किसी तालाब की भी हैसियत कुछ कम नहीं होती
समंदर में कमल के फूल पैदा हो नहीं सकते
उसूलों में कभी होता है इतना वज़्न जिनको हम
ज़ियादा देर काँधों पर मुसल्सल ढो नहीं सकते
बड़ा होने पे ये दिक्कत हमारे सामने आयी
किसी के सामने खुलकर कभी अब रो नहीं सकते
हमारी गैलेक्सी में जो तारे दिखाई देते हैं हम को उन्हीं का नाम पता मालूम है लेकिन हकीकत में ऐसी न जाने कितनी गैलेक्सियां हैं और अनगिनत तारे हैं जो हमें नज़र आने वाले तारों से भी बहुत अधिक चमकदार हैं, क्यूंकि वो हमें दिखाई नहीं देते इसलिए हमें उनके बारे में पता नहीं होता। हमारे आज के शायर भी ,खास तौर पर मेरे लिए , किसी दूर दराज़ की गैलेक्सी के उस तारे के समान हैं जिनका पता और चमक मेरे लिए अनजान ही थी। उनकी किताब पढ़ कर कसम से मजा आ गया।
तेरी खुशबू मुझे घेरे हुए अब तक नहीं होती
तो काँटों से भरा अब तक मैं जंगल हो गया होता
नहीं होता मुहब्बत के शजर की शाख से टूटा
तो सूखा फूल इक रस से भरा फल हो गया होता
उलझने में बहुत मश्ग़ूल थीं सुलझी हुई चीजें
अगर मैं भी उलझ जाता तो पागल हो गया होता
ये शायरी की ऐसी किताब है जिसमें किसी भी पेज पर या किसी भी शेर में आये मुश्किल लफ़्ज़ों के मानी उस पेज के नीचे ,जैसा की आम तौर पर दिखाई देते हैं,नज़र नहीं आये। आप सोचेंगे कि ये तो कोई अच्छी बात नहीं है ,इसका मतलब लफ़्ज़ों के मानी खोजने के लिए तो फिर लुग़त का सहारा लेना पड़ेगा ? जी नहीं ऐसी बात नहीं है। इस किताब के किसी शेर में ऐसा कोई लफ़्ज़ है ही नहीं जिसका मतलब ढूंढने के लिए आपको परेशां होना पड़े। दरअसल ये किताब न उर्दू में है और न ही हिंदी में इस किताब की ग़ज़लों की ज़बान हिन्दुस्तानी है जो सहज ही सबकी समझ में आ जाती है।मेरी नज़र में ये इस किताब की बहुत बड़ी खूबी है।
बहुत कुछ पा लिया लेकिन अधूरापन नहीं भरता
किसी से ऊब जाते हैं, किसी से मन नहीं भरता
परिंदों, तितलियों, फूलों सभी का है कोई मक़्सद
ख़ुदा कुदरत में रंगो-बू यूँ ही रस्मन नहीं भरता
कभी भी लूटने वालों के आगे गिड़गिड़ाना मत
दया की भीख से झोली कभी रहज़न नहीं भरता
आज हम कृष्ण सुकुमार उर्फ़ कृष्ण कुमार त्यागी जिनका जन्म 15 अक्टूबर 1954 को रुड़की में हुआ था की अयन प्रकाशन द्वारा ग़ज़लों की किताब "सराबों में सफ़र करते हुए " का जिक्र करेंगे जिसमें सुकुमार साहब की अलग अंदाज़ और तेवर वाली 102 ग़ज़लों का संकलन किया गया है। मैं खुशनसीब हूँ कि सुकुमार साहब ने मुझे अपनी किताब पढ़ने को भेजी। सुकुमार साहब के बारे में हम आगे बात करेंगे ,अभी तो आप उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर पढ़ें :
कभी इक ज़ख्म दे जाता है ऐसी कैफ़ियत हमको
हमें लगता है गोया लाज़िमी हो मुस्कुराना भी
पड़े हैं आज भी महफूज़ फुर्सत के वो सारे पल
कभी जिनको तेरे ही साथ चाहा था बिताना भी
सुखा देता है दरिया को किसी की प्यास का सपना
कभी इक प्यास से मुम्किन है इक दरिया बहाना भी
सुकुमार साहब केवल ग़ज़लें ही नहीं कहते उनके उपन्यास " इतिसिद्धम" जो 1988 में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था को "प्रेम चंद महेश " सम्मान मिल चुका है। इसके अलावा भी उनके दो उपन्यास "हम दोपाये हैं " और "आकाश मेरा भी " कहानी संग्रह " सूखे तालाब की मछलियां " एवं उजले रंग मैले रंग " के साथ साथ ग़ज़ल संग्रह "पानी की पगडण्डी" बहुत चर्चित हो चुके हैं। लेखन की लगभग सभी विधाओं में अपनी लेखनी का लोहा मनवाने वाले कृष्ण जी की रचनाएँ देश के विभिन्न प्रदेशों से प्रकाशित होने वाले सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में छप चुकी हैं ,छपती रहती हैं।
उसे पक्का यकीं है जो कहूंगा सच कहूंगा मैं
मुझे अपनी इसी झूठी अदा से डर भी लगता है
तुझे आंखों में सपनों की जगह रख कर भी सोया हूँ
मगर अपना समझने की ख़ता से डर भी लगता है
बड़ी ही मुफ़लसी जिनके बिना महसूस होती है
मुझे उस अपनेपन, यारी, वफ़ा से डर भी लगता है
इस किताब की भूमिका में कृष्ण जी ने लिखा है कि " ज़िन्दगी प्यास का एक सफ़र है और यह सफ़र हमेशा किसी उम्मीद पर टिका है। एक अबूझ प्यास से सराबोर इस ज़िन्दगी और इसके एक मात्र आख़िरी सच यानी मौत के बारे में ख़्याल आते रहते हैं तो उलझन में पड़ जाता हूँ. कभी कभी प्यास खुद ही दरिया बन जाती है और कभी कभी यह सब कुछ गुम हुआ सा लगने लगता है और फिर ये प्यास बारहा मन को न जाने किन किन सराबों में भटकती रहती है। प्यास का यही सफ़र सराबों से गुज़रता रहा है- यानी प्यास बरकरार है। मरुस्थली रेत के चमकते कण पानी का भ्र्म पैदा करते हुए एक प्यासे को मुसल्सल उसी तरफ बढ़ते रहने को मज़बूर करते हैं। एक अनसुलझी और अनजानी इस सफर को अभिव्यक्ति देने के लिए ग़ज़ल से बेहतर मेरे पास कुछ भी नहीं है।
कभी शिद्दत से आती है मुझे जब याद उसकी तो
किसी बुझते दिए जैसा ज़रा सा टिमटिमाता हूँ
ग़ज़ल कहने की कोशिश में कभी ऐसा भी होता है
मैं खुद को तोड़ लेता हूँ मैं खुद को फिर बनाता हूँ
मेरी मज़बूरियां मेरे उसूलों से हैं टकराती
जहाँ ये सर उठाना था, वहां ये सर झुकाता हूँ
खुद को ग़ज़ल का विद्यार्थी मानने वाले सुकुमार साहब ने उस वक्त से काव्य की इस अद्भुत विधा के प्रति कशिश महसूस की जिस वक्त कि उन्हें ग़ज़ल का नाम तक नहीं पता था , बात सुनने में अजीब लग सकती है लेकिन है बिलकुल सच। ग़ज़ल के प्रति इस लगाव के चलते उन्होंने उर्दू लिखना पढ़ना सीखा और फिर अरूज़ का अध्यन किया क्यूंकि बिना छंद शास्त्र का ज्ञान प्राप्त किये ग़ज़ल नहीं कही जा सकती। ग़ज़ल की कहन संवारने में उनकी जनाब तुफैल चतुर्वेदी साहब ने बहुत मदद की। इसके अलावा ग़ज़ल लेखन की जानकारी उन्हें जनाब नासिर अली 'नदीम' और दरवेश भारती साहब द्वारा प्रकाशित लघु पत्रिका "ग़ज़ल के बहाने" के प्रत्येक अंक से मिली।
नतीजा प्यास की हद से गुज़र जाने का निकला ये
उठीं फिर जिस तरफ नज़रें उधर दरिया निकल आया
मज़ा आया तो फिर इतना मज़ा आया मुसीबत में
ग़मों के साथ अपनेपन का इक रिश्ता निकल आया
हटाई आईने से धूल की परतें पुरानी जब
गुज़श्ता वक़्त की ख़ुश्बू का इक चेहरा निकल आया
अंतरजाल की लगभग सभी साहित्यिक साइट पर सुकुमार साहब का कलाम आप आसानी से पढ़ सकते हैं। उर्दू की सबसे बड़ी साइट "रेख़्ता " पर भी उनकी ग़ज़लें उपलब्ब्ध हैं. उन्हें ढेरो सम्मान और पुरूस्कार प्राप्त हुए हैं जिनमें उत्तर प्रदेश अमन कमेटी, हरिद्वार द्वारा “सृजन सम्मान” 1994,साहित्यिक संस्था ”समन्वय,“ सहारनपुर द्वारा “सृजन सम्मान” 1994,मध्य प्रदेश पत्र लेखक मंच, “बैतूल द्वारा काव्य कर्ण सम्मान” 2000,साहित्यिक सँस्था "समन्वय," सहारनपुर द्वारा “सृजन सम्मान” 2006 उल्लेखनीय हैं। सुकुमार साहब "भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान", रुड़की में बरसों कार्य करने के पश्चात् अब सेवा निवृत हो कर अपना समय लेखन में व्यतीत कर रहे हैं। .
वो मेरे साथ था दिन-रात अपने काम की खातिर
ग़लतफ़हमी में उससे मैं कोई रिश्ता समझ बैठा
ज़रा सी साफगोई जान की दुश्मन बनी मेरी
उसे नंगा कहा तो वो मुझे ख़तरा समझ बैठा
वो पत्थर बन के मेरी सम्त इस अंदाज़ से उछला
कि जैसे टूट जाऊंगा, मुझे शीशा समझ बैठा
इस किताब की प्राप्ति के लिए आप अयन प्रकाशन के भूपाल सूद साहब जो खुद भी शायरी की समझ रखते हैं ,से उनके मोबाईल 9818988613 पर संपर्क करें। भूपाल साहब से बात करना भी किसी दिलचस्प अनुभव से रूबरू होने जैसा है। मेरी आप सब से गुज़ारिश है की सुकुमार साहब को भी आप उनके मोबाईल न 9897336369 पर बात कर इन खूबसूरत ग़ज़लों के लिए दिल से बधाई दें। आज के दौर में खरपतवार की तरह कही जा रही बेशुमार ग़ज़लों की भीड़ में सुकुमार साहब की किताब का मिलना यूँ है जैसे जैसे रेगिस्तान में नखलिस्तान का मिल जाना। कवर पेज पर बेहद खूबसूरत पेंटिंग, जिसे उनके होनहार बेटे "पराग त्यागी " ने बनाया है से सजी किताब "सराबों में सफ़र करते हुए" की सभी ग़ज़लें ऐसी हैं कि उन्हें यहाँ पढ़वाया जाय लेकिन मेरी मज़बूरी है कि मैं चाहते हुए भी ऐसा नहीं कर पाउँगा। मैंने इस किताब के पन्ने पलटते हुए रेंडम ग़ज़लों से कुछ शेर आपके लिए पेश किये हैं। आपसे विदा लेने से पहले उनकी एक और ग़ज़ल के ये शेर पढ़वाता चलता हूँ :
पिघलता एक दरिया था मगर बहता न था सचमुच
मेरी आँखों में ठहरा था मगर ठहरा न था सचमुच
मैं आड़े वक़्त बस गाहे-ब-गाहे झाँक आता था
ख़ुदा के घर जहाँ कोई ख़ुदा रहता न था सचमुच
हमें जिसके न होने की ग़लतफ़हमी रही अब तक
वो केवल इक मुखौटा था, तेरा चेहरा न था सचमुच