Monday, August 6, 2018

किताबों की दुनिया - 189

रह के दुनिया में है यूँ तर्के-हवस की कोशिश
जिस तरह अपने ही साये से गुरेज़ाँ होना 
 तर्के-हवस=इच्छाओं का त्याग, गुरेज़ाँ =भागना

 ज़िन्दगी क्या है ?अनासिर में ज़हूरे-तरतीब 
 मौत क्या है ? इन्हीं अजज़ा का परीशां होना 
 अनासिर=पंच तत्व , ज़हूरे तरतीब = संगठित होना , अजज़ा =टुकड़ों ,परीशाँ =विघटन 

 दफ़्तरे-हुस्न पे मोहरे-यदे-क़ुदरत समझो 
 फूल का ख़ाक के तूदे से नुमायां होना 
 मोहरे-यदे-क़ुदरत= प्रकृति के हाथ की छाप , तूदे=ढेर 

 दिल असीरी में भी आज़ाद है आज़ादों का 
 वलवलों के लिए मुमकिन नहीं ज़िन्दा होना 
 असीरी=क़ैद , ज़िन्दा=क़ैद

 ज़िन्दगी क्या है ?- जैसा शेर उर्दू के कालजयी शेरों में शुमार होता है इस हिसाब से तो इसके शायर का नाम भी कालजयी होना चाहिए था -लेकिन हुआ नहीं। मीर-ओ-ग़ालिब के चलते ऐसे बहुत से शायरों को जिनका कलाम मयारी और क़ाबिले रश्क था अनजाने में या जानबूझ कर किसी सोची समझी साजिश के तहत भुला दिया गया। शायद इसलिए कि उनकी मादरी ज़बान उर्दू फ़ारसी या अरबी नहीं थी -वजह जो भी रही हो लेकिन इसका खामियाज़ा उर्दू शायरी के अनगिनत चाहने वालों को भुगतना पड़ा - वो ऐसे अनेक शायरों के बेजोड़ कलाम तक नहीं पहुँच पाए जिन्हें उन तक पहुंचना चाहिए था। इतना ही नहीं इनका कलाम सिर्फ उर्दू ज़बान जानने वालों तक ही सीमित रहा। आज के हिंदी पढ़ने लिखने वाले युवाओं ने तो शायद ये नाम सुना भी न हो।

 ज़बाँ को बंद करें या मुझे असीर करें 
मिरे ख़याल को बेड़ी पिन्हा नहीं सकते 
असीर =कैद ,पिन्हा=पहना 

 ये कैसी बज़्म है और कैसे उस के साक़ी हैं 
शराब हाथ में है और पिला नहीं सकते 

 ये बेकसी भी अजब बेकसी है दुनिया में 
कोई सताए हमें, हम सता नहीं सकते 

 आज हम जिस शायर और उसकी उस शायरी की किताब की बात कर रहे हैं जिसे राजपाल एन्ड साँस ने 'लोकप्रिय शायर " श्रृंखला के अंतर्गत प्रकाशित किया था। शायर का नाम है "पंडित ब्रजनारायण चकबस्त " जो एक कश्मीरी ब्राह्मण खानदान के घर 19 जनवरी 1882 को उत्तर प्रदेश के फैज़ाबाद में पैदा हुए -जी हाँ आज से करीब 136 साल पहले। उर्दू फ़ारसी ज़बान घर पर सीखी और अंग्रेजी पढ़ने के लिए स्कूल में दाखिल हुए। प्रारंभिक शिक्षा उन्होंने फैज़ाबाद में ही ली। उनके पिता उस वक्त डिप्टी कलेक्टर थे जो किसी भी भारतीय के लिए सिविल सेवा में उच्चतम पोस्ट हुआ करती थी। उनके पिता उदित नारायण शायरी भी किया करते थे। पिता की असामयिक मृत्यु के बाद उनका परिवार लखनऊ आ बसा। उन्होंने 1905 में कैनिंग कालेज लखनऊ से बी.ऐ किया और वहीँ से वकालत की परीक्षा पास करके 1908 से बाकायदा वकालत करने लगे. चकबस्त बेहद मेहनती ,समझदार और लगन के पक्के थे लिहाज़ा उनकी वकालत चल निकली और उनका नाम लखनऊ के मशहूर वकीलों में शामिल हो गया। पेशे से वकील लेकिन दिल से शायर ब्रजनारायण ने मात्र 9 साल की उम्र में पहली ग़ज़ल कही। इसे कहते हैं पूत के पाँव पालने में दिखाई देना।


 जहाँ में आँख जो खोली फ़ना को भूल गये 
 कुछ इब्तदा ही में हम इन्तहा को भूल गये 
 फ़ना=मौत , इब्तदा = शुरुआत , इन्तहा=अंत 

 निफ़ाक़ गब्रो-मुसलमां का यूँ मिटा आखिर 
 ये बुत को भूल गए वो खुदा को भूल गये 
 निफ़ाक़ = दुश्मनी , गब्रो-मुसलमां= हिन्दू मुसलमान

 ज़मीं लरज़ती है बहते हैं ख़ून के दरिया
 ख़ुदी के जोश में बन्दे खुदा को भूल गये

 चकबस्त साहब ने कभी किसी को उस्ताद नहीं बनाया क्यूंकि होता ये है कि लाख कोशिशों के बावजूद आपकी शायरी में आपके उस्ताद का अक्स नज़र आ ही जाता है। बिना उस्ताद के शायरी करना उर्दू कविता की परम्परा के अनुसार सही नहीं है लेकिन साहब कोई चकबस्त जैसा इन्सान ही ऐसा हौसला कर सकता है। एक तो हिन्दू ऊपर से बिना किसी उस्ताद के सहारे के मयारी अशआर कहना कोई आसान काम नहीं था। उस ज़माने में बिना किसी उस्ताद के सहारे अपनी पहचान बनाना मुश्किल काम रहा होगा। उस्ताद की जगह उन्होंने सीखने के लिए पुराने शायरों जैसे मीर, आतिश, ग़ालिब, अनीस आदि को खूब पढ़ा। जो लोग बिना दूसरों को पढ़े ये सोचते हैं कि वो बेहतरीन शायर बन सकते हैं वो जरूर किसी ग़लतफहमी में हैं.

 कमाले-बुजदिली है पस्त होना अपनी आँखों में 
 अगर थोड़ी सी हिम्मत हो तो फिर क्या हो नहीं सकता 

 उभरने ही नहीं देती यहाँ बेमायगी दिल की 
 नहीं तो कौन कतरा है जो दरिया हो नहीं सकता 
 बेमायगी=निर्धनता 

 चकबस्त साहब ने ग़ज़लें बहुत कम कही हैं यही कुल जमा 50 के करीब लेकिन जो जितनी कही हैं वो बेजोड़ हैं। उन्होंने नज़्में खूब लिखी और बाद में तो उनके लेखन में देश प्रेम सर्वोपरि हो गया। उन्होंने अपनी पूरी काव्य प्रतिभा को देश के लिए लुटा दिया अगर उनकी रचनाओं से राष्ट्रीयता के तत्व को निकाल दें तो बाकि कुछ खास नहीं बचता। देशप्रेम प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उनकी सभी रचनाओं में दिखाई देता है। वो सच्चे देशभक्त तो थे लेकिन उनका विश्वास राजनीतिक क्रांति में नहीं था। बहरहाल उनके विचार चाहे जो कुछ हों उनके देश प्रेम की सच्चाई और गहराई में कोई संदेह नहीं किया जा सकता।

 रहेगी आबो-हवा में ख्याल की बिजली 
 ये मुश्ते-ख़ाक है फानी रहे रहे न रहे 

 जो दिल में ज़ख्म लगे हैं वो खुद पुकारेंगे 
 ज़बाँ की सैफ-बयानी रहे रहे न रहे 
 सैफ-बयानी= तेजी 

 जो मांगना हो अभी मांग लो वतन के लिए 
 ये आरज़ू की जवानी रहे रहे न रहे 

 चकबस्त साहब ने अपनी ग़ज़लों को अद्भुत रंगों में ढाला है. 'आतिश' की चुस्त बंदिश के साथ उन्होंने 'ग़ालिब' की दार्शनिकता का पुट देकर अपनी ग़ज़लों के लिए में नयी राह बनायीं। ग़ज़ल में उनसे पहले के शायरों द्वारा कहे जाने वाले वैयक्तिक प्रेम के विषय से अलग ही विषयों का प्रयोग किया। उनकी ग़ज़लों में नरमी ,करुणा , व्यापकता और गागर में सागर भरने की अनूठी क्षमता पूरी तरह से कायम है। इसीलिए उन्हें पढ़ने से दिमाग पर किसी तरह का बोझ नहीं पड़ता और आंनद की अनुभूति भी हो जाती है।

 ये हयात आलमे-ख़्वाब है , न गुनाह है न सवाब है
 वही कुफ्रो-दीं में ख़राब है जिसे इल्मे-राजे-जहां नहीं 
 कुफ्रो-दीं =इस्लाम के अलावा , इल्मे-राजे-जहां=संसार के रहस्य 

 वो है सब जगह जो करो नज़र , वो कहीं नहीं जो है बे-बसर
 मुझे आजतक न हुई खबर वो कहाँ है और कहाँ नहीं 
 बे-बसर=न देखने वाला 

 वो ज़मीं पे जिनका था दबदबा कि बुलंद अर्श पे नाम था 
 उन्हें यूँ फ़लक ने मिटा दिया कि मज़ार तक का निशां नहीं 

 20 वीं सदी में उस वक्त जब भाषा को मजहब में बांटा जा रहा था चकबस्त साहब ने रामायण को अपने अनूठे ढंग से उर्दू में काव्य की सूरत में लिखा। उनकी लिखी रामायण के तीन हिस्से उर्दू साहित्य में बहुत ऊंचा स्थान रखते हैं। पाठक इसे इंटरनेट की वेब पत्रिका 'कविता कोष' में पढ़ सकते हैं। चकबस्त बहुत संवेदन शील शायर थे उन्होंने समाज और इंसान के बिगड़ते-संवरते विषयों पर उर्दू के अनेक पत्र पत्रिकाओं में कई लेख लिखे जो बहुत सराहे गए।उनकी विभिन्न काव्य विधाओं का संकलन लगभग 15 वर्ष पूर्व "सुबह वतन " शीर्षक से उनकी पोती उमा चकबस्त ने प्रकाशित करवाया। चकबस्त साहब लखनऊ के कश्मीरी मोहल्ले में , जहाँ वो रहते थे , हर साल नियम से ऑल इण्डिया मुशायरे का आयोजन करवाया करते थे ,जिसमें शिरकत करना हर बड़े शायर का सपना हुआ करता था। अपने बारे में कहे उनके इन अशआरों को पढ़ कर चकबस्त साहब की सोच का अंदाज़ा हो जाता है :

 जिस जा हो ख़ुशी, है वो मेरी मंज़िले-राहत
 जिस घर में हो मातम वो अज़ाख़ाना है मेरा
 जा =तरफ , अज़ाख़ाना =रोने की जगह

 जिस गोशाए-दुनिया में परस्तिश हो वफ़ा की 
 काबा है वही और वही बुतखाना है मेरा 
 परस्तिश=पूजा 

 मैं दोस्त भी अपना हूँ उदू भी हूँ मैं अपना 
 अपना है कोई और न बेगाना है मेरा 
 उदू =दुश्मन 

 ‘खाक-ए-हिन्द’, ‘गुलजार-ए-नसीम’, ‘रामायण का एक सीन’ (मुसद्दस), ‘नाल-ए-दर्द’, नाल-ए-यास’ और कमला (नाटक) ‘चकबस्त’ की प्रमुख रचनाएं हैं। 1983 में जन्मशती के अवसर पर उनका समग्र साहित्य ‘कुल्लियाते चकबस्त’ नाम से कालिदास गुप्ता ‘रजा’ के संपादन में प्रकाशित हुआ। लेकिन अब फैजाबाद स्थित उनकी जन्मस्थली में उनकी स्मृतियों और साहित्य के संरक्षण का सिर्फ एक ही उपक्रम है – वह लाइब्रेरी जिस पर मीर बबरअली अनीस के साथ पंडित बृजनारायण ‘चकबस्त’ का नाम भी चस्पां है और जिसे अवध की सांप्रदायिक एकता की अनूठी मिसाल माना जाता है।

 है शौक़ की मंज़िल यही दुनिया के सफर में 
 क्या ख़ाक जवानी है जो सौदा नहीं सर में 
 सौदा =उन्माद

 दुनिया मेरे नाले से खिंच आती है क़फ़स तक 
 मेला सा लगा रहता है सय्याद के घर में 

 रहती हैं उमंगें कहीं ज़ंज़ीर की पाबंद 
 हम कैद हैं ज़िंदा में बियाबां है नज़र में 
 ज़िंदा =कैदखाना 

 पंडित बृजनारायण ‘चकबस्त’। अल्लामा इकबाल के बेहद गहरे दोस्त। दोनों की दोस्ती कितनी गहरी थी इसका अंदाजा इस बात से होता है कि इकबाल मुंबई में मलाबार हिल्स पर रहने वाली अपनी प्रेमिका अतिया फैजी (राजा धनराजगीर के सेक्रटरी अंकल फैजी की बहन) से मिलने जाते तो भी चकबस्त को साथ ले जाते।धनराजमहल में शाम की महफिलें जमतीं तो ‘चकबस्त’ झूम-झूम कर कलाम सुनाते। बाद में उन्हें उर्दू के आधुनिक कविता स्कूल के संस्थापकों में से एक माना जाने लगा और उन्होंने आलोचना, संपादन व शोध के क्षेत्रों में भी भरपूर शोहरत पाई।

 उसे यह फ़िक्र है हरदम नया तर्ज़े-ज़फ़ा क्या है
 हमें ये शौक है देखें सितम की इंतिहा क्या है 
 तर्ज़े जफ़ा =अत्याचार /जुल्म 

 गुनहगारों में शामिल हैं गुनाहों से नहीं वाकिफ़
 सजा को जानते हैं हम ,खुदा जाने खता क्या है 

 नया बिस्मिल हूँ मैं , वाकिफ नहीं रस्मे-शहादत से 
 बता दे तू ही , ऐ ज़ालिम ! तड़पने की अदा क्या है 
बिस्मिल =घायल , रस्मे-शहादत = शहीद होने की रस्म 

 लखनऊ में ही वे प्रसिद्ध उर्दू निबंधकार अब्दुल हलीम ‘शरर’ से एक बहुचर्चित साहित्यिक विवाद में उलझे। दरअसल, उन्होंने 1905 में ‘गुलजार-ए-नसीम’ नाम से शायर दयाशंकर कौल ‘नसीम’ (1811-1843) की रचनाओं का संग्रह प्रकाशित किया तो शरर ने यह कहकर उनकी तीखी आलोचना की कि उन्होंने झूठ-मूठ ही नसीम की प्रशंसा के पुल बांधे हैं और उनको ‘गुल-ए-बकावली’ का रचयिता बता दिया है। शरर के अनुसार ‘गुल-ए-बकावली’ वास्तव में आतिश लखनवी की रचना थी। बाद में यह मामला अदालत तक गया, जिसमें चकबस्त ने अपना सफल बचाव किया .

दिल ही की बदौलत रंज भी है दिल ही की बदौलत राहत भी
 यह दुनिया जिसको कहते हैं दोज़ख भी है और जन्नत भी

 अरमान भरे दिल खाक हुए और मौत के तालिब जीते हैं
 अंधेर पे इस दुनिया के हमें आती है हंसी और रिक़्क़त भी
 तालिब =इच्छुक , रिक़्क़त =रोना

 या ख़ौफ़े-खुदा या ख़ौफ़े-सकर हैं दो ही बयां तेरे वाइज़
 अल्लाह के बन्दे ! दिल में तेरे है सोज़ो-गुदाज़े-मुहब्बत भी
 ख़ौफ़े-खुदा =ईश्वर का डर ,ख़ौफ़े-सकर =नर्क का डर , वाइज़ =धर्मोपदेशक, सोज़ो-गुदाज़े-मुहब्बत =प्रेम की नरमी

 उन्होंने 12 फ़रवरी 1926 के तीसरे पहर रायबरेली में एक मुक़दमे की पैरवी की और शाम 6 बजे की ट्रेन से लखनऊ आने के लिए उसमें बैठे ही थे कि अचानक उनपर दिमागी फालिज का तेज दौरा पड़ा और उनकी ज़बान बंद हो गयी। साथियों ने उन्हें प्लेटफॉर्म पर उतारा यथासंभव उपचार की व्यवस्था की गयी लेकिन सफलता नहीं मिली। डाक्टर द्वारा स्टेशन पर ही दो घंटों की भरसक कोशिशों के बावजूद मात्र 44 की उम्र में उर्दू शायरी का ये चमकता हुआ सितारा अंग्रेजी की एक कहावत कि "जिन्हें भगवान् प्यार करता है वे नौजवानी में मर जाते हैं " को चरितार्थ करते हुए अचानक बुझ गया। उम्र दराज़ लोग मेरी बात को अन्यथा न लें मैंने तो एक कहावत का जिक्र किया है। लखनऊ में नहीं बल्कि पूरे उर्दू जगत में इस खबर से शोक छा गया .

अगर दर्द-ए-मोहब्बत से न इंसाँ आश्ना होता
 न कुछ मरने का ग़म होता न जीने का मज़ा होता 

 बहार-ए-गुल में दीवानों का सहरा में परा होता 
जिधर उठती नज़र कोसों तलक जंगल हरा होता

 मय-ए-गुल-रंग लुटती यूँ दर-ए-मय-ख़ाना वा होता
 न पीने की कमी होती न साक़ी से गिला होता 

हज़ारों जान देते हैं बुतों की बेवफ़ाई पर 
अगर उन में से कोई बा-वफ़ा होता तो क्या होता 

 रुलाया अहल-ए-महफ़िल को निगाह-ए-यास ने मेरी 
क़यामत थी जो इक क़तरा इन आँखों से जुदा होता 

 चकबस्त साहब की कोई किताब देवनागरी में उपलब्ध है या नहीं मैं नहीं बता सकता क्यूंकि जिस किताब की चर्चा मैं कर रहा हूँ वो अब राजपाल एन्ड संस पर उपलब्ध नहीं है। उनकी ग़ज़लें आप रेख़्ता या कविता कोष की वेब साइट पर पढ़ सकते हैं या फिर गूगल से पूछें शायद वो कोई मदद कर पाए मुझे तो उसने अंगूठा दिखा दिया है। आईये पढ़ते हैं चकबस्त के कुछ चुनिंदा शेर और निकलते हैं किसी नयी किताब की तलाश में :

 उलझ पड़ूँ किसी के दामन से वह खार नहीं,
 वह फूल हूँ जो किसी के गले का हार नहीं।
 ***
 कौम का गम लेकर दिल का यह आलम हुआ,
 याद भी आती नहीं, अपनी परीशानी मुझे।
 ***
 जिन्दगी और जिन्दगी की यादगार,
पर्दा और पर्दे के पीछे कुछ परछाइयाँ।
***
बादे-फना फिजूल है, नामों-निशां की फिक्र,
जब हम नहीं रहे तो रहेगा मजार क्या। .
बादे-फना - मृत्यु के बाद
***
मुहब्बत है मुझे बुलबुल के गमअंगेज नालों से,
चमन में रह के मैं फूलों का शैदा हो नहीं सकता।
 गमअंगेज - गम बढ़ाने वाला, नाला - फरियाद, शैदा - आशिक
 ***
 हमारे और ज़ाहिदों के मज़हब में फ़र्क अगर है तो इस क़दर है  
कहेंगे हम जिसको पासे-इंसां वो उसको खौफ़े-ख़ुदा कहेंगे 
  ***
आशना हों कान क्या इंसान की फ़रियाद से
 शेख़ को फ़ुरसत नहीं मिलती खुदा की याद से

10 comments:

Unknown said...

बहुत ही अदभुत नीरज सर
चकबस्त साहब ने बहुत ही बढ़िया लिखा ......पर जो दिल को छू गए ,पोस्ट कर दिया
ज़बाँ को बंद करें या मुझे असीर करें
मिरे ख़याल को बेड़ी पिन्हा नहीं सकते
ये कैसी बज़्म है और कैसे उस के साक़ी हैं
शराब हाथ में है और पिला नहीं सकते
ये बेकसी भी अजब बेकसी है दुनिया में
कोई सताए हमें, हम सता नहीं सकते

जहाँ में आँख जो खोली फ़ना को भूल गये
कुछ इब्तदा ही में हम इन्तहा को भूल गये

है शौक़ की मंज़िल यही दुनिया के सफर में
क्या ख़ाक जवानी है जो सौदा नहीं सर में

प्रदीप कांत said...

बड़े विस्तार से और बेहतरीन

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

नीरज भाई अगर किसी को इस ब्लॉग की एकमेव श्रेष्ठ यानि सर्वश्रेष्ठ पोस्ट को चुनना हो तो चुनने वाले उलझन में पड़ जाएँ ऐसी ऐसी बेहतरीनेबेहतरीन पोस्ट्स से सजाया सँवारा है आपने अपने ब्लॉग को। चकबस्त जी के लिये बकौल ग्वाल कवि:-

जा की यहाँ चाह न है, ता की वहाँ चाह न है,
जा की यहाँ चाहना है, ता की वहाँ चाहना।।

जय श्री कृष्ण

Unknown said...

1952 में जब शे'र कहना शुरू किया था तब जनाब चकबस्त साहिब का कलाम पड़ता आ रहा हूँ और ये मिस्रे तो हमेशा ज़बान पर रहते हैं एक मुहावरे के त्तौर पर....

ज़िन्दगी क्या है अनासिर में ज़हूरे-तरतीक्या है, मौत क्या है, इन्हीं अज्ज़ा का परीशां होंना

इस मा'ख़ेज़ तब्सिरे के लिए बहुत, बहुत शुक्रिया, नीरज साहिब!
--दरवेश भारती। मो. 9268798930

radha tiwari( radhegopal) said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (08-08-2018) को "सावन का सुहाना मौसम" (चर्चा अंक-3057) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी

रमेश कंवल said...

चकबस्त याद आये ये बेशक कमाल है
आपने एक मशहूर होने के अनासिर से लबरेज शायर के
मशहूर न होने की दास्तान पेश कर दी।
बहुत बहुत शुक्रिया

SATISH said...

Waaaaaaaaah waaaaah Neeraj Sahab bahut khoob...Badhai .... Raqeeb

mgtapish said...

Bemisaal waaaaaah waaaaaah
Naman

v k jain said...

वो ज़मीं पे जिनका था दबदबा कि बुलंद अर्श पे नाम था
उन्हें यूँ फ़लक ने मिटा दिया कि मज़ार तक का निशां नहीं

शिवम् दीक्षित 'साहिब' said...

Bahut khoob...