उर्दू शायरी पर अगर आप एक नज़र डालें तो वो ज्यादातर गुल,गुलशन ,तितलियाँ, बहार , खार ,दश्त ,ख़िज़ाँ , बादल, हवा, फलक, चाँद, सितारे, ख़्वाब ,नीदें ,सहरा ,झील ,समंदर,दरिया,साहिल ,कश्ती ,तूफाँ ,महबूब ,आँखें ,होंट ,हिज्र , फ़िराक ,विसाल ,भूलना ,याद , मय ,सुबू , मयखाना, ज़ाहिद ,पाक ,होश ,रब ,जन्नत ,जहन्नुम , दोस्त ,दुश्मन ,रकीब ,वफ़ा ,बेवफाई ,शाम, रात ,शमअ, परवाना, अँधेरा,उजाला ,हार,जीत, खंज़र ,दवा ,ख़ामुशी ,शोर ,इंतज़ार ,इज़हार, परिंदा, तीर ,निशाना, मुस्कराहट ,आंसू या अश्क ,तबस्सुम ,ज़ख्म , बरसात ,मौसम , वैगरह वगैरह लफ़्ज़ों के इर्द गिर्द ही रची गयी है।
मज़े बात ये है कि इन्हीं लफ़्ज़ों के सहारे तमाम शायर पिछली तीन सदियों से अब तक और आने वाले कल को भी ऐसा तिलिस्म रचते रहे थे रचते रहे हैं और रचते रहेंगे जिसके हुस्न में गिरफ्तार लोग इसकी तरफ खिचते रहे थे , खिचते रहे हैं और खिचते रहेंगे।
हमारी आज " किताबों की दुनिया " श्रृंखला की शायरा "जया गोस्वामी" ने उर्दू के इन तमाम खूबसूरत लफ़्ज़ों के जुड़वाँ भाई जैसे हिन्दी शब्दों को लेकर अपनी ग़ज़लों की किताब "पास तक फासले " में वैसा ही तिलिस्म रचा है जैसा कि शायर उर्दू लफ़्ज़ों से रचते आये हैं।
भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति का एक माध्यम है इसलिए अगर बात खूबसूरत होगी तो वो हर भाषा में खूबसूरत लगेगी। उर्दू हिंदी के झगडे में ग़ज़ल को घसीटने वालों को समझना चाहिए कि कोई शेर अगर बुरा है तो वो उर्दू में भी उतना ही बुरा लगेगा जितना हिंदी में और ये ही बात अच्छे शेर पर भी लागू होती है अच्छा शेर अच्छा ही लगेगा वो चाहे जिस भाषा में कहा गया हो।
उर्दू के शायरों जैसे ज़फर इकबाल , एहतराम इस्लाम आदि ने हिंदी भाषा में कमाल की ग़ज़लें कही हैं लेकिन चूँकि वो हिंदी में कही गयी हैं इसलिए उर्दू पसंद लोगों को हलकी लगती हैं।मुस्लिम शायरों की बात छोड़ें, अफसोस इस बात का है कि ग़ज़लों पर जान छिड़कने वाले हिंदी भाषी पाठक भी जो कि उर्दू भाषा न पढ़ सकते हैं न लिख सकते हैं, हिंदी या उर्दू में ग़ज़लें कहने वाले गैर मुस्लिम शायरों को शायर मानने तक को तैयार नहीं होते। ऐसे माहौल में एक ऐसी शायरी की किताब की चर्चा करना जिसमें शायरा ने शुद्ध हिंदी में कमाल की ग़ज़लें कही हैं ,एक जोखिम भरा काम है और मुझे इस जोखिम को उठाने में मज़ा आ रहा है।
पांच फ़रवरी 1939 को जयपुर में जन्मी जया जी ने प्रारम्भ में हिंदी साहित्य का अध्यन 'साहित्य सदावर्त' में पंजाब विश्व विद्ध्यालय से 'प्रभाकर' परीक्षा पास की तदुपरांत 1962 में जे जे स्कूल ऑफ आर्ट्स मुंबई से ड्राइंग और पेंटिंग में इंटर आर्ट किया। उसके बाद आपने राजस्थान विश्व विद्द्यालय से संस्कृत और समाजशास्त्र विषयों में एम ऐ किया। इतना ही नहीं आपने 'वैदिक सौर देवता ' विषय पर शोध कार्य भी किया है। उनकी ग़ज़लों में प्रस्तुत बिम्ब कैनवास पर बनी पेंटिंग का आभास कराते हैं।
राजस्थान आवासन मंडल में वरिष्ठ कार्मिक प्रबंधक पद से सेवानिवृत जया जी का काव्य लेखन खास तौर पर ग़ज़ल, उम्र के पचास बसंत पार करने के बाद जागा। उन्हीं के शब्दों में " आयु के पचासवें दशक में अचानक न जाने क्यों और कैसे कुछ छंद बद्ध रचने की ललक जागी, मैं स्वयं नहीं जान पायी। चुनौतियाँ स्वीकार करना अपनी फितरत में होने के कारण ही शायद मैं इस कठिन साध्य विद्द्या में प्रवेश करने की हिम्मत कर सकी। " उनकी इसी हिम्मत के फलस्वरूप उनके दो ग़ज़ल संग्रह "अभी कुछ दिन लगेंगे" और "पास तक फासले " क्रमश: 1995 और 2010 में प्रकाशित हो कर लोकप्रिय हो चुके हैं।
बहुआयामी प्रतिभा की धनी जया जी की वार्ताओं का सतत प्रसारण आकाशवाणी से होता रहा है इसके अतिरिक्त ललित कला अकादमी एवं सूचना केंद्र की कला दीर्घाओं में उनकी एकल चित्र प्रदर्शनियां लगती रही हैं। उन्होंने चित्रकला में 'शिल्पायन' नामक नयी शैली का विकास भी किया है। राष्ट्रीय स्तर की सभी प्रमुख पत्र -पत्रिकाओं में उनकी ग़ज़लों ,गीतों ,कविता और लेखों का प्रकाशन होता रहा है।
जया जी के इस ग़ज़ल संग्रह के पहले खंड में 32 ग़ज़लें शुद्ध हिंदी में है और दूसरे खंड में आम हिंदुस्तानी जबान में कही गयी 50 ग़ज़लें हैं। हिंदी ग़ज़लों की बानगी ऊपर प्रस्तुत की चुकी है आईये अब नज़र डालते हैं उन ग़ज़लों पर जो आम जबान में खास बातें कहती हैं। ये ग़ज़लें जया जी की व्यापक सोच को दर्शाती हैं मानव मन की वेदनाएं संवेदनाएं व्यथाएं तो इनमें हैं ही लेकिन इन सब के साथ प्रेम की अतल गहराईयों की झलक भी दिखाई देती है।
बिना विधिवत रूप से किसी गुरु की शरण में गए, उनकी लिखी कुछ ग़ज़लों में कहीं व्याकरण दोष मिल सकता है और शायद ये बात ग़ज़ल प्रेमियों को नागवार भी गुज़रे लेकिन मेरी गुज़ारिश है कि उसे नज़र अंदाज़ करते हुए उनके कहन की ईमानदारी पर तालियां बजाई जाएँ।
कैनेडा से प्रकाशित होने वाली हिंदी पत्रिका "हिंदी चेतना" के पन्ने पलटते हुए मेरी नज़र जया जी की लिखी एक कविता पर पड़ी। परिचय में उनका फोटो ,पता ,टेलीफोन न. और ग़ज़ल संग्रहों की संक्षिप्त जानकारी दी गयी थी। ये पता लगने पर कि वो भी जयपुर निवासी हैं मैंने ग़ज़ल संग्रहों की प्राप्ति का रास्ता पूछने को उन्हें तुरंत फोन किया, औपचारिक बातचीत के दौरान ही मैं उनके अपनत्व से बाग़ बाग़ हो गया, लगा जैसे मुद्दतों बाद बड़ी बहन मिल गयी हो।उन्होंने बड़े स्नेह से आशीर्वचनों के साथ अपनी दोनों किताबें मुझे भेट में देदीं।
आज के इस दौर में आत्म प्रशंशा और आत्म प्रचार से खुद को सर्वश्रेष्ठ साबित करने में लगी होड़ से कोसों दूर जया जी एक सच्चे साधक की तरह एकांत में बैठी साहित्य साधना में लगीं हैं। इस पुस्तक की प्राप्ति का रास्ता पूछने के लिए आप उन्हें 09829539330 अथवा उनके 206 ,पद्द्मावती कालोनी किंग रोड जयपुर स्तिथ घर के नंबर 01413224860 पर फोन करें और ऐसे श्रेष्ठ लेखन बधाई दें।
अंत में नयी किताब की तलाश में निकलने से पहले आईये उम्र के 76 वसंत देख चुकी दिल से युवा जया जी के उत्तम स्वास्थ्य और दीर्घ सुखमय जीवन की कामना के साथ दुआ करें कि उनकी लेखनी सतत यूँ ही जवाँ रहे।
आखरी में उनका ये शेर अपने साथ लेते जाइए :-
मज़े बात ये है कि इन्हीं लफ़्ज़ों के सहारे तमाम शायर पिछली तीन सदियों से अब तक और आने वाले कल को भी ऐसा तिलिस्म रचते रहे थे रचते रहे हैं और रचते रहेंगे जिसके हुस्न में गिरफ्तार लोग इसकी तरफ खिचते रहे थे , खिचते रहे हैं और खिचते रहेंगे।
हमारी आज " किताबों की दुनिया " श्रृंखला की शायरा "जया गोस्वामी" ने उर्दू के इन तमाम खूबसूरत लफ़्ज़ों के जुड़वाँ भाई जैसे हिन्दी शब्दों को लेकर अपनी ग़ज़लों की किताब "पास तक फासले " में वैसा ही तिलिस्म रचा है जैसा कि शायर उर्दू लफ़्ज़ों से रचते आये हैं।
कब अचानक शुष्क कांटे पुष्प डाली हो गये
लौ लगी जब से अँधेरे दिन, दिवाली हो गये
दिग्भ्रमित मन ने समर्पित प्रेम की जब राह पायी
कामना बंजारने और तन मवाली हो गये
सच समझ कर ज़िन्दगी भर तक जिन्हें संचित किया
उस प्रवंचक मोह के अभिलेख जाली हो गये
युग-युगों के मोह तम में प्रेम चन्द्रोदय हुआ
ज्योति के वे क्षण युगों से शक्तिशाली हो गये
भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति का एक माध्यम है इसलिए अगर बात खूबसूरत होगी तो वो हर भाषा में खूबसूरत लगेगी। उर्दू हिंदी के झगडे में ग़ज़ल को घसीटने वालों को समझना चाहिए कि कोई शेर अगर बुरा है तो वो उर्दू में भी उतना ही बुरा लगेगा जितना हिंदी में और ये ही बात अच्छे शेर पर भी लागू होती है अच्छा शेर अच्छा ही लगेगा वो चाहे जिस भाषा में कहा गया हो।
जब से मन पर कंकरीट के बाँध रचे दुनियादारी ने
आँखों से बहते पानी की बाढ़ रुक गयी, धीरे धीरे
उधर कलुष रिश्तों के बरगद इधर अकेलेपन का आतप
स्वाभिमान की आहत शाखा इधर झुक गयी ,धीरे धीरे
उर्दू के शायरों जैसे ज़फर इकबाल , एहतराम इस्लाम आदि ने हिंदी भाषा में कमाल की ग़ज़लें कही हैं लेकिन चूँकि वो हिंदी में कही गयी हैं इसलिए उर्दू पसंद लोगों को हलकी लगती हैं।मुस्लिम शायरों की बात छोड़ें, अफसोस इस बात का है कि ग़ज़लों पर जान छिड़कने वाले हिंदी भाषी पाठक भी जो कि उर्दू भाषा न पढ़ सकते हैं न लिख सकते हैं, हिंदी या उर्दू में ग़ज़लें कहने वाले गैर मुस्लिम शायरों को शायर मानने तक को तैयार नहीं होते। ऐसे माहौल में एक ऐसी शायरी की किताब की चर्चा करना जिसमें शायरा ने शुद्ध हिंदी में कमाल की ग़ज़लें कही हैं ,एक जोखिम भरा काम है और मुझे इस जोखिम को उठाने में मज़ा आ रहा है।
आप क्या आये कि सम्मोहन नदी में बह गए हम
यह न जाना डूब कर 'स्व' से रहित हो जायेंगे
शब्द जो अभिव्यक्ति के संचित किये थे उम्र भर
क्या पता था देखते ही अनकहित हो जाएंगे
स्वप्न पागलपन हताशा कामनाएं और मन
ये सभी अब आप में अंतर्निहित हो जायेंगे
स्नेह के दो बोल या फिर बोलती सी चितवनें
आप फेंको तो सही हम अनुग्रहित हो जायेंगे
पांच फ़रवरी 1939 को जयपुर में जन्मी जया जी ने प्रारम्भ में हिंदी साहित्य का अध्यन 'साहित्य सदावर्त' में पंजाब विश्व विद्ध्यालय से 'प्रभाकर' परीक्षा पास की तदुपरांत 1962 में जे जे स्कूल ऑफ आर्ट्स मुंबई से ड्राइंग और पेंटिंग में इंटर आर्ट किया। उसके बाद आपने राजस्थान विश्व विद्द्यालय से संस्कृत और समाजशास्त्र विषयों में एम ऐ किया। इतना ही नहीं आपने 'वैदिक सौर देवता ' विषय पर शोध कार्य भी किया है। उनकी ग़ज़लों में प्रस्तुत बिम्ब कैनवास पर बनी पेंटिंग का आभास कराते हैं।
बादलों की बीच उगते सूर्य का चित्रण किया तो
तूलिका ने सूर्य में मुख केश में बादल उतारे
नयन-खंजन गिरिशिखिर उत्तुंग वक्षों से बनाये
इंद्रधनुषी ओढ़नी में टँक गए सब चाँद तारे
नेह की चित्रित नदी पर अश्रु रंगों में बहे जो
सेतु बन मिलवा दिए उसने नदी के दो किनारे
राजस्थान आवासन मंडल में वरिष्ठ कार्मिक प्रबंधक पद से सेवानिवृत जया जी का काव्य लेखन खास तौर पर ग़ज़ल, उम्र के पचास बसंत पार करने के बाद जागा। उन्हीं के शब्दों में " आयु के पचासवें दशक में अचानक न जाने क्यों और कैसे कुछ छंद बद्ध रचने की ललक जागी, मैं स्वयं नहीं जान पायी। चुनौतियाँ स्वीकार करना अपनी फितरत में होने के कारण ही शायद मैं इस कठिन साध्य विद्द्या में प्रवेश करने की हिम्मत कर सकी। " उनकी इसी हिम्मत के फलस्वरूप उनके दो ग़ज़ल संग्रह "अभी कुछ दिन लगेंगे" और "पास तक फासले " क्रमश: 1995 और 2010 में प्रकाशित हो कर लोकप्रिय हो चुके हैं।
हों न हों वे पास उनकी याद अपने पास तो है
वो नहीं अपने हमें अपनत्व का आभास तो है
क्या हुआ जो हम तरसते ही रहे अपनी हंसी को
आज अपनी ज़िन्दगी जग के लिए परिहास तो है
भूल कर भी याद उनको हम कभी आएँ न आएँ
याद हम करते उन्हें इस बात का विश्वास तो है
बहुआयामी प्रतिभा की धनी जया जी की वार्ताओं का सतत प्रसारण आकाशवाणी से होता रहा है इसके अतिरिक्त ललित कला अकादमी एवं सूचना केंद्र की कला दीर्घाओं में उनकी एकल चित्र प्रदर्शनियां लगती रही हैं। उन्होंने चित्रकला में 'शिल्पायन' नामक नयी शैली का विकास भी किया है। राष्ट्रीय स्तर की सभी प्रमुख पत्र -पत्रिकाओं में उनकी ग़ज़लों ,गीतों ,कविता और लेखों का प्रकाशन होता रहा है।
देह की मैं थिरकने हूँ नृत्य में तो भाव हो तुम
पायलों के बोल मैं हूँ और तुम रुनझुन रहे हो
कामना की तकलियों पर नेह के धागे गुंथे जो
मैं नयन से कातती तुम चितवनो से बुन रहे हो
धड़कनों के स्वर तुम्हारे नाम के सम्बोधन बने हैं
सांस की अनुगूंज से यूँ लग रहा तुम सुन रहे हो
जया जी के इस ग़ज़ल संग्रह के पहले खंड में 32 ग़ज़लें शुद्ध हिंदी में है और दूसरे खंड में आम हिंदुस्तानी जबान में कही गयी 50 ग़ज़लें हैं। हिंदी ग़ज़लों की बानगी ऊपर प्रस्तुत की चुकी है आईये अब नज़र डालते हैं उन ग़ज़लों पर जो आम जबान में खास बातें कहती हैं। ये ग़ज़लें जया जी की व्यापक सोच को दर्शाती हैं मानव मन की वेदनाएं संवेदनाएं व्यथाएं तो इनमें हैं ही लेकिन इन सब के साथ प्रेम की अतल गहराईयों की झलक भी दिखाई देती है।
बिना विधिवत रूप से किसी गुरु की शरण में गए, उनकी लिखी कुछ ग़ज़लों में कहीं व्याकरण दोष मिल सकता है और शायद ये बात ग़ज़ल प्रेमियों को नागवार भी गुज़रे लेकिन मेरी गुज़ारिश है कि उसे नज़र अंदाज़ करते हुए उनके कहन की ईमानदारी पर तालियां बजाई जाएँ।
तुम न थे दिल पास था तुम आ गए तो दिल गया
है ग़ज़ब फिर भी रहे हम इस ठगी से बेखबर
क्या अंधेरों की घुटन को जान पायेगी शमां
जो सदा रोशन रही है तीरगी से बेखबर
इस तरह भी याद में खोया हुआ कोई न हो
सामने तुम और हम मौजूदगी से बेखबर
कैनेडा से प्रकाशित होने वाली हिंदी पत्रिका "हिंदी चेतना" के पन्ने पलटते हुए मेरी नज़र जया जी की लिखी एक कविता पर पड़ी। परिचय में उनका फोटो ,पता ,टेलीफोन न. और ग़ज़ल संग्रहों की संक्षिप्त जानकारी दी गयी थी। ये पता लगने पर कि वो भी जयपुर निवासी हैं मैंने ग़ज़ल संग्रहों की प्राप्ति का रास्ता पूछने को उन्हें तुरंत फोन किया, औपचारिक बातचीत के दौरान ही मैं उनके अपनत्व से बाग़ बाग़ हो गया, लगा जैसे मुद्दतों बाद बड़ी बहन मिल गयी हो।उन्होंने बड़े स्नेह से आशीर्वचनों के साथ अपनी दोनों किताबें मुझे भेट में देदीं।
तू न था पर हाथ में खत देख कर
फिर कबूतर पास आये आदतन
जब किसी ने नाम तेरा ले लिया
ज़ख्म सारे सनसनाये आदतन
दे गया क़ासिद फटे खत हाथ में
ले लिए , सर से लगाए आदतन
आज के इस दौर में आत्म प्रशंशा और आत्म प्रचार से खुद को सर्वश्रेष्ठ साबित करने में लगी होड़ से कोसों दूर जया जी एक सच्चे साधक की तरह एकांत में बैठी साहित्य साधना में लगीं हैं। इस पुस्तक की प्राप्ति का रास्ता पूछने के लिए आप उन्हें 09829539330 अथवा उनके 206 ,पद्द्मावती कालोनी किंग रोड जयपुर स्तिथ घर के नंबर 01413224860 पर फोन करें और ऐसे श्रेष्ठ लेखन बधाई दें।
अंत में नयी किताब की तलाश में निकलने से पहले आईये उम्र के 76 वसंत देख चुकी दिल से युवा जया जी के उत्तम स्वास्थ्य और दीर्घ सुखमय जीवन की कामना के साथ दुआ करें कि उनकी लेखनी सतत यूँ ही जवाँ रहे।
आखरी में उनका ये शेर अपने साथ लेते जाइए :-
जल चुकी दे कर महक वो धूप बत्ती हूँ
फर्क क्या अटकी रहूँ या फिर बिखर जाऊँ