Monday, May 24, 2021

किताबों की दुनिया - 232

पीछे बंधे हैं हाथ मगर शर्त है सफ़र
किस से कहें कि पाँव के कांटे निकाल दे

चलिए शायरी के दीवानों से एक पहेली पूछी जाय इस पहेली को मेरे जैसे पुरानी हिंदी फिल्मों के प्रेमी शायद सुलझा पाएं लेकिन नई नस्ल के पाठकों से इस पहेली का जवाब मिलना अगर असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर है। जरा इन पुराने फ़िल्मी गानों को याद करें 1. यूँ तो हमने लाख हसीं देखे हैं तुमसा नहीं देखा --- 2. माँग के साथ तुम्हारा मैंने माँग लिया संसार ---3. जरा हौले हौले चलो मेरे साजना ,हम भी पीछे हैं तुम्हारे---4. मैं रंगीला प्यार का राही, दूर मेरी मंज़िल ---5 पिया पिया पिया मेरा जिया पुकारे ---6. ये क्या कर डाला तूने दिल तेरा हो गया ---7. एल्लो जी सनम हम आ गए आज फिर दिल लेके --- ठीक? कर लिया याद ? एक बार फिर कर लें ! क्या कहा जरुरत नहीं, याद हैं ? अच्छा तो बतायें कि इन गानों में क्या एक चीज कॉमन है ? संगीतकार कॉमन है ? गीतकार कॉमन है ? कलाकार कॉमन है ? या *कुछ और* कॉमन है ?   

अब आप ऐसा करें कि आगे पढ़ने से पहले यहाँ रुक जाएँ और इस पहेली जवाब कहीं लिख लें ,यदि नहीं आता तो फिर आगे बढ़ जाएँ।  

जवाब है कि इनमें *कुछ और* कॉमन है और वो कॉमन है 'ताँगा' ! ये सभी गीत ताँगे पर फिल्माए गए हैं। सवाल ये उठता है कि किताबों की दुनिया में ताँगे का ज़िक्र क्यों ? वो यूँ कि हमारे आज के शायर भोपाल के हैं और भोपाल में बड़ा तालाब और ताज-उल-मस्ज़िद के अलावा कभी जो एक और चीज मशहूर हुआ करती थी वो थी 'ताँगा'। भोपाल के ताँगे पूरे भारत में मशहूर थे। दिलीप कुमार की फिल्म नया दौर में दिलीप साहब ने भोपाल का ताँगा चलाया था। तो ताँगे का जिक्र इसलिए क्यूंकि हमारे आज के शायर ने भी अपने लड़कपन में ताँगा चलाया। चलाया क्या यूँ कहें उनसे चलवाया गया। ताँगा चलाना निहायत गैर रूमानी काम है ,ये जो फिल्मों में हीरो के ताँगा चलाने और हीरोइन के साथ बैठ कर उसके सुर में सुर मिलाने को आप देख कर खुश होते हैं वो हक़ीक़त से कोसों दूर है।ताँगा चलाते हुए मटक कर गाना गा कर देखिये या तो आप खुद सड़क पर चित गिरे होंगे या ताँगे को किसी नाली में गिरा पाएंगे। 

बाप सैय्यद रमज़ान अली ने जब देखा कि उनके बरख़ुरदार पढ़ने लिखने में कोई दिलचस्पी नहीं रखते बस सारा दिन आवारागर्दी करते हैं और रात में दोस्तों के साथ शायरी करते हैं या मुशायरों में बैठे शायरों को सुनते रहते हैं तो उन्हें घबराहट हुई कि ये बड़ा हो कर ये करेगा क्या ? लिहाज़ा उन्होंने अपने एक दोस्त का ताँगा इन्हें चलाने को दे दिया और कहा कि ले बेटा 'मोहम्मद अली' सँभाल इसे और घर में चार पैसे कमा कर ला। बेटा यूँ इतना फ़रमाबदार तो नहीं था कि बाप के कहने पर ताँगा हाँकने लगता लेकिन घर के हालात ऐसे थे कि वो मना नहीं कर पाया। भोपाल की ऊंची-नीची,खुली-तंग सड़कों पर ताँगा चलाना बहुत हुनर का काम होता था और जो दिल से शायराना तबियत का हो वो ताँगा चलाने का ये हुनर कहाँ से लाएगा ? ताँगा चलाते चलाते कोई मिसरा दिमाग में आ जाता तो उसे सँवारने में मोहम्मद अली इतना खो जाता कि ताँगा बाएँ की जगह दाएँ घुमा लेता इसपे सवारी झिकझिक करती। इन सब बातों से तंग आकर वही हुआ साहब जो होना चाहिए था, याने एक दिन मोहम्मद अली साहब ने अचानक सोचा कि क्या मैं भोपाल की सड़कों पर ताँगा हाँकने के लिए पैदा हुआ हूँ? दिल ने जवाब दिया 'हरगिज़ नहीं' बस तुरंत ताँगा वापस अपने बाप के दोस्त को देते हुए कहा 'ये काम हमसे न हो सकेगा 'और मुस्कुराते हुए मोहम्मद अली ने बेरोज़गारी का दामन थाम लिया।   

जब घर ये ख़बर पहुँची तो बाप रमज़ान अली को चिंता हुई कि अब इसका क्या होगा ? बाप तब भी बेटे के भविष्य को लेकर चिंतित रहते थे आज भी रहते हैं ,बेटे तब भी बे-फ़िक्र हुआ करते थे आज भी बे-फ़िक्र हैं लेकिन तब बेटे बाप की सुन लेते थे और मान भी लेते थे अब नहीं सुनते मानना तो दूर की बात है।  
ये बात बहुत पुरानी है जब भोपाल में ताँगे चला करते थे और बेटे बाप की बात मान लिया करते थे।  

ज़मीं पर पांँव, आंँखें आसमा पर 
रहोगे उम्र भर मग्मूम लोगो 
मग्मूम: दुखी

अगर तेशा नहीं पत्थर उठा लो 
रहोगे कब तलक मज़्लूम लोगो 
तेशा: कुदाली

अभी तक शहर का जिंदाँ है खाली 
दरो दीवार से महरूम लोगो
जिंदाँ: क़ैदखाना
*
शम्आ देहलीज़ पे रोशन रक्खो
क्या अजब है कि वो आ ही जाए
*
दर्द से चेहरे की ताबानी बढ़ी 
घर जला तो आस्माँ रोशन हुआ 
ताबानी: चमक
*
जाँ हथेली पे लिए फिरते हैं 
इक यही शर्ते-वफा है जैसे
*
बढ़े चलो के वो मंजिल अभी नहीं आई 
ये वो मुक़ाम है जिसका शुमार राह में है 

न पाँव थमते हैं अपने न हौसले दिल के 
सुना है जब से कोई ख़ारज़ार राह में है 
ख़ारज़ार: कांटो की झाड़ियां
*
मौत से यूँ मिले जैसे महबूब हो 
मौत हमसे मिली जिंदगी की तरह
*
जिसने सहरा में तुझको भेज दिया 
उसका सब कुछ बिगाड़ सड़कों पर

रमज़ान अली साहब ने सोचा कि बेटे को सिवा उर्दू, फ़ारसी और थोड़ी बहुत गणित के अलावा कुछ आता जाता है नहीं इसलिए इसे कोई ढंग की नौकरी तो मिलेगी नहीं, तो फिर क्या किया जाय ?अचानक उनको अपने एक परिचित 'समद दादा' याद आये जिन्होंने उन्हें कभी एक ऐसे मुलाज़िम की तलाश करने को कहा था जो उनके गली इब्राहिमपुरा वाले 'अहद होटल' को संभाल सके। रमज़ान साहब अपने बेटे मोहम्मद को साथ लिए एक दिन सवेरे सवेरे 'अहद होटल' जा पहुँचे जहाँ 'समद दादा' किसी खानसामे पर इसलिए बरस रहे थे कि उसने चाय का एक कप तोड़ दिया था। काउंटर पर भाजी वाला, जो आलू प्याज़ की बोरी लाया था उसके, पैसे माँग रहा था, बावर्चीखाने से तेल ख़तम हो गया है की गुहार लग रही थी और रेस्टॉरेंट में बैठे ग्राहक गर्म समोसे नहीं आने पर शोर मचा रहे थे। इस शोरो-गुल और अफ़रा तफ़री के माहौल में 'समद दादा' अपने बाल नौंच रहे थे तभी 'रमज़ान अली' ने उनसे जा कर कहा कि 'समद दादा आपके इस होटल को सँभालने के लिए मैं अपने बेटे 'मोहम्मद अली' को आपकी  मुलाज़मत के लिए लाया हूँ, ये इतना पढ़ा लिखा तो है कि काउंटर संभाल ले फिर भी आप एक बार देख-भाल कर तसल्ली कर लें।'समद दादा' को ऐसे लगा जैसे उखड़ती सांसों के मरीज़ को ऑक्सीजन सिलेंडर मिल गया हो। 'समद दादा' बिना 'मोहम्मद अली' की और देखे फ़ौरन अपनी कुर्सी से उठ कर बोले 'बरखुरदार मोहम्मद अली तुम बैठो, काम समझो, ये काउंटर संभालो, अब ये होटल तुम्हें चलाना है '। 'समद दादा' ये कह कर 'रमज़ान अली' के कंधे पर हाथ रख कर होटल से बाहर आते हुए बोले 'अली ये तुम्हारा बेटा है तो अब मुझे क्या देखना है ये संभाल लेगा ,तुमने मेरा बोझ हल्का कर दिया जो अपना बेटा मुझे सुपुर्द कर दिया-शुक्रिया।' 

अगर उस वक़्त समद दादा मोहम्मद अली के उस हुलिए को ,जिसका बयान निदा साहब ने अपनी किताब 'चेहरे' में यूँ किया है कि 'मोहम्मद अली चाल-ढाल और चेहरे से एक साथ कई इलाकों के बाशिंदे लगते थे। पान में छालियों की भरमार, चुटकीदार चूने के ऐतबार से भोपाली, चेहरे की  रंगत याने सियाही के लिहाज़ से बंगाली, मँझले कद की वजह से गढ़वाली और अंदर उतरी हुई छोटी आँखों और चपटी नाक से उन पर नेपाली होने का गुमान होता था, देख लेते तो  शायद उसे काउंटर पर नहीं बिठाते लेकिन उस वक्त 'समद दादा', के पास और कोई दूसरा चारा भी नहीं था।  

भोपाल की लम्बी सी गली इब्राहीम के 'अहद होटल' के काउंटर पर उस दिन बैठा तो 'मोहम्मद अली' लेकिन जब वो वहाँ से उठा तो 'ताज भोपाली' के नाम से पूरे देश में मशहूर हो चुका था। 'ताज भोपाली' साहब जिनका जन्म भोपाल में 1926 में हुआ था की ग़ज़लों का संकलन और संपादन भोपाल के प्रतिष्ठित शायर जनाब 'अनवारे इस्लाम' साहब ने 'किस से कहें' किताब में किया है, जिसे 'पहले पहल प्रकाशन' भोपाल ने प्रकाशित किया है। आप अनवारे इस्लाम साहब से 7000568495 पर संपर्क कर इस किताब को मँगवा सकते हैं। ये किताब अमेज़न से ऑन लाइन मँगवाई जा सकती है।  
  

बर्फ सी जम रही है होठों पर 
किसके रुख़्सारे-आतिशीं से कहें

हर जगह है तू इस फ़साने में 
तू जहांँ से कहे वहीं से कहें 

आंँसुओं की कहानियांँ ऐ 'ताज'
कब तक अपनी ही आस्तीं से कहें
*
तुम के हर मंजिलें-दुश्वार से हट जाते हो 
हम, के हर मंज़िले-आसाँ पे हंँसी आती है 

हमको इक खेल है यह तौको-सलासिल सैयाद
हमको ज़िन्दाँ में भी ज़िन्दाँ पे हँसी आती है
तौको-सलासिल: फंदा और बेड़ियाँ, ज़िन्दाँ:क़ैदखाना
*
चांँद इस तरह से मद्धम है सरे-शाख़े-गुलाब
सूरते-जख़्म पे जैसे के मसीहा चुप है
मसीहा: चिकित्सक
*
सोचेंगे सुब्ह, दिन ये गुज़ारेंगे किस तरह 
फ़िलहाल फ़िक्र है कि कहांँ रात कीजिए
*
हमारे रंजो-ग़म की इंतहा है 
मसीहा दाम पहले मांँगता है 

फ़राहम कर नहीं सकता है ख़ुद को 
कभी इंसान ऐसा टूटता है
फ़राहम: हासिल
*
तुम भी, ये दिल भी, दोस्त भी, मंज़िल की आग भी 
एक-एक करके छूट गए हमसफ़र तमाम

नहीं नहीं ऐसा नहीं है कि ताज साहब को पहले दिन से ही ये नौकरी रास आ गयी थी। थोड़ा सा वक़्त तो लगना ही था वो लगा लेकिन उसके बाद तो उन्हें ये काउंटर इतना रास आया कि उनकी दुनिया हो गया। इस काउंटर पर बैठ कर उन्होंने होटल चलाने के सभी आदाब अच्छे से सीख लिए मसलन ग्राहकों का पुर ख़ुलूस इस्तक़बाल, बाबर्चीखाने और वेटरों पर नज़र और उनसे मोहब्बत भरा सुलूक़, नतीज़ा ? थोड़े ही वक़्त में 'अहद होटल' की लोकप्रियता में चार चाँद लगने लगे। टेबलें भरी रहने लगीं यहाँ तक कि होटल के दोनों और रखे तख्तों पर बैठने के लिए भी ग्राहकों को इंतज़ार करना पड़ता। 'समद दादा' अब अपने दूसरे बड़े होटल 'सलामिया' में ही बैठते उन्होंने 'अहद होटल' एक तरह से मोहम्मद अली 'ताज' के हवाले कर दिया जो उन्हें खूब कमा कर दे रहे थे। 

'अहद होटल' ताज साहब की वजह से शायरों का अड्डा बन गया। ये देश की आज़ादी के कुछ सालों बाद की बात है जब ताज साहब की जवानी शबाब पर थी और अहद होटल के नाम का डंका पूरे भोपाल में बज रहा था। अनवारे इस्लाम साहब इस किताब की भूमिका में अहद होटल  के बारे में कुछ यूँ बयान करते हैं 'अहद होटल' होटल क्या अच्छी ख़ासी नशिस्तगाह हुआ करती थी। नज़र घुमाते जाइये, एक टेबल पर शेरी भोपाली, सलाम सागरी और कैफ़ भोपाली गुफ़्तगू कर रहे हैं तो दूसरी पर मेहमान शायर ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ, गोपाल कृष्ण शौक़ और सहबा कुरैशी किसी मुद्दे पर बहस में उलझे हैं, ताज साहब हैं कि होटल की तमाम कारोबारी एक्टिविटीज को अपनी नज़रों की गिरफ़्त में लिए हुए उन बहसों किस्सों में अपनी बात भी रख रहे हैं और दूसरों सुन भी रहे हैं। 

मुशायरों और दीगर साहित्यिक आयोजनों में भागीदारी कारण  दूसरे शहरों के शायर और कलमकार भी यहाँ आना अपना फ़र्ज़ समझते।' बाहर से आने वालों में सबसे ऊपर जां निसार अख़्तर साहब का नाम आता है जिनको ताज साहब और उनकी शायरी से बेहद लगाव हो गया था। जां निसार अख़्तर साहब ने एक जगह लिखा भी कि 'ताज जो अपने शहर बल्कि अपने प्रदेश का सबसे लोकप्रिय और हरदिल अज़ीज़ शायर है, कल पूरे हिन्दुस्तान की भी शोहरत का मालिक बनेगा। ये मेरी सोची समझी हुई राय है। इसी होटल अहद में उनकी दोस्ती 'सरदार जाफरी' 'साहिर लुधियानवी', 'निदा फ़ाज़ली' 'मज़रूह सुल्तानपुरी' जैसे मशहूर शायरों से भी हुई। 

इस चमन मैं गुलों की हंँसी जुर्म है 
ये भी क्या जिंदगी, जिंदगी जुर्म है 

तश्नगी लाख हो इतनी क़ातिल नहीं
ऐ मेरे दोस्तो, बेहिसी जुर्म है
बेहिसी: सम्वेदनहीनता
*
आंखों की क़ैद, जुल्फ़ की ज़ंजीर की क़सम 
जब से जवाँ हुए हैं सराफा सज़ा है हम
*
ये कौन सी बरखा है बरसना है न खुलना 
ऐ अब्र सभी सर्वो-समन चीख़ रहे हैं
अब्र: बादल, सर्वो-समन: पेड़ पौधे
*
मैं जिस जगह हूँ साथ मेरे कायनात है 
तेरे सिवा कोई भी नहीं तू जहाँ है आज
*
मुझे इंसान के मरने का इतना ग़म नहीं होता 
क़लक़ होता है जब इंसान में इंसान मर जाए
क़लक़: दुख, अफसोस
*
जिन अँखड़ियों ने सिखाई है मयकशी हमको
ग़ज़ब है अब सबक़े-पारसाई देती हैं
सबक़े-पारसाई: संयम की शिक्षा

शायरों और अदीबों की आमद से 'अहद होटल' गुलज़ार तो रहने लगा था लेकिन वहाँ जो भी आता वो पूरी फुरसत में आता, ऊपर से ताज साहब की मेज़बानी उन्हें बांधे रखती। ताज साहब भी बजाय होटल का फ़ायदा देखने के मेज़बानी में इतने खो जाते कि कहाँ क्या हो रहा है उसकी उन्हें ख़बर ही न रहती। अगर वो शायरों से किसी बहस में उलझे होते या किसी की शायरी को सुन रहे होते या किसी को सुना रहे होते तो उन्हें काउंटर पर जाने का होश ही न रहता। उनकी पसंद का, या शहर से बाहर का, कोई मशहूर शायर अगर आ जाता तो उसे और उसके साथ आये सभी दोस्तों को अपनी तरफ़ से चाय पिलाते गरमागरम समोसे खिलाते। चाय तो वो सभी अदीबों को अपनी तरफ़ से मुफ़्त पिलाते। आख़िर ऐसा घर फूँक तमाशा कब तक चलता ? जब तक 'समद दादा' इस होटल की बिगड़ी किस्मत को सँवारने के लिए कोई क़दम उठाते तब तक नुक्सान इस क़दर बढ़ गया था कि सिवा इसे बंद करने के और कोई चारा ही नहीं बचा था। 

'अहद होटल' बंद हुआऔर ताज साहब के लिए बेरोज़गारी के दरवाज़े खुल गए। इस समय तक मुशायरों में जाने  और अपने शेरों की लोकप्रियता के चलते ताज साहब भोपाल के सबसे चहेते शायर बन गए थे। भोपाल शहर के हर घर का दरवाज़ा उनके लिए हमेशा खुला रहता था। वो किसी भी वक़्त किसी भी घर पर दस्तक़ दे कर अंदर जा सकते थे और बिना तकल्लुफ़, बुजुर्ग हों या जवान उनके साथ वक्त बिता सकते थे। इसमें औरत मर्द की क़ैद नहीं थी। निदा फ़ाज़ली 'चेहरे' किताब में लिखते हैं कि ' शेरी भोपाली' और 'कैफ़ भोपाली' भोपाल से बाहर भले ही उनसे ज़्यादा मशहूर रहे हों लेकिन भोपाल में ताज की शोहरत की बराबरी भोपाल ताल के अलावा कोई दूसरा नहीं कर सकता था। भोपाल में उनकी लोकप्रियता ताँगे वालों और भिखारियों से मंत्री मंडल के मंत्रियों तक फैली हुई थी'। 

हयात जहदो-अमल से है वरना मौत अच्छी 
हयात गिरयाओ-मातम से बन नहीं सकती
जहदो-अमल: संघर्ष, गिरयाओ-मातम: रोना-धोना
*
तुझ से वफ़ा की उम्मीदें  
देख मेरा दीवानापन

हम दुखियों से हँसकर मिल 
क्या जोबन क्या माया, धन
*
जख्म़े-दिलो-जिगर की नुमाइश फ़िजूल है 
हर एक से इलाज की ख़्वाहिश फ़िजूल है 
*
इससे ज़ंजीर ही ग़नीमत है 
ज़ुल्फ़ चूमी थी निकहतों के लिए 
निकहत: खुशबू
*
वो मंज़िल क्या जो आसानी से तय हो 
वो राही क्या जो थककर बैठ जाए 
*
फ़िक्रे-मआश, ऐशे-बुताँ, यादे-रफ्तगाँ  
मय इस हिसाब से तो बहुत कम है दोस्तो!
*
तुम्हारे कब्ज़ाए-क़ुदरत में मेहो-माह सही 
मगर ये क्या कि मेरे पास एक किरन न रहे
मेहो-माह : सूरज चाँद
*
कभी-कभी ये ख़्याल आ के क्यों सताता है 
हयात जैसे अदम के सिवा कुछ और नहीं
*
कातिल गुनाहगार नहीं हम हैं गुनहगार 
हमने फ़रेब खाए मसीहा के नाम पर

मुसलसल बेरोज़गारी का असर जब फ़ाक़ों में तब्दील होता दिखाई दिया तो दोस्तों ने समझाया कि मियाँ तुम्हारी मुंबई में साहिर, मजरूह, सरदार जाफ़री, निदा फ़ाज़ली जैसे कद्दावर शायरों से दोस्ती है, क्यों नहीं मुंबई जा कर तुम फिल्मों में लिखते ? तुम इन से ज़्यादा नहीं तो कम भी नहीं हो। जैसे भोपाल में तुम्हारी तूती बोलती है वैसे मुंबई में भी बोलेगी ,जाओ क़िस्मत आजमाओ। बात एक दम सच थी ,भोपाल में जब कभी ये लोग किसी सिलसिले में आते तो अहद होटल में शाम को ताज साहब के साथ हम प्याला हुए बिना वापस नहीं जाते। ऐसी कितनी ही महफिलें ताज साहब को याद आईं जिनमें इन शायरों ने ताज साहब से गलबईयाँ करते हुए उनकी दोस्ती के लिए जान निछावर करने के वादे न किये हों। ताज साहब दोस्तों के कहने में आ गये, सोचा और कोई नहीं तो जांनिसार अख़्तर तो मेरे रहनुमा हैं वो तो मुंबई में मेरी मदद करेंगे ही। 

यहाँ से ताज साहब की ज़िन्दगी का वो सफ़र शुरू हुआ जिसकी राह में बेशुमार काँटे होने के बावजूद चलना उनकी मज़बूरी थी। ताज साहब ने किसी तरह ट्रेन के टिकट की जुगाड़ की और जा पहुंचे सपनों की नगरी 'मुंबई' । मुंबई में ताज बहुत हुलस कर 'साहिर', 'मजरूह', 'निदा', 'सरदार जाफ़री' से मिले लेकिन उन्होंने महसूस किया कि ये 'साहिर' 'मजरूह' 'निदा' 'सरदार जाफ़री' देखने में तो बिलकुल वैसे ही थे जैसे भोपाल में दिखाई दिए थे लेकिन हक़ीक़त में ये वो थे नहीं, उनकी शक्लो-सूरत में कोई और ही थे जिनको ताज साहब नहीं जानते थे। ताज साहब जल्द ही समझ गए कि यहाँ ये सब अजनबी हैं। ताज साहब ने जब 'जांनिसार' साहब से मदद की गुहार की तो उन्होंने बताया कि वो तो खुद 'साहिर' की मदद के सहारे यहाँ पाँव जमाये  हुए हैं , जिसके अपने पाँव दूसरे के सहारे टिके हों वो किसी और को क्या सहारा देगा ?  भोपाल जैसी जगह से आये सहज सरल स्वाभाव के ताज साहब के लिए ये इंसानी फ़ितरत किसी अजूबे से कम नहीं थी । उन्हें समझ आ गया कि मुंबई में जंगल का कानून चलता है जहाँ अपनी हिफाज़त के साथ साथ खाने का इन्तेज़ाम भी खुद ही करना पड़ता है। फ़िल्मी दुनिया के इस जंगल में ताज साहब को छोटी और बी ग्रेड फिल्मों के प्रोड्यूसर एस.एम. सागर मिल गए जो अपनी फिल्म 'आँसू बन गए फूल' पर काम कर रहे थे।भोपाल में उनकी ताज साहब से 'अहद होटल' में  मुलाक़ात भी हुई थी उन्होंने ताज साहब से अपनी फिल्म के गाने लिखने को कहा। ताज साहब ने गाने लिखे जो बहुत मक़बूल नहीं हुए एक आध फिल्मों में और गाने लिखे लेकिन जब बात नहीं बनी तो मुंबई को अलविदा कह कर वापस अपने वतन भोपाल आ गए। 

रात भर गर्दने-मीना को झुकाए रक्खो
चाँदनी हाथ में तलवार लिए आई है 

अब्र है, चाँद है, तारे हैं, सबा है, गुल है 
कितनी बिखरी हुई उस शोख़ की यकताई है 
यकताई :अनोखा पन
*
घबरा के ग़मे-हिज्र से जब जाम उठाया 
मुझको तेरी तस्वीर में आंसू नजर आए
*
ये तो इंसानों के टूटे हुए दिल हैं साक़ी 
हमसे टूटे हुए साग़र नहीं देखे जाते
*
बला से जुगनुओं का नाम दे दो 
कम अज़ कम रोशनी तो कर रहे हैं 

हमें इंसान से कोई मिला दे 
फ़रिश्तों में तो हम अक्सर रहे हैं
*
जितना खुलता है रंग खिलते हैं 
वो सरापा गुलाब जैसा है 

उम्र भर पढ़िए उम्र भर लिखिए 
हर ज़माना किताब जैसा है
*
ज़माने भर का ग़म अपना लिया है 
क़यामत हो गया हस्सास होना
हस्सास: संवेदनशील
*
वीरानियों के और उठाऊं मैं नाज़ क्या 
अब आईना भी मेरे मुक़ाबिल नहीं रहा

भोपाल, बकौल 'निदा' 'जहाँ का हर रास्ता कई सलामों के साथ उनकी आमद  इंतज़ार करता था। जहाँ के दरख़्त, जानवर, तालाब सब उन्हें नाम से जानते थे। उनकी काव्य प्रतिष्ठा को पहचानते थे। ताज, भोपाल के लाड़ले शायर थे। भोपाल ने उनकी शाइरी के साथ उनकी आवारगी को भी अपना लिया था। उन्हें न उनकी शराब बुरी लगती थी न मैले-कुचैले कपड़े अखरते थे। 'ताज' और भोपाल के रिश्ते में खुद 'ताज' की नम्रता और प्यार का भी बड़ा दख़ल था। 

'ताज' को बड़े अदब से मुशायरों में बुलाया जाता और वो झूमते हुए तरन्नुम में पढ़ते। श्रोता देर रात तक सिर्फ उन्हें सुनने को बैठे रहते लेकिन वो थे बहुत मूडी, किसी ग़ज़ल के तीन चार शेर सुनाते और चुपचाप वहाँ से चल देते ,कभी कभी तो अपने लम्बे समय से इंतज़ार करते श्रोताओं को सिर्फ एक शेर सुनाते और माइक से हट जाते और एक बार माइक से हटने के बाद वो कभी पलट कर दुबारा सुनाने नहीं आते। वो शायद श्रोताओं के लिए शेर कहते ही नहीं थे। खुद के लिए ही लिखते और खुद को ही सुना कर खुश रहते। उनकी ग़ज़लों में चार या पाँच से अधिक शेर कभी नहीं रहे। मुशायरों में उन्हें तालियों और दाद की कभी जरुरत नहीं रही न कभी उसके लिए आज के शायरों की तरह श्रोताओं से गुहार की। तालियां और दाद उन्हें बिना मांगे मिलतीं और खूब मिलतीं  .  

निदा अपनी किताब 'चेहरे' में लिखते हैं कि 'ताज साहब के खूबसूरत शेर 'उठे और उनके ख़त ही देख डाले , जिन्हें देखा नहीं इक दो बरस से ' को जांनिसार अख़्तर ने  'सफ़िया अख़्तर' के ख़तों के संग्रह ;जेरे लब' के पहले पृष्ठ पर इस्तेमाल किया है लेकिन इसके नीचे 'ताज' का नाम नहीं है'।ताज ने खुद को खो कर अपनी शाइरी को पाया।  हिंदी कवि दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों को बनाने संवारने में इनकी बड़ी भूमिका रही है लेकिन अपने जीवन की भूमिका लिखते वक़्त वो शायद नशे में थे....' ज़माने भर की तकलीफ़ों को दर किनार करते हुए वो 12 अप्रेल 1978 याने महज़ 52 साल की उम्र में उस सफ़र रवाना हो गए जहाँ से लौटकर कोई नहीं आता। 
पेश हैं आख़िर में उनके ये शेर :       

उनसे मैं क्या कहूँ ,मुझे ये तो बताए जा 
जिन दोस्तों से तेरे लिए दुश्मनी हुई 
*
इक तेरी याद से आराइशे-दिल बाक़ी है 
कोई तस्वीर हटा दे तो ये दीवार गिरे 
आराइशे-दिल: दिल की शोभा     
*
ये जो कुछ आज है, कल तो नहीं है 
ये शामे-ग़म मुसल्सल तो नहीं है 

यक़ीनन ग़म में कोई बात होगी 
ये दुनिया यूँ ही पागल तो नहीं है
*
निर्वाण घर में बैठकर होता नहीं कभी 
बुध की तरह कोई मुझे घर से निकाल दे 

मैं ताज हूं तो तू मुझे सर पर चढ़ा के देख 
या इस क़दर गिरा कि ज़माना मिसाल दे
*
किया है इश्क़, ग़ज़ल भी कही, शराब भी पी 
ग़रज़, गुज़ार ली हमने भी शायरों की तरह


Monday, May 10, 2021

किताबों की दुनिया - 231


"एक मनुष्य संघर्षों से लड़कर ही सोने के समान चमक उठता है। उसका व्यक्तित्व भी संघर्षों के कारण ही निखरता है, जिसे जीवन में सब कुछ बिना परिश्रम किए मिल जाए उसे जीवन का सच्चा अर्थ ज्ञात नहीं हो पाता। जब हम संघर्ष करते हैं, तभी हमें अपने बल और सामर्थ्य का पता चलता है। संघर्ष करने से ही आगे बढ़ने का हौसला, आत्मविश्वास मिलता है और अंततः हम अपनी मंज़िल को हासिल कर लेते हैं।जब तक आप खुद से नहीं हारते आपको दुनिया की कोई ताकत नहीं हरा सकती" ।   

हिमाचल प्रदेश के जिला कांगड़ा के गाँव नगरोटा बगवां की एक चाय की दुकान पर बैठे बुजुर्ग ने ये बात अख़बार से पढ़ कर अपने पास बैठे दूसरे बुजुर्ग को सुनाई। दूसरे बुजुर्ग ने अपने लगभग गंजे सर पर हाथ फेर कर मुस्कुराते हुए अपने दोस्त को देखा, चाय का हल्का सा एक घूँट भरा और कहा ' यार राजेश, मेरे से ज्यादा इस बात की गहराई कौन समझेगा भाई ? ये जो तूने अभी पढ़ा है वो बिलकुल सच है, संघर्ष मैंने भी किया है ,हाँ उसे कभी गाया नहीं है।' राजेश ने अपने दोस्त की बात सुन कर अखबार एक तरफ़ रख दिया और हैरानी से सामने बैठे दोस्त से पूछा 'तुमने ? कब ?"  'बचपन से' दोस्त ने एक बार फिर अपने सर पर हाथ फेरते हुए मुस्कुरा कर जवाब दिया। राजेश ने चौंक कर कहा 'बचपन से ? हद है भाई मैं तो तुमको हमेशा मुस्कुराते देखता हूँ मुझे कभी लगा ही नहीं कि तुमने ज़िन्दगी में कभी संघर्ष किया होगा, आज मैं तुम्हारी कहानी सुन के ही मानूँगा।' 'अरे छोड़ यार राजेश क्या रखा है संघर्ष की कहानी सुनाने में' बुजुर्ग ने कहा। 'मान लिया कुछ नहीं रखा लेकिन आज तुझे अपनी कहानी सुनानी ही पड़ेगी' राजेश जी ने जिद ही पकड़ ली।  'अच्छा भाई सुनाता हूँ बचपन से ही सुनाता हूँ -खुश ? बुजुर्ग ने एक और चाय ऑर्डर देते हुए कहा 'वैसे ये कहानी वैसे मैं किसी को सुनाता नहीं'

आइये पाठकों हम भी इस बुजुर्ग की कहानी सुनने राजेश जी के पास बैठ जाएँ क्यूंकि हमारी आज की किताबों की दुनिया श्रृंखला में हम उन्हीं की ग़ज़लों की किताब में से चंद चुंनिदा शेर आपतक पहुंचाने वाले हैं। इन बुजुर्गवार का नाम है पवनेंद्र 'पवन' और उनकी ग़ज़लों की किताब 'उसे दुःख धरा का सुनाना पहाड़ो !" हमारे सामने खुली हुई है। इस किताब को आप बोधि प्रकाशन जयपुर से 9425522569 पर मायामृग जी को फोन कर मंगवा सकते हैं या फिर पवन जी से 9418252675 पर संपर्क करें उन्हें बधाई दें और किताब प्राप्ति के बारे में पूछें।


सड़कों पर सोते हैं ठिठुरते जो अधनंगे 
उन बच्चों की एक रजाई माँ का पेट 

जज़्ब हो जाते इसमें सारे घुड़की ताने 
जाने कितनी गहरी खाई माँ का पेट 

पहले मेहमाँ परिजन कुत्ता कौआ गाय 
अंत में जिस की बारी आई मां का पेट
*
नहीं है पेड़ पत्थर जीव जो बहते हैं दरिया में 
बहाई जा रही है टुकड़ा टुकड़ा लाश पर्वत की 

महीनों बाद हाज़िर हो रुगण अध्यापिका जैसी 
चली जाती है लेकर धूप फिर अवकाश, पर्वत की
*
 गालियां कुछ को मिली कुछ नहीं बटोरीं तालियाँ 
वक्त की पिच पर क्रिकेट की एक पारी ज़िंदगी 

दो क़दम चल कर ही थक कर हाँफने लगते हैं लोग 
किस ने इन पर लाद दी इनसे भी भारी ज़िंदगी 

वक्त का टी.टी. न जाने कब इसे चलता करे
बिन टिकट के रेल की जैसे सवारी ज़िंदगी
*
राज मगरमच्छों का है अब 
मछली जल की रानी मत लिख

इस पीढ़ी की एक ही ज़िद है 
इक भी बात पुरानी मत लिख 

कौन पढ़ेगा बाल कथाएँ 
एक थे राजा रानी मत लिख

मैं गाँव कांगड़ा जिले के गाँव समलोटी मैं 7 मई 1945 को पैदा हुआ, पता है हमारे घर से सर उठाये दूर खड़ी धौलाधार पर्वत की बर्फ से ढकी चोटियाँ यूँ नज़र आती जैसे हाथ बढ़ाने से पकड़ में आ जाएँगी। हमारे घर से थोड़ा आगे ही एक पहाड़ी थी जहाँ से चीड़ का जंगल शुरू हो जाता था। पिता श्री सीताराम जी काँगड़ा में जिला म्युनिसिपल कमेटी के सचिव पद पर कार्यरत थे लिहाज़ा हम सब गाँव छोड़ कर काँगड़ा रहने लगे थे। जब कभी मैं गाँव आता तो सबसे पहले घर के पास वाली पहाड़ी पर चढ़ कर चीड़ के जंगलों में खो जाता।  जंगल की ख़ामोशी में मुझे प्रकृति का संगीत सुनाई देता। ये काम मैं आज भी, हाँ ,आज इस उम्र में भी करता हूँ।  मुझे जंगल की ख़ामोशी का संगीत पसंद है। 
हमारा काँगड़ा वाला घर देख कर, जिसमें सिर्फ़ बेहद जरुरत का सामान ही था, कोई भी अंदाज़ा लगा सकता था कि ये किसी बेहद ईमानदार सरकारी कर्मचारी का घर ही हो सकता है। पिता की सूखी तनख़्वाह के चलते जैसे तैसे हम बच्चों की पढाई और घर चल रहा था। जब मैं दसवीं जमात में आया उसी साल मेरे बड़े भाई नीलोखेड़ी में सिविल इंजीनियरिंग का कोर्स करने चले गए। उनके खर्चे का बोझ उठाने के लिए मेरा स्कूल छुड़वा दिया गया क्यूंकि पिताजी दो बच्चों की पढाई का खर्चा नहीं उठा पा रहे थे। स्कूल जाने की जगह मैं टाइप सीखने लगा। उन दिनों जिले के प्राइमरी स्कूलों में अध्यापकों की भारी कमी हुआ करती थी इसलिए स्कूल वाले नवीं या दसवीं पास बच्चों को अस्थाई तौर पर अध्यापक रख लेतेथे। उसी का फायदा मैंने उठाया और एक प्राइमरी स्कूल में पढ़ाने लगा। सोलह साल का मैं उन दिनों कद काठी के लिहाज़ से बच्चा ही दिखता था इसलिए जब मैं स्कूल पढ़ाने के लिए घर से निकलता तो रास्ते में मुझे देख कर लोग हँसते कहते कि देखो बच्चों को बच्चा पढ़ाने जा रहा है। लोगों की हँसी मुझे चुभती इसलिए मैं ऐसे रास्तों से स्कूल जाने लगा जो भले ही लम्बे थे लेकिन उन रास्तों के लोग मुझे पहचानते नहीं थे। ये मेरे जीवन में आने वाली मुश्किलों की शुरुआत भर थी।.

कुबड़े बना दिए ख़ुदा ने आदमी वो सब 
जिनको ज़मीं पे कुछ कभी आता नज़र न था

जुल्फ़ों के साए में लिटा कुछ क्यों न मांगती 
वो प्रेमिका थी आपकी कोई शजर न था
*
समझे बदन पे हाथ फिराने को जिसका प्यार 
मक़सद तो उसका भेड़ की था ऊन देखना
*
कृषक मरने को खंजर ढूंढता है
 तू मस्जिद और मन्दर ढूंढता है
*
ईमानदार आदमी बस इक सिपहसलार है 
विराजमान तख्त़ पर हुआ रँगा सियार है
*
दाल रोटी मकां तो दे न सके 
चांद लाने की बात करते हो 

भांज लठ गोलियां रियाया पर 
मुस्कुराने की बात करते हो 

जानकी हम नहीं है क्यों हमको 
आज़माने की बात करते हो
*
लेता नहीं कोई कभी सुध इसकी इसलिए 
इस घर में जायदाद के हक़दार हैं बहुत
*
कैकइयों का क्या है भरोसा 
जाने कब हों कोप भवन में 

दुश्मन को है राह सुरक्षित 
मित्रों को व्यवधान वतन में

मेरा अध्यापन कार्य चलता रहा और बड़े भाई की पढाई भी तभी पिता को मुँह का कैंसर हो गया।  बड़े को दो छोटे भाइयों की जिम्मेवारी सौंप कर मेरी माँ श्रीमती कांता देवी मुझे बीमार पिताजी के साथ चंडीगढ़ मेरे मामा के घर ले आयी। चंडीगढ़ के.पी.जी.आई में पिताजी का इलाज चलने लगा ,लगभग तीन चार महीने मैं पिता के साथ हॉस्पिटल में ही दिन रात रहा और उन्हें तिल तिल मौत की तरफ़ क़दम बढ़ाते देखता रहा। पिता की असामयिक मृत्यु के बाद हमारे परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। घर में रखा राशन ख़त्म हो गया बनिये ने कुछ भी उधार देने से मना कर दिया ,कभी कोई पड़ौसी आटा-दाल दे जाता तो घर में कुछ पकता वरना फ़ाक़े ही करने पड़ते। आख़िर बड़े भाई की नौकरी लग गयी। किसी तरह गुज़ारा होने लगा। बड़े भाई ने मुझे आगे पढ़ने के लिए कुरुक्षेत्र भेज दिया। 

कुरुक्षेत्र में मेरे तीन चार पक्के दोस्त बने जिनकी माली हालत मेरी ही तरह पतली थी।  घर से जो आता हम सब उसे एक साथ अपने पर किफ़ायत से ख़र्च करते। उनमें से एक थे जनाब 'प्रेम भारद्वाज' जिनसे भाइयों जैसा रिश्ता कायम हो गया।  'प्रेम' को शायरी का शौक था और वो हिन्द पॉकेट बुक्स से छपनी वाली पतली पतली शायरी की किताबों का दीवाना था। उसे देख कर मेरा रुझान भी शायरी की तरफ होने लगा और मैं तुकबंदी करने लगा। इसी बीच हम दोस्तों का सम्बन्ध एक खास विचारधारा के संगठन हो गया जिसके लिए हम काम करते और बदले में वो समय समय पर हमारे खाने पीने की व्यवस्था कर देते। एक बार उस उस संगठन के बड़े नेता का आगमन हुआ उसने अपने एक ओज भरे भाषण में किसानों से अपील की कि वो भाखरा डैम का पानी सिंचाई के लिए इस्तेमाल न करें क्यूंकि सरकार ने उसमें से बिजली निकाल ली है। नेता की इस बेतुकी बात को सुन कर हम दोस्तों ने उस संगठन से किनारा कर लिया। उस संगठन के लिए काम करने से हमें जो कभी खाने पीने या आर्थिक मदद मिलती थी वो बंद हो गयी ऊपर से एक मित्र के घर से पैसे आने भी बंद हो गए. कंगाली में आटा गीला वाला बात हुई लेकिन हमने उसकी भरपूर मदद करने की प्रतिज्ञा ली, उसकी फ़ीस भरने की खातिर हॉस्टल के कमरे छोड़ दिए और एक पुराने मंदिर में बने कमरे में रहने लगे जिसकी बरसातों में छत खूब टपकती थी और हमें बरसातों के चार महीने हॉस्टल में किसी न किसी दोस्त के साथ उसके कमरे में गुज़ारने पड़ते। दो कपड़ों में गुज़ारा करते किसी दोस्त की कमीज़ कभी मिल जाती तो पहन कर हीरो लगते और क्लास में अकड़ कर जाते वरना फ़टे हाल फ़क़ीरों की तरह घूमते ।उन दिनों यूनिवर्सिटीज़ में वामपंथ विचारधारा से प्रेरित एस. एफ. आई. का बोलबाला था। हम लोग उससे जुड़ गए। बात बात पर कॉलेज में हड़ताल करवाते विद्यार्थियों के हक़ के लिए प्रशासन से लड़ते ,पोस्टर बनाते जुलूस निकालते, मार्क्स और लेलिन को कोट करते, केंटीन में चाय के साथ कभी डबलरोटी तो कभी बिस्कुट पर गुज़ारा करते। इन कामों को करने में वही हुआ जिसका डर था , हम लोगों की हाज़री कम पड़ गयी और हमें ग्रेजुएशन की फाइनल परीक्षा में बैठने नहीं दिया गया।     .

दिनों, सालों, महीनों में नहीं ये लोग जीते 
ये बस्ती फ़ाक़ों की गिनती से उम्रें आंकती है
*
आदमी है या गुलाबों की टहनियां है भला 
काँटे ही काँटे बदन हैं और चेहरे फूल हैं
*
लुटेरा चोर था, तस्कर था या सितमगर था 
चुना गया वो जो नेता तो सबका दिलबर था 

विकासवाद की बातें भी झूठी लगती हैं 
कहाँ है आदमी अब भी जो पहले बंदर था 

कहां से ढूँढ के मिलता मुझे वो गै़रों में 
मेरा रक़ीब मेरे दोस्तों के अंदर था
*
नफरत की बाढ़ में हैं सभी बह रहे मगर 
सोए पड़े हैं नाख़ुदा लंगर लपेट कर 

चहका खुशी से चूजा यूँ पहली उड़ान भर 
लाया परों में जैसे हो अंबर लपेट कर 

दुनिया में अम्न ख़ुद ब ख़ुद हो जाएगा 'पवन' 
धर दें सभी जो अपने पयंबर लपेट कर
*
वक्त ने हँफाया है साथ यूँ हमें अपने
दौड़ता है गाड़ी के साथ इक कुली जैसे
*
रहती है तब से ख़ाली ही दरिया बिछी हुईं 
जलसों का बहरे जब से बहिष्कार कर गए

ऐसी सूरते हाल में वापस गाँव लौटना तो संभव ही नहीं था इसलिए मैंने और प्रेम भारद्वाज ने तय किया कि दोनों बचपन के दोस्त 'मदन मोहन सेठी'  के पास चलते हैं जो हमीरपुर जिले के गाँव 'कांगू' के किसी स्कूल में अध्यापक लगा हुआ था। हमने कॉलेज से एक चिठ्ठी ली जिसमें लिखवा लिया कि हमने ग्रेजुएशन की पढाई की है लेकिन उसकी परीक्षा हम किसी कारण पास नहीं कर पाए। हमारी जेब में इतने पैसे नहीं थे कि हम दोनों बस से कांगू जाते इसलिए एक ट्रक ड्राइवर को जो कांगू से आगे जा रहा था किसी तरह हाथ पाँव जोड़ कर अपने साथ ले जाने को मनाया। धुल मिट्टी से सने जब हम हिचकौले खाते कांगू पहुंचे तो थकान और भूख से हमारी हालत बहुत ख़राब थी। 'कांगू' उतर कर दोस्त का पता किया तो लोगों ने बताया कि वो चार दिन पहले ही एक महीने के लिए कोई कोर्स करने सोलन चला गया है। इसे कहते हैं सर मुँडाते ही ओले पड़ना। 

किस्मत अच्छी थी कि वो अपने कमरे की चाबी पड़ौस में किसी को दे गया था। पड़ौसी को जब यकीन दिलाया कि हम दोनों उसके बचपन के दोस्त हैं तो हमारी हालत देख कर उसे रहम आया और उसने कमरे की चाबी देदी। रहने का बंदोबस्त होने से हम थोड़ा आश्वस्त हुए। कमरे के सामने लगे नल पर जा कर नहाये धोये तो भूख तेज हो गयी , कमरे में जा कर ढूँढा तो एक छोटी सी मटकी में थोड़ा सा नमक रखा मिला, बस। जेब में जितने पैसे बचे थे उनसे एक मुठ्ठी चावल और दाल मिली कमरे में रखे स्टोव पर रखी हांड़ी में खिचड़ी तो क्या बनाई हाँ दोनों को मिला कर उबाला नमक डाला और खा कर सो गए। . 

कहते हैं मुसीबत कभी अकेले नहीं आती साथ में मुसीबतों की सुनामी ले कर आती है। दूसरे दिन ये सोच कर कि शायद जहाँ मदन पढ़ाता है उस स्कूल में हमें भी नौकरी मिल जाए उसके स्कूल पहुँच गए। स्कूल जा कर पता लगा की स्कूल में साइंस के अध्यापकों की ज़रूरत तो है लेकिन प्रिंसिपल साहब जो नौकरी दे सकते थे एक हफ्ते के लिए अपने गाँव, पँजाब गए हुए हैं। ये हफ्ता काटना सबसे मुश्किल काम था। उधार किसी ने दिया नहीं ,जेब में धेला नहीं याने खाने को कुछ भी नहीं। भीख माँगना ज़ेहन ने ग़वारा नहीं किया ,अनजान जगह, किसके आगे हाथ फैलाते ? यकीन करो राजेश भाई हमने पाँच दिन घासफूस और पेड़ से पत्ते तोड़ कर उबाल कर खाये। आज जब ये बात याद कर रहा हूँ तो खुद को यक़ीन नहीं आ रहा। 
 
कोई देता न ध्यान हो जैसे 
मां भी हिंदी ज़ुबान हो जैसे 

राज़े दिल आंख खोल देती है 
घर से लगती दुकान हो जैसे 

जो भी चाहे वो करना पड़ता है 
मन भी आलाकमान हो जैसे
*
जानकी का जो हरण करते हैं नेपथ्य में वो
मंच पर राम का किरदार संभाले हुए हैं
*
भूल जाए ना कहीं शक्ल भी असली अपनी 
ये मुखौटा भी किसी पल तो उतारा करना
*
हर बार मिलते हैं बाहें पसारे 
इक दूजे की काटकर हम भुजाएं 

दोनों तरफ़ जीत के हैं ठहाके 
ग़मगीन हैं खोए बेटों की माएं
*
होंठ सी कर आदमी के बोलने देंगे नहीं 
बोलना तोतों को लेकिन खूब से सिखलाएंगे लोग
*
पहाड़ी मौसमों सा है बदलता रंग हर तेरा 
कभी इंकार चुटकी में कभी इकरार चुटकी में 

मनों में पड़ती खाई अरसे तक गहराती है पहले 
नहीं होती खड़ी आँगन में है दीवार चुटकी में

छठे दिन जैसे ही पता लगा कि प्रिंसिपल साहब गाँव से लौट आये हैं तो हम दोनों दौड़ते हुए उनके घर पहुँचे। मुझे आज भी याद है प्रिंसिपल साहब अपने घर के बरामदे में चारपाई पर बैठे खाना खा रहे थे। उनकी थाली में गरमागरम मक्की की रोटी रखी थी जिस पर मख़्खन तैर रहा था सामने कटोरी में दही रखा था। थाली में आम का आचार और प्याज़ के टुकड़ों के साथ हरी मिर्च भी रखी थी। ये सब देख कर हम उनके पास किस काम से आये थे ये ही भूल गए। रोटी, वो भी इस तरह थाली में, देखे हमें अरसा हो गया था। हैडमास्टर साहब बिना हमारी और देखे मज़े से खाये जा रहे थे और हमारी हालत उन कुत्तों जैसी हो रही थी जो खाना देख कर उसे खाने की बेसब्री में राल गिराते हैं और दुम हिलाते हैं। दिल में आया कि हे भगवान ये प्रिंसिपल साहब किसी तरह आधी नहीं तो इस रोटी का एक टुकड़ा ही हमें डाल दें। ये भी ख़्याल आया कि हैडमास्टर साहब को धक्का दे कर उनके सामने पड़ी थाली छीन के भाग जाएँ। किसी शायर का कतआ है कि "भूख इंसान को मज़बूर बना देती है , हद्दे तहज़ीब से कम्बख़्त निकल जाता है , शहर की आग में जलते हैं मकानात मगर , भूख की आग से ईमान भी जल जाता है "। हमने किसी तरह अपना ईमान बचाये रखा। प्रिंसिपल साहब ने आखिर डकार लेकर हमारी और देखा और बोले कि कल से स्कूल आकर ज्वाइन कर लो साथ ये भी कहा कि आपकी तनख़्वा शिमला से अप्रूवल आने के बाद ही दी जाएगी। जैसे ही ये बात गाँव में फैली, बनिए ने हमें थोड़ा बहुत राशन उधार में दे दिया। हमारी ख़ुशी कुछ ही दिन क़ायम रह पायी क्यूंकि शिमला से हमारे लिए अप्रूवल नहीं आया। हमने सोचा दर दर की ठोकरें खाने से अच्छा है कि घर ही चला जाय ,वहाँ जो होगा वो यहाँ जो हो रहा है उससे बुरा तो नहीं ही होगा और हम दोनों अपने अपने घरों को रवाना हो गए।    
घर वालों ने जब हमारी दास्तान सुनी तो कुछ नहीं कहा।  बड़े भाई साहब ने जबरदस्त डाँट पिलाई और ज़िन्दगी में कुछ बनने के लिए फिर से कॉलेज जा कर पढाई में ध्यान देने की सीख दी। आज मैं जो कुछ हूँ उसी सीख का नतीजा है ! 
   .
दिन बहुत हो गए हँसे जब भी 
खुद ही खुद को है गुदगुदी कर ली
*
आते जाते हैं फेंकता पत्ते 
पेड़ गुंडे सा छेड़ता है मुझे 

खींचता है कभी हटाता है 
वो रजाई सा ओढ़ता है मुझे 

गर है हिम्मत तो मुझ से हो के गुज़र 
पुल के जरिए क्यों लाँघता है मुझे
*
कचरा तमाम शहर की गलियों में भर गया
गंगा के तट की आज सफ़ाई हुई तो है 

पानी की बाल्टी लिए आए हैं किसलिए 
ये आग आपकी ही लगाई हुई तो है
*
हर बदरिया जा बरसती है चमकते शैल पर 
कौन हरियाली बिछाए धूल-मंडित देश में 

कुछ ही सैयादों ने है बस क़ैद कर रक्खा इन्हें 
सोने की चिड़ियां तो अब भी हैं हमारे देश में
*
मसला नहीं है हिंदू मुसलमान का यहां 
मसला है खुद को दोनों ने कट्टर बना लिया

पत्थर को देवता किया हमने तराश कर
तूने बुतों को तोड़ के पत्थर बना लिया

कुरुक्षेत्र लौट कर भौतिकी में बी.एस.सी. आनर्स किया फिर हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से बी.एड के बाद एम.एड किया।सरकारी स्कूल में लम्बे अर्से तक बच्चों को गणित पढ़ाई और मुख्याध्यापक के पद से रिटायर हुआ। मुझे ख़ुशी है कि मेरे विद्यार्थी बहुत से सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों में अच्छे पदों पर काम कर रहे हैं। एक बार मेरे विद्यार्थियों की परीक्षा का सेंटर किसी दूसरी स्कूल में आया जहाँ के अध्यापक अपने और दूसरे स्कूल के विद्यार्थियों को गणित के पेपर में खुले आम नक़ल करवा रहे थे। उन्होंने जब मेरे विद्यार्थियों को मदद की पेशकश की तो सभी ने एक स्वर से ठुकरा दिया और कहा कि हम पवनेंद्र गुप्ता जी के विद्यार्थी हैं हमें परीक्षा में किसी की मदद की जरुरत नहीं। ये बात जिले में आग की तरफ फैली और मेरा सीना गर्व से चौड़ा हो गया। रिटायरमेंट के बाद मैंने गैर सरकारी स्कूलों में प्रधानाचार्य पद पर भी काम किया लेकिन वहां जब मुझे मेरे आदर्शों से समझौता करने को कहा गया तो मैंने वो पद छोड़ दिया। अब फुर्सत में साहित्य सृजन करता हूँ और जंगल की लम्बी सैर करते हुए आनंद उठाता हूँ। 

चाय का अंतिम घूँट भरते हुए पवन जी ने राजेश की और देख कर कहा 'मेरे संघर्ष की कहानी कोई अनोखी नहीं है राजेश भाई इसीलिए मैं किसी को ये कहानी सुनाता नहीं। मेरे जैसे पता नहीं कितने हैं जिन्होंने जीवन में मुझसे भी ज्यादा संघर्ष किया है और अभी तक कर रहे हैं।' राजेश ने हामी में सर हिलाते हुए कहा 'जी आप सही कह रहे हैं लेकिन मुझे नहीं मालूम था कि एक कवि और शायर के जीवन में संघर्ष की ऐसी कहानी है। इतने मुश्किल हालात में आपने शायरी कब शुरू की ये भी बता दें'। 'शायरी ?' पवन जी हँसते हुए बोले 'ये भी बता देता हूँ. शायरी में मेरी दिलचस्पी मुझे जैसा मैंने पहले बताया मेरे मित्र प्रेम भारद्वाज के जरिये हुई। पहले मैं आम शायरों की तरह तुकबंदी किया करता था मेरी शायरी को निखारने में हिमाचल प्रदेश के जाने माने शायर स्वर्गीय सागर पालनपुरी जी का महत्वपूर्ण योगदान रहा।धर्मशाला बी.एड. कॉलेज में पढाई के दौरान मेरा सागर साहब से संपर्क हुआ था। मेरी शायरी में जो भी कुछ अच्छा है वो उन्हीं की बदौलत है वो उस दौर में अगर मेरी ऊँगली न थामते तो शायद मैं इस मुक़ाम पर न होता। जब तक सागर साहब रहे वो मुझे संभाले रहे बाद में उनके दो होनहार पुत्र जो आज देश के नामी शायर हैं 'द्विजेन्द्र द्विज' और 'नवनीत शर्मा' जी ने समय समय पर मेरा साथ दिया। मेरी हिंदी ग़ज़लों की किताब 'उसे दुःख धरा का सुनाना पहाड़ो ! में उन्होंने भूमिकाएं भी लिखी हैं। हिंदी के अलावा पहाड़ी में भी ग़ज़लें, मुक्तक और कवितायेँ लिखी हैं। दूरदर्शन जालंधर और शिमला से उनका प्रसारण भी हुआ है। कहानियाँ, लोक संस्कृति पर लेख और नाटक भी लिखे हैं। 

'कमाल है पवन जी मुझे तो आपकी इन खूबियों का पता ही नहीं था , मुझे आज इस बात की ख़ुशी है कि एक इतना बड़ा इंसान मुझे अपना मित्र मानता है' राजेश जी ने गदगद होते हुए कहा। पवन जी हँसते हुए राजेश जी से बोले 'इंसान बड़ा नहीं, अच्छा होना चाहिए राजेश बाबू ,अब चलो उठो घर भी जाना है।  

अपना हित था जब तक, धरती सबको मां थी मीठा अमृत 
खाड़ी तक जब आ पहुँची तो गंगा सबको लगती खारी

कोई ना कहता आओ बैठो, कोई ना सुनता माँ की बात 
ये घर जैसे घर न रह कर हो कोई दफ्तर सरकारी 

होठों पर आ पाए ताकि कभी ना आँखों देखी बात 
राज महल की हर माता को होना पड़ता है गाँधारी

खांसी आहें बलगम मांँ के देख बहुत चिंतित है बेटा बीवी, बच्चे, नौकर को भी लग ना जाए ये बीमारी
*
जिंदा रखा है अभी पुरखों को हमने 
अपने भीतर अब भी बंदर रह रहा है
*
कहाँ से आए हैं, क्यों आए हैं, कब जाएंगे हम 
नहीं खुलते हैं ये ताले हमारी तालियों से
*
मिला चिराग़ न घर के लिए कभी जिनको 
मरे तो होने लगे उनके मक़बरे रोशन
*
हाक़िमों से सवाल करता है 
यार तू भी कमाल करता है

नागपाशों से पड़ता है बंधना
धर्म कितना निढाल करता है
*
बड़े घर के हर एक अर्जुन के पीछे
कई एकलव्यों का इतिहास होगा 

उसे दु:ख धरा का सुनाना पहाड़ों !
की अम्बर तुम्हारे बहुत पास होगा