Monday, September 24, 2018

किताबों की दुनिया - 196

हम तो रात का मतलब समझे, ख़्वाब, सितारे, चाँद, चराग़  
आगे का अहवाल वो जाने जिसने रात गुज़ारी हो 
 अहवाल =हाल 
 *** 
मुझे कमी नहीं रहती कभी मोहब्बत की
 ये मेरा रिज़्क़ है और आस्मां से आता है 
 रिज़्क़=जीविका
 *** 
वो शोला है तो मुझे ख़ाक भी करे आख़िर 
 अगर दिया है तो कुछ अपनी लौ बढाए भी
 *** 
अपने लहू के शोर से तंग आ चुका हूँ मैं 
 किसने इसे बदन में नज़र-बंद कर दिया 
 *** 
रंग आसान हैं पहचान लिए जाते हैं
 देखने से कहीं ख़ुश्बू का पता चलता है
 *** 
रेत पर थक के गिरा हूँ तो हवा पूछती है 
 आप इस दश्त में क्यों आए थे वहशत के बगैर 
 वहशत=दीवानगी 
 *** 
जिस्म की रानाइयों तक ख्वाइशों की भीड़ है
 ये तमाशा ख़त्म हो जाए तो घर जाएंगे लोग 
 *** 
 ऐसा गुमराह किया था तिरी ख़ामोशी ने 
 सब समझते थे तिरा चाहने वाला मुझको
 *** 
उदास ख़ुश्क लबों पर लरज़ रहा होगा 
 वो एक बोसा जो अब तक मिरी जबीं पे नहीं 
 ***
 वो रुक गया था मिरे बाम से उतरते हुए
 जहां पे देख रहे हो चराग़ जीने में
 *** 
आशिकी के भी कुछ आदाब हुआ करते हैं 
 ज़ख्म खाया है तो क्या हश्र उठाने लग जाएँ 
 हश्र =हंगामा

 मेरी समझ में दुनिया में तीन तरह के लोग होते हैं - ये अलग बात है कि मेरी समझ कोई ज्यादा नहीं है लेकिन जितनी भी है उस हिसाब से कह रहा हूँ- पहले वो लोग जिनके पास क़ाबलियत का समंदर होता है लेकिन वो ज़ाहिर ऐसे करते हैं जैसे उनके पास बस बूँद भर क़ाबलियत है दूसरे वो जिनके पास बूँद भर क़ाबलियत होती है लेकिन वो दुनिया को बताते हैं की उनके पास क़ाबलियत का समंदर है तीसरे वो जिनके पास क़ाबलियत का समंदर तो छोड़ें एक बूँद भी नहीं होती लेकिन ज़ाहिर ऐसे करते हैं जैसे दुनिया में अगर किसी के पास काबलियत है तो सिर्फ उनके पास। दूसरे और तीसरे किस्म के लोग सोशल मिडिया में छाये हुए हैं इसलिए उनका जिक्र किताबों की दुनिया में करके क्यों अपना और आपका वक्त बर्बाद किया जाय।

 लग्ज़िशें कौन सँभाले कि मोहब्बत में यहाँ 
 हमने पहले भी बहुत बोझ उठाया हुआ है 
 लग्ज़िशें =भूल 
 *** 
मिली है जान तो उसपर निसार क्यों न करूँ
 तू ऐ बदन मिरे रस्ते में आने वाला कौन ? 
*** 
इश्क में कहते हैं फरहाद ने काटा था पहाड़ 
 हमने दिन काट दिए ये भी हुनर है साईं 
 *** 
मेरे होने में किसी तौर से शामिल हो जाओ 
 तुम मसीहा नहीं होते हो तो क़ातिल हो जाओ 
 मसीहा =मुर्दे में जान डालने वाला 
 *** 
बदन के दोनों किनारों से जल रहा हूँ मैं 
 कि छू रहा हूँ तुझे और पिघल रहा हूँ मैं 
 *** 
हवा गुलाब को छू कर गुज़रती रहती है 
 सो मैं भी इतना गुनहगार रहना चाहता हूँ
 *** 
मैं झपटने के लिए ढूंढ रहा हूँ मौक़ा 
 और वो शोख़ समझता है कि शर्माता हूँ 
 *** 
लिपट भी जाता था अक्सर वो मेरे सीने से
 और एक फ़ासला सा दर्मियाँ भी रखता था
 *** 
रात को जीत तो पाता नहीं लेकिन ये चराग़ 
 कम से कम रात का नुक्सान बहुत करता है 

 आज जिस शायर की किताब की बात हम कर रहे हैं वो पहली श्रेणी के शायर हैं ,अफसोस इस बात का नहीं है कि इस शायर ने अपनी काबलियत का ढिंढोरा नहीं पीटा अफ़सोस इस बात का है कि हमने उनकी काबलियत को उनके रहते उतना नहीं पहचाना जिसके वो हकदार थे। एक बात तो तय है भले ही किसी शायर को उसके जीते जी इतनी तवज्जो न मिले लेकिन जिस किसी में भी क़ाबलियत होती है उसका काम उसके सामने नहीं तो उसके बाद बोलता है, लेकिन बोलता जरूर है। किसी ने कहा है -किसने ? ये याद नहीं कि आपके लिखे को अगर कोई दौ-चार सौ साल बाद पढता है या पहचानता है तो समझिये आपने वाकई कुछ किया है वर्ना तो प्रसिद्धि पानी पर बने बुलबुले की तरह होती है ,इधर से मिली उधर से गयी। आज जिनको लोग सर माथे पे बिठाते हैं कल उन्हें को गिराने में वक्त नहीं लगाते। ऐसे सैंकड़ों उदाहरण हमारे सामने हैं ,सिर्फ शायरी में ही नहीं हर क्षेत्र में जहाँ हमने कथाकथित महान लोगों को अर्श से फर्श पर औंधे मुंह गिरते देखा है।

 मैं तेरी मन्ज़िल-ए-जां तक पहुँच तो सकता हूँ 
 मगर ये राह बदन की तरफ़ से आती है 

 ये मुश्क है कि मोहब्बत मुझे नहीं मालूम 
 महक सी मेरे हिरन की तरफ़ से आती है 

 किसी के वादा-ए-फ़र्दा के बर्ग-ओ-बार की खैर
 ये आग हिज़्र के बन की तरफ से आती है
 वादा-ए-फ़र्दा=कल मिलने का वादा , बर्गफल -ओ-बार=फल पत्ते फूल 

आप शायरी भी पढ़ते चलिए और साथ में मेरी बकबक भी जैसे खेत में फसल के साथ खरपतवार होती हैं न वैसे ही। अब ये बताइये कि क्यों काबिलियत होते हुए भी किसी को उसके जीते जी उतनी प्रसिद्धि नहीं मिलती ? मेरे ख्याल से उसका कारण शायद ये है कि क़ाबिल लोग ज्यादातर जो बात करते हैं वो उनके समय से आगे की होती है या फिर बात वो होती है जिसे बहुमत समझ नहीं पाता। हम जिसे समझ नहीं पाते उसे या तो नकार देते हैं या सर पर बिठा लेते हैं। नकारना अपेक्षाकृत आसान होता है इसलिए ज्यादातर बुद्धिजीवियों को नकार दिया जाता है फिर सदियों में उसकी कही लिखी बातों का विश्लेषण होता है तब कहीं जा के समझ में आता है कि जिसे हमें नकारा था वो कितना महान था। देखा ये गया है कि अकेले चलने वाले से अक्सर भीड़ में चलने के आदी लोग कतराते हैं उन्हें वो अपनी जमात का नहीं लगता। हम दरअसल धडों में बटें लोग हैं, आप चाहे इस बात को माने न मानें। हमें लगता है कि जिस धड़े में हम हैं वो सर्वश्रेष्ठ है। दूसरे धड़े के लोग हमारी क्या बराबरी करेंगे। धड़े के मठाधीश दूसरे धड़े के क़ाबिल इंसान की क़ाबिलियत को या तो सिरे से नकार देते हैं या उसकी और ध्यान ही नहीं देते।

 बस इक उमीद पे हमने गुज़ार दी इक उम्र 
 बस एक बूँद से कुहसार कट गया आखिर 
 कुहसार=पहाड़

 बचा रहा था मैं शहज़ोर दुश्मनों से उसे 
 मगर वो शख़्स मुझी से लिपट गया आखिर 
 शहज़ोर =ताक़तवर 

 हमारे दाग़ छुपाती रिवायतें कब तक 
 लिबास भी तो पुराना था फट गया आख़िर

 चलिए अब आज की ग़ज़ल की किताब की और रुख करते हैं जिसका शीर्षक है "मन्ज़र-ए-शब-ताब" जिसके शायर हैं जनाब 'इरफ़ान सिद्द्की' साहब। वही इरफ़ान सिद्द्की जो 11 मार्च 1939 को उत्तरप्रदेश के बदायूँ में पैदा हुए , बरेली में पढ़े लिखे और 15 अप्रेल 2004 को लख़नऊ में इस दुनिया-ए-फ़ानी से कूच कर गए। बहुत से लोग बदायूँ में पैदा होते हैं और लखनऊ में जन्नत नशीन होते हैं लेकिन इनमें से शायद ही कोई 'इरफान सिद्द्की 'जैसा होता है। मुझे ये बात कहने में कोई शर्म नहीं कि मेरे लिए ये नाम अब तक अनजाना था। आपने जरूर इनके बारे में पढ़ा सुना होगा लेकिन हम जैसे लोग जो उर्दू से मोहब्बत तो करते हैं लेकिन पढ़ नहीं सकते, इरफ़ान सिद्द्की साहब तक आसानी से नहीं पहुँच सकते। कारण ? ये भी बताना पड़ेगा ? वैसे सीधा सा है -इनकी कोई किताब हिंदी में किसी बड़े प्रकाशक द्वारा प्रकाशित नहीं हुई - किसी पत्रिका या अखबार में कभी छपे हों तो मुझे पता नहीं - मुशायरों में खूब गए हों इसका भी कहीं जिक्र नहीं मिलता - सोशल मिडिया में इनके किसी फैन क्लब की भी सूचना मुझे नहीं है -तो बताइये कैसे पता चलेगा इनके बारे में ?


 ढक गईं फिर संदली शाखें सुनहरी बौर से 
 लड़कियां धानी दोपट्टे सर पे ताने आ गईं

 फिर धनक के रंग बाज़ारों में लहराने लगे
 तितलियाँ मासूम बच्चों को रिझाने आ गईं 

 खुल रहे होंगे छतों पर सांवली शामों के बाल 
 कितनी यादें हमको घर वापस बुलाने आ गईं 

 बिल्ली के भाग्य से छींका तब टूटा जब रेख़्ता बुक्स वालों ने उनकी ग़ज़लों की ये किताब शाया की। आप उनकी शायरी पढ़ते हुए अब तक समझ ही होंगे कि वो किस क़ाबलियत के शायर थे। उनकी शायरी के बारे में मेरे जैसा अनाड़ी तो भला क्या कह पायेगा अलबत्ता इरफ़ान साहब के बारे में जो थोड़ी बहुत जानकारी मैंने जुटाई है वो ही आपसे साझा कर रहा हूँ। वैसे आपकी सूचना के लिए बता हूँ कि ये जो गूगल महाशय हैं ये भी बहुमत के हिसाब से ही चलते हैं ,इनसे किसी इरफ़ान सिद्दीकी साहब जैसे शायर की जानकारी प्राप्त करना आसान काम नहीं। वहां से जो हासिल हुआ वो था की इरफ़ान साहब 1962 में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की केंद्रीय सूचना सर्विसेस से जुड़ गए. नौकरी के सिलसिले में दिल्ली, लखनऊ आदि स्थानों पर रहे. यह नियाज़ बदायूंनी के छोटे भाई थे. उनके पुस्तकों के नाम हैं: ‘कैनवस’, ‘इश्क नामा’, ‘शबे दरमयाँ’, ‘सात समावात’ . इसके अलावा “हवाए दश्ते मारया” और “दरया” भी उनके कुछ रिसाला नुमा किताबों में शामिल हैं. ये किताबें पाकिस्तान से प्रकाशित हुईं 

ज़मीं छुटी तो भटक जाओगे ख़लाओं में 
 तुम उड़ते उड़ते कहीं आस्मां न छू लेना 

 नहीं तो बर्फ़ सा पानी तुम्हें जला देगा 
 गिलास लेते हुए उँगलियाँ न छू लेना 

 उड़े तो फिर न मिलेंगे रिफ़ाक़तों के परिन्द
 शिकायतों से भरी टहनियां न छू लेना
 रिफ़ाक़तों =दोस्ती 

 इरफ़ान साहब की शायरी के बारे में इस किताब की भूमिका में जनाब शारिब रुदौलवी लिखते हैं कि 'इरफ़ान सिद्द्की की शायरी में इश्क की दो कैफ़ियतें मिलती हैं। एक जिसमें गर्मी है, लम्स है ,एहसास की शिद्दत है और कुर्बत (समीपता ) का लुत्फ़ है और दूसरे में एहसास-ए-जमाल (सौंदर्य बोध )है , मोहब्बत है, खुशबू है. इरफ़ान सिद्दीकी के यहाँ जिस्म,लम्स और विसाल का जिक्र है। इस कैफ़ियत (अवस्था )में भी उनके यहाँ बड़ा तवाजुन (संतुलन )है। ये नाज़ुक मरहला था लेकिन उन्होंने उसे बहुत ख़ूबसूरती से तय किया है। उनके यहाँ इश्क़ न तो सिर्फ तसव्वुराती (काल्पनिक) और ख़याली है और न वो तहज़ीबी ज़वाल (पतन) के ज़माने के बाला-खानो (कोठों) में परवरिश पाने वाला इश्क है। एक ज़िंदा शख़्स का ज़िंदा शख़्स से इश्क है। इरफ़ान सिद्दीकी ने उसे जिस तरह अपनी शायरी में बरता है उसने उर्दू की इश्क़िया शायरी के वक़ार ( प्रतिष्ठा ) में इज़ाफा किया है। " शारिब साहब के इस कथन की पुष्टि इस किताब को पढ़ते वक्त होती जाती है।

 उठो ये मंज़र-ए-शब्-ताब देखने के लिए
 कि नींद शर्त नहीं ख़्वाब देखने के लिए 
 मंज़र-ए-शब्-ताब=रात को रोशन करने वाला दृश्य 

 अजब हरीफ़ था मेरे ही साथ डूब गया 
 मिरे सफ़ीने को ग़र्क़ाब देखने के लिए
 हरीफ़ =प्रतिद्वंदी ,ग़र्क़ाब =डूबना 

 जो हो सके तो जरा शहसवार लौट के आएं
 पियादगां को ज़फ़रयाब देखने के लिए 
 शहसवार =अच्छा घुड़सवार , पियादगां =पैदल सिपाही , ज़फ़रयाब =विजयी

 लखनऊ जहाँ शायर पनपते थे वहीँ उनमें आपसी धड़ेबंदी भी खूब चलती थी। इरफान साहब जैसा कि मैंने पहले बताया है इस घटिया किस्म की अदबी सफबन्दी के खिलाफ थे लिहाज़ा इसका खामियाज़ा भी उन्हें भुगतना पड़ा। वो बहुत से ऐसे सम्मानों से जिसे उनके समकालीन शायरों को नवाज़ा गया था , महरूम रह गए। इस बात की टीस उन्हें रही भी। एक बेइंतिहा पढ़े-लिखे ,बेपनाह अच्छे शायर और एक शरीफ आदमी के लिए ये अदबी नाइंसाफियां नाक़ाबिले बर्दाश्त होती हैं कभी कभी तो ये पीड़ा भावुक आदमी की जान भी ले लेती है। अगर उनके साथ ज़माने का सलूक थोड़ा भी दोस्ताना होता तो शायद वो कुछ बरस और जी लेते। ऐसा नहीं है कि ये घटिया रिवायत अब नहीं रही अब भी है और पहले से कहीं ज्यादा खूंखार रूप में है। टीवी शो हों ,मुशायरे हों, अदबी रिसालों में छपने की बात हो या फिर किताब छपवाने की कवायद हो अगर आप किसी धड़े का हिस्सा नहीं है तो फिर फेसबुक या सोशल मिडिया के सहारे दिन काटिये और पढ़ने वालों का इंतज़ार कीजिये।

 उसको मंज़ूर नहीं है मिरी गुमराही भी 
 और मुझे राह पे लाना भी नहीं चाहता है 

 अपने किस काम में लाएगा बताता भी नहीं 
 हमको औरों पे गंवाना भी नहीं चाहता है 

 मेरे लफ़्ज़ों में भी छुपता नहीं पैकर उसका
 दिल मगर नाम बताना भी नहीं चाहता है 

 लखनऊ के शायरों का जिक्र हो और जनाब वाली आसी का नाम ज़हन में न आये ऐसा तो हो ही नहीं सकता। जो लोग किताबों की दुनिया नियमित रूप से पढ़ते आये हैं उन्हें याद होगा कि वाली साहब का जिक्र भारत भूषण पंत साहब की किताब वाली पोस्ट में विस्तार से किया था। वाली आसी साहब की लखनऊ में किताबों की दूकान थी जहाँ सभी शायर शाम के वक्त गपशप करने और शायरी पर संजीदा गुफ्तगू करने इकठ्ठा हुआ करते थे। इरफ़ान साहब वाली साहब के चहेते शायर थे और उनके कितने ही शेर उन्हें ज़बानी याद थे। इरफ़ान साहब की शायरी अपने वतन से ज्यादा पकिस्तान में मशहूर थी बल्कि बहुत से लोग उन्हें पाकिस्तानी शायर ही समझते थे। मुनव्वर राणा साहब ने अपनी किताब 'मीर आके लौट गया ' में इरफ़ान साहब के बारे में एक रोचक किस्सा दर्ज़ किया है। आप इरफ़ान साहब के ये शेर पढ़ें फिर वो किस्सा बताता हूँ :

 अब इसके बाद घने जंगलों की मंज़िल है 
 ये वक्त है कि पलट जाएँ हमसफ़र मेरे 

 ख़बर नहीं है मिरे घर न आने वाले को 
 कि उसके क़द से तो ऊंचे हैं बाम-ओ-दर मेरे 

 हरीफ़े-ऐ-तेग़-ए-सितमगर तो कर दिया है तुझे 
 अब और मुझसे तू क्या चाहता है सर मेरे 
 हरीफ़े-ऐ-तेग़-ए-सितमगर=अत्याचारी की तलवार का प्रतिद्वंदी

 हुआ यूँ कि एक दफह पकिस्तान के मशहूर शायर जनाब 'इफ़्तिख़ार आरिफ़' साहब लखनऊ अपने वतन तशरीफ़ लाये। आरिफ़ साहब के नाम की तूती उस वक्त पूरे उर्दू जगत में बजती थी -उनके मुकाबले का तो छोड़िये उनके आस पास भी किसी शायर का नाम फटकता नहीं था। उन्होंने मुनव्वर साहब से जो अपनी कार से आरिफ़ साहब को होटल छोड़ने जा रहे थे पूछा कि 'मुनव्वर मियां आपकी अदबी सूझ-बूझ और मुतालिए (अध्ययन )के सभी कायल हैं - आप बताइये कि इरफ़ान सिद्दीकी अच्छे शायर हैं या मैं ? मुनव्वर साहब एक पल को चौंके फिर उन्होंने कहा कि 'देखिये इफ़्तिख़ार भाई मेरी इल्मी हैसियत के हिसाब से आपकी ग़ज़लों का दायरा महदूद (सीमित ) है लेकिन इरफ़ान भाई ने ग़ज़ल में नए मौज़ूआत के ढेर लगा दिए हैं " ये सुन कर इफ्तिखार साहब ने कहा 'मुनव्वर इस लिहाज़ से तुम्हारा तजज़िया गैर जानिब दाराना (पक्षपात रहित ) है -पाकिस्तान में भी इरफ़ान भाई मुझसे बड़े शायर माने जाते हैं "

 हट के देखेंगे उसे रौनक-ए-महफ़िल से कभी 
 सब्ज़ मौसम में तो हर पेड़ हरा लगता है 

 ऐसी बेरंग भी शायद न हो कल की दुनिया 
 फूल से बच्चों के चेहरों से पता लगता है 

 देखने वालो मुझे उससे अलग मत जानो 
 यूं तो हर साया ही पैकर से जुदा लगता है 

 इरफ़ान साहब को उर्दू अकादमी उत्तर प्रदेश और ग़ालिब इंस्टीट्यूट ने सम्मानित किया है। उनके अदबी सफर पर मगध बुद्ध विश्विद्यालय से डॉक्टरेट किया गया है। पाकिस्तान के बहावलपुर विश्विद्यालय और पंजाब विश्वविद्यालय के छात्रों उनके किये काम पर थीसिस लिखी। जिन्हें शायरी में कुछ अलग हट कर पढ़ने की चाह है उनके लिए तो ये किताब किसी वरदान से कम नहीं। सच्ची और अच्छी शायरी पढ़ने वालों के लिए इस किताब का उनके हाथ में होना जरूरी है। किताब को आसानी से आप अमेज़न से आन लाइन मंगवा सकते हैं। दिल्ली में कोई परिचित हो तो उसकी मदद से आप इसे रेख़्ता के दफ्तर से ख़रीद कर भी मंगवा सकते हैं। आप क्या करते हैं ये आप पर है लेकिन मेरी तो सिर्फ इतनी सी गुज़ारिश है कि इस किताब को पढ़ें जरूर। चलते चलते उनकी एक लाजवाब ग़ज़ल के ये शेर आपको पढ़वाता चलता हूँ :

 सख्त-जां हम सा कोई तुमने न देखा होगा 
 हमने क़ातिल कई देखे हैं तुम्हारे जैसे 

 दीदनी है मुझे सीने से लगाना उसका 
 अपने शानों से कोई बोझ उतारे जैसे 
 दीदनी =देखने योग्य 

 अब जो चमका है ये खंज़र तो ख्याल आता है 
 तुझको देखा हो कभी नहर किनारे जैसे 

 उसकी आँखें हैं कि इक डूबने वाला इंसां
 दूसरे डूबने वाले को पुकारे जैसे

Monday, September 17, 2018

किताबों की दुनिया - 195

कांटा है वो कि जिसने चमन को लहू दिया 
 ख़ूने -बहार जिसने पिया है , वो फूल है 
 *** 
अपने पहलू में सजा लो तो इसे चैन आये
 दिल मेरा ग़म की धड़कती हुई तस्वीर सही 
 *** 
न जाने कौनसी मंज़िल पे आ पहुंचा है प्यार अपना
 न हमको एतबार अपना, न उनको एतबार अपना 
 *** 
भंवर से बच निकलना तो कोई मुश्किल नहीं लेकिन 
 सफ़ीने ऐन दरिया के किनारे डूब जाते हैं
 *** 
ओ बेरहम मुसाफ़िर हँसकर साहिल की तौहीन न कर 
 हमने अपनी नाव डुबाकर तुझको पार उतारा है
 *** 
अकसर उबल पड़ी है मेरी ओक से शराब 
 यूँ भी दुआ को हाथ उठाता रहा हूँ मैं
 *** 
थक गया मैं करते करते याद तुझको 
 अब तुझे मैं याद आना चाहता हूँ 
 *** 
ना जाने किस अदा से लिया तूने मेरा नाम 
 दुनिया समझ रही है कि सब कुछ तेरा हूँ मैं 
 *** 
ना कोई ख़्वाब हमारे हैं न ताबीरें हैं 
 हम तो पानी पे बनाई हुई तस्वीरें हैं 
 *** 
न हो उनपे कुछ मेरा बस नहीं , कि ये आशिक़ी है हवस नहीं 
 मैं उन्हीं का था मैं उन्हीं का हूँ ,वो मेरे नहीं तो नहीं सही 

लाहौर शहर में सुबह के चार बजे हैं, बरसात हो रही है ,एक गोल चेहरे पर तीखी मूंछों वाला , काले घुंघराले बालों और चमकीली आँखों वाला इंसान आवाज़ लगाता है " ओये मुंडू उठ ओये चार बज गए ,तेल गरम करके लया फटाफट छेती !! मुंडू , उनका सेवक ,जो अभी तक गहरी नींद में था स्प्रिंग लगे गुड्डे की तरह अपने बिस्तर से उछलता है तेल गरम करता है एक कटोरी में डालता है और उस इंसान के पास आकर खड़ा हो जाता है जिसने अब सिर्फ लंगोट धारण कर रखा है और जो जमीन पे पेट के बल लेटा हुआ है। मुंडू को पता है कि क्या करना है - ये तो उसका रोज का काम है एक घंटा उस इंसान की जम के तेल मालिश। मालिश के बाद इन हज़रत का दंड पेलने का सिलसिला शुरू होता है , मुंडू का काम है गिनना जिसमें वो अक्सर गलती करता है लिहाज़ा सौ की जगह ढेड़ सौ दंड पेलना आम बात हो गयी है। पसीने में नहाये ये जनाब अब सीधे आकर अपनी टेबल पर बैठेंगे। आप सोच रहे होंगे कि मैं किसी पहलवान का जिक्र कर रहा हूँ ,आपकी सोच सही है इस तरह का इंसान पहलवान ही हो सकता है, लेकिन नहीं -अब ये हज़रत खिड़की से गिरती बारिश की बूंदों को देखते हैं और गुनगुना उठते हैं : "रात भर बूंदियां रक़्स करती रहीं , भीगी मौसिकियों ने सवेरा किया " आप भी मानेंगे कि ऐसा काव्य रचने वाला इंसान, पहलवान भले हो न हो लेकिन शायर जरूर होगा।

 पूछ रही है दुनिया मुझसे वो हरजाई चाँद कहाँ है 
 दिल कहता है गैर के बस में , मैं कहता हूँ मेरे दिल में 

 डरते-डरते सोच रहा हूँ वो मेरे हैं अब भी शायद 
 वर्ना कौन किया करता है यूँ फेरों पर फेरे दिल में 

 उजड़ी यादों टूटे सपनों शायद कुछ मालूम हो तुमको 
 कौन उठाता है रह-रहकर टीसें शाम-सवेरे दिल में 

 इस तरह तेल मालिश और दंड पेलने के बाद जहाँ अखाड़ा सजना चाहिए ख़म ठोकने और पेंतरे बदलने की मशक्कत होनी चाहिए वहां इसके ठीक विपरीत शेर कहे जा रहे हैं जिनमें झरनों का संगीत नदी की कल-कल, फूलों की महक, भंवरों की गुँजन, बादलों की गड़गड़ाहट, पपीहे की पीहू पीहू और महबूब की लचकती कमर का बखान पिरोया जा रहा है। ये शख्स जो जाति का पठान है और जिसने पेट पालने के लिए कभी गेंद बल्ले बेचे तो कभी रैकेट कभी लुंगियां बेचीं तो कभी कुल्ले कभी चुंगीखाने में कलर्की की तो कभी बस कम्पनियों में टिकट बेचे याने हर तरह का गैर शायराना काम किया और साथ ही की लाजवाब शायरी। शायरी दरअसल आपके अंदर होती है ,आप पहाड़ों की वादियों में, फूलों की घाटियों में या जिस्म के बाज़ारों में बैठें तो ही शायरी कर पाएंगे ऐसा तो कतई जरूरी नहीं और अगर आपके अंदर शायरी है ही नहीं तो साहब आप लाख दंड पेल लें आपके अंदर से एक मिसरा भी फूट जाए तो कहना।

 निकल कर दैरो-क़ाबा से अगर मिलता न मैखाना 
 तो ठुकराए हुए इन्सां खुदा जाने कहाँ जाते 

 तुम्हारी बेरुख़ी ने लाज रख ली बादा-खाने की 
 तुम आँखों से पिला देते तो पैमाने कहाँ जाते 

 चलो अच्छा हुआ काम आ गयी दीवानगी अपनी 
 वगर्ना हम ज़माने भर को समझाने कहाँ जाते 

 हमारे आज के जो शायर साहब हैं न, शायरी उनमें कूट कूट कर भरी हुई है ये तेल मालिश और दंड पेलने की कवायद उस शायरी को अपने अंदर से बाहर कागज़ पर उतारने के लिए की जाती है। ये भी एक तरीका है मूड बनाने का हाँ ये तरीका जरा अलग है इसलिए हमें हजम नहीं होता। हम देखते आये हैं कि शायरी को अपने अंदर से बाहर निकालने के लिए शायर या तो लगातार सिगरेट पीते हैं या तो शराब, या दोनों एक साथ ,कुछ चाय की केतली सामने रखते हैं कुछ रात के सन्नाटे का इंतज़ार करते हैं तो कुछ महबूब के पहलू में लेटने का लेकिन कोई दंड बैठक निकाल कर पसीने पसीने हो कर शायरी करे ऐसा कभी देखा-सुना-पढ़ा ही नहीं। लेकिन जो है सो है। अब क्या पता शायद इसी कसरत की वज़ह से उनके अंदर से बाहर निकलने वाली शायरी की बदौलत उनका पूरी दुनिया में नाम है और उनके लाखों चाहने वाले हैं। जो उन्हें पहचान गए हैं उन्हें सलाम और जो नहीं पहचान पाए हैं उन्हें बताते हैं हमारे आज के शायर का नाम : क़तील शिफ़ाईप्रकाश पंडित द्वारा सम्पादित और राजपाल एन्ड संस् द्वारा प्रकाशित किताब "क़तील शिफ़ाई और उनकी शायरी" हमारे सामने है :


ऐ शामे-अलम कुछ तू ही बता ये ढंग तुझे कुछ आया है  
दिल मेरी खोज में निकला था और तुझको ढूंढ के लाया है

 इक हल्की हल्की धूप मिली उस कोमल रूप के परदे में 
 फागुन की ठिठुरती रातों को जब भादों ने गर्माया है 

 मैं फूल समझ कर चुन लूँगा इन भीगे से अंगारों को 
 आँखों की इबादत का मैंने पहले भी यही फल पाया है 

 ये उस जमाने की बात है, लेकिन कम ज्यादा आज भी लागू होती है, वो ये कि अगर कोई शायर है तो उसकी एक अदद प्रेमिका भी होगी, इसलिए हमारे क़तील साहब की भी थी। और वो थी भी कोई ऐसी वैसी नहीं, सिनेमा की खूबसूरत अदाकारा थी, नाम था चंद्रकांता। उनका प्रेम रॉकेट की गति से परवान चढ़ा और डेढ़ साल में रॉकेट की गति से ही जमीन पर धड़ाम आ गिरा। चंद्रकांता तो कपडे झाड़ कर मुस्कराते हुए तू नहीं और सही और नहीं और सही गुनगुनाते हुए उठ खड़ी हुई लेकिन क़तील साहब वहीँ पड़े रह गए ,दिल पे गहरी चोट खाये हुए। एक तो शायर ऊपर से दिल पे लगी गहरी चोट याने सोने में सुहागा , लोगों ने सोचा अब तो क़तील साहब से विरह की ऐसी ऐसी ग़ज़लें पढ़ने सुनने को मिलेंगी कि अश्कों से तर दामन सूखने का नाम ही नहीं लेगा पर हुआ इसका उल्टा। क़तील ने चंद्रकांता की बेवफाई पर लिखने और कोसने के बजाए उन हालातों पर उन मज़बूरियों पर क़लम चलाई जिसकी वजह से चंद्रकांता उन्हें छोड़ गयी। 

 ये भी कोई बात है आखिर दूर ही दूर रहें मतवाले 
 हरजाई है चाँद का जोबन या पंछी को प्यार नहीं है 

 एक जरा सा दिल है जिसको तोड़ के तुम भी जा सकते हो 
 ये सोने का तौक़ नहीं, ये चांदी की दीवार नहीं है 
तौक़=फंदा 

 मल्लाहों ने साहिल -साहिल मौजों की तौहीन तो कर दी 
लेकिन फिर भी कोई भंवर तक जाने को तैयार नहीं है 

 पंजाब जो अब पकिस्तान के हिस्से में है की तहसील हरिपुर के जिले हज़ारा में 24 दिसंबर 1919 को क़तील साहब का जन्म हुआ। स्कूली और कालेज की पढाई रावलपिंडी में रह कर पूरी की। हर पिता की तरह क़तील के पिता भी यही चाहते थे कि उनका बेटा शायरी जैसे शौक न पाले और एक अच्छी सी नौकरी कर इज़्ज़त की ज़िन्दगी बसर करे और हर नालायक बेटे की तरह क़तील साहब ने पिता की बात नहीं मानी और वो किया जो उनके दिल ने कहा। रावलपिंडी में उनका पत्राचार प्रसिद्ध शायर जनाब 'अहमद नदीम क़ासमी साहब से शुरू हुआ। उनकी रहनुमाई में उन्होंने यथार्थवादी शायरी के गुर सीखे। इस से पहले क़तील साहब रोती बिसूरती लिजलिजी मोहब्बत में लिपटी शायरी किया करते थे और अपने उस्ताद शायर जनाब 'शिफ़ा कानपुरी ' साहब से इस्लाह लिया करते थे। शिफ़ा साहब के शागिर्द की हैसियत से उन्होंने अपना नाम क़तील शिफ़ाई कर लिया था जबकि उनका असली नाम 'औरंगजेब खान' था. 

 बज़्मे-अंजुम से नज़र घूम के लौट आई है 
 फिर वही मैं हूँ वही आलमे-तन्हाई है 

 गुनगुनाती हुई आती हैं फ़लक से बूँदें 
 कोई बदली तेरी पाज़ेब से टकराई है 

 पास रह कर भी ये दूरी मुझे मंज़ूर नहीं 
 इस से बेहतर तो मेरी आलमे -तन्हाई है 

 अभिनेत्री चंद्रकांता का क़तील साहब की ज़िन्दगी से रुख़सत होना खुद क़तील साहब के लिए ठीक हुआ या नहीं ये कहना मुश्किल है लेकिन ये हादसा उर्दू शायरी के लिए नेमत बन कर आया। उसके बाद क़तील ने जो शायरी की है उस से उर्दू साहित्य बहुत समृद्ध हुआ। उर्दू शायरी की डगर को उन्होंने ज्यादा साफ़ सुंदर और प्रकाशमान बनाया। मनीष अपने ब्लॉग "एक शाम मेरे नाम' में लिखते हैं कि "क़तील की शायरी को जितना पढ़ेंगे आप ये महसूस करेंगे कि प्रेम, वियोग बेवफ़ाई की भावना को जिस शिद्दत से उन्होंने अपनी लेखनी का विषय बनाया है वैसा गिने चुने शायरों की शायरी में ही नज़र आता है। जनाब सरदार ज़ाफ़री साहब ने क़तील साहब के बारे में एक जुमला कहा है कि पहाड़ी के ख़ुश्क सीने से उबलता हुआ एक चश्मा ( हरी-भरी वादियों से गुनगुनाता हुआ गुज़र रहा है। और इसका नग़मा सुनकर कलियां आंखें खोल देती हैं। इस चश्मे का नाम क़तील शिफ़ाई है।

 खीरामे-नाज़ --और उनका खीरामे -नाज़ ? क्या कहना 
 ज़माना ठोकरें खाता हुआ महसूस होता है 
 खीरामे-नाज़ =सुन्दर चाल 

 किसी की नुकरई पाज़ेब की झंकार के सदके 
 मुझे सारा जहां गाता हुआ महसूस होता है
नुकरई = चांदी की


 'क़तील' अब दिल की धड़कन बन गई है चाप क़दमों की 
 कोई मेरी तरफ़ आता हुआ महसूस -होता है 

 क़तील साहब के एक दोस्त हुआ करते थे जनाब ए.हमीद उन्होंने क़तील की शख्सियत का ख़ाका कुछ यूँ खिंचा है "माज़ी में पीछे जाता हूं तो क़तील की एक शक्ल उभरती है : घने स्याह घुंघरियाले बाल, मज़बूत क़ुव्वत इरादे की अलामत, चौड़े नथुनों वाली सुतवां रोमन नाक, सुर्ख-ओ-सफ़ेद मुस्कराता हुआ ख़ूबसूरत चेहरा, हज़ारे की मर्दाना वजाहत का भरपूर मज़हर, वालिहाना जज़्बात और तेज़ फ़हम की अकास आंखें, शेरों में पायल की खनक, बातों में बेसा$ख्तगी व बेबाकी, कोई लगी-लिपटी नहीं, पीठ पीछे करने वाली बातों को मुंह पर कह देने वाला....नाराज़गियां मोल लेने वाला.... क़तील शिफ़ाई।''अब इन्हीं क़तील साहब की इस ग़ज़ल के शेर पढ़ें जो इश्क-ओ -मुहब्बत की खूबसूरत वादियों से दूर हक़ीक़त की सख़्त चट्टान की तरह हैं और आज भी उतने ही मौजू हैं जितने आज से पचास साल पहले थे :

 खून से लिथड़े चेहरे पर ये भूखी नंगी रअनाई 
 देख ज़माने देख ये मेरे ख़्वाबों की शहज़ादी है 
 रअनाई =सुंदरता

 पत्ती-पत्ती डाली-डाली कोस रही है मौसम को 
 लेकिन अपने बाग़ का माली इन बातों का आदी है

 शुक्र करो ऐ गुलशन वालो आज क़फ़स की कैद नहीं 
 बाग़ में भूखों मरने की हर पंछी को आज़ादी है 

 मुहब्बतों का शायर कहते हैं क़तील साहब को लेकिन उन्हें समाजी और खासकर महरूम तबके की फ़िक्र कुछ कम न थी।उनके नर्मो-नाज़ुक दिल में सब इंसानों के बराबर होने का सपना पलता था और इस धरती पर रची गई इंसानी ग़ैर-बराबरी बेचैन करती थी। अपने मुल्क के हालात उन्हें बेचैन किया करते थे। अपनी नज़्मों गीतों और ग़ज़लों में उनकी बेचैनी साफ़ तौर पर नज़र आती है। हर संवेदनशील इंसान चाहे वो शायर हो न हो अपने आसपास के बदलते बिगड़ते माहौल को देख कर व्यथित होता ही है ये अलग बात है कि अपनी व्यथा को व्यक्त करने के तरीके सब के एक जैसे नहीं होते। क़तील चूँकि शायर थे लिहाज़ा उन्होंने अपनी मानसिक वेदना का इज़हार अपनी रचनाओं के माध्यम से व्यक्त किया और क्या ही खूब किया।

 क़फ़स में आँधियों का नाम सुनके मुतमइन न हो 
 ये बागबां का हुस्ने- गुफ़्तगू है और कुछ नहीं 

 सरूरे-मय कहाँ , कि दिल की तश्नगी बुझाएं हम 
 इस अंजुमन में साया-ए-सुबू है और कुछ नहीं 

 तुम्हें गुलों की बेबसी में हुस्न की तलाश है 
 ये जुस्तजू बराए जुस्तजू है ,और कुछ नहीं 

 क़तील अपने बारे में लिखते हैं कि ''यूं तो मुझे बारह-तेरह बरस की उम्र से ही मेरी सोच मुझे बेचैन सा रखती थी लेकिन महसूस करके शेर कहने की इब्तिदा 1935 ईस्वी से हुई जब अचानक मेरे शाह खर्च बाप का साया मेरे सर से उठ गया और मेरे शऊर ने मेरे रंगारंग तजुर्बों को अपने अंदर जज़्ब करना शुरू किया। मुझे ज़िंदगी में पहली बार इस हक़ीक़त को समझने की फ़ुरसत मिली कि लोग एक-एक चेहरे पर कई-कई चेहरे सजाए बैठे हैं।'' उनकी एक चेहरे पे कई चेहरे वाली बात को जनाब साहिर लुधियानवी ने 'दाग' फिल्म के गाने के लिए बहुत खूबी से इस्तेमाल किया है। साहिर और क़तील साहब में जबरदस्त याराना था दोनों लाहौर में पास पास रहते थे। साहिर ही तरह क़तील साहब ने भी पाकिस्तानी और हिंदुस्तानी फिल्मों के लिए भी खूब गाने लिखे लेकिन अपनी शायरी के मयार से समझौता नहीं किया।उनके गीत 'घुँघरू टूट गए --" को तो दोनों मुल्कों के न जाने कितने गायकों ने आवाज़ दी है। फ़िल्मी गाने लिखने के दौरान ही उनका इश्क पाकिस्तान की मशहूर गायिका इकबाल बानो से परवान चढ़ा लेकिन शादी की देहलीज़ से ही वापस लौट गया।

 चमन वाले ख़िज़ाँ के नाम से घबरा नहीं सकते
 कुछ ऐसे फूल भी खिलते हैं जो मुरझा नहीं सकते

 समाअत साथ देती है तो सुनते हैं वो अफ़साने
 जो पलकों से झलकते हैं ज़बां पर आ नहीं सकते

 हमें पतवार अपने हाथ में लेने पड़ें शायद
 ये कैसे नाखुदा हैं जो भंवर तक जा नहीं सकते

 आप सोच रहे होंगे कि मैं 'क़तील " साहब की उन ग़ज़लों जिन्हें जगजीत सिंह , मेहदी हसन और गुलाम अली साहब ने गा कर अमर कर दिया है जैसे 'अपने होंठों पर सजाना चाहता हूँ ' , ' ये मोज़ज़ा भी मोहब्बत कभी दिखाए मुझे' , 'अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझे' , 'सदमा तो है मुझे भी कि तुझसे जुदा हूँ मैं ' , 'मिल कर जुदा हुए तो न रोया करेंगे हम' , 'यारों किसी क़ातिल से कभी प्यार न मांगो' , 'ज़िन्दगी में तो सभी प्यार किया करते हैं' ,' शोला था जल बुझा हूँ' , 'किया है प्यार जिसे हमने ज़िन्दगी की तरह ' ,आदि का जिक्र क्यों नहीं कर रहा तो उसका कारण ये है कि वो ग़ज़लें इस किताब में नहीं है क्यूंकि ये किताब तो 1959 में प्रकाशित हुई थी 1959 से 11 जुलाई 2001 तक याने जब तक वो मौजूद रहे तब तक के 42 सालों के दौरान जो ग़ज़लें कहीं वो इस किताब में नहीं हैं वो किसी और किताब में होंगी लेकिन क्यूंकि इसमें नहीं है इसलिए इसमें जो ग़ज़लें हैं मैं सिर्फ उन्हें ही आप तक पहुंचाऊंगा। क़तील साहब के बारे में जानकारी मैंने जरूर इस किताब के अलावा इंटरनेट से प्राप्त सूचनाओं और प्रसिद्ध ब्लॉगर मनीष कुमार और राजकुमार केसवानी साहब के ब्लॉग से इकठ्ठा की है।

 वो फूल से लम्हें भारी हैं अब याद के नाज़ुक शानों पर
 जो प्यार से तुमने सौंपे थे आगाज़ में इक दीवाने को

 इक साथ फ़ना हो जाने से इक जश्न तो बरपा होता है
 यूँ तनहा जलना ठीक नहीं समझाए कोई परवाने को

 मैं रात का भेद तो खोलूंगा जब नींद मुझे न आएगी
 क्यों चाँद-सितारे आते हैं हर रात मुझे समझने को

ये किताब आप https://www.pustak.org/books/bookdetails/4992 की साइट से या फिर राजपाल एन्ड संस् दिल्ली से भी मंगवा सकते हैं।  क़तील शिफ़ाई साहब पर अगर आप लिखने पे आएं तो लिखते ही चले जा सकते हैं ,मैं तो अपनी रौ में लिखता चला जा रहा हूँ लेकिन मुझे ये भी तो ध्यान रखना पड़ेगा कि आपका वक्त बहुत कीमती है और मुझे अब यहीं रुक जाना चाहिए इसलिए आपसे अब रुखसत की इज़ाज़त ले रहा हूँ। हाँ जाने से पहले आपको उनकी एक बहुत मशहूर ग़ज़ल के ये शेर पढ़वाता चलता हूँ , यूँ पढ़वाने की तमन्ना तो और भी बहुत कुछ थी लेकिन खैर -कहते हैं न कि सब कुछ पूरा कभी नहीं मिलना चाहिए थोड़ी सी कसक बाकी रहनी चाहिए तभी ज़िन्दगी में मज़ा बना रहता है :

 परीशां रात सारी है सितारो तुम तो सो जाओ 
 सुकूते-मर्ग तारी है सितारो तुम तो सो जाओ 

 हमें तो आज की शब् पौ फ़टे तक जागना होगा 
 यही किस्मत हमारी है सितारो तुम तो सो जाओ 

 हमें भी नींद आ जायेगी हम भी सो ही जायेंगे 
 अभी कुछ बेकरारी है सितारो तुम तो सो जाओ

Monday, September 10, 2018

किताबों की दुनिया - 194

सिर्फ कमरे में बिछा कालीन देखा है 
आपने कालीन की दुनिया नहीं देखी
 *** 
अजब मेरी कहानी है कि जिसमें 
कहीं भी ज़िक्र मेरा ही नहीं है 
 *** 
तूने मुझे जो अच्छा बताया तो ये हुआ 
 अपनी कई बुराइयाँ फिर याद आ गईं 
 *** 
तराशी हुई नोक पर है सियासत 
 जिसे चुभ रही है वही बेखबर है
 *** 
सर उठा कर उम्र भर लड़ता रहा, अब क्या हुआ 
 जीतने के वक्त ही क्यों नीची गर्दन हो गई 
 ***
 बड़े आराम से हैं प्रश्न सारे 
 फ़ज़ीहत उत्तरों की हो रही है 
 *** 
मुझे जो सुख मिला है क्या बताऊँ 
 घड़ी जो बंद थी उसको चला कर
 *** 
मैं घर में अब अकेला हूँ बताने 
 मैं सोशल मीडिया पर छा रहा हूँ 
 *** 
कोई सीखे राह बनाना इनके रस्ते पर चलकर 
 मरने की सौ विपदाओं में हैं जीने के कौशल ख़्वाब 
 *** 
इक हरेपन की नई उम्मीद तो जागे 
 जेठ में चल चिठ्ठियां बरसात की बाँटें 

 आज से लगभग 50 साल पहले एक फिल्म आयी थी "तलाश " जिसमें मन्ना डे साहब का गाया और सचिन देव बर्मन दा के संगीत से सजा गाना "तेरे नैना तलाश करें जिसे, वो है तुझी में कहीं दीवाने " बहुत प्रचलित हुआ। इस गाने में एक बहुत सच्ची बात को आसान लफ़्ज़ों में कह दिया गया था जबकि इसी बात को अधिकतर सूफी संतों ने में भी कहा है, लेकिन क्या है न की फ़िल्मी गानों का असर हम पर देर तक रहता है इसलिए ये याद रहा। हम गाना सुन लेते हैं सूफी संतों को पढ़ लेते हैं लेकिन करते वो ही हैं जिसे हम ठीक समझते हैं ,तभी आप देखिये हर किसी को किसी न किसी चीज की तलाश है और हर कोई उसे अपने भीतर न ढूंढते हुए बाहर ढूंढता है। तलाश चाहे ज़िन्दगी की हो ,ख़ुशी की हो ,शांति की हो ,रास्ते की या किसी मंज़िल की हो, ईश्वर की हो या फिर अपनी प्रेमिका की और कुछ नहीं तो स्वर्ग की या फिर मोक्ष की-तलाशा उसे बाहर ही जाता है। हम सभी का जीवन एक लम्बी तलाश ही तो है। इस तलाश से हासिल क्या होता है ये बहस का मुद्दा हो सकता है इसलिए इसे यहीं छोड़ते हैं.

 जो डूबा है वही तारा तलाशूँ 
 मैं अपने में तेरा होना तलाशूँ 

 जवाबों से गई उम्मीद जबसे 
 सवालों में कोई रस्ता तलाशूँ 

 तुम्हारे लौटने तक भी तुम्हीं हो 
 ख़ुदा का शुक्र है मैं क्या तलाशूँ 

 मेरा चेहरा अगर मिल जाए मुझको 
 तो फिर गुम है जो आईना तलाशूँ 

 हमारे आज के शायर जनाब "विनय मिश्र" जी ने इस सतत तलाश को अपनी ग़ज़ल की किताब " तेरा होना तलाशूँ " में जगह जगह, अलग अलग अंदाज़ और खूबसूरत लफ़्ज़ों से कुछ इस तरह पिरोया है कि लगने लगता है ये तलाश सिर्फ उनकी अपनी नहीं बल्कि कहीं न कहीं हम सभी की है। ये बात ही उन्हें विशिष्टता प्रदान करती है। आज के इस दौर में जहाँ अंधाधुन्द ग़ज़लें कही जा रही है वहाँ अपनी अलग पहचान बनाना आसान नहीं। अति किसी भी क्षेत्र में हो बुरी होती है ,आपने देखा ही होगा कि बाढ़ में चढ़ी नदी का पानी हमेशा आम बहने वाली नदी के पानी से गदला होता है। ये ही हाल आज कल ग़ज़ल लेखन का हो गया है. सोशल मिडिया पर ग़ज़लों का उफान सा आया हुआ है। पता नहीं क्यों लोगों को ऐसा लगता है कि अगर उन्होंने ग़ज़ल नहीं कही तो कहीं आने वाले समय में ये विधा ही ख़तम न हो जाय और ये कि ये विधा उनके कारण ही जीवित रह पाएगी। उन्हें ये नहीं पता कि वो ही ग़ज़ल की जड़ में मठ्ठा डाल रहे हैं। दरअसल ग़ज़ल अभ्यास से नहीं अनुभव से आती है। अभ्यास से आप ग़ज़ल के नियमों में परिपक़्व हो सकते हैं लेकिन उसमें डाले जाने वाले भाव, अनुभव से आते हैं।

 बांटने वाली कोई जब तक हवा मौजूद है 
 हम गले मिलते रहें पर फासला मौजूद है 

 और कुछ ज्यादा संभलकर और कुछ हो कर सजग
 भीड़ में जो चल सको तो रास्ता मौजूद है 

 आंसुओं का इक समंदर चुप्पियों का एक शोर 
 इस अकेले में ग़ज़ब की सम्पदा मौजूद है 

 विनय जी का जन्म उत्तर प्रदेश के देवरिया में 12 अगस्त 1966 को हुआ , अब आप ये मत पूछना कि देवरिया कहाँ है, क्यों की अगर आप पूछेंगे तो मुझे बताना पड़ेगा कि वो गोरखपुर से कोई 50 की.मी की दूरी पर है। देवरिया में प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ,वाराणसी को चुना और वहां से एम्.ऐ.(हिंदी ) और फिर 'तुलसी दास का रचनात्मक दायित्व बोध पर पी.एच.डी की डिग्री हासिल की ।अब कोई हिंदी में एम.ऐ.करे और हिंदी की किसी विधा में कलम भी चलाये ऐसा कोई नियम तो नहीं है लेकिन अक्सर देखा गया है कि हिंदी या उर्दू में डिग्रियां हासिल करने वाले उस भाषा की किसी न किसी विधा में लिखने से अपने आपको रोक नहीं पाते। लिहाज़ा लिखते हैं ,कुछ का लिखा पढ़ा जाता है और अधिकतर का लिखा किसी का ध्यान आकर्षित नहीं कर पाता। कारण साफ़ है किसी भाषा का ज्ञान होना अलग बात है और उस भाषा में कुछ लिखना अलग। भाषा सम्प्रेषण का माध्यम मात्र है लेखन के लिए आपके पास भाव होना जरूरी है और अगर आप भाषा के साथ साथ भाव भी रखते हैं तो ही आप 'विनय मिश्र ' बन सकते हैं।

 राजमहलों के इरादे थे बड़े लेकिन मुझे 
 झुग्गियों का उन इरादों में दख़ल अद्भुत लगा 

 सब सफल होने की चाहत में लगे हैं रात दिन 
 इसलिए सबको मेरा होना विफल अद्भुत लगा 

 जो नहीं है उसका होना आज मुमकिन ही नहीं
 प्रश्न जैसा ही मिला उत्तर सरल अद्भुत लगा 

 विनय जी ने अपना साहित्यिक सफर कविता लेखन से शुरू किया। वाराणसी प्रवास के दौरान उनकी मुलाकात ग़ज़ल के सशक्त हस्ताक्षर उस्ताद शायर जनाब 'मेयार सनेही " साहब से हो गयी। उसके बाद उनका हाल वो हुआ जो लोहे का पारस पत्थर के स्पर्श से होता है। सनेही साहब ने उन्हें ग़ज़ल के व्याकरण के साथ साथ वो बारीकियां भी समझायीं जो एक साधारण शायर को असाधारण बनाती हैं। उन्होंने ने ही 'विनय' जी को ऊँगली पकड़ कर अपने पाँव पर खड़े होना और फिर चलना सिखाया। किसी अच्छे गुरु का मिलना किस्मत की बात होती है ,विनय जी किस्मत के धनी निकले। विनय जी भी अपनी मेहनत और लगन से इसी कोशिश में लगे रहते हैं कि उनके कलाम को पढ़ कर उस्ताद को गर्व हो।
(मेयार सनेही जी का जिक्र किताबों की दुनिया-82 में हो चुका है)

 उस शहर में ऊंचे ऊंचे थे मकान 
 ज़िन्दगी का एक भी कमरा न था 

 जो उदासी में सुनाया था तुम्हें 
 कल ख़ुशी में क्या वही किस्सा न था 

 याद आने के बहाने थे कई 
 भूलने का एक भी रस्ता न था 

 विनय जी पहली पुस्तक ' सूरज तो अपने हिसाब से निकलेगा" में उनकी कवितायेँ संगृहीत हैं। उसके बाद उनका ग़ज़ल संग्रह "सच और है" मंज़र-ऐ-आम पर आया और बहुत मकबूल हुआ। उन्होंने मंजू अरुण की रचनावली का संपादन भी किया है जो 'पलाश वन दहकते हैं' शीर्षक से प्रकाशित हुआ। 'तेरा होना तलाशूँ " उनका दूसरा ग़ज़ल संग्रह है जो अप्रेल 2018 में शिल्पायन बुक्स ,शाहदरा ,दिल्ली से प्रकाशित हुआ। इस संग्रह को विनय जी ने 'हिंदी कविता में ग़ज़ल विमर्श को आगे बढ़ाने वाले ख्यातिलब्ध जनधर्मी आलोचक डा. जीवन सिंह जी को समर्पित किया है। विनय जी की कवितायेँ ,गीत ,नवगीत दोहे ,मुक्त छंद और ग़ज़लें देश की प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में नियमित रूप से छपती रहती हैं।

 ये बुरी बात है सियासत में 
 आदमी होना फिर भला होना 

 सोचकर देख कैसा लगता है 
 सूखते ज़ख्म का हरा होना 

 मंज़िलें एक जब नहीं सबकी 
 राह में तब किसी का क्या होना 

 विनय जी की ग़ज़लें विविधता लिए हुए हैं। उन्होंने सामाजिक सरोकारों पर इंसानी फितरत पर राजनितिक परिपेक्ष्य पर कलम चलायी है। इनकी ग़ज़लें हमारे आज के युग की नुमाइंदगी करती हैं। सीधी सरल भाषा में बात करना वो भी ऐसी जो सबकी हो कई बार दोहराई गयी हो उसे ही सबसे हट कर कहना बहुत मुश्किल काम होता है। विनय जी इस काम को अधिकतर बहुत खूबी से इस किताब में कुशलता पूर्वक करते नज़र आते हैं। मुझे लगता है कि वो आत्ममुग्धता के शिकार नहीं हैं वो तालियां बटोरने या सस्ती लोकप्रियता के लिए ग़ज़लें नहीं कहते। उन्हें जब जो बात लगती है कि कहनी ही चाहिए शायद तभी वो उसे शेरों में ढालते हैं। आज के दौर में ऐसा करने वाले वो अद्भुत इंसान हैं।

 कुटिलता का प्रबंधन है चतुर्दिक 
 सरलता का कोई पूजक नहीं है 

 दुखों के एक ध्रुव पर हैं खड़े हम 
 यहाँ बस बर्फ है चकमक नहीं है

 हमारे दौर का संकट न पूछो
 दिशा तो है दिशासूचक नहीं है 

 विनय जी ग़ज़लों का स्वर खुरदरा है वो अपनी बात को मखमल का मुलम्मा चढ़ा कर पेश नहीं करते। उनमें काले को काला कहने का साहस है इसीलिए वो ये जोखिम उठा लेते हैं। प्रसिद्ध समीक्षिका "रंजना गुप्ता" लिखती हैं कि " प्रतिपक्ष का सारथी बनकर जीवन समर के मध्य रथ खींचना, विनय मिश्र को बख़ूबी आता है। वे अपनी ग़ज़लों के बहाने से दुनिया भर की तकलीफ़ों और तजुर्बों का बयान करते हैं। बहुत-से मसलों पर उन्होंने बेबाक़ी से बात की है। जनसंघर्ष, सर्वहारावर्ग, बाज़ारवाद, राजनीतिक कुटिलता, अवसरवाद के साथ ही बच रहा अकेलापन, प्रेम की बेचारगी और निर्मम समय की दिनों-दिन बढ़ती दुश्वारियों को उन्होंने बहुत शिद्दत से अपनी ग़ज़लों में रेखांकित किया है

 मैं लौटा हूँ घर की तरफ हाथ खाली
 मैं जैसा हूँ वैसा ही संसार निकला 

 शहर घूमकर शाम तक गाँव लौटा 
 वो माटी का माधो समझदार निकला 

 कई याद की सीपियों में पला जब 
मेरा दर्द होके चमकदार निकला

 'शब्द कारखाना' ( हिंदी त्रैमासिक ) के ग़ज़ल अंक के अतिथि संपादक विनय जी इन दिनों राजकीय कला स्नातकोत्तर महाविद्यालय अलवर (राज.) के हिंदी विभाग में असोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप शिल्पायन बुक्स दिल्ली से 011-22826078 पर संपर्क करें और विनय जी को 0144-2730188 अथवा 9414810083 पर संपर्क कर बधाई दें। एक अच्छे और सच्चे शायर की हौसला अफ़ज़ाही करना आपका फ़र्ज़ बनता है। इस किताब में संगृहीत विनय जी की 105 ग़ज़लों के सभी शेर कुछ न कुछ कहते जरूर हैं लेकिन सभी को यहाँ प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। आपसे अनुरोध है कि आप इस किताब को पढ़ें और फिर विनय जी को उनके लाजवाब कलाम के लिए दिल से दुआ दें। चलने से पहले उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर पढ़वाता हूँ :

 दुखों से बात कर ली जी घड़ी भर हो गया हल्का 
 नहीं तो कौन इस मेले में अपना यार लगता है 

 कभी यादों के झुरमुट में जहाँ चौपाल सजती थी 
वहीँ मैं देखता हूँ अब खुला बाजार लगता है 

 ये मेरा दिल तुम्हारी खुशबुओं का एक गुलशन था 
 समय बदला है तो गुलशन ये कांटेदार लगता है

Monday, September 3, 2018

किताबों की दुनिया - 193

दिल ना उमीद तो नहीं नाकाम ही तो है
 लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है
 ***
तुझको तकमील कर रहा हूँ मैं
 वर्ना तुझसे तो मुझको प्यार नहीं
 तकमील =पूर्णता
 ***
है वही बात यूँ भी और यूँ भी
 तुम सितम या करम की बात करो
 ***
 दिल से तो हर मुआम्ला करके चले थे साफ़ हम
 कहने में उनके सामने बात बदल बदल गई
 ***
आये तो यूँ कि जैसे हमेशा थे मेहरबाँ
 भूले तो यूँ कि गोया कभी आशना न थे
 ***
आते आते यूँ ही दम भर को रुकी होगी बहार
 जाते जाते यूँ ही पल भर को ख़िज़ाँ ठहरी है
 ***
अब अपना इख़्तियार है चाहे जहाँ चलें
 रहबर से अपनी राह जुदा कर चुके हैं हम
 ***
वो जो अब चाक गरेबाँ भी नहीं करते हैं 
 देखने वालो कभी उनका जिगर तो देखो 

 1985 कराची का नेशनल स्टेडियम , जनरल जिया उल हक़ द्वारा आयोजित कल्चरल प्रोग्राम का आयोजन था। जनरल ने 5 जुलाई 1977 को जुल्फ़िक़ार अली भुट्टो का तख्ता पलट के सत्ता हथियाली थी और सितम्बर 1978 से खुद को पाकिस्तान का राष्ट्रपति घोषित कर दिया था। इस्लाम के नाम पर जुल्म और दमन का नंगा नाच चल रहा था। लोग संगीनों के साये में सांस लेने को मज़बूर थे। घुट रहे थे। उस दिन स्टेडियम में लगभग 50,000 से ज्यादा लोगों की भीड़ अपनी चहेती गायिका को सुनने इकठ्ठा हुई थी। पाकिस्तान आर्मी के आला अफसर भी पूरी आन-बान-शान से मौजूद थे। कुछ ही दिन पहले जनरल ने पाकिस्तान में महिलाओं को साड़ी पहनने पर पाबन्दी लगा दी थी. गायिका को स्टेज पर बुलाया गया उसके आते ही जैसे सारे आर्मी आफिसर्स को मानो सांप सूंघ गया क्यूंकि गायिका काली साड़ी पहने हौले हौले स्टेज पर आयी। जनरल के हुक्म की सरे आम धज्जियाँ उड़ाती हुई। अफसर इसके लिए बिलकुल तैयार नहीं थे , माना वो देश के करोड़ों चाहने वालों की कलाकार थी लेकिन थी तो एक औरत ही न - औरत होकर हुक्म उदूली ?

 तुम आये हो न शबे-इंतज़ार गुज़री है 
 तलाश में है सहर बार बार गुज़री है 

 वो बात सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था 
 वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है 

 न गुल खिले हैं न उनसे मिले न मै पी है 
 अजीब रंग में अबके बहार गुज़री है 

 आर्मी अफसरों के विपरीत भीड़ ने गायिका के हौसले की दाद देते हुए तालियां बजायीं। इस से पहले की अफसर कुछ कार्यवाही करते गायिका ने गला साफ़ किया ,तबले सारंगी वाले को इशारा किया और गाने लगी - "हम देखेंगे , लाज़िम है कि हम भी देखेंगे -" ये सुनना कि भीड़ ख़ुशी से चीखने लगी पूरे स्टेडियम में जैसे तूफ़ान आ गया। जैसे जैसे गायिका गाती गई वैसे वैसे भीड़ का उन्माद बढ़ता गया। आर्मी अफसरों के चेहरों पर हवाइयाँ उड़ने लगीं , तुरंत स्टेडियम की लाइट्स बंद कर दी गयीं , माइक बंद कर दिया गया लेकिन गायिका गाती गई और तब तक गाती रही जब तक ये नज़्म ख़तम नहीं हो गयी. लोग बरसों बाद सामूहिक रूप से इंकलाब ज़िंदाबाद के नारे लगाने लगे, बाद में बहुत सी कार्यवाहियाँ हुईं गायिका को पाकिस्तान में किसी भी जगह से गाने पर बैन कर दिया गया , बहुत से दर्शकों के खिलाफ फ़र्ज़ी कार्यवाही हुई लेकिन जो होना था वो हो गया। रातों रात इस ऐतिहासिक पल का कैसेट दिल्ली पहुँचाया गया जहाँ से इसकी हज़ारों कापियां लोगों के यहाँ पहुंचीं। आप सोचेंगे कि ऐसा क्या था उस नज़्म में ? तो आपसे गुज़ारिश है कि अगर आपने इक़बाल बानो को फैज़ अहमद फैज़ की इस नज़्म को गाते नहीं सुना है तो यू ट्यूब पर इसे सर्च करके सुनें। सुनते वक्त आपके रोंगटे अगर खड़े न हों तो समझना कि आपके लेफ्ट साइड में जो हिस्सा धक् धक् करता है वो दिल नहीं महज़ शरीर में खून पहुँचाने वाला एक पंप है।

 शेख़ साहब से रस्मो-राह न की 
 शुक्र है ज़िन्दगी तबाह न की 

 तुझको देखा तो सेर-चश्म हुए
 तुझको चाहा तो और चाह न की 
 सेर-चश्म =आँखों की भूख मिटी 

 कौन क़ातिल बचा है शहर में 'फ़ैज' 
जिसे से यारों ने रस्मो-राह न की 

 13 फरवरी 1911 को सियालकोट पाकिस्तान में जन्में 'फैज़ अहमद फैज़' साहब को शायद ही कोई ऐसा शायरी प्रेमी होगा जो न जानता हो. फैज़ साहब के बारे में इतना कुछ इंटरनेट किताबों और पत्रिकाओं में उपलब्ध है की उसमें एक लफ्ज़ भी और नहीं जोड़ा जा सकता ,ऐसे में किताबों की दुनिया में उनकी किताब की चर्चा करना है तो जोखिम का काम। फिर सोचा बहुत से युवा पाठक ऐसे होंगे जिन तक शायद उनकी ग़ज़लें न पहुंची हो तो चलो ये पोस्ट उनके लिए ही सही इसलिए मैंने "फैज़ की ग़ज़लें और नज़्मे " किताब का चुनाव किया। इस किताब में उनकी अधिकतर ग़ज़लों का रंग प्रेम का है जो उनकी बाद की ग़ज़लों से गायब हो गया। आज के युवा को उस शायर के बारे में मालूम होना चाहिए जिसकी शायरी आज भी मजलूमों के लिए हिम्मत का काम करती है. फैज पहले सूफी संतों से प्रभावित थे. 1936 में वे सज्जाद जहीर और प्रेमचंद जैसे लेखकों के नेतृत्व में स्थापित प्रगतिशील लेखक संघ में शामिल हो गए. फैज़ इसके बाद एक प्रतिबद्ध मार्क्सवादी हो गए.


 दोनों जहाँ तेरी मोहब्बत में हार के 
 वो जा रहा है कोई शबे-ग़म गुज़ार के 

 वीरां है मैकदा खुमो-सागर उदास है
 तुम क्या गए कि रूठ गए दिन बहार के 

 दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया 
 तुझसे भी दिल फरेब हैं ग़म रोज़गार के 

 उर्दू शायरी और नज्म में प्रेम या इश्क का बड़ा जोर रहता है. फैज भी पहले इश्किया शायरी ही किया करते थे, जिसपर सूफीवाद का गहरा प्रभाव देखा जा सकता है. प्रगतिशील लेखक संघ का नारा था- ‘हमें हुस्न के मयार को बदलना होगा’ यानी कविता और शायरी में प्रेम-मोहब्बत की जगह आम लोगों, मजलूमों और मजदूरों के बारे में लिखने की अपील की गई.फैज़ ने भी अपनी शायरी के मिजाज को बदला और शायरी में आम लोगों के दुख-दर्द को जगह दी. फैज़ ने बिल्कुल शायराना अंदाज में प्रेम-मोहब्बत की शायरी न लिखने की घोषणा की. मार्क्सवाद की तरफ झुकाव के चलते सन 1962 में उन्हें लेनिन पीस प्राइज़ से नवाज़ा गया जो नोबेल पीस प्राइज के बराबर समझा जाता है ।

 कर रहा था ग़मे-जहाँ का हिसाब 
 आज तुम याद बे-हिसाब आये 

 न गयी तेरे ग़म की सरदारी 
 दिल में यूँ रोज़ इंकलाब आये 

 इस तरह अपनी ख़ामुशी गूंजी 
 गोया हर सिम्त से जवाब आये 

 फैज़ ने ख़ूबसूरती और रोमांस के सुनहरी पर्दे के पार हक़ीक़त की तल्ख़ सच्चाइयों को करीब से देखा है। उन्होंने आरज़ूओं का क़त्ल होते हुए देखा है , भूख उगाने वाले खेत और ख़ाक में लिथड़े, खून में नहाये हुए ज़िस्म देखे हैं ,बाज़ारों में बिकता मज़दूर का गोश्त और गरीब लोगों के हाथों से उनका निवाला झपटते हुए बाज़ देखे हैं। नासूरों से बहती हुई पीप की दुर्गन्ध सूंघी है तभी वो कहते हैं " मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे मेहबूब न मांग " फैज़ किसी एक मुल्क के शायर नहीं है , कोई भी शायर किसी एक मुल्क का नहीं हो सकता, पूरी दुनिया के ज़ुल्म सहते हुए लोग उनकी पीड़ाएँ शायर को व्यथित करती हैं उन्हें बगावत पर उकसाती हैं। फैज़ इस मायने में एक अंतरराष्ट्रीय शायर हैं जिसकी शायरी शोषित-पीड़ित जनता के पक्ष में खड़ी है.

 दिल में अब यूँ तिरे भूले हुए ग़म आते हैं 
 जैसे बिछड़े हुए काबे में सनम आते हैं 

 एक इक करके हुए जाते हैं तारे रोशन 
 मेरी मंज़िल की तरफ तेरे क़दम आते हैं 

 और कुछ देर न गुज़रे शबे-फ़ुर्क़त से कहो
 दिल भी कम दुखता है वो याद भी कम आते हैं 

 फैज़ के इस संग्रह में उनकी क्रांतिकारी ग़ज़लें या नज़्में शामिल नहीं की गयी हैं , उनके तीन संग्रहों 'नक़्शे-फ़रियादी,'दस्ते-सबा', और 'जिन्दानामा' में से कुछ चुनिंदा ग़ज़लों को ही इसमें शामिल किया गया है जिनका अंतर-स्वर इश्क है जबकि फैज़ अहमद फैज़ क्रांति में विश्वास करने और जगाने वाले शायर थे. फैज़ की शायरी सताए हुए लोगों के लिए है और उनकी उम्मीदों और सपनों को आवाज देने वाली है. भारत-पाकिस्तान विभाजन से मिलने वाली आजादी से फैज खुश नहीं थे. उन्होंने साफ-साफ लिखा: " ये दाग़-दाग़ उज़ाला, ये शब गज़ीदा सहर वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं " 'इस किताब में फैज़ साहब की लगभग 40 प्रसिद्ध ग़ज़लें संग्रहित हैं इसके अलावा उनकी कालजयी रचनाएँ जैसे "मुझसे पहले सी मोहब्बत मिरि महबूब न मांग", चंद रोज़ और मिरि जान ,आखरी खत , कुत्ते , बोल.... याद ,आदि 60 के लगभग भी पढ़ने को मिलती हैं। आखिरी में कुछ लाजवाब शेर भी दिए गए हैं।

 वस्ल की शब थी तो किस दर्ज़ा सुबुक गुज़री थी 
 हिज़्र की शब है तो क्या सख़्त गरां ठहरी है 

 इक दफ़ा बिखरी तो हाथ हाई है कब मौजे-शमीम 
 दिल से निकली है तो क्या लब पे फ़ुग़ाँ ठहरी है 
 मौजे-शमीम =खुशबू की लहर , फ़ुग़ाँ =आह 

 आते आते यूँ ही दम भर को रुकी होगी बहार 
 जाते जाते यूँ ही दम भर को ख़िज़ाँ ठहरी है 

 आईये फैज़ साहब के बारे में फिर से बात शुरू करें। बहुत कम लोग जानते होंगे कि फैज़ साहब ने ब्रिटिश इंडियन आर्मी में कप्तान की हैसियत से नौकरी की और तरक्की करते हुए पहले मेजर और बाद में लेफ्टिनेंट कर्नल पद तक पहुंचे। उन्होंने ब्रिटिश एम्पायर मैडल भी प्राप्त किया। विभाजन के बाद उन्होंने पाकिस्तान रहना पसंद किया और वो वहां के प्रमुख अख़बार 'पाकिस्तान टाइम्स' के एडिटर और साथ ही कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य भी बने ,इसी के चलते 1951 में उन पर लियाक़त खां की सरकार को गिरा कर कम्युनिस्ट सरकार बनाने में मदद करने का अभियोग लगाया गया और जेल भेज दिया गया। चार साल जेल में गुज़ारने के बाद वो भुट्टो सरकार के साथ जुड़ गए। भुट्टो सरकार के साथ उन्होंने बरसों काम किया ,जिया उलहक़ द्वारा भुट्टो की गिरफ़्तारी और फांसी के बाद उनके हर कार्यकलाप पर नज़र रखी जाने लगी इसलिए उनका दिल पाकिस्तान से उचट गया और वो बेरुत जा बसे। बेरुत में कुछ साल गुजरने के बाद वो वापस पाकिस्तान कराची लौट आये और वहीँ 20 नवम्बर 1984 को उनका देहावसान हो गया।

 राज़े -उल्फ़त छुपा के देख लिया 
 दिल बहुत कुछ जला के देख लिया 

 और क्या देखने को बाकी है 
 आपसे दिल लगा के देख लिया 

 आज उनकी नज़र में कुछ हमने 
 सबकी नज़रें बचा के देख लिया 

 फैज़ साहब की ग़ज़लों को भारत पकिस्तान के आला गायकों ने अपने स्वर दिए हैं। मेहदी हसन साहब को बुलंदियों पर पहुँचाने में फैज़ की ग़ज़ल " गुलों में रंग भरे बादे-नौबहार चले , चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले " को कौन भूल सकता है। इक़बाल बानो के अलावा 'टीना सानी , बेग़म अख्तर , रेखा भारद्वाज और आबिदा परवीन ने भी उन्हें खूब गाया है। फैज़ की ग़ज़लों और नज़्मों को किसी देश विशेष की सीमा में बाँध कर नहीं रखा जा सकता सकता। उनके चाहने वाले दुनिया के हर कोने में मौजूद हैं। जब तक उर्दू शायरी है फैज़ का नाम ज़िंदा रहेगा। फ़िराक़, साहिर और फैज़ एक की कालखंड में हुए और तीनो अपने अपने क्षेत्रों में किसी से कम नहीं आंके जा सकते। हिंदी में उनकी किताबें अमेज़न पर उपलब्ध हैं और ये किताब जिसका जिक्र किया जा रहा है ,जिसे नारायण दत्त शगल एन्ड सन्स दरीबा कलाँ दिल्ली ने सन 1959 में प्रकाशित किया और जनाब नूरनबी अब्बासी साहब ने सम्पादित किया था अब शायद ही कहीं मिले।

 तुम्हारी याद के जब ज़ख्म भरने लगते हैं 
 किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं 

 हदीसे-यार के उन्वां निखारने लगते हैं 
 तो हर हरीम में गेसू सँवरने लगते हैं 

 दरे-कफ़स पे अँधेरे की मुहर लगती है 
 तो 'फैज़' दिल में सितारे उतरने लगते हैं 

 पाकिस्तान सरकार ने फैज़ साहब के गुज़रने के 6 साल बाद उन्हें पाकिस्तान का सर्वोच्च सिविलियन पुरूस्कार "निशान-ऐ-इम्तियाज़" प्रदान किया। पंजाबी , रशियन , इंग्लिश ,उर्दू ,अरबी और पर्शियन भाषा के विद्वान फैज़ साहब अपने लिखे कलाम से हमेशा ज़िंदा रहेंगे। दुनिया भर में फैले शायरी के लाखों दीवाने उन्हें कभी नहीं भूलेंगे। आईये चलने से पहले पढ़े उनके कुछ कताआत जो लोगों को जबानी याद हैं और रहेंगे :

 रात यूँ दिल में तिरि खोई हुई याद आई 
 जैसे वीराने में चुपके से बहार आ जाये 
 जैसे सहराओं में हौले से चले बादे - नसीम 
 जैसे बीमार को बे-व्जह करार आ जाये 
 ***
 मता-ऐ-लौहो-क़लम छिन गई तो क्या ग़म है 
 कि ख़ूने-दिल में डुबो ली हैं उँगलियाँ मैंने 
 ज़ुबाँ पे मुहर लगी है तो क्या कि रखदी है
 हरेक हल्फ़-ऐ-ज़ंज़ीर में ज़ुबाँ मैंने
 *** 
तिरा जमाल निगाहों में ले के उठ्ठा हूँ
 निखर गई है फ़िज़ा तेरे पैरहन की सी 
 नसीम तेरे शबिस्ताँ से होक आई है
 मिरी सहरा में महक है तिरे बदन की सी 
 *** 
सुब्ह फूटी तो आसमाँ पे तिरे 
 रंगे-रुख़्सार की फुहार गिरी 
 रात छाई तो रू-ऐ-आलम पर 
 तेरी ज़ुल्फ़ों की आबशार गिरी 
 *** 
न आज लुत्फ़ कर इतना कि कल गुज़र न सके 
 वो रात जो कि तिरे गेसुओं की रात नहीं 
 ये आरज़ू भी बड़ी चीज़ है मगर हमदम 
 विसाले-यार फ़क़त आरज़ू की बात नहीं 
 *** 
सारी दुनिया से दूर हो जाये 
 जो ज़रा तेरे पास हो बैठे 
 न गई तेरी बेरुखी न गई 
 हम तेरी आरज़ू भी खो बैठे


लीजिये सुनिए उस ऐतिहासिक कलाम को जिसने लाखों मज़बूर मज़लूम लोगों में ज़ुल्म के ख़िलाफ़ बग़ावत करने का साहस जगाया और पहचानिये एक औरत की ताकत को जो एक खूंखार तानाशाह को सरे आम चुनौती पेश करती है । क्या हुआ अगर आपने इसे पहले से ही सुना हुआ है -एक बार और दिल के धड़कने का सबब याद आये तो क्या बुरा है :-