किताबें कई तरह की होती हैं , कुछ किताबें होती हैं जिनकी तरफ देखने का मन नहीं करता , कुछ को देख कर अनदेखा करने का मन करता है , कुछ को हाथ में लेकर देख कर रख देने का मन करता है, पढ़ कर भूल जाने का मन करता है तो कुछ हमेशा याद रहती हैं लेकिन कुछ किताबें ऐसी भी होती हैं ,जिन्हें देख कर एक पुराना फ़िल्मी गाना याद आ जाता है " देखते ही तुझे मेरे दिल ने कहा ज़िन्दगी भर तुझे देखता ही रहूँ। आज हम ऐसी ही किताब का जिक्र करेंगे जिसे देख-खोल कर मुंह से अपने आप ही ‘अहा’ निकल जाता है :
शायर के मन की सुंदरता को खूबसूरत कलाम के ज़रिये बेहद दिलकश अंदाज़ में पेश करने वाली हमारी आज की किताब है "तीतरपंखी" जिसके शायर हैं जनाब 'मंगल नसीम' साहब !ये किताब हिंदी और उर्दू दोनों लिपियों में एक साथ प्रकाशित हुई है याने हिंदी में उर्दू शायरी पढ़ने वाले पाठकों के साथ साथ उर्दू पढ़ने वाले पाठक भी नसीम साहब की इस किताब में उनकी शायरी का लुत्फ़ उठा सकते हैं।
20 सितम्बर 1955 को खारी बावली पुरानी दिल्ली में जन्में ‘मंगल नसीम’ साहब आजकल शाहदरा दिल्ली के निवासी हैं, आपके पिता श्री रामेश्वर दत्त जी का दिल्ली में कथ्थे का बहुत बड़ा व्यापर था । एक व्यापारी के पुत्र का व्यापारी बनना जग जाहिर है लेकिन उसके ज़ेहन में शायरी का परवान चढ़ना किसी अजूबे से कम नहीं । अपने कॉलेज के दिनों से ही शायरी करने वाले मंगल नसीम साहब का 'तीतरपंखी " उनका दूसरा शेरी मजमुआ है जो सन 2010 में शाया हुआ, हैरत की बात ये है कि उनका पहला शेरी मजमुआ "पर नहीं अपने " सन 1992 में शाया हुआ था याने पहले और दूसरे शेरी मजमूओं के बीच 18 सालों का वक्फा है।
नसीम साहब शायरों की उस फेहरिश्त में नहीं आते जिनके कलाम आये दिन रिसालों अखबारों में छपते हैं और जो हर दूसरे मुशायरे में नमूदार हो कर अपने अशहारों पर वाह वाही करने के लिए सामयीन के सामने गिड़गिड़ाते देखे जाते है, उनका शुमार उन शायरों की लिस्ट में बहुत ऊपर है जो कभी कभार लिखते हैं और जिनका लिखा पढ़ने सुनने वाले के दिल पर हमेशा के लिए अपनी जगह बना लेता है।
और शायद यही वजह है की उनकी दो किताबों के बीच इतना लंबा अंतराल आया है. वो खुद इस बात को मानते हुए अपनी इस किताब की भूमिका में लिखते भी है कि "अपनी कमगोई और कमहौसलगी को देखते हुए एक और किताब के बारे में सोच तक न पाता था मैं ,सोचता था कम से कम मुझसे तो एक किताब नहीं ही हो सकती। इसी सोच के चलते पूरे 18 बरस बीत गए। इन 18 बरसों में ,गाहे ब गाहे शेर कहता और अहबाब को सुना खुश हो रहता " ये पाठकों की खुश किस्मती है कि उनके एक चाहने वाले ने उनके पहले मजमुए के बाद आये कलाम को सिलसिलेवार ढंग से एक डायरी में दर्ज कर लिया और उसी वजह से ये किताब मंज़रे आम पर आयी।
कहते हैं कि तीतरपंखी बादल वो बादल होता है जिसके बरसने की संभावना प्रबल होती है अब ये बात सच है या नहीं ये तो नहीं पता लेकिन इस,किताब के हर पन्ने पर तीतरपंखी बादलों के छाया चित्रों से बरसते अशआर पाठक को अंदर तक भिगो देते हैं ।
मंगल नसीम साहब ने अपने समकालीन शायरों के मुकाबले कम कहा है लेकिन जो भी जितना भी कहा है बहुत पुख्तगी से कहा है। शायरी में लफ्ज़ बरतने का सलीका उन्होंने अपने उस्ताद कुरुक्षेत्र विश्व विद्यालय में प्राणी विज्ञानं के विभागाध्यक्ष जनाब सत्य प्रकाश शर्मा 'तफ़्ता' साहब से सीखा तभी उनके शेर पढ़ने सुनने वालों के सीधे दिल में उतर जाते हैं।
मशहूर फनकार जनाब ‘महेंद्र प्रताप 'चाँद’ इस किताब में लिखते हैं कि "मंगल नसीम का एक खास वस्फ़ ये है कि वो हवाई बातें नहीं करते बल्कि जो अपनी ज़ात पर गुज़रता महसूस करते हैं या अपने गिर्दो-पेश में जिन वाकियातो-हादिसात का मुशाहिदा करते हैं उन्हें अपने अशआर में बेहद ख़ूबसूरती से ढाल कर पेश कर देते हैं। वो अपने अशआर में हिंदी के साथ-साथ उर्दू व् फ़ारसी के लफ़्ज़ों को इस ख़ूबसूरती और चाबुकदस्ती के साथ इस्तेमाल करते हैं कि ये हसीन इम्तिज़ाज हिंदी और उर्दू दोनों जुबानों के अहले-अदब में उनकी कद्र और मक़बूलियत का ज़ामिन बन चुका है
प्रसिद्ध ई पत्रिका 'रचनाकार' में मंगल नसीम साहब पर प्रकाशित एक लेख में विजेंद्र शर्मा साहब ने लिखा है कि “नई नस्ल के बहुत से शाइर मंगल नसीम साहब के शागिर्द है। इनके शागिर्द बताते हैं कि ऐसा उस्ताद नसीब वालों को ही मिलता है। अगर इनके शागिर्द रात के 2 बजे भी कभी इन्हें फोन करके अपना मिसरा सुनाते हैं तो नसीम साहब बड़ी ख़ुशी से उस वक़्त भी इस्लाह करते हैं। किसी उस्ताद का ऐसा किरदार देख कर मुझे कहीं सुनी हुई एक बात याद आ गई कि "दुनिया में ख़ुदा ने बाप और गुरु को ही ये सिफ्त अता की है कि उन्हें अपने बेटे और शिष्य से कभी इर्ष्या नहीं होती ये दोनों चाहते हैं कि मेरा बेटा / शिष्य मुझसे भी आगे जाए और अपना नाम रौशन करे।
मंगल नसीम साहब की कही ग़ज़ल में एक भी मिसरा ऐसा नज़र नहीं आता जिसमें शाइरी के साथ-साथ उस्तादी ना झलकती हो ,इस बात की तस्दीक के लिए इनकी एक ग़ज़ल का मतला और दो शे'र मुलाहिज़ा फ़रमाएँ :---
इस ग़ज़ल में "जलते हुए दिये" रदीफ़ को निभाना अपने आप में अदभुत है। जैसा मैंने पहले भी ज़िक्र किया कि मंगल नसीम साहब शे'र कहने में जल्दबाजी नहीं करते और जब तक वे ख़ुद मिसरों की शे'र में तब्दीली पे मुतमईन नहीं हो जाते तब तक उस शे'र को काग़ज़ पे हाज़िरी भी नहीं लगाने देते।"
नसीम साहब के खुद के प्रकाशन संस्थान 'अमृत प्रकाशन' से प्रकाशित इस निहायत दिलकश किताब की प्राप्ति के लिए आप या तो अमृत प्रकाशन से 011 -223254568 पर संपर्क करें या फिर सीधे नसीम साहब को इस खूबसूरत किताब के लिए उनके मोबाईल न 9968060733 पर बधाई देते हुए किताब प्राप्ति का रास्ता पूछ लें। आपके लिए अगली किताब की तलाश पर निकलने से पहले नसीम साहब की माँ पर कही एक ग़ज़ल के ये शेर आपको पढ़वा कर विदा लेते हैं :
मुझसे मेरा मन मत मांगो
मन का भी इक मन होता है
तुम आये मन यूँ महका ज्यूँ
महका चन्दन-वन होता है
सुंदरता होती है मन की
तन तो पैराहन होता है
नहीं, हममें कोई अनबन नहीं है
बस इतना है कि अब वो मन नहीं है
मैं अपने आप को सुलझा रहा हूँ
उन्हें लेकर कोई उलझन नहीं है
मुझे वो गैर भी क्यों कह रहे हैं
भला क्या ये भी अपनापन नहीं है
मैं अपने दोस्तों के सदके लेकिन
मेरा क़ातिल कोई दुश्मन नहीं है
मुझको था ये ख्याल कि उसने बचा लिया
और उसको ये मलाल कि ये कैसे बच गया
उसको उदास देखके पहले ख़ुशी हुई
पर फिर दिलो-दिमाग़ में कोहराम मच गया
कोई तवील उम्र भी यूँ ही जिया 'नसीम'
कोई ज़रा-सी उम्र में इतिहास रच गया
वो क़र्ज़ साँसों का देता है अपनी शर्तों पर
पठान सूद पे जैसे उधार देता है
हरेक क़ुर्ब में दूरी है, थोड़ी देर के बाद
पिता भी गोद से बच्चा उतार देता है
ये मत कहो वो भले का सिला नहीं देता
सिला वो देता है, देता है, यार देता है
तीतरपंखी बादल छाया, सबको आस बंधी
लेकिन अबके तीतरपंखी भी दिल तोड़ गया
उससे ही दूरी रक्खूँ , उसकी ही राह तकूँ
कैसी उलझन से वो मेरा नाता जोड़ गया
अपना अपना पागलपन है, पागल कौन नहीं
बस इतना भर कहके वो पागल दम तोड़ गया
मंगल नसीम साहब ने अपने समकालीन शायरों के मुकाबले कम कहा है लेकिन जो भी जितना भी कहा है बहुत पुख्तगी से कहा है। शायरी में लफ्ज़ बरतने का सलीका उन्होंने अपने उस्ताद कुरुक्षेत्र विश्व विद्यालय में प्राणी विज्ञानं के विभागाध्यक्ष जनाब सत्य प्रकाश शर्मा 'तफ़्ता' साहब से सीखा तभी उनके शेर पढ़ने सुनने वालों के सीधे दिल में उतर जाते हैं।
हवा में जब कभी तेरी छुअन महसूस होती है
भरे ज़ख्मों में भी बेहद दुखन महसूस होती है
कभी तो बज़्म में भी होता है एहसासे-तन्हाई
कभी तन्हाई भी इक अन्जुमन महसूस होती है
मुनासिब फासला रखिये भले कैसा ही रिश्ता हो
बहुत कुर्बत में भी अक्सर घुटन महसूस होती है
'ठीक हो जाओगे' कहते हुए मुंह फेर लिया
हाय क्या खूब वो बीमार का मन रखते हैं
पैर थकने का तो मुमकिन है मुदावा लेकिन
लोग पैरों में नहीं मन में थकन रखते हैं
हम तो हालात के पथराव को सह लेंगे 'नसीम'
बात उनकी है जो शीशे का बदन रखते हैं
यूँ ज़ख़्म उसने हाल में जलते हुए दिये
रखने पड़े मिसाल में जलते हुए दिये
पूजा के थाल जैसा वो चेहरा लगा मुझे
दो नैन जैसे थाल में जलते हुए दिये
मेहंदी रची हथेलियाँ लहरों ने चूम लीं
छोड़े जब उसने ताल में जलते हुए दिये
नसीम साहब के खुद के प्रकाशन संस्थान 'अमृत प्रकाशन' से प्रकाशित इस निहायत दिलकश किताब की प्राप्ति के लिए आप या तो अमृत प्रकाशन से 011 -223254568 पर संपर्क करें या फिर सीधे नसीम साहब को इस खूबसूरत किताब के लिए उनके मोबाईल न 9968060733 पर बधाई देते हुए किताब प्राप्ति का रास्ता पूछ लें। आपके लिए अगली किताब की तलाश पर निकलने से पहले नसीम साहब की माँ पर कही एक ग़ज़ल के ये शेर आपको पढ़वा कर विदा लेते हैं :
क्या सीरत थी क्या सूरत थी
माँ ममता की मूरत थी
पाँव छुए और काम हुए
अम्मा एक महूरत थी
बस्ती भर के दुःख-सुख में
माँ इक अहम् ज़रुरत थी