Monday, October 11, 2021

किताबों की दुनिया - 242

आठवें दशक के शुरुआत की बात है जब मैं पहली बार औरंगाबाद गया था। यही कोई जुलाई अगस्त का महीना होगा।  जब मैं एलोरा देखने गया तो हल्की फुहारें गिर रहीं थी और एलोरा इतना खूबसूरत लग रहा था कि क्या कहूँ। एलोरा की जगप्रसिद्ध 17 वीं गुफा के क़रीब ही एक चाय की टपरी थी। चाय की टपरी पर एक पुराना ट्रांजिस्टर बज रहा था। उस वक़्त पर्यटक भी अधिक नहीं थे। मौसम का तकाज़ा था कि एक गरमागरम चाय पी जाय। टपरी वाले को एक कप स्पेशल कड़क चाय का ऑर्डर दिया , चाय वाला स्टोव की तरफ़ मुड़ा ही था कि ट्रांजिस्टर पर अहमदहुसैन मोहम्मद हुसैन का गाया गीत 'सावन के सुहाने मौसम में ...' बजने लगा। टपरी वाले ने फ़ौरन स्टोव एक तरफ़ किया और बोला पाँच मिनट रुकें मैं इन्हें सुनने के बाद ही चाय बनाऊंगा। मैंने कहा ठीक है और सामने रखे स्टूल पर बैठ कर हुसैन बंधू की सुरीली आवाज़ में टपरी वाले के साथ ही डूब गया। उसके बाद मैं पता नहीं कितनी बार औरंगाबाद गया हूँ लेकिन मुझे वो टपरीवाला वाला और उसका हुसैन बंधुओं से लगाव आज तक नहीं भूलता। अब तो एलोरा केव्स के आसपास का इलाका बहुत बदल गया है। अब न कहीं कोई टपरी न कोई हुसैन बंधुओं का प्रेमी दिखाई देता है। आधुनिकता की अंधी दौड़ ने सब कुछ बदल दिया है। पर्यटक पहले के मुक़ाबले बहुत ज़्यादा हो गए हैं जो उस जगह को महसूस करने की जगह वहाँ  की फोटो और सेल्फ़ी लेने में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं। अधिकतर को इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि इन चट्टानों को काट काट कर कैसे किसी ने ऐसी अद्भुत मूर्तियां तराशी होंगी ? वैसे भी अब पुराने में चाहे वो लोग हों, परम्परा हो या इमारतें लोगों की दिलचस्पी ख़त्म हो गयी है!  

पुतली हमारी नयन झरोखे में बैठ कर
बेकल हो झाँकती हैं पियारा कब आएगा
*
मुरझा रही है दिल की कली ग़म की धुप में 
गुलज़ार ए दिलबरी का हज़ारा कब आएगा
गुलज़ार ए दिलबरी: प्रेम के बाग का 
हज़ारा :एक प्रसिद्ध चिड़िया जो बहुत अच्छा गाती है
*
हिना से तुम नहीं बांधे हो मुट्ठी 
लिए हो हाथ शायेद दिल किसी का
*
सब जगह ढूंढ फिरा यार न पाया लेकिन 
दिल की गोशे में निहाँ था मुझे मालूम न था
*
क्या करेगा ब्याज़ ए नर्गिस कूँ 
तेरी आंखों का जिसको होवे स्वाद
ब्याज़ ए नर्गिस : नर्गिस के फूल की किताब
*
क्यों न मुझको गलावे इश्क तिरा 
जिसकी गर्मी सीं मोम है फौलाद
सीं: से
*
घटा ग़म, अश्क पानी, आह बिजली 
बरस्ता है अजब बरसात तुम बिन
*
क्या होवेगा सुनोगे अगर कान धर के तुम 
गुज़री बिरह की रात जो मुज पर कहानियां
मुज: मुझ
*
आंँख उठाते ही मेरे हाथ सीं मुज कू ले गए 
खुब उस्ताद हो तुम जान के ले जाने में
सीं: से, मुज कू: मुझ को
*
गुल ए नरगिस अगर नहीं देखा 
देख यक बार गुलबदन के नयन
यकबार: एक बार

अबकी बार जब मैं औरंगाबाद गया तो अपने दोस्त से बोला कि भाई यहाँ की कोई ऐसी जगह दिखाओ जो मैंने पहले न देखी हो। दोस्त बोला कि यार तुम इतनी बार यहाँ आ चुके हो चप्पा चप्पा छान चुके हो अब तुम्हें नया क्या दिखाऊं ? हम बातें करते जा रहे थे कि मैंने कार की खिड़की से दरवाज़ा देखा, दोस्त ने बताया कि ये पंचकुआँ कब्रिस्तान का दरवाज़ा है जिसे लोकल एम्.एल. ऐ. ने अभी हाल ही में बनवाया है। मैंने कहा चलो अंदर चल के देखते हैं तो दोस्त ने पहले तो मना कर दिया लेकिन मेरे जोर देने पर कहा कि अकेले तुम यहाँ घूमो मैं घंटे भर में एक जरूरी काम निपटा के आता हूँ। कब्रिस्तान में ऐसा कुछ नहीं था जहाँ एक घंटा बिताया जा सकता। मैं थोड़ा घूम कर बीच में बनी एक गुम्बदनुमा मज़ार के पास आ कर खड़ा हो गया तभी कहीं से आवाज़ आयी 'इदर किदर कूँ मियाँ ?' मैं चौंका ? ये आवाज़ कहाँ से आयी ? तभी फिर आवाज़ आयी 'घबरां सीं कूँ गए तुम, मैं सिराज बोलता हूँ सिराज औरंगाबादी, नाम नई सुनें मियां ? मैं वाकई डर गया था। तभी एक बुजुर्ग लाठी ज़मीन पे टेकते हुए मेरी तरफ़ आते दिखे। मेरी जान में जान आयी। बुजुर्ग पास आ कर बोले बड़े डरे से लग रहे हो मियाँ ? डरो नहीं सिराज  सबसूं बातां करते पर उन कूँ कोई सुनता नई। तुम यक बार सुन लो।' 

मैंने कहा जनाब मैं जानता ही नहीं कि ये कौन हैं तो बुजुर्ग उदास हो कर बोले यही तो बात है कि लोग इन्हें जानते। मैंने कहा ऐसा क्या है कि हमें इन्हें जानें तो उन्होंने जो जवाब दिया वो मेरे लिए चौकाने वाला था बोले क्या गंगा को जानने वालों के लिए गंगोत्री को जानना जरूरी नहीं ? गंगोत्री ? गंगा ? मतलब ? मैंने हैरानी पूछा। बुजुर्ग बोले 'लोग उर्दू शायरी को पसंद करते हैं लेकिन उस शायरी के इब्तिदाई शायरों के बारे में नहीं जानते। सिराज वली दक्कनी से ज्यादा मुकम्मल शायर थे'। 'क्या बात कर रहे हैं आप '? मैंने हैरानी से कहा। 'जी जनाब ,ये सच है' बुजुर्ग बोले। 'आपके पास फुर्सत हो तो इत्मीनान से बैठें मैं आपको बताता हूँ सिराज साहब के बारे में फिर गुम्बद की और मुंह करके बोले क्यों सिराज मियां इजाज़त है?' गुम्बद से हंसी की आवाज़ आयी। मुझे किसी तरह एक घंटा गुज़ारना ही था लिहाज़ा मैं बुजुर्गवार के पास के पत्थर पर बैठ गया।

लश्कर ए अक्ल क्यों किया ग़ारत 
बेखुदी की सिपाह सीं पूछो 
ग़ारत: नष्ट, की : के, सिपह : सिपाही का बहुवचन, 
सीं :से
*
दिल ब तंग आया है अब लाज़िम है आह
गुंचा ए गुल कूँ सबा दरकार है
तंग: बेज़ार, नाराज
*
किसके पास जा कहूं मैं हमदर्द कोई नहीं है 
इस वास्ते रखा हूं अब मन में बात मन की 

तूफान ए ग़म उठा है ऐ आशना करम कर 
जी डूबता है मेरा कश्ती दिखा नयन की
आशना: मित्र, प्यारा
*
मैं न जाना था कि तू यूंँ बे-वफा हो जाएगा 
आशना हो इस क़दर ना आशना हो जाएगा

मैं सुना हूं तुज लबों का नाम हे हाजत-रवा 
यक तबस्सुम कर कि मेरा मुद्दआ हो जाएगा
 हाजत-रवा: मनोरथ पूरा करने वाला, मुद्दआ: मकसद
*
अबस इन शहरियों में वक़्त अपना हम किए ज़ाए
किसी मजनू की सोहबत बैठ दीवाने हुए होते 
अबस: व्यर्थ बेकार, ज़ाए :बर्बाद 

मोहब्बत के नशे हैं खास इसां वास्ते वरना 
फरिश्ते ये शराबें पी के मस्ताने हुए होते
*
तेरा रुख़ देख कर जल जाए जल में 
कहां यह रंग ये खूबी कँवल में 

हुआ वीराँ नगर मेरी ख़िरद का 
जुनूँ की सुबे दारी के अमल में
ख़िरद: बुद्धि, अमल: अधिकार

बुजुर्गवार ने अपने मैले से कुर्ते की जेब से एक बीड़ी का बण्डल निकाला उसमें से एक बीड़ी निकाली बण्डल मेरी तरफ बढ़ाया और मेरे मना करने पर मुस्कुराये फिर बीड़ी सुलगाकर जितना उनके फेफड़ों में दम बचा था उतना लगा कर एक कश खींचा और ढेर सा धुआँ थोड़ी देर में उगलते हुए बोले 'बरखुरदार सिराज की कहानी बहुत पुरानी है ,इनके पुरखे जहाँगीर के समय मदीना अरब से हिज़रत करके मुज़फ्फर नगर (यू.पी.) आये फिर जीविका की खोज में इधर उधर बिखर गए। सिराज के पिता 'मोहम्मद दरवेश' जब औरंगाबाद में अध्यापक की हैसियत से यहाँ एक मदरसे में पढ़ाने आये थे तब औरंगजेब का आख़री काल था। यहाँ आकर उन्होंने औरंगाबाद के पास देवल घाट क़स्बे के सय्यद अब्दुल लतीफ क़ादरी की बेटी से निकाह कर लिया। मंगलवार 21 मार्च 1712 दिन सय्यद सिराजुद्दीन का जन्म हुआ। याने आज से कितने बरस पहले ? 'करीब 309 बरस' मैंने हिसाब लगा कर जवाब दिया। यूँ समझो मियाँ कि 'वली दकनी' की पैदाइश के 45 साल बाद। इनकी पैदाइश के पाँच साल पहले ही 'वाली दकनी' याने 1707 में इस दुनिया ए फ़ानी से रुख़सत हो चुके थे। खैर ! जनाब मोहम्मद दरवेश ठहरे अध्यापक इसलिए उस वक़्त महज चार साल की उम्र में सिराज की तालीम शुरू कर दी गयी।   

सिराज बचपन से ही बेहद तेज़ दिमाग के थे इसलिए अगले चार पांच सालों ने उन्होंने अरबी।, फ़ारसी और उर्दू ज़बान सीख ली।इन जुबानों में लिखा साहित्य कुरान हदीस और दूसरी चीज़ें भी पढ़ लीं। बारह बरस तक तो जनाब संजीदगी से पढ़ते रहे फिर अचानक ही इनका मन इस सबसे ही नहीं दुनिया से ही उचट सा गया। एक अजीब सी कैफ़ियत इन पार तारी रहने लगी और इसी में वो अपने कपडे फाड़ कर रात रात भर घने जंगलों में पहाड़ियों में दूर निकल जाते और खुल्दाबाद में हज़रत शाह बुन्हानोद्दीन की मज़ार पर जा कर ठहर जाते।इसी अवस्था में वो फ़ारसी में शेर कहने लगते। ये शेर सुन कर लोग उनके दीवाने हो जाते लेकिन किसी ने उन शेरों को कलमबद्ध नहीं किया नतीजा ऐसे हज़ारों शेर वक़्त के साथ भुला दिए गए। अगर ऐसा न होता तो आज उनके कहे फ़ारसी शेरों का एक बड़ा ज़खीरा हमारे पास होता। 

फूल मेरे कूँ अगर फूल कहूंँ भूले सीं 
फूल कूँ फूल के फूलों में समानाँ मुश्किल 
फूल मेरे कूँ यानेअपनी प्रेमिका को, सीं : से , फूल कूँ : फूल को ,फूल के :बहुत खुश होकर, समानाँ: भरजाना
*
छुपाते हो सो बेजा इस जमाल ए हैरत अफजाँ कूँ  
मिरी आंँखों सीं देखोगे तो फिर दर्पण न देखोगे
बेजा: बेकार, जमाल: रूप, हैरत अफजाँ: हैरत बढ़ाने वाला
*
आती है तुझे देख के गुल रू की गली याद 
ए बुलबुल ए बेताब मुझे अपना वतन बोल 
गुल रू: फूल जैसे चेहरे वाली
*
लश्कर ए इश्क़ जब सीं आया है 
मुल्क ए दिल को ख़राब देखा हूँ
सीं: से
*
क़तरा ए अश्क मिरा दाना ए तस्बीह हुआ
रात दिन मुझ कूँ गुज़रता है तिरी सिमरन में
दाना ए तस्बीह: जपमाला
*
मत करो शम्अ कूँ बदनाम जलाती वो नहीं 
आप से शौक पतंगो कूँ है जल जाने का
*
अभी ला ला मुझे देते हो अपने हाथ सीं प्याला
कभी तुम शीशा ए दिल पर मिरे पथराव करते हो
*
दीवाने को मत शोरे-जुनूँ याद दिलाओ 
हरगिज़ न सुनाओ उसे ज़ंजीर की आवाज
*
नयन की पुतली में ऐ सिरीजन तिरा मुबारक मुक़ाम दिसता
पलक के पट खोल कर जो देखूंँ तो मुझ कूँ माह ए तमाम दिसता
सिरीजन: प्रेमिका, माह ए तमाम: पूर्णिमा का चांद
*
ज़बाँ में शहद ओ शकर, दिल में ज़हर रखते हैं 
कसा हूं सब कूँ जिते आशना हैं  बे-गाने
कसा: परख कर देख लिया , जिते आशना: जितने पहचान वाले

उनकी ये नीम बेहोशी सं 1723 से 1730 तक तारी रही। सन 1930 के बाद हालाँकि उनकी व्याकुलता और आतुरता पहले जितनी नहीं रही लेकिन उसके बाद भी वो अपने मन को शांत करने की खोज में लगे रहे। ये खोज उन्हें हज़रत शाह अब्दुल रहमान चिश्ती हुसैनी जैसे निपुण धर्मगुरु तक ले गयी जिनके साथ ,मार्गदर्शन और उपदेशों ने सिराज की सोच में आमूलचूल परिवर्तन किया और उन्हें ज़िन्दगी में ठहराव दिया। चिश्ती परम्परा के इन विद्वान का साथ सिराज के साथ लगभग 17 वर्ष तक रहा। 

सं 1733 से 1739 तक याने लगभग 6 वर्षों का समय सिराज के लेखन का सुनहरी काल कहा जा सकता है। इन 6 सालों में वो औरंगाबाद के हर छोटे-बड़े मुशायरों में शामिल हो कर मुशायरे लूटते रहे। वो अपनी ग़ज़लों की मिठास कोमलता और अलंकारिक शैली के कारण श्रोताओं में बहुत लोकप्रिय हो गए थे। शहर और बाहर से आये शायर उनकी ग़ज़लों के मिसरों पर ग़ज़लें कहना फ़क्र की बात समझते थे। कव्वालों के तो वो सबसे ज्यादा पसंदीदा शायर हो गए थे। उनकी ख़्याति औरंगाबाद की सरहदों से दूर पूरे दकन में फ़ैल रही थी।
 
सं 1739 में जब सिराज की शायरी सब तरफ़ धूम मचा रही थी और लोग उसे वली का उत्तराधिकारी घोषित कर चुके थे तभी उनके धर्मगुरु अब्दुल रहमान चिश्ती ने अचानक उन्हें ग़ज़ल की शायरी को त्याग देने का आदेश दे दिया। सिराज ने बिना देर किये तत्काल प्रभाव से अपने गुरु की बात मानते हुए शायरी छोड़ दी और सूफी बन गए।
जब ये बात सिराज के घनिष्ठ मित्र अब्दुल रसूल को पता चली तो वो बहुत परेशान हो गए। उन्हें लगा कि जिस तरह सिराज की फ़ारसी शायरी जाया हो गयी थी कहीं वैसे ही उनकी ग़ज़लें का बहुमूल्य खज़ाना भी नष्ट न हो जाय। उन्होंने आननफानन में सिराज की सभी ग़ज़लों को इकठ्ठा किया उन्हें तरतीबवार सजाया। सं 1939 उन्होंने सिराज की ग़ज़लों का दीवान 'अनवारुल सिराज' सम्पादित कर छपवाया। 'अनवारुल सिराज' में करीब 3630 अशआर और छोटी-बड़ी 524 ग़ज़लें शामिल हैं।

आता है जब ख़याल ए हम आगोशी ए सनम 
सिलता है मिसल ए ख़ार मेरे पैरहन में गुल
हम-आगोशी: गले लगाना, सिलता: चुभता
मिसल ए ख़ार: काँटे जैसा
*
सिफले हुए अज़ीज़ अज़ीज़ अब हुए ख़राब 
बे-जोहरों में क़द्र ए शराफत नहीं रही
सिफले: कमीने, निकृष्ट बे-जौहर : गुण रहित
*
तुम्हारी जुल्फ का हर तार मोहन 
हुआ मेरे गले का हार मोहन

गुल ए आरिज़ कूँ तेरे याद कर कर 
हुआ है दिल मेरा गुलज़ार मोहन 
गुल ए आरिज़: फूल जैसे गाल
*
ऐ शोख़ गुलिस्तां में नहीं ये गुल ए रंगी 
आया दिल-ए- सद-चाक मिरा रंग बदल कर
दिल ए सद चाक : सौ जगह से फटा हुआ दिल
*
मेरा दिल आ गया झट-पट झपट में 
हुआ लट-पट लपट जुल्फों की लट में
झपट: जल्दी का हमला, लट-पट: नुकसान, लपट: धोका

लगी है चट-पटी मत कर निपट हट 
छुपे मत लट-पटे घुंघट के पट में

हर इक नाकूस से आती है आवाज़ 
की है परघट वो हर हर, हर के घट में
नाकूस: शंख, परघट: मौजूद
*
जिस कूँ पियो के हिज्र का बैराग है
आह का मजलिस में उस की राग है

जब सीं लाया इश्क़ ने फौज ए जुनूँ
अक़्ल के लश्कर में भागम भाग है
सीं: से

सं 1747 में अपने धर्मगुरु शाह अब्दुल रेहमान चिश्ती के इंतेक़ाल के बाद सिराज ने अपना अलग तकिया (मठ ) क़ायम किया और बाक़ी ज़िन्दगी अल्लाह की इबादत में गुज़ारने लगे लेकिन शायरी की तरफ रुझान लगातार बना रहा। सिराज को संगीत से बेहद लगाव था इसलिए उनके तकिये में 'समाअ' याने सूफ़ी कव्वाली की महफिलें जमतीं जिसमें चिश्तिया सिलसिले के मशहूर और शहर के ख़ास लोग दूर दूर से आते। कव्वाल इन महफिलों में सिराज का कलाम भी गाते और श्रोता झूमने लगते। इस तकिये में पूरे हिन्दुस्तान से लोग सिराज से मिलने उनसे गुफ़्तगू करने और कव्वालियां सुनने आते।

वक़्त गुजरने के साथ जहाँ औरंगाबाद में राजनैतिक दुरावस्ता और पतन शुरू हुआ वहीँ सिराज की तबियत भी बिगड़ने लगी। दक्कन में सत्ता के लिए युद्ध होने लगे इसे देख सिराज के अधिकतर शिष्य औरंगाबाद छोड़ कर दूसरे शहरों में रहने के लिए चले गए। सिराज ने चूँकि शादी नहीं की थी इसलिए उनका अपना सगा सम्बन्धी भी कोई नहीं था। तकिये में अब वो नितांत अकेले थे ,हाँ कभी कोई भूले भटके उनके पास आ कर कुछ मदद कर जाता था। पेचिश और बवासीर की बीमारी धीरे धीरे जड़ पकड़ती गयी और आखिर में ला-इलाज हो गयी। उनकी इस हालत का पता जब उनके एक बेहद ख़ास शिष्य ज़ियाउद्दीन 'परवाना' को लगा तो वो अपनी फ़ौज की नौकरी छोड़ कर अहमदनगर से उनके तकिये पर रहने आ गए।' परवाना' साहब ने उनकी जी तोड़ सेवा की लेकिन वो उन्हें बचा नहीं सके। रोगों से लड़ते झूझते 52 साल की आयु में शुक्रवार 16 अप्रैल 1764 को सिराज दुनिया ए फ़ानी को अलविदा कह गए।

सिराज के प्रस्थान की ख़बर से पूरा औरंगाबाद शोक में डूब गया। 'परवाना' साहब की रहनुमाई में पूरे रीति-रिवाज़ और परम्परा के अनुसार पूरे सम्मान के साथ सिराज के जनाज़े को चौक की मस्जिद ले जाया गया जहाँ शहर के सभी नामवर लोगों जनाज़े की नमाज़ पढ़ी। बाद में उन्हें उनके तकिये में दफनाया गया और उनकी क़बर पर एक गुम्बंद बना दिया।

बुजुर्गवार थोड़ी देर के रुके और बोले ये जिस जगह आप बैठे हैं उसे अब पंचकुआँ कब्रिस्तान के नाम से जाना जाता है और ये जो इतनी सारी कब्रें आसपास देख रहे हैं वो सब सिराज के शिष्यों और अनुयायियों की हैं।

मेरे ये पूछने पर कि सिराज को कहाँ पढ़ा जा सकता है बुजुर्ग ने बताया कि यूँ तो रेख़्ता की साइट पर सिराज का थोड़ा बहुत क़लाम दर्ज़ है लेकिन तुम्हें अगर उसकी चुनिंदा शायरी पढ़नी है तो 'सिराज औरंगबादी'  के नाम से छपी 'असलम मिर्ज़ा' साहब द्वारा सम्पादित किताब पढ़ो जिसे मिर्ज़ा वर्ल्ड बुक हाउस, कैसर कॉलोनी, औरंगाबाद ने प्रकाशित किया है और इस किताब को 9325203227 पर फोन करके या mirza.abdul11@gmail.com पर मेल कर के मँगवा सकते हैं। 
आप इस पोस्ट में जो अशआर पढ़ रहे हैं वो इसी किताब से लिए गए हैं।       


वो साहिर ने अदा का सेहर कर कर 
लिया मुझसे दिल ओ जाँ रफता रफता
साहिर: जादूगर, सेहर : जादू
*
अदा -ए-दिल -फरेब- ए- सर्व क़ामत
क़यामत है क़यामत है क़यामत
सर्व क़ामत: सीधा ऊँचा शरीर 

न करना जी कूँ कुर्बां तुझ क़दम पर 
नदामत है नदामत है नदामत
नदामत: लज्जा, पछतावा
*
यार जब पेश-ए-नज़र होता है 
दिल मेरा ज़ेर-ओ-ज़बर होता है 
पेश-ए-नज़र :आंखों के सामने जेर ओ जबर: ऊपर नीचे 

हो ख़जिल बाग़ में गुलाब हुआ
जब सी गुल रू का गुज़र होता है 
ख़जिल : लज्जित, शर्मिंदा 

दिल लिया नर्गिस ए साहिर ने तेरी
सच की जादू कूँ असर होता है
नर्गिस ए साहिर: जादू करने वाली आँख
*
अमल से मय परस्तों के तुझे क्या काम ऐ वाईज़
शराब-ए-शौक़ का तूने पिया नहीं जाम ए वाईज़ 
अमल :काम , मय परस्त मदिरा भक्त

'सिराज' उस काबा-ए-जाँ के तसव्वुर कुँ किया सुमरण
यही विरद ए सहर है और दुआ एंशाम ए वाइज़
विरद ए सहर : सुबह का जाप
*
बुझता है बिस्तर ए आराम कूँ दाम ए बला
दिल कूँ है आराम शायद बेक़रारी में तेरी
बुझता: समझता, दाम ए बला: फंदा
*
मेरी आंखों के दोनों पट खुले थे इंतजारी में 
सो वैसे में यकायक देखता क्या हूं कि आता है

पाकिस्तानी शायर और आलोचक ज़नाब अहमद ज़ावेद साहब का यू ट्यूब पर लगभग सवा घंटे का एक विडिओ है जिसमें वो सिराज औरंगबादी की शायरी के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से चर्चा करते दिखाई देते हैं। सिराज की शायरी को पूरी तरह से समझने के लिए मैं आपको वो विडिओ देखने की सलाह दूंगा। वो फरमाते हैं कि सिराज ने वली की तरह बल्कि उनसे भी बेहतर ढंग से इंसानी ताल्लुक को रूहानी तर्ज़े अहसास से महसूस करके दिखाया। सिराज महबूब महबूबे मज़ाज़ी है इनकी शायरी की थीम इश्क़ और मुहब्बत है। इनके यहाँ तख़य्युल याने कल्पना का अभाव है लेकिन इस कमी को वो अहसास की सदाक़त सादगी और शिद्दत से पूरा कर देते हैं क्यूंकि उस वक़्त उर्दू शायरी की ज़बान में पेचीदा इज़हार वाला निज़ाम पैदा ही नहीं हुआ था। इनकी शायरी में बाकी दकनी शायरों की बनिस्पत उर्दूपन बहुत ज्यादा है। क़लाम में इस क़दर ताज़गी है कि लगता है जैसे पोस्ट मॉर्डर्न शायरी पढ़ रहे हैं।

सिराज को एक सूफी शायर की उपाधि जरूर दी जाती है लेकिन उनकी शायरी में सूफिज़्म की अधिकता कहीं दिखाई नहीं देती। सिराज अपने स्वभाव से सूफी जरूर थे लेकिन सूफी शायर नहीं थे। सिराज जीवन की सच्चाई को एक प्रेमी की नज़र से देखते हैं। उनके लिए मानव प्रेम ही ईश्वर भक्ति है। शिराज की शायरी में श्रृंगार करुणा और विस्मय रस बहुतायत से देखने को मिलते हैं। उन्होंने अपने शेरों में इजाफतों का प्रयोग बड़ी सरलता से किया है इससे उनकी शायरी बेहद दिलकश हो गयी है। जैसे दिल का दर्द को दर्द-ए-दिल, ग़म की शाम को शाम-ए-ग़म ,जान और दिल का आराम को आराम-ए-जान-ए-दिल आदि।

सिराज को अगर ध्यान से पढ़ें तो उनके शेरों की झलक आप उनके बाद आने वाले मीर तक़ी मीर , मिर्ज़ा ग़ालिब, ज़ौक़,सौदा ,दर्द से लेकर बशीर बद्र तक की शायरी में देख सकते हैं।उदाहरण के लिए दाग़ का शेर 'लुत्फ़-ए-मय तुझसे क्या कहूं ज़ाहिद' को आप सिराज के 'शराब-ए-शौक़ का तूने पिया नहीं जाम ए वाईज़' में, ग़ालिब के 'कितने शीरीं हैं तेरे लब ग़ालिब' को 'तेरे लब में अजब मीठा मज़ा है' में और बशीर बद्र के लिखे फिल्म 'भागमती' के एक गाने का मिसरा 'मेरे नैनों के दोनों पट खुले हैं इन्तेज़ारी में' को सिराज के ' मेरी आंखों के दोनों पट खुले थे इंतजारी में' साफ़ देख सकते हैं। ऐसी हज़ारों मिसालें दी जा सकती हैं।

मेरे दोस्त की कार का हॉर्न क़ब्रिस्तान के बाहर बने विशालकाय दरवाज़े के बाहर बज ही गया। एक घंटा कब बीता पता ही नहीं चला और मैं भारी मन से सिराज साहब के मक़बरे को देखता हुआ आगे बढ़ने लगा। ये मक़बरा एक महान विरासत की तरह संभाले जाने लायक़ है क्यूंकि इसके नीचे वो इंसान है जिसकी शायरी आज भी ज़िंदा है और जिसके मिसरों ने न जाने कितने शायरों की ग़ज़लों को रौशन किया है। हम कंगूरों को देख ताली बजाने वाले कभी नींव के पत्थरों को वो इज़्ज़त नहीं देते जो दी जानी चाहिए क्यूंकि हम भूल ही जाते हैं कि ये कंगूरे बिना नींव के पत्थरों के अपना सर उठाये खड़े नहीं रह सकते। .

आखिर में पेश हैं सिराज साहब की ग़ज़लों से लिए कुछ और अशआर

हरगिज़ गुज़र नहीं है यहां अक्स-ए-ग़ैर कूँ
दिल आशिकों का आईना-ए-बे-मिसाल है
*
हैफ है उस की तमाशा बीनी 
चश्म-ए-बातिन कूँ जो कोई वा न किया
हैफ: धिक्कार,  तमाशा बीनी:  अय्याशी,खेल
चश्म-ए-बातिन: मन की आँख, वा न किया: खोला नहीं

मुद्दतों लग हरम व दैर फिरा  
मैं तेरे वास्ते क्या-क्या न किया
लग: तक, हरम व दैर: मंदिर मस्जिद
*
तुम जल्द अगर आओ तो बेहतर है वगरना 
बेताब हूंँ मैं काश के अब आए क़ियामत
*
खाता है जोश खून ए जिगर उसके रश्क सीं
देखा है जब सीं हाथ तुम्हारा हिना के हाथ
सीं: से
*
किया है जब सीं अमल बेखुदी के हाकिम ने
ख़िरद नगर की रईयत हुई है रू ब गुरेज़
अमल: अधिकार, बेखुदी के हाकिम: अचैतन्य का शासक, खिरद: बुद्धि, रईयत : प्रजा, रू ब गुरेज़: भाग जाना
*
देखकर ख़ाल-ए-रूख़-ए-यार हुआ यूँ मालूम 
सफर ए राह ए मोहब्बत में ख़तर है तिल तिल
ख़ाल ए रूख ए यार : यार के मुख का तिल
*
बज्मे-उशाक़ में अरे जाहिद
अक़ल कूँ एतिबार नहीं हरगिज़
बज्मे उशाक़: प्रेमियोँ की सभा
*
तेरे लब में अजब मीठा मज़ा है 
चखा जा लज़त-ए-दुशनाम यक बार
लज़त-ए-दुशनाम: गाली का स्वाद, यक: एक
*
जान व दिल सीं मे गिरफ्तार हूंँ किन का, उन का 
बंदा-ए-बे-ज़र दीनार हूंँ किन का, उन का 
बे-ज़र: जिसके पास पैसा न हो

गुलशन-ए-इश्क़ में रहता हूंँ ग़ज़ल खवान-ए-फिराक़
अंदलीब-ए-गुल-ए-रुख़सार हूंँ किन का,  उन का
ग़ज़ल-खवान-ए-फिराक़: प्रेमी के वियोग में ग़ज़ल गाने वाला, अंदलीब: बुलबुल , गुल-ए-रूखसार: पुष्प जैसे गाल



39 comments:

Manoj Mittal said...

क्या ख़ूबसूरत तरीक़े से सिराज के कलाम को पेश किया है। मुबारकबाद।

नकुल गौतम said...

औरंगाबाद का दक्कन इस्टाइल मेको खूब पसंद है।
और उसमें मराठी का फ्लेवर मिक्स हो के जाफरानी पुलाव जैसा लगरा
3 सालां औरंगाबाद कू भी था मैं
पनचक्की वाली टपरी के उधर

Jayanti kumari said...

शानदार

Unknown said...

बहुत खूब सर जी

Ramesh Kanwal said...

बेहतरीन अंदाज़
नायाब शायर
दमदार तआरुफ़
शुक्रिया जनाब नीरज गोस्वामी जी

Himkar Shyam said...

दकन के महाकवि और बेहतरीन शायर की शायरी की शानदार समीक्षा। हमेशा की तरह रोचक अंदाज़।

नीरज गोस्वामी said...

शुक्रिया मनोज भाई...ये सब आपकी सोहबतों का ही नतीज़ा है...

नीरज गोस्वामी said...

अरे वाह क्या बात है नकुल बरखुरदार... वाह

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद जयंती जी

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद रमेश भाई

नीरज गोस्वामी said...

शुक्रिया श्याम भाई

Madhu said...

अंदाज़-ए-बयां ग़ज़ब!👌🙏

RAJENDRA SWARNKAR said...


अहा !
अनुपम !
संग्रहणीय पोस्ट

वैसे तो आप हमेशा ही बहुत शानदार लिखते हैं
आपके द्वारा जिन शाइरों का मूल्यांकन हो चुका, निश्चय ही वे बहुत भाग्यवान हैं...
काश ! हमें भी कभी यह सौभाग्य मिले
(शायद अगले वर्ष 🤓)

बहुत आनंद आया आज ब्लॉग पर पहुंच कर
मुझे लगता है, मुझे भी पुनः लौटना चाहिए ब्लॉगिंग की ओर

सादर
शुभकामनाओं सहित
प्रणाम

🙏❤🙏

नीरज गोस्वामी said...

बहुत धन्यवाद राजेंद्र जी...

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद मधु जी

Unknown said...

नींव में जो लोग हैं.. उनके बारे में पढ़ना जानना सौभाग्य है... आप जैसे गुणी लोगों के मार्फत.. पढ़कर बहुत अच्छा लगा...

संजीव गौतम said...

आपने जो शैली इख़्तियार की है, बेजोड़ है भाई साहब। मज़ा आ गया पढ़कर।

SATISH said...

Kya kahney bahut khoob mohtaram ... Maza aa gaya padhkar ... Raqeeb

नीरज गोस्वामी said...

शुक्रिया भाई

नीरज गोस्वामी said...

Shukriya Satish bhai

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद संजीव जी

अनूप मिश्र तेजस्वी said...

वाह
बहुत सरस वर्णन

Rashmi sharma said...

Bahut umda peshkari
Kya hi Khoobsurat shayri se taaroof karwate haiN aap khushkismat hai hum jo hme aapke blog padhne ka sobhagya hasil hota hai

प्रदीप कांत said...

शानदार

इसके सिवा क्या कहा जाए

Onkar said...

बहुत खूब

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद अनूप जी

नीरज गोस्वामी said...

Shukriya Rashmi ji

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद प्रदीप भाई

Unknown said...

अप्रतिम लिखा है नीरज साहब!सिराज औरंगबादी को इतने विस्तार से समझने का अवसर मिला!आप ग़ज़ल के सारस्वत सेवक है!💐💐💐

उमेश मौर्य said...

क्या कहने सर जी ...
जिनका नाम भी न सुना उनसे परिचय हुआ । कितनी सुन्दर तरीके से बधाइयाँ सर जी ...
उमेश ।

रामप्रसाद राजभर said...

शानदार और शोधपरक विश्लेषण के साथ परिचय कराया आपने आदरणीय। फोन नम्बर नोट कर लिया है।आज ही बात की जायेगी।हार्दिक आभार आपका

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद भाई..आपका नाम नजर नहीं आया

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद उमेश भाई

नीरज गोस्वामी said...

शुक्रिया रामप्रसाद जी

mgtapish said...

बहुत ही ख़ूबसूरत अंदाज़ ए बयां वाह नीरज जी वाह क्या कहना ज़िन्दाबाद
मोनी गोपाल 'तपिश'

नीरज गोस्वामी said...

शुक्रिया भाइ साहब..

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ said...
This comment has been removed by the author.
द्विजेन्द्र ‘द्विज’ said...

एक और अद्वित्तीत शायर पर एक और अद्वित्तीय पोस्ट। क़ब्रिस्तान के तज़किरे ने गी.द.मोपासां की कहानी *Was it a Dream?* जैसा रोंगटे खड़े करने वाला माहौल बनाया और फिर संदेश तक पहुंचाने तक suspense बनाए रखा। और बेहतरीन शाइरी का bonus भी दिया। ज़िंदाबाद ज़िंदाबाद !!!! नीरज भाई साहिब!

Nirmala.kapila said...

वाहः वाहः शानदार समीक्षा और अनुपलब्ध जानकारी। बहुत कर्मठता का काम है।