी हाथ में तलवार लिए आई है
अब्र है, चाँद है, तारे हैं, सबा है, गुल है
कितनी बिखरी हुई उस शोख़ की यकताई है
यकताई :अनोखा पन
*
घबरा के ग़मे-हिज्र से जब जाम उठाया
मुझको तेरी तस्वीर में आंसू नजर आए
*
ये तो इंसानों के टूटे हुए दिल हैं साक़ी
हमसे टूटे हुए साग़र नहीं देखे जाते
*
बला से जुगनुओं का नाम दे दो
कम अज़ कम रोशनी तो कर रहे हैं
हमें इंसान से कोई मिला दे
फ़रिश्तों में तो हम अक्सर रहे हैं
*
जितना खुलता है रंग खिलते हैं
वो सरापा गुलाब जैसा है
उम्र भर पढ़िए उम्र भर लिखिए
हर ज़माना किताब जैसा है
*
ज़माने भर का ग़म अपना लिया है
क़यामत हो गया हस्सास होना
हस्सास: संवेदनशील
*
वीरानियों के और उठाऊं मैं नाज़ क्या
अब आईना भी मेरे मुक़ाबिल नहीं रहा
भोपाल, बकौल 'निदा' 'जहाँ का हर रास्ता कई सलामों के साथ उनकी आमद इंतज़ार करता था। जहाँ के दरख़्त, जानवर, तालाब सब उन्हें नाम से जानते थे। उनकी काव्य प्रतिष्ठा को पहचानते थे। ताज, भोपाल के लाड़ले शायर थे। भोपाल ने उनकी शाइरी के साथ उनकी आवारगी को भी अपना लिया था। उन्हें न उनकी शराब बुरी लगती थी न मैले-कुचैले कपड़े अखरते थे। 'ताज' और भोपाल के रिश्ते में खुद 'ताज' की नम्रता और प्यार का भी बड़ा दख़ल था।
'ताज' को बड़े अदब से मुशायरों में बुलाया जाता और वो झूमते हुए तरन्नुम में पढ़ते। श्रोता देर रात तक सिर्फ उन्हें सुनने को बैठे रहते लेकिन वो थे बहुत मूडी, किसी ग़ज़ल के तीन चार शेर सुनाते और चुपचाप वहाँ से चल देते ,कभी कभी तो अपने लम्बे समय से इंतज़ार करते श्रोताओं को सिर्फ एक शेर सुनाते और माइक से हट जाते और एक बार माइक से हटने के बाद वो कभी पलट कर दुबारा सुनाने नहीं आते। वो शायद श्रोताओं के लिए शेर कहते ही नहीं थे। खुद के लिए ही लिखते और खुद को ही सुना कर खुश रहते। उनकी ग़ज़लों में चार या पाँच से अधिक शेर कभी नहीं रहे। मुशायरों में उन्हें तालियों और दाद की कभी जरुरत नहीं रही न कभी उसके लिए आज के शायरों की तरह श्रोताओं से गुहार की। तालियां और दाद उन्हें बिना मांगे मिलतीं और खूब मिलतीं .
निदा अपनी किताब 'चेहरे' में लिखते हैं कि 'ताज साहब के खूबसूरत शेर 'उठे और उनके ख़त ही देख डाले , जिन्हें देखा नहीं इक दो बरस से ' को जांनिसार अख़्तर ने 'सफ़िया अख़्तर' के ख़तों के संग्रह ;जेरे लब' के पहले पृष्ठ पर इस्तेमाल किया है लेकिन इसके नीचे 'ताज' का नाम नहीं है'।ताज ने खुद को खो कर अपनी शाइरी को पाया। हिंदी कवि दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों को बनाने संवारने में इनकी बड़ी भूमिका रही है लेकिन अपने जीवन की भूमिका लिखते वक़्त वो शायद नशे में थे....' ज़माने भर की तकलीफ़ों को दर किनार करते हुए वो 12 अप्रेल 1978 याने महज़ 52 साल की उम्र में उस सफ़र रवाना हो गए जहाँ से लौटकर कोई नहीं आता।
पेश हैं आख़िर में उनके ये शेर :
उनसे मैं क्या कहूँ ,मुझे ये तो बताए जा
जिन दोस्तों से तेरे लिए दुश्मनी हुई
*
इक तेरी याद से आराइशे-दिल बाक़ी है
कोई तस्वीर हटा दे तो ये दीवार गिरे
आराइशे-दिल: दिल की शोभा
*
ये जो कुछ आज है, कल तो नहीं है
ये शामे-ग़म मुसल्सल तो नहीं है
यक़ीनन ग़म में कोई बात होगी
ये दुनिया यूँ ही पागल तो नहीं है
*
निर्वाण घर में बैठकर होता नहीं कभी
बुध की तरह कोई मुझे घर से निकाल दे
मैं ताज हूं तो तू मुझे सर पर चढ़ा के देख
या इस क़दर गिरा कि ज़माना मिसाल दे
*
किया है इश्क़, ग़ज़ल भी कही, शराब भी पी
ग़रज़, गुज़ार ली हमने भी शायरों की तरह