वो कहते हैं रंजिश की बातें भुला दें
मुहब्बत करें, खुश रहें, मुस्कुरा दें
जवानी हो गर जाविदानी तो या रब
तिरि सादा दुनिया को जन्नत बना दें
जाविदानी =अनश्वर
शबे-वस्ल की बेखुदी छा रही है
कहो तो सितारों की शमएँ बुझा दें
शबे-वस्ल=मिलन की रात
तुम अफ़सान-ए-क़ैस क्या पूछते हो
इधर आओ, हम तुमको लैला बना दें
अफ़सान-ए-क़ैस =मजनू की कहानी
आप ऐसा करें अब इस ग़ज़ल को मलिका पुखराज जी की आवाज़ में यू ट्यूब या नेट पर सर्च करके सुनें। अमां माना ज़िन्दगी में बहुत मसरूफियत है लेकिन क्या आप अपने लिए 3 मिनट भी नहीं निकाल सकते ?
सच !!अगर जवानी जाविदानी याने हमेशा रहने वाली होती तो हमारे आज के शायर यकीनन इस सादा दुनिया को जन्नत बना देते, लेकिन जवानी ही क्या, ये ज़िन्दगी ही नश्वर है। उस उम्र में जब इंसान जीने का सलीका थोड़ा बहुत सीखने लगता है ,हमारे आज के शायर दुनिया से कूच फरमा गए। पीछे रह गयीं उनकी कुछ उदास कुछ रोमांस से भरी ग़ज़लें और नज़्में ,चंद हसीनो के ख़ुतूत (चिठ्ठियां ) और टूटे पैमाने। पता नहीं क्यों ऊपर वाला किसी किसी की ज़िन्दगी के साथ खिलवाड़ करता है ,जानबूझ कर उसकी झोली अधूरी हसरतें, घुटन,तड़पन,भटकन,बैचनी और ढेर सी प्यास से भर देता है। जिसके जीते जी उसका बेटा ,दामाद और जिगरी दोस्त एक के बाद एक इस दुनिया से रुखसत हुआ हो उसकी मानसिक स्तिथि का अंदाज़ा आप लगा ही सकते हैं।
यारों से गिला है न अज़ीज़ों से शिकायत
तक़दीर में है हसरतों-हिरमां कोई दिन और
हसरतों-हिरमां =अधूरी इच्छाएं और दुःख
मर जायेंगे जब हम तो बहुत याद करेगी
जी भर के सता ले शबे-हिजरां कोई दिन और
शबे-हिजरां=वियोग की रात
आज़ाद हूँ आलम से तो आज़ाद हूँ ग़म से
दुनिया है हमारे लिए ज़िन्दाँ कोई दिन और
ज़िन्दाँ=कैदखाना
4 मई 1905 को राजस्थान के टोंक जिले में पैदा हुए हमारे आज के शायर का नाम मोहम्मद दाऊद खां था जब वो शायरी करने लगे तो अपना नाम "अख्तर शीरानी' रख लिया। आज हम जनाब नरेश नदीम द्वारा संकलित उन्हीं की ग़ज़लों और नज़्मों से सजी किताब जिसे "प्रतिनिधि शायरी:अख्तर शीरानी " राधाकृष्ण प्रकाशन ने सन 2010 में प्रकाशित किया था ,की बात करेंगे।11 सितम्बर 1951 में जन्में नरेश साहब स्वयं उर्दू के नामी शायर और लेखक हैं साथ ही अंग्रेजी में पत्रकारिता भी करते हैं। नरेश साहब ने उर्दू पंजाबी और अंग्रेजी से लगभग 150 किताबों का हिंदी में अनुवाद किया है ,उन्हें हिंदी अकेडमी दिल्ली का साहित्यकार सम्मान और उर्दू अकेडमी दिल्ली द्वारा भाषायी एकता पुरूस्कार से सम्मानित किया गया है।
उनको बुलाएँ और वो न आएँ तो क्या करें
बेकार जाएँ अपनी दुआएँ तो क्या करें
माना की सबके सामने मिलने से है हिजाब
लेकिन वो ख़्वाब में भी न आएँ तो क्या करें
हिजाब=पर्दा
हिजाब=पर्दा
हम लाख कसमें खाएँ न मिलने की ,सब ग़लत
वो दूर ही से दिल को लुभाएँ तो क्या करें
नासिह हमारी तौबा में कुछ शक नहीं मगर
शाना हिलाएँ आके घटाएँ तो क्या करें
नासिह =नसीहत करने वाला, शाना =कंधा
रोमांस से भरी ऐसे ग़ज़लों के शायर की ज़िन्दगी में रोमांस कभी आया ही नहीं। उनके पिता हाफ़िज़ मेहमूद शीरानी लंदन में पढ़े थे और फ़ारसी साहित्य के साथ साथ इतिहास के बड़े विद्वान थे। वो चाहते थे कि उनका बेटा पढ़ लिख कर किसी बड़े सरकारी ओहदे पर काम करे लेकिन जनाब मोहम्मद दाऊद खां को जवानी की देहलीज़ पर पाँव रखते ही शायरी ने अपनी गिरफ्त में ले लिया। अख़्तर कोई 15 बरस के रहे होंगे तभी घर के हालात कुछ ऐसे बने कि उन सब को टोंक छोड़ कर दर दर भटकना पड़ा। टोंक छोड़ने का दुःख वो कभी भुला नहीं पाए। अपने इस दर्द को उन्होंने अपनी एक नज़्म से ज़ाहिर किया है जिसे बाद में 'आबीदा परवीन " ने अपनी दर्द भरी दिलकश आवाज़ में गाया है:
ओ देस से आने वाले बता
किस हाल में है याराने वतन ?
क्या अब भी वहां के बागों में
मस्ताना हवाएँ आती हैं ?
क्या अब भी वहां के परबत पर
घनघोर घटाएँ छाती हैं
क्या अब भी वहां की बरखाएँ
वैसे ही दिलों को भाती हैं ?
ओ देस से आने वाले बता !!
अख़्तर साहब के पिता चूँकि लन्दन में पढ़े लिखे थे इसलिए उन्हें लाहौर कालेज में प्रोफ़ेसर की नौकरी मिल गयी। अख़्तर साहब की पढाई लिखाई में कोई रूचि नहीं थी लिहाज़ा उनकी अपने पिता से हमेशा तकरार चलती रहती थी। वो अपने पिता के रूबरू होने से कतराते थे। 19 वर्ष के होते होते अख़्तर शीरानी ने पंजाब और विशेष रूप से लाहौर में अपने कलाम से धूम मचा दी। वो बड़े बड़े नामवर शायरों की सोहबत में उठने बैठने लगे। बहुत सी पत्र पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ छपने लगी। प्रशंकों की तादाद में लगातार इज़ाफ़ा होता चला गया। उनके प्रशंकों में सलमा नाम की एक महिला भी थी जिसके इश्क में वो दीवानावार गिरफ्तार हो गए। उनकी रचनाओं में सलमा का जिक्र अक्सर आने लगा। हकीकत में ये सलमा कौन थी कैसी थी इसकी किसी को खबर हो पायी। सलमा आज तक एक रहस्य ही है।
उन्हें जी से मैं कैसे भुलाऊँ सखी, मिरे जी को जो आके लुभा ही गए
मिरे मन में दर्द बसा ही गए, मुझे प्रीत का रोग लगा ही गए
कभी सपनों की छाँव में सोई न थी कभी भूल के दुःख से मैं रोई न थी
मुझे प्रेम के सपने दिखा ही गए , मुझे प्रीत के दुःख से रुला ही गए
मिरे जी में थी बात छिपाये रखूं सखी चाह को मन में दबाए रखूं
उन्हें देख के आंसू जो आ ही गए मिरी चाह का भेद वो पा ही गए
अब ये सलमा थी रेहाना थी अजरा थी जिनका जिक्र उनकी नज़्मों ग़ज़लों में आता है जो उन्हें हासिल नहीं हुईं या वतन से दूर चले जाने का दर्द था या पारिवारिक परेशानियां थी या अकेलापन था कुछ था जिसने उन्हें शराब खोरी की और धकेल दिया। दिन की शुरुआत से रात सोने तक वो शराब के नशे में गर्क रहते। शादी भी हुई लेकिन सलमा का भूत सर से न उतरा। उनकी शराबखोरी से तंग आकर पिता ने घर से निकाल दिया तब वो टोंक से लाहौर चले आये। घर छूटा लेकिन बोतल हाथ में रही और तसव्वुर में रही सलमा।
शर्म रोने भी न दे बेकली सोने भी न दे
इस तरह तो मिरी रातों को न बर्बाद करो
याद आते हो बहुत दिल से भुलाने वालो
तुम हमें याद करो ,तुम हमें क्यों याद करो
हम कभी आएँ तिरे घर मगर आएँगे जरूर
तुमने ये वादा किया था कि नहीं , याद करो
शायरी के अलावा उस ज़माने में कुछ समय तक जनाब अख्तर शीरानी ने उर्दू के मशहूर मासिक रिसाले "हुमायूँ" के संपादन का काम किया। फिर सन 1925 में एक और रिसाले 'इंतिखाब' का भी संपादन किया। संपादन का ये सिलसिला "'ख़यालिस्तान" "रोमान" से होता हुआ "शाहकार" पर जा कर खत्म हुआ। बहुत से नए शायरों को उन्होंने अपने रिसालों में छाप कर मक़बूल किया,उसमें अहमद नदीम कासमी साहब का भी नाम है.उनका मन लेकिन इस काम में रमा नहीं। वो और शराब पीने लगे ,मयनोशी का ये दौर सन 1943 तक जबरदस्त तरीके से चलता रहा। 1943 में उनके पिता उन्हें लाहौर से किसी तरह मना कर वापस टौंक ले आये। कहते हैं कि 1943 से 1947 तक वो टौंक में गुमनामी की ज़िन्दगी बसर करते रहे।
उम्र भर कम्बख्त को फिर नींद आ सकती नहीं
जिसकी आँखों पर तिरी जुल्फें परीशाँ हो गयीं
दिल के पर्दों में थीं जो-जो हसरतें पर्दानशीं
आज वो आँखों में आंसू बनके उरियाँ हो गयीं
उरियाँ=प्रकट
बस करो, ओ मेरी रोनेवाली आँखों बस करो
अब तो अपने जुल्म पर वो भी पशेमाँ हो गयीं
भले ही मंटो उन्हें कॉलेज के लड़कों का शायर माने जो हलकी फुलकी रोमंटिक शायरी करता है लेकिन कालेज के लड़कों वाली शायरी तो साहिर और मजाज ने भी की है लेकिन शीरानी की शायरी में एक तरह का पलायनवाद नज़र आता है। अगर इस पलायनववद को हम नकार दें तो अख्तर शीरानी की शायरी हमें मोह लेती है और दाद देने पर मजबूर करती है। उर्दू के मशहूर लेखक नय्यर वास्ती जो शीरानी साहब के दोस्त भी थे उन्हें उर्दू का सबसे बड़ा शायर मानते हैं। वर्ड्सवर्थ की 'लूसी' और कीट्स की 'फैनी' की तरह उन्होंने 'सलमा' को अमर कर दिया।
जो तमन्ना बर न आये उम्र भर
उम्र भर उसकी तमन्ना कीजिये
बर न आये =पूरी न हो
इश्क की रंगीनियों में डूब कर
चांदनी रातों में रोया कीजिये
पूछ बैठे हैं हमारा हाल वो
बेखुदी, तू ही बता क्या कीजिये
हम ही उसके इश्क के काबिल न थे
क्यों किसी ज़ालिम से शिकवा कीजिये
सन 1947 में जब शीरानी फिर से लाहौर पहुंचे तो उनकी हालत बहुत ख़राब थी। उनका परिवार बिखर और टूट चुका था, टौंक में भी सब उजड़ गया था। उर्दू के इस महान रोमांसवादी शायर ने 9 सितम्बर 1948 को लाहौर के एक सरकारी अस्पताल में पैसों के अभाव में बिना इलाज़ करवाए बहुत दर्दनाक अवस्था में दम तोड़ दिया। तब वो मात्र 43 वर्ष के थे। आज उनकी कहानियों और ग़ज़लों से कई प्रकाशनों ने काफ़ी धन राशि कमाई लेकिन जीते जी अख्तर बदहाली में ही ज़िन्दगी बसर करते रहे। उन्हें अपने वतन में दो गज़ ज़मीन भी नसीब नहीं हुई। सन 2005 में पाकिस्तान की सरकार ने "पोएट्स ऑफ पाकिस्तान" श्रृंखला के अंतर्गत उनपर "पोस्टेज स्टैम्प" निकाल कर फ़र्ज़ अदायगी जैसा कुछ औपचारिक काम कर दिया।
शबे-बहार में जुल्फों से खेलने वाले
तिरे बग़ैर मुझे आरज़ू-ए-ख़्वाब नहीं
चमन में बुलबुलें और अंजुमन में परवाने
जहाँ में कौन ग़मे-इश्क़ से ख़राब नहीं
ख़राब =बरबाद
वही हैं वो, वही हम हैं , वही तमन्ना है
इलाही,क्यों तिरी दुनिया में इन्कलाब नहीं
नागरी लिपि में अख़्तर साहब का कलाम आसानी से पढ़ने को नहीं मिलता , इस किताब में जिसमें उनकी लगभग 42 ग़ज़लें और 80 नज़्में शामिल हैं जिनको पढ़ना एक अद्भुत अनुभव से गुजरने जैसा है। इस किताब को आप राधाकृष्ण प्रकाशन से ऑन लाइन मंगवा सकते हैं। ये हर दृष्टिकोण से एक दुर्लभ किताब है जिसमें ऐसी शायरी है जो अब कहीं पढ़ने को नहीं मिलती। अख़्तर साहब अपनी रचनाओं के प्रति हमेशा उदासीन रहे और इसी वजह से उनकी कोई किताब जीते जी मंज़र-ए-आम पर नहीं आयी। उनकी रचनाओं का संकलन उनकी मृत्यु के बाद ही हुआ।
लीजिये गुनगुनाइए उनकी एक छोटी बहर की ग़ज़ल के ये शेर , हम चले आपके लिए तलाशने एक और किताब :
ये सब्ज़ा ये बादल ये रुत ये जवानी
किधर है मिरा साग़रे-खुसरवानी
साग़रे-खुसरवानी=बादशाही प्याला
ये हसरत रही वो कभी आके सुनते
हमारी कहानी हमारी ज़बानी
मिरा इश्क़ बदनाम है क्यों जहां में ?
है मशहूर 'अख़्तर' :जवानी दीवानी
बेहतरीन..यूँ ही रूबरू करवाते रहें प्रिय नीरज सर
ReplyDeleteThanks for sharing
ReplyDeleteबहुत सुंदर ग़ज़ल
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति ..
ReplyDeleteWah kya baat hai...aapki ghazalein seedhe dil me utar jati hai
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteमर जायेंगे जब हम तो बहुत याद करेगी
ReplyDeleteजी भर के सता ले शबे-हिजरां कोई दिन और
जिन्हें कितना सुना था पसंदीदा ग़ज़लगायको से वो शीरानी साहेब थे,मालूम हुआ आज।
हर दाद छोटी है इनके लिए।
बेहतरीन !
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