Monday, March 26, 2018

किताबों की दुनिया - 170

क़ैद हो कर रह गया है अपने घर में हर कोई 
झाँकती हैं दूर तक कुछ खिड़कियाँ बरसात में 

इस जवाँ मौसम में आओ भीगने का लें मज़ा 
कब तलक थामे रहोगे छतरियाँ बरसात में 

कट गया हूँ आज कल दुनिया से मैं कुछ इस तरह
जैसी कटती हैं पहाड़ी वादियाँ बरसात में 

अहा !! "झांकती हैं दूर तक कुछ खिड़कियाँ बरसात में" वाले मिसरे में इंतज़ार का मंज़र कुछ इस तरह से बयाँ हुआ है की सोच कर ही कलेजे में हूक सी उठने लगती है ,लेकिन कुछ हैं जो इसे पढ़ कर खुश नहीं है, कह रहे हैं साहब इस शेर में मयार नहीं है ,शेर समझ जल्दी आ रहा है याने जब तक शेर में उलझाव न हो बात की गेंद टप्पा कहीं खाये और घूम कहीं और जाय तब तक वो वाह वाह करने से परहेज करते हैं। सीधी सरल सहज बात करने के अंदाज़ को बहुत से उस्ताद शायरी मान ने से साफ़ इंकार करते हुए उसे तुकबंदी कहते हुए मुंह फेर लेते हैं। खैर साहब पसंद अपनी अपनी ख़्याल अपना अपना। मुझे तो वो ही शेर पसंद आते हैं जो दिल के ज़ज़्बात ख़ूबसूरती से पेश करते हैं, अब आपकी आप जानें ।

ख़ुशी का अश्क हो कोई कि ग़म का हो कोई आंसू 
कि जिन आँखों से हंसना है उन्हीं आँखों से रोना भी 

करूँ तो और क्या ख़िदमत करूँ तेरी बता मुझको 
तेरा हथियार भी हूँ तेरे हाथों का खिलौना भी 

मुसीबत में रहूं ये भी नहीं उसको ग़वारा है 
नहीं मंज़ूर है उसको मेरा खुशहाल होना भी 

हमारे आज के शायर के बारे में दिल्ली के कामयाब और मशहूर शायर जनाब "इक़बाल अश्हर" साहब ने लिखा है कि " पंजाब की ज़िंदा दिली ,हिमाचल की मुसव्विरी, जम्मू कश्मीर का हुस्न , घुट्टी में शामिल पुरानी तहज़ीब की जादूगरी ,अदब की भूल-भुलैय्यां में जनाब "राजिन्दर नाथ रहबर की रहबरी, घर-आँगन में बसी सच्चे रिश्तों की महकार, कुछ बन पाने का ख़्वाब , कुछ कर गुजरने की तमन्ना इन तमाम अनासिर के जहूर-ऐ-तरतीब ने जनाब "नरेश 'निसार' साहब का शेरी पैकर तराशा है। " हम उनकी किताब "सौदा" की बात करेंगे जिसे अप्रेल 2016 में दर्पण पब्लिकेशन , पठानकोट ने प्रकाशित किया था।


किसी भी ज़ाविये से देख लेती हैं मिरी आँखें 
तिरी आँखों से अच्छी हैं तिरी तस्वीर की आँखें 

हो तुम तो आँख वाले, जंग से तुम बाज़ आ जाओ 
नहीं होतीं नहीं होतीं किसी शमशीर की आँखें 

वो हैं किस काम की आँखें नहीं हो रौशनी जिनमें 
यूँ होने को तो होती हैं बहुत ज़ंजीर की आँखें 

पठानकोट से लगभग 19 कि मी दूर काँगड़ा जिले की इंदौरा तहसील में एक छोटा सा गाँव है 'सूरजपुर' जहाँ 14 फरवरी ,जी ठीक वेलेंटाइन वाले दिन ही, सं 1968 को जनाब नरेश'निसार' का जन्म एक साधारण परिवार में हुआ। ये परिवार भले आर्थिक दृष्टि से साधारण रहा हो लेकिन मानवीय मूल्यों और सामाजिक सरोकारों को निभाने में असाधारण था। तभी आज के इस युग में भी 21 जनों का ये आदर्श परिवार इकठ्ठे रहता है, इनके सुख-दुःख सांझे हैं. शायरी ने नरेश जी को कब और कैसे प्रभावित किया ये तो पता नहीं लेकिन उनकी शायरी को निखारने में उनके उस्ताद जनाब "राजिन्दर नाथ रहबर' साहब का बहुत बड़ा योगदान रहा। रहबर साहब को कौन नहीं जानता ? उनकी नज़्म "तेरे खुशबू में भरे खत मैं जलाता कैसे..." को महान ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह जी ने अपनी आवाज़ दे कर अमर कर दिया था।

हज़ारों बार उभरा हूँ हज़ारों बार डूबा हूँ 
मुझे लगता है मैं कोई समन्दर का किनारा हूँ 

नहीं है राबिता मुझ से ही मेरा इन दिनों कोई 
न जाने आज-कल मैं कौन सी दुनिया में रहता हूँ 

मिली है हमको दरवेशी की ये दौलत विरासत में 
मिरा बेटा है मुझ जैसा मैं अपने बाप जैसा हूँ 

नरेश 'निसार' जैसा कि मैंने बताया हिमांचल की ऐसी सुदूर जगह से हैं जहाँ अदब का कोई नाम लेवा भी नहीं है, शायरी तो दूर की बात है लेकिन उसी जगह नरेश निसार साहब के जज़्बे के कारण ही "मंथन अदबी अंजुमन " जैसी संस्था को खड़ी हुई । इस संस्था के अंतर्गत कुल हिन्द मुशायरों का सफलता पूर्वक सञ्चालन होता है। मुंबई के शायर "इब्राहीम अश्क " ने इस बात को यूँ कहा है " ' 'इंदौरा' कांगड़ा जिले की वो जगह है जहाँ शायरी और मुशायरों का कभी नामो-निशान तक नहीं रहा। ऐसे बंज़र माहौल में कोई ग़ज़लों की फसलें उगाने और उसकी आबयारी (पानी देना ) करने का फ़र्ज़ अदा करता है , शेरो-सुख़न का माहौल बनाता है और मुशयरों की रिवायत को आम करके 'मंथन अदबी अंजुमन, कायम करता है तो ये काम आसान नहीं ,जूऐ-शीर (दूध की नहर) लाने जैसा है। इसे तो कोई फ़रहाद ही अंजाम दे सकता है जो कभी-कभी ही पैदा होता है। 'नरेश निसार' मौजूदा दौर के ऐसे ही फ़रहाद हैं. "

मैं उसको देखता रहता हूँ छू नहीं सकता 
वो मेरे सामने रहता है आसमाँ की तरह 

अगर मैं देर से लौटूँ तो डाँटती है मुझे
ख़ुदा ने बख़्शी है बेटी भी मुझको माँ की तरह

वो बात जो कि हमारे न दरमियां थी कभी 
बना लिया है उसे हमने दास्तां की तरह 

आप उनकी शायरी के बारे में चाहे जो कहें लेकिन उनके शायरी के प्रति जूनून के बारे में कुछ कहने को है ही नहीं। नरेश का अपना "स्टोन क्रशिंग" का व्यापार है याने दिमाग पत्थर तोड़ने में लगा है और उनका दिल फूल सी नाज़ुक शायरी करने में । खूबसूरत व्यक्तित्व के मालिक, बड़े दिल वाले ,हर परिस्थिति में सच और सिर्फ सच बोलने को प्रतिबद्ध, झुझारू प्रकृति के और हर किसी पर आँख मूँद कर भरोसा करने वाले 'नरेश' पूरी तरह परिवार को समर्पित इंसान हैं। अपनी पत्नी ममता जी के लिए उन्होंने जो घर बनवाया उसका नाम रखा " ममता'ज़ महल " वो इस किताब में अपने पाठकों को निमंत्रण देते हुए लिखते हैं कि " ताज महल तो आप ने देखा होगा लेकिन कभी वक्त मिले तो किसी रोज़ मेरे गरीबखाने ममता'ज़ महल " जरूर आइयेगा।

किसी बच्चे को माँ की गोद में सोते हुए देखा 
भला इस से भी बढ़ कर कोई जन्नत और होती है

नहीं मिलते हैं हम उनसे तो सालों तक नहीं मिलते 
अगर मिलते हैं तो मिलने की चाहत और होती है 

यही रोना रहा उनके हमारे दरमियाँ अक्सर 
हमारी और तो उनकी मसर्रत और होती है 
मसर्रत=ख़ुशी 

नरेश ग़ज़लों के अलावा नज़्में और गीत भी लिखते हैं। "सौदा" उनकी ग़ज़लों की दूसरी किताब है, इस से पहले सं 2008 में उनका पहला ग़ज़ल संग्रह " बरसात में " शाया हो कर बहुत चर्चित हो चुका है। उनकी ग़ज़लें , नज़्में और गीत देश की प्रतिष्ठित हिंदी और उर्दू पत्र पत्रिकाओं में छपती रहती हैं। कुल हिन्द मुशायरों के आयोजन के अलावा वो देश भर में होने वाले मुशायरों में शिरकत भी करते हैं। उनकी ग़ज़लों का प्रसारण आकाशवाणी और दूरदर्शन से भी होता रहता है। दुनिया की 125 ज़बानों में गाने वाले गिनीज़ वर्ल्ड रेकार्ड होल्डर प्रसिद्ध गायक डा. ग़ज़ल श्रीनिवास ने उनकी ग़ज़लों को आवाज़ दी है और अपने अमेरिका ,कैनेडा और यूरोप के दौरे के दौरान सुना कर खूब वाह वाही बटोरी है।

एक इन्सां को खुदा मान लिया क्या हमने 
हम पे करता है सितम भी वो इनायत की तरह 

तेरा इन्साफ़ तेरा हुक्म तिरा रहमो-करम 
तेरी महफ़िल नज़र आती है अदालत की तरह

मेहरबां होगा खुदा हम पे तो कैसे होगा 
हम इबादत ही नहीं करते इबादत की तरह 

नरेश जी की ग़ज़लों की ज़बान निहायत सादा है ,हालाँकि उन्होंने उर्दू सीखी है लेकिन भाषा को अपनी ग़ज़लों पर कभी हावी नहीं होने दिया। अपनी ग़ज़लों के बारे में उन्होंने लिखा है कि " व्यापार के सिलसिले में रोज़ मुझे तीन सूबों से होकर गुज़ारना पड़ता है। हिमांचल से पंजाब (पठानकोट) पंजाब से जम्मू-कश्मीर (कठुआ), शायद यही वजह है कि मैं गंगा-जमनी भाषा और साँझा तहज़ीब में यकीन रखता हूँ। मैंने अपनी शायरी में भी उसी आम ज़बान का इस्तेमाल किया है जो पूरे हिंदुस्तान को एक दूसरे से जोड़ती है। मुझे दूसरों से जियादा मेहनत करनी पड़ती है क्यूंकि जानकारों के मुताबिक सादा ज़बान में शायरी करना एक बेहद मुश्किल काम है. मेरे ख्याल में किसी का अच्छा इंसान होना अच्छा शायर होने से अधिक मायने रखता है। न तो जीते जी कोई इंसान मुकम्मल हो सकता है न ही शायर। बहुत सारी खामियों के बीच अच्छा इंसान बनने की क़वायद के साथ साथ जनाब रहबर साहब की रहनुमाई में पिछले सत्रह से अधिक सालों से मेरा अदबी सफ़र जारी है "

न जाने किस तरफ ले जायेंगे मेरे कदम मुझको 
मिरि मंज़िल है वो मुझको जो इक सीढ़ी समझता है 

बड़े क़द से नहीं रुतबा किसी का भी बड़ा होता 
बहुत नादान है चींटी को जो चींटी समझता है 

कोई इज़हार अपने इश्क का करता है बढ़-चढ़ कर 
कोई खामोश रहने में समझदारी समझता है 

इस किताब की प्राप्ति के लिए जिसमें नरेश जी की चुनिंदा 88 ग़ज़लें संग्रहित हैं के लिए सबसे सरल रास्ता है 'नरेश निसार' साहब को उनके मोबाईल न. 9815741931 या 9779831310 पर बात कर उन्हें इन खूबसूरत ग़ज़लों के लिए बधाई देते हुए किताब पाने का सबसे आसान रास्ता पूछें। आखिर में नरेश जी के उस्ताद-ऐ-मोहतरम जनाब रहबर साहब के उनके बारे में लिखे इन लफ़्ज़ों के साथ आपसे विदा लेता हूँ " 'निसार' एक अनुभवी कारोबारी इंसान हैं और बिजनेस के मुआमलात में घाटे का सौदा नहीं करते लेकिन कारोबार-ऐ-इश्क में वो घाटे का सौदा करने से भी गुरेज़ नहीं करते। वो शायरी की राह के रौशन चिराग हैं और एक लम्बी मुद्दत से अदब की राहों को पुर नूर कर रहे हैं। उनके काव्य में ज़िन्दगी की गर्माहट महसूस की जा सकती है। "
आईये पढ़ते हैं उनके कुछ फुटकर अशआर :

उनसे बस इक बार मिलने के लिए 
फिर नहीं मिलने का सौदा कर लिया
*** 
अब यही बेहतर है उसके ख़्वाब लेना छोड़ दें 
दिन में जो मिलता नहीं वो क्या मिलेगा रात को
*** 
कपड़े पसंद के हुए उस उम्र में नसीब 
जिस वक़्त चेहरे पर कोई रंगत नहीं रही
*** 
लगाया था किसी पर दाव हमने सोच कर लेकिन
किसे मालूम था सोने की क़ीमत टूट जाएगी 
*** 
वो अँधेरे में मुझको रखता है मैं 
जिसे आफ़ताब लिखता हूँ 
*** 
लो कड़ी धूप में होता है सफ़र अपना तमाम 
किसने देखा तेरी ज़ुल्फ़ों का घटा हो जाना
*** 
किस तरफ़ रुख है हवाओं का ये पूछो उनसे
 ख़ाक बन-बन के जो हर रोज़ उड़ा करते हैं

Monday, March 19, 2018

किताबों की दुनिया - 169

खुद भी आखिर-कार उन्हीं वादों से बहले 
जिन से सारी दुनिया को बहलाया हमने 

मौत ने सारी रात हमारी नब्ज़ टटोली 
ऐसा मरने का माहौल बनाया हमने 

घर से निकले चौक गए फिर पार्क में बैठे 
तन्हाई को जगह जगह बिखराया हमने 

मुशायरों के बारे में साहित्य अकादमी पुरूस्कार से सम्मानित आज के मशहूर शायर जनाब 'अमीर इमाम' ने अपने एक लेख में लिखा था कि "मुशायरे एक समारोह की तरह हैं जहां शायर अपनी शायरी लोगों तक पहुँचाता है। इस समारोह में शायरी वहां उपस्थित हर इक व्यक्ति के दिल पर अलग अलग तरीके से पहुँचती है। कुछ शायर अपनी शायरी को प्रत्येक के दिल तक पहुँचाने के प्रयास में अति नाटकीयता से काम लेते हैं तो कुछ अपने सुरीले गले से। ज्यादातर वो शायर जिनके पास कहने सुनने के लिए नया कुछ नहीं होता वो ही ऐसे हथकंडे अपनाते हैं, वो नाटकीयता और तरन्नुम से अपनी कमज़ोर शायरी को ढांपने का प्रयास करते हैं." अगर आप मुशायरों में जाते हैं तो अमीर की इस बात से सहमत जरूर होंगे।

तिरे ग़म से उभरना चाहता हूँ 
मैं अपनी मौत मरना चाहता हूँ 

ये फ़न इतना मगर आसाँ कहाँ है 
जरुरत भर बिखरना चाहता हूँ 

नहीं ढोना ये बूढ़ा जिस्म मुझको 
सवारी से उतरना चाहता हूँ 

तभी मैं मश्वरा करता हूँ सब से 
जब अपने दिल की करना चाहता हूँ

'अमीर' की ही बात को मुंबई के बड़े मशहूर शायर “शमीम अब्बास” साहब ने उर्दू स्टूडियो को दिए एक इंटरव्यू में यूँ कहा है कि " आजकल के मुशायरों से शायरी का भला नहीं होता हाँ उर्दू ज़बान जरूर बहुत से लोगों तक पहुँचती है , मुशायरा सुनने जो लोग आते हैं उनमें से ज्यादातर मनोरंजन के लिए आते हैं इसलिए जो शायर उनका चुटकुले सुना कर ,अदाएं दिखा कर या गा कर मनोरंजन करता है वो मुशायरा लूट लेता है। ऐसे मुशायरा लूटने वाले शायरों की शायरी सिर्फ उसी मुशायरे तक महदूद या सीमित रहती है और फिर भुला दी जाती है। अदब से जुड़ा हुआ तबका उनकी शायरी पर कभी गुफ़्तगू नहीं करता। लेकिन ऐसे शायरों की तादाद भी कम नहीं जिन्हें दुनिया भले न जाने ,अदब से, लिटरेचर से जुड़े लोग जानते हैं और उनके बारे में गुफ़्तगू करते हैं, उनकी शायरी की चर्चा करते हैं, एक दूसरे को सुनाते हैं जो बहुत बड़ी बात है। अच्छी या बुरी शायरी तो हमेशा से होती आयी है लेकिन पिछले कुछ सालों में मुशायरों का मयार इस क़दर गिरा है कि अब उन्हें मुशायरा कम तमाशा कहना ज्यादा मुनासिब होगा।"

 मैं भी क़तरा हूँ तिरि बात समझ सकता हूँ 
ये कि मिट जाने के डर से कोई दरिया हो जाय 

सब को होना है बड़ा और बड़ा और बड़ा 
कौन है इतना समझदार कि बच्चा हो जाय 

जिस्म की सतह पे मिलते ही नहीं हम वर्ना 
दो मुलाकातों में ये इश्क पुराना हो जाय 

आज हम जिस शायर की बात करने वाले हैं उन्हें अदब या लिटरेचर से जुड़े लोग तो सम्मान देते ही हैं साथ ही आम लोग जिनमें आज की युवा पीढ़ी भी शामिल है उनके अशआर की दीवानी है। तन्हाई को जगह जगह बिखराने वाले ,अपने दिल की सुनने वाले और रूहानी इश्क की बातें करने वाले इस अद्भुत शायर को मुशायरों में न आप अदाकारी करते देखेंगे ,न तरुन्नम में पढ़ते और न ही सामईन से अपने शेरों पर दाद देने की भीख मांगते। चौड़े माथे पर चश्मा लगाए,ज़बान से होंठ तर करते हुए जब वो माइक पर आ कर निहायत सादगी से अपना कलाम पढ़ते हैं तो सुनने वालों को लगता है जैसे जून-जुलाई की उमस में किसी ठन्डे झरने के नीचे आ बैठे हों। अशआर की फुहारों से सामईन भीग भीग जाते हैं.वो सुनाते जाते हैं और श्रोता झूमते जाते हैं। मैं बात कर रहा हूँ जनाब " शारिक़ कैफ़ी" साहब की जिनकी किताब "खिड़की तो मैंने खोल ही ली " मेरे सामने है। चलिए अब इस किताब के सफ्हे पलटते हैं :


 हासिल करके तुझ को अब शर्मिंदा सा हूँ
 था इक वक़्त कि सचमुच तेरे क़ाबिल था मैं 

कौन था वो जिसने ये हाल किया है मेरा 
किस को इतनी आसानी से हासिल था मैं 

सारी तवज्जो दुश्मन पे मर्कूज़ थी मेरी 
अपनी तरफ़ से तो बिल्कुल ग़ाफ़िल था मैं 
मर्कूज़ = केंद्रित 

कभी किसी हसीना का बाजार में झुमका खोने के कारण मश्हूर हुए 'बरेली' के उस्ताद शायर जनाब कैफ़ी वजदानी ( सैय्यद रिफ़ाक़त हुसैन ) के यहाँ पहली जून 1961 को जो बेटा पैदा हुआ उसका नाम सय्यद शारिक़ हुसैन रखा गया। विरासत में हासिल हुई शायरी के चलते शारिक़ छुटपन से ही शेर कहने लगे। पिता के साये में शायरी करते तो रहे लेकिन मन में रिवायत से हट कर कुछ अलग सा कहने की ठान ली। रिवायती शायरी को बिलकुल नए रंग और जाविये से संवारने की मशक्कत के साथ साथ वो बरेली कॉलेज से बी.एस.सी की पढाई भी करते रहे और शारिक़ कैफ़ी के नाम से शायरी भी करने लगे । बी एस सी करने के बाद उर्दू में एम् ऐ की डिग्री भी हासिल कर ली।

कांच की चूड़ी ले कर जब तक लौटा था 
उस के हाथों में सोने का कंगन था 

रो-धो कर सो जाता लेकिन दर्द तिरा 
इक-इक बूँद निचोड़ने वाला सावन था 

तुझ से बिछड़ कर और तिरि याद आएगी 
शायद ऐसा सोचना मेरा बचपन था 

 उर्दू, शारिक़ साहब ने नौकरी के लिए नहीं ,अपनी शायरी को माँजने के लिए सीखी थी तभी उनकी शायरी में न सिर्फ विचार ,कला का अनूठा सामंजस्य और एक जज़्बाती ज़िंदगी फैली हुई है बल्कि उर्दू ज़बान की मिठास भी घुली हुई है। नौकरी के लिए उन्होंने अपनी बी एस सी की डिग्री का सराहा लिया और बरेली की एक कैमिकल फैक्ट्री में बतौर चीफ केमिस्ट काम करने लगे शायद इसी कारण से उनके शेरों के मिसरा-ए-ऊला और सानी में इतनी जबरदस्त केमिस्ट्री है। अपने खास दोस्तों 'खालिद जावेद' जो जामिया मिलिया में पढ़ाते हैं और 'सोहेल आज़ाद' साहब की सोहबत और पड़ौस में रहने वाले 1956 में जन्में कद्दावर शायर जनाब "आशुफ़्ता चंगेज़ी" जो 1996 में अचानक ग़ायब हो गए, की रहनुमाई में शारिक़ कैफ़ी साहब ने ग़ज़ल की बारीकियों को तराशा।

वो जुर्म इतना जो संगीन उसको लगता है 
किया था मैं ने कोई पल गुज़ारने के लिए 

उसी पे वुसअतें खुलती हैं दश्त-ओ-सहरा की
जिसे कोई भी न आये पुकारने के लिए 
वुसअत=फैलाव , दश्त-ओ-सहरा =जंगल और रेगिस्तान 

इक और बाज़ी मुझे उसके साथ खेलना है 
उसी की तरह सलीक़े से हारने के लिए 

आखिर वो लम्हा 1989 में आया जो किसी भी शायर की ज़िन्दगी में बहुत अहम मुकाम रखता है याने उनकी पहली किताब का प्रकाशित होना । "आम सा रद्द-ऐ-अमल" मंज़र-ऐ-आम पर क्या आई खलबली सी मच गयी. लोग चौंक उठे। एक बिलकुल नए शायर का रिवायत को अपने ढंग से संवारने का अनूठा अंदाज़ पाठकों को बहुत भाया। किताब की हर किसी ने भूरी भूरी प्रशंशा की ,पाठकों ने उसे हाथों हाथ उठा लिया। उर्दू के नामवर शायर जनाब 'शहरयार' साहब ने चिठ्ठी लिख कर उनकी हौसला अफ़ज़ाही की। किसी भी नए शायर के लिए ये बात बायसे फ़क्र हो सकती है ,ये भी मुमकिन है की इतनी तारीफ बटोरने के बाद शायर के पाँव जमीन पर न पड़ें लेकिन साहब शारिक़ कैफ़ी कोई यूँ ही शारिक़ कैफ़ी नहीं बनता क्यूंकि हुआ इसके बिलकुल ठीक उल्टा। पहली ही किताब के इतने मकबूल होने के बाद शारिक़ साहब जो शेर कहें वो उन्हें अपनी पहली किताब में शाया हुए शेरों से उन्नीस ही लगें, उनका मुकाबला अब किसी और से नहीं खुद अपने आप से था. लिहाज़ा बहुत कोशिशों के बाद भी जब उन्हें अपनी शायरी, जितना वो चाहते थे उस, स्तर की नहीं लगी तो उन्होंने तंग आ कर शेर कहना ही छोड़ दिया। आप यकीन करें न करें लेकिन हक़ीक़त ये है कि उन्होंने फिर 17 सालों तक एक भी शेर नहीं कहा।

पढाई चल रही है ज़िन्दगी की 
अभी उतरा नहीं बस्ता हमारा 

किसी को फिर भी मंहगे लग रहे थे 
फ़क़त साँसों का ख़र्चा था हमारा 

तरफ़दारी नहीं कर पाए दिल की 
अकेला पड़ गया बंदा हमारा 

हमें भी चाहिए तन्हाई 'शारिक़' 
समझता ही नहीं साया हमारा 

ऐसा नहीं है कि एकांत वास के इस लम्बे सत्रह सालीय दौर में वो चुप बैठे रहे, उन्होंने लिखा और अपने लिखे को तब तक तराशते रहे जब तक कि उन्हें पूरी तसल्ली नहीं हो गयी। खुद के लिखे को बड़ी बेरहमी से ख़ारिज करते रहे ,घिसते रहे और आखिर हिना की तरह घिस घिस कर कहे शेर जब मंज़र-ए -आम पर आये तो पढ़ने वालों को ऐसी खुशबू और रंग से सराबोर कर गए जो आसानी से छूटता नहीं। मैं कोई नक्काद या आलोचक तो हूँ नहीं एक साधारण सा पाठक हूँ और उसी हैसियत से अपनी बात आपके सामने रखता हूँ। मुझे ये कहने में कोई हिचक नहीं है कि आज के दौर में जो शायर मेरे सामने आये हैं उनमें शारिक़ साहब की शायरी मुझे बिलकुल अलग और दिलकश लगी।इस शायरी के तिलस्म से बाहर आने को दिल ही नहीं करता।

उम्र भर जिसके मश्वरों पे चले 
वो परेशान है तो हैरत है 

अब संवरने का वक्त उसको नहीं 
जब हमें देखने की फुर्सत है 

क़हक़हा मारने में कुछ भी नहीं 
मुस्कुराने में जितनी मेहनत है 

शारिक़ साहब की चुप्पी आखिर 2008 में आये उनके दूसरे शेरी मज़्मुए "यहाँ तक रौशनी आती कहाँ थी " के मंज़र-ऐ-आम पर आने से टूटी। लोगों ने उसे दिलचस्पी से पढ़ा और देखा कि इन 17 सालों के अज्ञातवास के दौरान उनकी शायरी के तेवर जरा भी नहीं बदले बल्कि उन्होंने उसमें बेहतरीन इज़ाफ़ा ही किया है। ज़िन्दगी को उन्होंने सतही तौर पर नहीं बल्कि गहरे उतर कर देखा है। उसकी तल्खियों और खुशियों का बारीकी से ज़ायज़ा लिया है। मोहब्बत को एक नए जाविये से बयान किया है। दूसरी किताब के आने के साथ ही शारिक़ साहब की शोहरत को पंख लग गए।अदबी हलकों में उनकी चर्चा होने लगी , इतना सब होते हुए भी शारिक़ दिखावे से दूर अपनी ज़िन्दगी सुकून से बसर करते रहे। बेहपनाह शोहरत का उनकी जाति ज़िन्दगी पर कोई असर दिखाई नहीं दिया।

भीड़ छट जाएगी पल में ये ख़बर उड़ते ही 
अब कोई और तमाशा नहीं होना है यहाँ 

क्या मिला दश्त में आ कर तिरे दीवाने को 
घर के जैसा ही अगर जागना सोना है यहाँ 

कुछ भी हो जाये न मानूंगा मगर जिस्म की बात 
आज मुज़रिम तो किसी और को होना है यहाँ 

फिर आया सन 2010 जिसमें शारिक़ साहब का तीसरा मज़्मुआ "अपने तमाशे का टिकट" शाया हुआ इसमें उनकी नज़्में संग्रहित थीं। नज़्म कहना शेर कहने से ज्यादा मुश्किल काम है, इसी मुश्किल काम को इस ख़ूबसूरती से शारिक़ साहब ने अंजाम दिया कि उर्दू के नामी नक्काद याने आलोचक जनाब "शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी" साहब ने हैरत और ख़ुशी में मिले जुले तास्सुरात एक मजमून की सूरत में कलम बंद किये थे। जहाँ उनके दो ग़ज़ल संग्रहों पर किसी आलोचक का एक हर्फ़ भी पढ़ने को नहीं मिलता वहीँ उनकी नज़्मों के बारे में बड़े बड़े नक्कादों का ढेर सारा लिखा पढ़ने को मिलता है। इस तीसरी किताब के बाद उनकी पहचान एक ग़ज़लकार के रूप में कम और लाजवाब नज़्म निगार के रूप में ज्यादा हुई. नज़्मों ने जो पहचान दी वो किसी भी बड़े शायर के लिए इर्षा का विषय हो सकता है।

खूब तर्कीब निकाली न पीने की मगर 
जाम टूटा ही नहीं जाम से टकराने में 

भूलने में तो उसे देर ज़ियादा न लगी 
ग़म-गुसारों ने बहुत वक़्त लिया जाने में 
ग़म-गुसारों =हमदर्द 

हैं तो नादान मगर इतने भी नादान नहीं 
बात बनती हो तो आ जाते हैं बहकाने में 

मुशायरों के मंचों से शारिक़ साहब का नाता बहुत पुराना नहीं है। इंटरनेट पर सन 2012 के पहले का शायद ही कोई वीडियो आपको देखने को मिले। पब्लिक में बेहद संजीदा और खामोश रहने वाले शारिक़ पूरे मोहल्ला बाज़ हैं और ज़िन्दगी के हर लम्हे का लुत्फ़ लेते हुए जीते हैं। उनका कहना है कि शायरी उनके लिए बहुत जरूरी काम नहीं है बल्कि जब वो हर तरफ से पूरे सुकून में होते हैं तभी शायरी करते हैं। जब मूड और फुर्सत में होते हैं तभी शायरी करते हैं और उनपर एक तरह से शायरी के दौरे पड़ते हैं जिसके चलते वो लगातार इतना लिखते हैं कि एक किताब का मसौदा तैयार हो जाता है और फिर वो एक लम्बी चुप्पी ओढ़ लेते हैं।सन 2010 से उनके लेखन में रवानी आयी है और मंचों पर वो दिखाई भी देने लगे हैं। हिंदुस्तान के अलावा पाकिस्तान और दूसरे उन देशों में जहाँ उर्दू बोली या समझी जाती है ,शारिक़ साहब का नाम बहुत इज़्ज़त से लिया जाता है।

झूट पर उस के भरोसा कर लिया 
धूप इतनी थी कि साया कर लिया 

बोलने से लोग थकते ही नहीं 
हम ने इक चुप में गुज़ारा कर लिया 

सारी दुनिया से लड़े जिसके लिए 
एक दिन उस से भी झगड़ा कर लिया 

शारिक़ साहब के प्रशंसकों में हिंदी और उर्दू पढ़ने वाले दोनों तरह के लोग हैं। उनकी तीनों किताबें उर्दू में हैं इसलिए रेख़्ता फाउंडेशन की और से चलाई गयी "रेख़्ता हर्फ़-ऐ-ताज़ा सीरीज " के अंतर्गत छपी शारिक़ साहब की शायरी की किताब "खिड़की तो मैंने खोल ही ली " का देवनागरी लिपि में प्रकाशन एक प्रशंसनीय कदम है। इस किताब में आप उनकी 82 ग़ज़लें ,कुछ फुटकर शेर और 21 चुनिंदा नज़्में पढ़ सकते हैं। किताब की प्राप्ति के लिए या तो आप रेख़्ता से उनके ई-मेल contact@rekhta.org पर लिखें या सीधे अमेज़न से ऑन लाइन मंगवा लें। ये मान के चलें कि अगर आपकी लाइब्रेरी के ख़ज़ाने में ये कोहिनूर हीरा नहीं है तो फिर क्या है। इस किताब पर लिखने के लिए इतना कुछ है की मैं लिखते-लिखते थक जाऊंगा और आप पढ़ते-पढ़ते फिर भी बहुत कुछ छूट जायेगा।

याद आती है तिरि सन्जीदगी
और फिर हँसता चला जाता हूँ मैं 

बिन कहे आऊंगा जब भी आऊंगा 
मन्तज़िर आँखों से घबराता हूँ मैं 

अपनी सारी शान खो देता है ज़ख्म 
जब दवा करता नज़र आता हूँ मैं 

अपने चार भाइयों के साथ बरेली में सयुंक्त परिवार की तरह रहने वाले शारिक़ कैफ़ी साहब यारों के यार हैं। मेरी आपसे दरख़्वास्त है कि आप उन्हें उनके मोबाईल न. 9997162395 पर बात कर बधाई दें क्यूंकि किसी भी शायर का सबसे बड़ा तोहफा उसके पाठकों का प्यार ही होता है।चाहता तो था कि उनकी कुछ लाजवाब नज़्में भी आपतक पहुंचाता लेकिन उनकी नज़्मों के लिए तो एक अलहदा पोस्ट चाहिए जो फिर कभी सही, फ़िलहाल आपके कीमती वक़्त का लिहाज़ करते हुए मैं खुद को यहीं रोक रहा हूँ और अगली किताब तलाशने के पहले आईये आपको उनके कुछ बहुत मशहूर शेर पढ़वाता हूँ :

 तुम तो पहचानना ही भूल गए 
 लम्स को मेरे रौशनी के बग़ैर
*** 
ये तिरे शहर में खुला मुझ पर 
मुस्कुराना भी एक आदत है 
*** 
एक दिन हम अचानक बड़े हो गए 
खेल में दौड़ कर उस को छूते हुए 
*** 
होश खोए नहीं मोहब्बत में 
बंद कमरे में मुस्कुराता हूँ 
*** 
बुरा लगा तो बहुत ज़ख्म को छुपाते हुए 
मगर गिरे थे सो उठना था मुस्कुराते हुए 
*** 
अधूरी लग रही है जीत उस को 
उसे हारे हुए लगते नहीं हम
 *** 
रात थी जब तुम्हारा शहर आया 
फिर भी खिड़की तो मैंने खोल ही ली




Monday, March 12, 2018

किताबों की दुनिया - 168

जिस ग़म से दिल को राहत हो उस ग़म का मुदावा क्या मानी
जब फ़ितरत तूफ़ानी ठहरी, साहिल की तमन्ना क्या मानी
 मुदावा =उपचार

इश्रत में रंज की आमेज़िश ,राहत में अलम की आलाइश
जब दुनिया ऐसी दुनिया है फिर दुनिया-दुनिया क्या मानी
इश्रत =सुख , आमेज़िश =मिलावट अलम=दुःख आलाइश= मिलावट

इख़्लास-ओ-वफ़ा के सिज्दों की जिस दर पर दाद नहीं मिलती
ऐ ग़ैरते-दिल ऐ अज़्मे-ख़ुदी उस दर पर सिज्दा क्या मानी
इख़्लास-ओ-वफ़ा=शुद्ध हृदयता और प्रेम में पूर्ण , ग़ैरते-दिल=दिल की शर्म , अज़्मे ख़ुदी =आत्म सम्मान (रखने के )संकल्प

बहुत बहुत साल पहले रेडिओ सीलोन से बिनाका गीत माला आया करती थी जिसे अमीन सयानी अपनी दिलकश आवाज़ में प्रस्तुत किया करते थे। उसमें हर हफ्ते कुछ बहुत लोकप्रिय गीत सरताज़ गीत की हैसियत से बजा करते थे। लोग ऐसे सरताज गीतों का हिसाब अपनी कापियों -डायरियों में रखा करते थे ,लेकिन जो गीत सरताज़ गीत की हैसियत नहीं प्राप्त कर पाते थे वो भी सरताज गीतों से कम लोकप्रिय नहीं होते थे। ऐसे ही गीतों को इकठ्ठा करके अमीन सायानी ने बरसों बाद ' गीत माला की छाँव में " नाम से सी.डी. यों की श्रृंखला भी निकाली जो बहुत प्रसिद्ध हुई। ठीक इसीतरह उर्दू शायरी में भी बहुत से सरताज़ शायर हुए हैं जिनके कलाम लोगों की कापियों -डायरियों में कलम -बंद किये जाते रहे हैं और ऐसे भी शायर हुए हैं जिन्हें सरताज़ की हैसियत तो नहीं मिल पायी लेकिन वो प्रसिद्ध खूब हुए.

जितना वो मेरे हाल पे करते हैं जफ़ाएँ
आता है मुझे उनकी मुहब्बत का यकीं और

मैखाने की है शान इसी शोर-ए-तलब से
हर "और नहीं" पर है तकाज़ा कि "नहीं और"

तकरार का ऐ शैख़ यही तो है नतीजा
तुमने जो कही और तो हमसे भी सुनी और

रदीफ़ में 'और' का जादुई इस्तेमाल करने वाले हमारे आज के शायर भी गीतमाला की छाँव में शामिल किये किये गए उन गीतों की तरह के शायर हैं जो सरताज़ की हैसियत नहीं प्राप्त कर पाए लेकिन मक़बूल खूब हुए। आज के दौर में ख़ास तौर पर हिंदी पाठक,शायद उनके नाम से ज़्यादा वाकिफ़ न हों लेकिन कभी उनके नाम की तूती भी सरताज़ शायरों के नाम के साथ साथ बजा करती थी। बात हो रही है जनाब "बालमुकंद 'अर्श' मल्सियानी" साहब की जिनकी प्रमुख रचनाओं को "प्रकाश पंडित" ने "लोकप्रिय शायर" श्रृंखला के अंतर्गत संग्रहित किया और राजपाल ऐंड संस ने प्रकाशित किया था।



हमको राह-ए-ज़िन्दगी में इस क़दर रहज़न मिले 
रहनुमा पर भी गुमान-ए-रहनुमा होता नहीं 

सिज्दे करते भी हैं इन्सां खुद दर-ए-इन्सां पे रोज़ 
और फिर कहते भी हैं बंदा ख़ुदा होता नहीं 

तर्क-ए-उल्फ़त भी मुसीबत है अब इसका क्या इलाज 
वो जुदा होकर भी तो दिल से जुदा होता नहीं 

अपने जन्म और जन्मभूमि के बारे में एक जगह अर्श साहब ने यूँ लिखा है : "पंजाब के ज़िला जालंधर का एक छोटा सा क़स्बा,जिसे मेरे पिता अक्सर 'ख़राबाबाद' के नाम से याद करते हैं मेरा जन्म स्थान है। इस क़स्बे का नाम है मल्सियान। ज्ञान और विद्वता की दृष्टि से इस क़स्बे में मेरे माननीय पिता से पूर्व ऐसा कोई व्यक्ति नहीं हुआ जिसे थोड़ा बहुत भी विद्वान कहा जा सके. 20 सितम्बर 1908 ई. को इसी दूर-दराज़ और असाहित्यिक वातावरण में मेरा जन्म हुआ।" मज़े की बात ये है कि जन्म ही नहीं उनकी युवावस्था का अधिकतर भाग भी ऐसे ही असाहित्यिक वातावरण में गुज़रा।

जब उल्फ़त का दम भर बैठे जब चाल ही उलटी चल बैठे 
नादान हो फिर क्यों कहते हो इस चाल में बाज़ी मात नहीं 

कुछ रंज नहीं कुछ फ़िक्र नहीं दुनिया से अलग हो बैठे हैं 
दिल चैन से है, आराम से है, आलाम नहीं आफ़ात नहीं 
आलाम=दुःख , आफ़ात=मुसीबतें 

तुम लुत्फ़ को जौर बताते हो, तुम नाहक शोर मचाते हो 
तुम झूठी बात बनाते हो, ऐ 'अर्श' ये अच्छी बात नहीं 
 जौर=ज़ुल्म 

इस असाहित्यिक वातावरण में उनके घर का माहौल घोर साहित्यिक था क्यूंकि उनके पिता जनाब जोश मलसियानी ,उर्दू और फ़ारसी के बहुत बड़े विद्वान थे जिन्हें भारत सरकार ने उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिए अभिनन्दन ग्रन्थ भी भेंट किया था. सिवाय शायरी के अर्श साहब की बाकी सभी आदतें अपने पिता के ठीक विपरीत थीं। उनकी आदतों के बारे में मशहूर शायर जनाब 'जोश' मलीहाबादी ने एक बार कहीं लिखा था कि " अर्श न खाने की चीज़ें खाते हैं, न टटोलने की चीज़ें टटोलते हैं, न बरतने की चीज़ें बरतते और न झपट पड़ने की चीज़ों पर झपटते हैं। चारे और घास-फूंस से विटामिन हासिल करते हैं और बेज़रर चरिन्द ( अहानिकारक पशु -गाय बकरी आदि ) की ज़िन्दगी जीते हैं "

ऐ जोश-ए-तलब तू हो तो परवा नहीं मुझको 
सहरा मेरे आगे हो कि दरिया मेरे आगे 
जोश-ऐ-तलब =इच्छा का वेग 

मरकर भी गिरफ्तार-ए-सफ़र है मेरी हस्ती 
दुनिया मेरे पीछे है तो उक़्बा मेरे आगे 
उक़्बा =परलोक 

हंगामा-ए-आलम की हक़ीक़त है यही 'अर्श' 
होता है मेरे इश्क का चर्चा मेरे आगे 
हंगामा-ए-आलम =संसार चक्र 

कैसी अचरज की बात है कि जो खुद बहुत बड़ा शायर है-यानी कि उनके पिता-वो ये चाहे कि उसका बेटा-यानी कि 'अर्श' -शायरी से दूर रहे। पिता की नज़र में बेटे की पढाई-लिखाई बहुत जरूरी थी सो उन्होंने अर्श साहब को एफ.ऐ (अब की ग्यारवीं क्लास) करने के बाद सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिले के लिए हो रही प्रतियोगिता में बिठा दिया। बहुत बेमन से अर्श साहब ने परीक्षा दी और दुर्भाग्य वश पास हो गए। रोते-कलपते-झींकते-झुंझलाते किसी तरह इंजीनियरिंग की पढाई पूरी की और नहर विभाग में ओवरसियर की नौकरी करने लगे। मन से शायर इंसान को अगर गैर-शायराना नौकरी में बंधना पड़ जाए तो सोचिये कैसा लगेगा ? जी सही समझे, बुरा लगेगा इसीलिए उन्होंने साल में तीन बार त्यागपत्र दे दिया लेकिन हर बार किसी न किसी कारण से जहाज के पंछी तरह फिर फिर वहीँ लौट आते थे।

ये है इक वाक़ई तफ़सील मेरी आप-बीती की 
बयान-ए-दर्द-ए-दिल को इक कहानी कौन कहता है 

तुझे जिसका नशा हरदम लिए फिरता है जन्नत में 
बता है शैख़ ! उस क़ौसर को पानी कौन कहता है 
क़ौसर=जन्नत की नदी 

बला है, क़हर है, आफ़त है, फ़ित्ना है क़यामत का 
हसीनों की जवानी को जवानी कौन कहता है 

हज़ारों रंज इसमें 'अर्श', लाखों कुल्फ़तें इसमें 
मुहब्बत को ज़रूर-ऐ-ज़िंदगानी कौन कहता है 
कुल्फ़तें=कष्ट 

नहर विभाग की नौकरी किसी तरह छोड़ी तो "आसमान से गिरा खजूर में अटका" कहावत को सिद्ध करते हुए अर्श साहब ,लुधियाना के औद्योगिक स्कूल में ,एक बार फिर अपने मिज़ाज़ के ख़िलाफ़, शिक्षक की हैसियत से पढ़ाने लगे और लगातार 12 साल तक पढ़ाते रहे। कहावत है कि बारह साल बाद तो कूड़े की भी सुनवाई हो जाती है अर्श साहब तो शायर थे सो सुनवाई होनी ही थी -हुई और उन्हें तब पकिस्तान के भूतपूर्व गवर्नर जनरल जनाब गुलाम मुहम्मद साहब अपनी रहनुमाई में दिल्ली ले गए जहाँ वो पहले सरकारी सप्लाई विभाग में फिर सोंग ऐंड पब्लिसिटी फिर लेबर विभाग और उसके बाद मिनिस्ट्री ऑफ इन्फर्मेशन एंड ब्राडकास्टिंग में नौकरी भी करते रहे और शायरी भी। सन 1948 में उन्हें भारत सरकार के प्रकाशन विभाग से निकलने वाली उर्दू पत्रिका "आज-कल" का सहायक संपादक बना दिया ,1956 में उन्हें , जनाब 'जोश' मलीहाबादी साहब जो उस वक्त तक पत्रिका के संपादक थे, के पाकिस्तान चले जाने के बाद, संपादक बना दिया। आखिर उन्हें वो काम मिला जो उन्हें बेहद पसंद था याने पढ़ने लिखने का याने सौ फीसदी साहित्यिक।

बयां हो भी तो हों आखिर कहाँ जो दिल की बातें हैं 
न तन्हाई की बातें हैं न ये महफ़िल की बातें हैं 

वो महफ़िल से जुदा भी हो चुके महफ़िल को गर्माकर 
मगर महफ़िल में अब तक गर्मी-ऐ-महफ़िल की बातें हैं 

ज़बाँ से कुछ कहो साहब मगर मालूम है हमको 
तुम्हारे दिल की सब बातें हमारे दिल की बातें हैं 

तो साहब सन 1948 से लेकर 1968 तक याने बीस बरस के अर्से में जब तक वो "आज-कल" पत्रिका से रिटायर नहीं हो गए, उन्होंने खूब जी भर के लिखा और शोहरत पायी। उनकी कविताओं-शायरी के चार संग्रह कुंदा रंग, चांग ओ अहंग, शरार ए संग और अहंग ए हिजाज़ प्रकाशित हुए है और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद पर लिखी उनकी आत्मकथा की पुस्तक 1976 में प्रकाशित हुई जो बेहद मकबूल हुई । इसके अलावा ढेरों रेडियो नाटक और हास्य-व्यंग के लेखों का संकलन "पोस्ट मार्टम " भी प्रकाशित हो कर चर्चित हो चुका है। सन 1979 में वो इस दुनिया-ऐ-फ़ानी से रुखसत फ़रमा गए। अफ़सोस इस बात का है कि उनकी कोई पुस्तक हिंदी में उपलब्ध नहीं है -ऐसा मुझे लगता है और जरूरी नहीं कि वो सही भी हो।

अभी तो आरज़ू-ऐ-मुज़्तरिब का अहद-ऐ-तिफ्ली है
ख़ुदा जाने ये क्या-क्या हश्र ढायेगी जवाँ होकर 
आरज़ू-ऐ-मुज़्तरिब=व्याकुल कामना , अहद-ऐ-तिफ्ली =बाल्य काल 

ज़रा कम हो चली है गर्मियां शौक-ऐ-मुहब्बत की
ख़फ़ा हो जाओ फिर इक बार हमसे बदगुमां होकर 

मेरी अर्ज़-ऐ-तमन्ना में भी आखिर कुछ तो जादू है 
नहीं भी अब निकलती है तुम्हारे मुंह से हाँ होकर 

किताबों की दुनिया श्रृंखला में इस उस्ताद शायर को शामिल करने का मक़सद उस ज़माने की शायरी का लुत्फ़ उठाना है ,इस तरह की कहन, लफ़्ज़ों को बरतने का हुनर और रवानी अब बहुत कम नज़र आती है। आज के युवा पाठकों को गुज़रे दौर की इस शायरी को पढ़कर अच्छा लगेगा ऐसा मैं समझता हूँ हालाँकि मुझे अपनी समझ पर शक ही रहता है। ये, इस 168 पुरानी, श्रृंखला में शामिल पहली किताब है जिसकी प्राप्ति का रास्ता मुझे भी नहीं मालूम क्यूंकि राजपाल ऐंड संस् से पता करने पर मालूम पड़ा कि डेढ़ रूपये मूल्य की ये किताब जो 1961 में छपी थी अब आउट ऑफ प्रिंट हो चुकी है और इसके प्रिंट में जाने की अभी तो कोई सम्भावना भी नहीं है। अर्श साहब का कलाम पढ़ने के लिए आपको रेख़्ता या कविता कोष की साइट की शरण में जाना होगा। अगर किस्मत से ये किताब आपको मिल जाए तो इसमें आपको अर्श साहब की ढेरों ग़ज़लें नज़्में और रुबाइयाँ पढ़ने को मिलेंगी। चलते चलते उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर भी पढ़वाता देता हूँ आप भी क्या याद रखेंगे ? रखेंगे क्या याद ?

हमारा जिक्र भी इसमें है गैरों का चहकना भी 
तुम्हारी अंजुमन को अंजुमन कहना ही पड़ता है 

बुतान-ऐ-संगदिल में है नज़ाकत का भी इक पहलू 
उन्हें सीमीं-बदन, गुल-पैरहन , कहना ही पड़ता है 
बुतान-ऐ-संगदिल =पत्थर दिल सुंदरियों , सीमीं-बदन = चांदी जैसा बदन , गुल-पैरहन =फूलों के वस्त्र 

जबां समझे न समझे कोई अपनी 'अर्श' इस पर भी
वतन अपना है ये ,इसको वतन कहना ही पड़ता है

अरे अरे तनिक रुकिए न चले जाइएगा लेकिन जाते जाते उनकी एक खूबसूरत ग़ज़ल के ये दो शेर अपने साथ लेते जाइएगा ,क्या कहा हाथ खाली नहीं है ? कोई बात नहीं मेरी खातिर इसे दिल में बसा लीजियेगा। दरअसल मुझे लगा कि इन शेरों को आप तक पहुंचाए बिना ये पोस्ट कुछ अधूरी सी रह जाएगी और फिर ये भी लगा कि जरुरी नहीं कि ये बात सही ही हो , मुझे गलत भी लग सकता है -है ना ?

आह वो बात कि जिस बात पे दिल बैठा है 
याद करने पे भी आती नहीं अब याद मुझे 

न निशेमन है न है शाख़-ए- निशेमन बाक़ी 
लुत्फ़ जब है कि करे अब कोई बर्बाद मुझे 
निशेमन=घोंसला

Monday, March 5, 2018

किताबों की दुनिया -167

धूप का जंगल, नंगे पाँवों, इक बंजारा करता क्या 
रेत के दरिया, रेत के झरने, प्यास का मारा करता क्या 

सब उसके आँगन में अपनी राम कहानी कहते थे 
बोल नहीं सकता था कुछ भी घर चौबारा करता क्या 

टूट गये जब बंधन सारे और किनारे छूट गये 
बीच भँवर में मैंने उसका नाम पुकारा करता क्या 

ग़ज़ल क्या है ? इस सवाल का जवाब हमें हमारे आज के शायर जनाब "अंसार कम्बरी " साहब की किताब "कह देना", जिसका जिक्र हम करने जा रहे हैं , में कुछ इसतरह से मिलता है "ग़ज़ल जब फ़ारस की वादियों में वजूद में आयी तब का वक्त प्रगतिशील नहीं रहा होगा।उस समय के हालात को देखते हुए कहा जा सकता है कि घोड़ों की हिनहिनाहट और तलवारों की झनझनाहट के बीच अपने मेहबूब से बात करने के लिए जो तरीका अपनाया गया उसको ग़ज़ल नाम दिया गया। ग़ज़ल ने तपते रेगिस्तानों में महबूब से बात कर ठंडक का एहसास कराया , चिलचिलाती धूप में जुल्फ़ों की छाँव सी राहत दी ,साक़ी बनकर सूखे होंठों की प्यास बुझाई, मुहब्बत के नग्मों की खुशबू बिखेरी और दिलों को सुकून पहुँचाया।


ये रेत का सफ़र है तुम तय न कर सकोगे 
चलने का अगर तुमको अभ्यास नहीं होगा 

सहरा हो, समंदर हो, इंसान हो, पत्थर हो 
कोई भी इस जहाँ में बिन प्यास नहीं होगा 

आये जो ग़म का मौसम, मायूस हो न जाना 
पतझर अगर न होगा, मधुमास नहीं होगा 

हालात बदलने के साथ-साथ ग़ज़ल के रंग भी बदलते चले गए और ज़बान भी बदलती गयी। यहाँ तक कि जैसी जरुरत वैसी बात वैसी ज़बान। ग़ज़ल दरअसल कोई नाम नहीं बल्कि बातचीत का सलीका है। इसे ज़िंदा रखने के लिए ज़बानों की नहीं सलीके को बचाये रखने की जरुरत है। ग़ज़ल कहने वालों की आज कोई कमी नहीं है लेकिन सलीके से ग़ज़ल कहने वाले बहुत कम लोग हैं। उन्हीं मुठ्ठी भर लोगों में से एक हैं 3 नवम्बर 1950 को कानपुर में पैदा हुए, जनाब अंसार कम्बरी साहब.

सारे मकान शहर में हों कांच के अगर 
पहुंचे न हाथ फिर कोई पत्थर के आसपास 

मीठी नदी बुझा न सकी जब हमारी प्यास 
फिर जा के क्या करेंगे समंदर के आसपास 

दुनिया में जो शुरू हुई महलों की दास्ताँ 
आखिर वो ख़त्म हो गयी खण्डहर के आसपास 

श्री हरी लाल 'मिलन' साहब किताब की भूमिका में अंसार साहब की शायरी के बारे में लिखते हैं कि " नवीनतम प्रयोग, आधुनिक बिम्ब विधान, यथार्थ की स्पष्टवादिता, सरल-सरस-सहज-संगमी भाषा एवं प्रत्यक्ष-समय-बोध कम्बरी की ग़ज़लों की विशेषता है " किताब के अंदरूनी फ्लैप पर मनु भारद्वाज'मनु' साहब ने लिखा है कि "अंसार साहब की फ़िक्र का दायरा इतना बड़ा है कि कहीं किसी एक रंग या सोच तक उसे सीमित रखना मुश्किल है। इस ग़ज़ल संग्रह की ग़ज़लों को पढ़ने के बाद 'मिलन' और 'मनु' साहब के ये वक्तव्य अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं लगते।

कहीं पे जिस्म कहीं सर दिखाई देता है 
गली-गली यही मंज़र दिखाई देता है 

दिखा रहे हैं वो प्यासों को ऐसी तस्वीरें 
कि जिनमें सिर्फ समन्दर दिखाई देता है

गुनाहगार नहीं हो तो ये बताओ हमें
तुम्हारी आँख में क्यों डर दिखाई देता है 

अंसार साहब को शायरी विरासत में मिली। उनके पिता स्व.जब्बार हुसैन रिज़वी साहब अपने जमाने के मशहूर शायर थे. शायरी के फ़न को संवारा उनके उस्ताद स्व.कृष्णानंद चौबे साहब ने जिनसे उनकी पहली मुलाकात सं 1972 में उद्योग निदेशालय,जहाँ दोनों मुलाज़िम थे,के होली उत्सव पर आयोजित काव्य समारोह के दौरान हुई। मुलाकातें बढ़ती गयीं और उनमें एक अटूट रिश्ता कायम हो गया। अंसारी साहब ने अपने उस्ताद चौबे साहब की रहनुमाई में पहला काव्यपाठ डा. सूर्य प्रकाश शुक्ल द्वारा आयोजित कार्यक्रम में किया और फिर उसके बाद मुड़ कर नहीं देखा।

चाँद को देख के उसको भी खिलौना समझूँ 
और फिर माँ के लिए एक खिलौना हो जाऊं

मैं तो इक आईना हूँ सच ही कहूंगा लेकिन 
तेरे ऐबों के लिए काश मैं परदा हो जाऊं 

काँटा कांटे से निकलता है जिस तरह मैं भी 
जिसपे मरता हूँ उसी ज़हर से अच्छा हो जाऊं 

अम्बरी साहब का लबोलहजा क्यों की उर्दू का था इसलिए हिंदी के काव्य मंचो पर उन्हें अपना प्रभाव जमाने में हिंदी कवियों जैसी लोकप्रियता नहीं मिल रही थी। इसका जिक्र उन्होंने चौबे जी से किया जिन्होंने उन्हें कविता से सम्बंधित बहुमूल्य सुझाव देने शुरू किये। चौबे जी के सानिद्य में उन्होंने कविता की बारीकियां सीखीं और गीत तथा दोहे लिखने लगे जिसे बहुत पसंद किया गया। "अंतस का संगीत " शीर्षक से उनका काव्य संग्रह शिल्पायन प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित हो कर लोकप्रिय हो चुका है. कविता और दोहों में महारत हासिल करने के बाद कानपुर शहर के बाहर होने वाले कवि सम्मेलनों में भी आग्रह पूर्वक बुलाया जाने लगा।

कितना संदिग्ध है आपका आचरण 
रात इसकी शरण प्रातः उसकी शरण 

आप सोते हैं सत्ता की मदिरा पिए 
चाहते हैं कि होता रहे जागरण 

शब्द हमको मिले अर्थ वो ले गए 
न इधर व्याकरण न उधर व्याकरण 

आप सूरज को मुठ्ठी में दाबे हुए 
कर रहे हैं उजालों का पंजीकरण 

कानपुर के बाहर सबसे पहले उन्हें कन्नौज और उसके बाद देवबंद में हुए कविसम्मेलन के मंच पर जिसपर श्री गोपाल दास नीरज , कुंवर बैचैन और जनाब अनवर साबरी जैसे दिग्गज बिराजमान थे ,पढ़ने का मौका मिला। अपने लाजवाब सहज सरल कलाम और खूबसूरत तरन्नुम से उन्हें कामयाबी तो मिली ही साथ ही उनका हौसला भी बढ़ा। उसके बाद तो गुरुजनों शुभचिंतकों एवं मित्रों के सहयोग से वो सब मिला जिसकी अपेक्षा आमतौर पर प्रत्येक रचनाकार करता है। लखीमपुर खीरी के एक कविसम्मेलन में उनकी मुलाकात गोविन्द व्यास जी से हुई जिनके माध्यम से उन्हें अनेक प्रतिष्ठित और देश के बड़े मंचों पर काव्य पाठ का अवसर मिला जैसे "लाल किला ", "दिल्ली दूरदर्शन " सी. पी. सी आदि।

घर की देहलीज़ क़दमों से लिपटी रही 
और मंज़िल भी हमको बुलाती रही 

मौत थी जिस जगह पर वहीँ रह गयी 
ज़िन्दगी सिर्फ़ आती-औ-जाती रही 

हम तो सोते रहे ख़्वाब की गोद में
नींद रह-रह के हमको जगाती रही 

रात भर कम्बरी उनको गिनता रहा 
याद उसकी सितारे सजाती रही 

उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ द्वारा 1996 के सौहार्द पुरूस्कार एवं समय समय पर देश की अनेकानेक साहित्यिक व सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा पुरुस्कृत और सम्मानित कम्बरी साहब के श्रोताओं में पूर्व राष्ट्रपति माननीय ज्ञानी जैल सिंह ,पूर्व प्रधान मंत्री मा.वी.पी.सिंह ,मा.अटल बिहारी बाजपेयी, मा. शिवकुमार पाटिल, मा. मदन लाल खुराना, मा.सुश्री गिरिजा व्यास , मा. राजमाता सिंधिया इत्यादि जैसी न जाने कितनी महान विभूतियाँ शामिल हैं। उनके प्रशंसकों की संख्या में रोज बढ़ोतरी होती रहती है क्यूंकि उनकी रचनाएँ क्लिष्ट नहीं हैं और गंगा जमुनी संस्कृति की नुमाइंदगी करती हैं।

खुद को पहचानना हुआ मुश्किल 
सामने आ गए जो दर्पण के 

नाचने की कला नहीं आती 
दोष बतला रहे हैं आँगन के 

आप पत्थर के हो गए जब से 
थाल सजने लगे हैं पूजन के

"कह देना" कम्बरी साहब का पहला ग़ज़ल संग्रह है जिसमें उनकी 112 ग़ज़लें संगृहीत हैं। इस किताब को 'मांडवी प्रकाशन', 88, रोगनगरान,दिल्ली गेट, ग़ाज़ियाबाद ने सं 2015 में प्रकाशित किया था। 'कह देना' की प्राप्ति के लिए आप मांडवी प्रकाशन को mandavi.prkashan@gmail.com पर मेल कर के या 9810077830 पर फोन करके मंगवा सकते हैं। इन खूबसूरत ग़ज़लों के लिए अगर आप कम्बरी साहब को उनके मोबाईल न.09450938629 पर फोन करके या ansarqumbari@gmail.com पर मेल करके बधाई देंगे तो यकीनन उन्हें बहुत अच्छा लगेगा। आखिर में कम्बरी साहब की ग़ज़लों के कुछ चुनिंदा शेर आपको पढ़वा कर निकलता हूँ अगली किताब की तलाश में : 
आ गया फागुन मेरे कमरे के रौशनदान में 
चंद गौरय्यों के जोड़े घर बसाने आ गए 
 *** 
मौत के डर से नाहक परेशान हैं 
आप ज़िंदा कहाँ हैं जो मर जायेंगे 
*** 
कुछ भी नहीं मिलेगा अगर छोड़ दी ज़मीं 
ख़्वाबों का आसमान घड़ी दो घड़ी का है
*** 
रेत भी प्यासी, खेत भी प्यासे, होंठ भी प्यासे देखे जब 
दरिया प्यासों तक जा पहुंचा और समन्दर भूल गया 
*** 
मस्जिद में पुजारी हो तो मंदिर में नमाज़ी 
हो किस तरह ये फेर-बदल सोच रहा हूँ 
*** 
क़ातिल है कौन इसका मुझे कुछ पता नहीं 
 मैं फंस गया हूँ लाश से खंजर निकाल कर
 *** 
दीन ही दीन हो और दुनिया न हो 
कोई मतलब नहीं ऐसे संन्यास का