Monday, November 27, 2017

किताबों की दुनिया -153

वो कहते हैं रंजिश की बातें भुला दें 
मुहब्बत करें, खुश रहें, मुस्कुरा दें 

जवानी हो गर जाविदानी तो या रब
तिरि सादा दुनिया को जन्नत बना दें 
जाविदानी =अनश्वर 

शबे-वस्ल की बेखुदी छा रही है 
कहो तो सितारों की शमएँ बुझा दें 
शबे-वस्ल=मिलन की रात 

तुम अफ़सान-ए-क़ैस क्या पूछते हो
इधर आओ, हम तुमको लैला बना दें 
अफ़सान-ए-क़ैस =मजनू की कहानी 

आप ऐसा करें अब इस ग़ज़ल को मलिका पुखराज जी की आवाज़ में यू ट्यूब या नेट पर सर्च करके सुनें। अमां माना ज़िन्दगी में बहुत मसरूफियत है लेकिन क्या आप अपने लिए 3 मिनट भी नहीं निकाल सकते ?

सच !!अगर जवानी जाविदानी याने हमेशा रहने वाली होती तो हमारे आज के शायर यकीनन इस सादा दुनिया को जन्नत बना देते, लेकिन जवानी ही क्या, ये ज़िन्दगी ही नश्वर है। उस उम्र में जब इंसान जीने का सलीका थोड़ा बहुत सीखने लगता है ,हमारे आज के शायर दुनिया से कूच फरमा गए। पीछे रह गयीं उनकी कुछ उदास कुछ रोमांस से भरी ग़ज़लें और नज़्में ,चंद हसीनो के ख़ुतूत (चिठ्ठियां ) और टूटे पैमाने। पता नहीं क्यों ऊपर वाला किसी किसी की ज़िन्दगी के साथ खिलवाड़ करता है ,जानबूझ कर उसकी झोली अधूरी हसरतें, घुटन,तड़पन,भटकन,बैचनी और ढेर सी प्यास से भर देता है। जिसके जीते जी उसका बेटा ,दामाद और जिगरी दोस्त एक के बाद एक इस दुनिया से रुखसत हुआ हो उसकी मानसिक स्तिथि का अंदाज़ा आप लगा ही सकते हैं।

यारों से गिला है न अज़ीज़ों से शिकायत 
तक़दीर में है हसरतों-हिरमां कोई दिन और 
हसरतों-हिरमां =अधूरी इच्छाएं और दुःख 

मर जायेंगे जब हम तो बहुत याद करेगी 
जी भर के सता ले शबे-हिजरां कोई दिन और 
शबे-हिजरां=वियोग की रात 

आज़ाद हूँ आलम से तो आज़ाद हूँ ग़म से 
दुनिया है हमारे लिए ज़िन्दाँ कोई दिन और 
ज़िन्दाँ=कैदखाना

4 मई 1905 को राजस्थान के टोंक जिले में पैदा हुए हमारे आज के शायर का नाम मोहम्मद दाऊद खां था जब वो शायरी करने लगे तो अपना नाम "अख्तर शीरानी' रख लिया। आज हम जनाब नरेश नदीम द्वारा संकलित उन्हीं की ग़ज़लों और नज़्मों से सजी किताब जिसे "प्रतिनिधि शायरी:अख्तर शीरानी " राधाकृष्ण प्रकाशन ने सन 2010 में प्रकाशित किया था ,की बात करेंगे।11 सितम्बर 1951 में जन्में नरेश साहब स्वयं उर्दू के नामी शायर और लेखक हैं साथ ही अंग्रेजी में पत्रकारिता भी करते हैं। नरेश साहब ने उर्दू पंजाबी और अंग्रेजी से लगभग 150 किताबों का हिंदी में अनुवाद किया है ,उन्हें हिंदी अकेडमी दिल्ली का साहित्यकार सम्मान और उर्दू अकेडमी दिल्ली द्वारा भाषायी एकता पुरूस्कार से सम्मानित किया गया है।


 उनको बुलाएँ और वो न आएँ तो क्या करें
बेकार जाएँ अपनी दुआएँ तो क्या करें

माना की सबके सामने मिलने से है हिजाब
लेकिन वो ख़्वाब में भी न आएँ तो क्या करें 
हिजाब=पर्दा

हम लाख कसमें खाएँ न मिलने की ,सब ग़लत 
वो दूर ही से दिल को लुभाएँ तो क्या करें 

नासिह हमारी तौबा में कुछ शक नहीं मगर 
शाना हिलाएँ आके घटाएँ तो क्या करें 
नासिह =नसीहत करने वाला, शाना =कंधा 

 रोमांस से भरी ऐसे ग़ज़लों के शायर की ज़िन्दगी में रोमांस कभी आया ही नहीं। उनके पिता हाफ़िज़ मेहमूद शीरानी लंदन में पढ़े थे और फ़ारसी साहित्य के साथ साथ इतिहास के बड़े विद्वान थे। वो चाहते थे कि उनका बेटा पढ़ लिख कर किसी बड़े सरकारी ओहदे पर काम करे लेकिन जनाब मोहम्मद दाऊद खां को जवानी की देहलीज़ पर पाँव रखते ही शायरी ने अपनी गिरफ्त में ले लिया। अख़्तर कोई 15 बरस के रहे होंगे तभी घर के हालात कुछ ऐसे बने कि उन सब को टोंक छोड़ कर दर दर भटकना पड़ा। टोंक छोड़ने का दुःख वो कभी भुला नहीं पाए। अपने इस दर्द को उन्होंने अपनी एक नज़्म से ज़ाहिर किया है जिसे बाद में 'आबीदा परवीन " ने अपनी दर्द भरी दिलकश आवाज़ में गाया है:

ओ देस से आने वाले बता 
किस हाल में है याराने वतन ? 

क्या अब भी वहां के बागों में 
मस्ताना हवाएँ आती हैं ? 
क्या अब भी वहां के परबत पर 
घनघोर घटाएँ छाती हैं 
क्या अब भी वहां की बरखाएँ
वैसे ही दिलों को भाती हैं ? 
ओ देस से आने वाले बता !!

अख़्तर साहब के पिता चूँकि लन्दन में पढ़े लिखे थे इसलिए उन्हें लाहौर कालेज में प्रोफ़ेसर की नौकरी मिल गयी। अख़्तर साहब की पढाई लिखाई में कोई रूचि नहीं थी लिहाज़ा उनकी अपने पिता से हमेशा तकरार चलती रहती थी। वो अपने पिता के रूबरू होने से कतराते थे। 19 वर्ष के होते होते अख़्तर शीरानी ने पंजाब और विशेष रूप से लाहौर में अपने कलाम से धूम मचा दी। वो बड़े बड़े नामवर शायरों की सोहबत में उठने बैठने लगे। बहुत सी पत्र पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ छपने लगी। प्रशंकों की तादाद में लगातार इज़ाफ़ा होता चला गया। उनके प्रशंकों में सलमा नाम की एक महिला भी थी जिसके इश्क में वो दीवानावार गिरफ्तार हो गए। उनकी रचनाओं में सलमा का जिक्र अक्सर आने लगा। हकीकत में ये सलमा कौन थी कैसी थी इसकी किसी को खबर हो पायी। सलमा आज तक एक रहस्य ही है।

उन्हें जी से मैं कैसे भुलाऊँ सखी, मिरे जी को जो आके लुभा ही गए 
मिरे मन में दर्द बसा ही गए, मुझे प्रीत का रोग लगा ही गए 

कभी सपनों की छाँव में सोई न थी कभी भूल के दुःख से मैं रोई न थी
मुझे प्रेम के सपने दिखा ही गए , मुझे प्रीत के दुःख से रुला ही गए

मिरे जी में थी बात छिपाये रखूं सखी चाह को मन में दबाए रखूं 
उन्हें देख के आंसू जो आ ही गए मिरी चाह का भेद वो पा ही गए 

अब ये सलमा थी रेहाना थी अजरा थी जिनका जिक्र उनकी नज़्मों ग़ज़लों में आता है जो उन्हें हासिल नहीं हुईं या वतन से दूर चले जाने का दर्द था या पारिवारिक परेशानियां थी या अकेलापन था कुछ था जिसने उन्हें शराब खोरी की और धकेल दिया। दिन की शुरुआत से रात सोने तक वो शराब के नशे में गर्क रहते। शादी भी हुई लेकिन सलमा का भूत सर से न उतरा। उनकी शराबखोरी से तंग आकर पिता ने घर से निकाल दिया तब वो टोंक से लाहौर चले आये। घर छूटा लेकिन बोतल हाथ में रही और तसव्वुर में रही सलमा।

शर्म रोने भी न दे बेकली सोने भी न दे 
इस तरह तो मिरी रातों को न बर्बाद करो

याद आते हो बहुत दिल से भुलाने वालो 
तुम हमें याद करो ,तुम हमें क्यों याद करो 

हम कभी आएँ तिरे घर मगर आएँगे जरूर
तुमने ये वादा किया था कि नहीं , याद करो 

शायरी के अलावा उस ज़माने में कुछ समय तक जनाब अख्तर शीरानी ने उर्दू के मशहूर मासिक रिसाले "हुमायूँ" के संपादन का काम किया। फिर सन 1925 में एक और रिसाले 'इंतिखाब' का भी संपादन किया। संपादन का ये सिलसिला "'ख़यालिस्तान" "रोमान" से होता हुआ "शाहकार" पर जा कर खत्म हुआ। बहुत से नए शायरों को उन्होंने अपने रिसालों में छाप कर मक़बूल किया,उसमें अहमद नदीम कासमी साहब का भी नाम है.उनका मन लेकिन इस काम में रमा नहीं। वो और शराब पीने लगे ,मयनोशी का ये दौर सन 1943 तक जबरदस्त तरीके से चलता रहा। 1943 में उनके पिता उन्हें लाहौर से किसी तरह मना कर वापस टौंक ले आये। कहते हैं कि 1943 से 1947 तक वो टौंक में गुमनामी की ज़िन्दगी बसर करते रहे।

उम्र भर कम्बख्त को फिर नींद आ सकती नहीं 
जिसकी आँखों पर तिरी जुल्फें परीशाँ हो गयीं 

दिल के पर्दों में थीं जो-जो हसरतें पर्दानशीं 
आज वो आँखों में आंसू बनके उरियाँ हो गयीं 
उरियाँ=प्रकट 

बस करो, ओ मेरी रोनेवाली आँखों बस करो 
अब तो अपने जुल्म पर वो भी पशेमाँ हो गयीं 

भले ही मंटो उन्हें कॉलेज के लड़कों का शायर माने जो हलकी फुलकी रोमंटिक शायरी करता है लेकिन कालेज के लड़कों वाली शायरी तो साहिर और मजाज ने भी की है लेकिन शीरानी की शायरी में एक तरह का पलायनवाद नज़र आता है। अगर इस पलायनववद को हम नकार दें तो अख्तर शीरानी की शायरी हमें मोह लेती है और दाद देने पर मजबूर करती है। उर्दू के मशहूर लेखक नय्यर वास्ती जो शीरानी साहब के दोस्त भी थे उन्हें उर्दू का सबसे बड़ा शायर मानते हैं। वर्ड्सवर्थ की 'लूसी' और कीट्स की 'फैनी' की तरह उन्होंने 'सलमा' को अमर कर दिया।

जो तमन्ना बर न आये उम्र भर 
उम्र भर उसकी तमन्ना कीजिये 
बर न आये =पूरी न हो 

इश्क की रंगीनियों में डूब कर 
चांदनी रातों में रोया कीजिये 

पूछ बैठे हैं हमारा हाल वो 
बेखुदी, तू ही बता क्या कीजिये 

हम ही उसके इश्क के काबिल न थे 
क्यों किसी ज़ालिम से शिकवा कीजिये 

सन 1947 में जब शीरानी फिर से लाहौर पहुंचे तो उनकी हालत बहुत ख़राब थी। उनका परिवार बिखर और टूट चुका था, टौंक में भी सब उजड़ गया था। उर्दू के इस महान रोमांसवादी शायर ने 9 सितम्बर 1948 को लाहौर के एक सरकारी अस्पताल में पैसों के अभाव में बिना इलाज़ करवाए बहुत दर्दनाक अवस्था में दम तोड़ दिया। तब वो मात्र 43 वर्ष के थे। आज उनकी कहानियों और ग़ज़लों से कई प्रकाशनों ने काफ़ी धन राशि कमाई लेकिन जीते जी अख्तर बदहाली में ही ज़िन्दगी बसर करते रहे। उन्हें अपने वतन में दो गज़ ज़मीन भी नसीब नहीं हुई। सन 2005 में पाकिस्तान की सरकार ने "पोएट्स ऑफ पाकिस्तान" श्रृंखला के अंतर्गत उनपर "पोस्टेज स्टैम्प" निकाल कर फ़र्ज़ अदायगी जैसा कुछ औपचारिक काम कर दिया।

शबे-बहार में जुल्फों से खेलने वाले 
तिरे बग़ैर मुझे आरज़ू-ए-ख़्वाब नहीं 

चमन में बुलबुलें और अंजुमन में परवाने 
जहाँ में कौन ग़मे-इश्क़ से ख़राब नहीं 
ख़राब =बरबाद 

वही हैं वो, वही हम हैं , वही तमन्ना है 
इलाही,क्यों तिरी दुनिया में इन्कलाब नहीं 

नागरी लिपि में अख़्तर साहब का कलाम आसानी से पढ़ने को नहीं मिलता , इस किताब में जिसमें उनकी लगभग 42 ग़ज़लें और 80 नज़्में शामिल हैं जिनको पढ़ना एक अद्भुत अनुभव से गुजरने जैसा है। इस किताब को आप राधाकृष्ण प्रकाशन से ऑन लाइन मंगवा सकते हैं। ये हर दृष्टिकोण से एक दुर्लभ किताब है जिसमें ऐसी शायरी है जो अब कहीं पढ़ने को नहीं मिलती। अख़्तर साहब अपनी रचनाओं के प्रति हमेशा उदासीन रहे और इसी वजह से उनकी कोई किताब जीते जी मंज़र-ए-आम पर नहीं आयी। उनकी रचनाओं का संकलन उनकी मृत्यु के बाद ही हुआ।
लीजिये गुनगुनाइए उनकी एक छोटी बहर की ग़ज़ल के ये शेर , हम चले आपके लिए तलाशने एक और किताब :

ये सब्ज़ा ये बादल ये रुत ये जवानी
किधर है मिरा साग़रे-खुसरवानी 
साग़रे-खुसरवानी=बादशाही प्याला 

ये हसरत रही वो कभी आके सुनते 
हमारी कहानी हमारी ज़बानी 

मिरा इश्क़ बदनाम है क्यों जहां में ? 
है मशहूर 'अख़्तर' :जवानी दीवानी

Monday, November 20, 2017

किताबों की दुनिया -152

अक्सर देखा गया है कि शायर सामाजिक जिम्मेवारियों को दरकिनार कर इश्क-मुश्क की रंगीन मिज़ाजी शायरी करते हुए मदमस्तियों और मौजों में अपनी ज़िन्दगी तमाम कर देते हैं और खो जाते हैं। ऐसा नहीं है कि इश्क-मुश्क या रंगीन मिज़ाजियाँ ज़िन्दगी की जरूरतें नहीं, हैं, लेकिन इनके इतर भी बहुत कुछ है जिस पर भी साथ साथ लिखा जाना चाहिए , जो लिखते हैं वो ही मुकम्मल शायर कहलाते हैं और बरसों बरस अपनी रचनाओं के माध्यम से याद रहते हैं। किसी भी शायर या रचनाकार को अपनी सामाजिक जिम्मेवारिओं को दर-किनार नहीं करना चाहिए बल्कि पूरी तरह निभाना चाहिए।

तबाही और होती है - तमाशा और होता है 
नगर कब से जलाया जा रहा है फिर खड़े क्यों हो 

मुसीबत कब तलक झेलोगे तुम दुःख झेलने वालों 
बग़ावत का तो वक़्त अब आ गया है फिर खड़े क्यों हो 

जो तूफ़ां से बचा कर तुम को लाया अपनी कश्ती में 
तुम्हारे सामने वो डूबता है फिर खड़े क्यों हो 

हमारे आज के शायर हसीं ख्वाबों को देखने वाले रचनाकार नहीं बल्कि एक खूबसूरत मानवीय ज़िन्दगी की रचना का ताना-बाना बुनने वाले संवेदनशील शायर हैं जो अपनी बात निहायत सादगी और सीधेपन से करते हैं। आज की पीढ़ी के लिए उनका नाम शायद अब जाना पहचाना न हो लेकिन एक समय था जब उनको हरियाणा,पंजाब और दिल्ली के मुशायरों, गोष्ठियों और नशिस्तों में बहुत आदर के साथ बुलाया जाता था।

इक तस्वीर के हट जाने से कैसा रूप बदल जाता है 
कितना बे-रौनक लगता है इतनी रौनक वाला कमरा 

जाने किस दिन आकर कोई एक महक सी छोड़ गया था
हर मौसम में रहता है अब कितना महका-महका कमरा 

रख जाता है तस्वीरों को जाने किस अंदाज़ से कोई 
कैसे रंगों से भर जाता है, खाली-खाली सा कमरा 

हरियाणा के रोहतक जिले के लाखनमाजरा गांव में अप्रैल 1933 को जन्में हमारे आज के तरक्की पसंद शायर हैं जनाब "बलबीर सिंह राठी" जिनकी रचनाओं को किताब की शक्ल में चयनित किया है डा. ओमप्रकाश करुणेश जी ने "बलबीर राठी की चुनिंदा ग़ज़लेँ व नज़्में " शीर्षक से। ये किताब 'आधार प्रकाशन -पंचकूला (हरियाणा) से सं 2010 में प्रकाशित हुई थी। इस किताब में राठी जी की 110 ग़ज़लें, 10 कतआत और 31 नज़्में शामिल है। इस किताब के माध्यम से हम बलबीर जी के रचना संसार को अच्छी तरह से समझ सकते हैं :


झूट से मरऊब होकर हम बहक जाते हैं वरना 
सच अभी कायम है यारों लोग सच्चे भी बहुत हैं 
मरऊब =रौब में आना 

क्यों बुरा होने की तोहमत धर रहे हो हर किसी पर 
हमने देखा है यहाँ तो लोग अच्छे भी बहुत हैं 

यूँ अगर देखें तो दुनिया खूबसूरत भी बहुत है 
बदनुमा इस को मगर हम लोग करते भी बहुत हैं 

राठी साहब बातचीत के लहज़े में पूरी सादगी से अपने पाठकों से संवाद करते हैं। वे जटिल संकेतों , उलझे हुए बिम्बों-दृश्यों, रूपकों,प्रतीकों से अपनी बात कहने में परहेज बरतते हैं. गहरी-से-गहरी बातें सादे और साफ़ ढंग से करना उनकी रचनाओं की फितरत है। उनकी ग़ज़लें जिस सरलता से अपना मुकाम हासिल करती है वो कबीले तारीफ़ है। वो दिल की जुबान में बोलते हैं आँखों की खिड़कियों को खुला रखते हैं और हर तरफ चौकस निगाहें डालते हैं। उनकी जद्द से कोई भी नहीं बचता ,यहाँ तक कि वे खुद को भी लपेट लेते हैं।

जुगनुओं ने आज माँगा है उजालों का हिसाब 
ये बताओ , उनको सूरज का पता किस ने दिया 

रंजो-ग़म तो ख़ूब हमको उस ख़ुदा ने दे दिए 
इतना पत्थर दिल मगर हम को खुदा किसने दिया 

कारवां को रोक लेता है वो हर इक मोड़ पर 
हम को घबराया हुआ ये रहनुमा किसने दिया 

बलबीर जी सं 1950 से साहित्य सृजन में जुट गए , मूल रूप से उर्दू में लेखन 'प्रताप' और 'मिलाप' जैसी उच्च स्तरीय पत्रिकाओं से प्रारम्भ किया। ग़ज़ल लेखन से ख्याति अर्जित की। उनके अजीज दोस्त,डा हरिवंश अनेजा उर्फ़ 'जमाल कायमी ' जो सं 2008 से "दरवेश भारती" के नाम से लिखते हैं और 'ग़ज़ल के बहाने " पत्रिका निकालते हैं,ने उनपर हुई बातचीत में बताया कि "राठी बहुत संकोची और सरल स्वभाव के व्यक्ति हैं , मैंने ही उनकी रचनाओं को सब से पहले रोहतक शहर की साप्ताहिक और मासिक पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ भेजा। मैं उन्हें अपनी साईकिल पर बिठा कर शहर में जहाँ कहीं कोई नशिस्त होती वहां ले जाता। उस वक्त राठी जी जाट कालेज रोहतक में पढ़ाते थे।उनकी झिझक मिटाने के लिए मैंने पत्रकारों को एक कवि सम्मलेन के लिए मनाया और राठी साहब को शायरे-ख़सूसी की हैसियत से बुलाया। रोहतक में उनकी प्रसिद्धि के लिए मैंने अपने और उनके चुनिंदा कलाम को 'ज़ज़्बात' नाम से एक किताब की शक्ल में छपवाया। इस किताब के मंज़र-ऐ-आम पर आने के बाद राठी जी का नाम बतौर शायर लिया जाने लगा।"
आज के इस दौर में जहाँ लोग एक दूसरे की टांग खींचने में लगे हैं और पूरा प्रयास करते हैं कि कोई दूसरा शायर उनसे आगे न जा पाए 'दरवेश भारती जी द्वारा अपने साथी शायर को प्रसिद्धि दिलाने को किये गए ये प्रयास किसी अजूबे से कम नहीं। ऐसे सच्चे और खरे लोग अब ढूंढें नहीं मिलते।

यही खुशफ़हमियाँ मुझ को यहाँ तक खींच लाईं
तुम्हारे शहर में अब तक वही मन्ज़र मिलेँगे

न मंज़िल की खबर जिनको न राहों का पता है 
जिधर भी जाओगे तुमको वही रहबर मिलेंगे 

चले आना किसी दिन उसको अपना घर समझ कर 
तुम्हारे सब पुराने ख्वाब मेरे घर मिलेंगे 

दिल्ली के ज़दीद शायरी के लिए मशहूर शायर जनाब 'राजेंद्र मनचंदा " बानी" ने इस किताब में राठी जी के लिए लिखा है कि "राठी के पूरे कलाम से सच्ची शायरी की खुशबू आती है। मैं उनके शे 'अरों की तशतर आमेज़ सादगी से घायल हुआ हूँ। सच कह रहा हूँ कि ऐसा लहजा काश मुझे नसीब होता " .'बानी' साहब जिनके प्रशंकों में डा. गोपी चंद नारंग साहब का नाम भी शामिल है , दिल्ली में एक मासिक पत्रिका 'तलाश" निकालते थे जिसमें  ग़ज़ल का छपना किसी भी शायर के लिए फ़क्र की बात हुआ करती थी. दरवेश भारती जी के प्रयास से 'बानी" साहब ने अपनी पत्रिका में राठी जी ग़ज़लों को विशेष जगह दी। धीरे धीरे डा. दरवेश भारती , मनचंदा बानी , मख्मूर सईदी, अमीक हनफ़ी और सलाम मछली शहरी जैसे शायरों के साथ राठी जी को गोष्ठियों में बुलाया जाने लगा। दरवेश भारती जी के कारण ही उनके रिश्ते नरेश कुमार 'शाद' साहब के साथ मजबूत हुए। अपनी जनवादी सोच के कारण राठी साहब ने अपनी अलग पहचान बनाई।

छेड़ न किस्से अब वुसअत के दीवारों की बातें कर 
बस्ती में सब सौदागर हैं, बाज़ारों की बातें कर 
वुसअत=फैलाव 

दिल वालों के किस्से आखिर तेरे किस काम आएंगे
ख़ुदग़रज़ों की , अय्यारों की, मक्कारों की बातें कर 

लोग जो पत्थर फेंक रहे हैं इस पे खफ़ा क्यों होता है 
किस ने कहा था वीरानों में गुलज़ारों की बातें कर 

राठी साहब किस्मत वाले हैं तभी उन्हें डा.दरवेश भारती जैसे दोस्त , महावीर सिंह 'दुखी', डा.सुभाष चंद्र -रीडर, हिंदी विभाग कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय और डा.ओमप्रकाश करुणेश जैसे प्रशंसक मिले जिन्होंने न केवल उनकी उर्दू रचनाओं का हिंदी में अनुवाद किया बल्कि उसे जन-जन तक पहुँचाने में अहम् भूमिका भी निभाई। मशहूर शायर स्व. जनाब नरेश कुमार 'शाद' साहब ने राठी साहब के कलाम के बारे में कहा है कि " बलबीर राठी के लबो-लहजे में बड़ा ख़ुशगवार और सेहतमंद रसीलापन है और इस रसीले पन के परदे से जब इनके समाजी शऊर का नूर छान-छनकर आता है तो इसकी ज़ात में छिपी हुई शे'अरी सलाहतों का ऐतराफ़ करते ही बनती है।"

मेरे पीछे सूनी राहें और मेरे आगे चौराहा 
मैं ही मंज़िल का दीवाना मुझको ही रोके चौराहा 

हर कोई अपनी मंज़िल के ख्वाब सजा कर तो चलता है 
क्या कर ले जब वक्त किसी के रस्ते में रख दे चौराहा 

जिन दीवानो के क़दमों में मंज़िल अपनी राह बिछा दे 
'राठी' ऐसे दीवानों को खुद रास्ता दे दे चौराहा 

राठी साहब के पहले ग़ज़ल संग्रह " क़तरा-क़तरा" को भाषा विभाग हरियाणा सरकार द्वारा प्रथम पुरूस्कार दिया गया था जबकि उनके दूसरे ग़ज़ल संग्रह "लहर-लहर" को सन 1992-93 में उर्दू अकादमी हरियाणा सरकार ने पुरुस्कृत किया। उन्हें हरियाणा और दूसरे प्रदेशों में वहां की विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं ने सम्मानित किया है। राठी जी का असली सम्मान तो उनके लाखों मेहनतकश पाठकों श्रोताओं ने किया है जिन्होंने उनकी ग़ज़लों नज़्मों के माध्यम से एक मुकम्मल ज़िन्दगी को जीने का हुनर सीखा है और सीखा है कि किसतरह निराशा के काले घटाघोप अँधेरे से आशा के उजाले की और बढ़ना चाहिए किसतरह अपने हक़ के लिए लड़ना चाहिए और किसतरह अपनी मंज़िल का रस्ता खुद तलाशना चाहिए .
किताब की प्राप्ति के लिए जैसा ऊपर बताया है आप आधार प्रकाशन को उनके पते "आधार प्रकाशन प्राइवेट लिमिट , एस.सी.एफ. 267,सेक्टर -16 पंचकुला -134113 (हरियाणा) को लिखें या वहां से ऑन लाइन मंगवाए या उन्हें aadhar_prakashan@yahoo.com पर इ-मेल करें।
"राठी जी " को उम्र के इस दौर में सुनाई नहीं देता इसलिए उनका मोबाईल नम्बर यहाँ नहीं दे रहा अलबत्ता अगर उनके बारे में कुछ कहना सुनना चाहें तो उनके अज़ीज़ दोस्त "दरवेश भारती " जी से उनके मोबाईल नंबर 9268798930 पर संपर्क कर सकते हैं.
अगली किताब की खोज से पहले प्रस्तुत हैं उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर :

गुज़र तो हो ही जाती है संभल कर चलने वालों की 
मगर फिर ज़िन्दगी में ज़िन्दगी बाकी नहीं रहती 

तुम्हें अच्छी नहीं लगतीं मेरी बेबाकियाँ लेकिन 
तक़ल्लुफ़ में भी अक्सर दोस्ती बाकी नहीं रहती 

कई लम्हात ऐसे भी तो आते हैं मोहब्बत में 
कि दिल में दर्द , आँखों में नमी बाकी नहीं रहती

Monday, November 13, 2017

किताबों की दुनिया -151

जो लोग बनारस में रहते हैं वो बनारस का गुणगान क्यों करते हैं ,ये बात अभी हाल ही में संपन्न बनारस यात्रा के बाद ही पता लगी। हालाँकि बनारस में हमारा सामना भीड़, धूल ,गर्मी, उमस ,पसीना ,गन्दगी और प्रदूषण जैसी अनेकों विपदाओं से रोज ही हुआ और उस पर ऊबड़खाबड़ टूटी फूटी जगह जगह खुदी सड़कों पर उछलते कूदते ऑटो ने शरीर में मौजूद सभी अंगों को झुनझुने सा बजा कर कोढ़ में खाज का काम किया लेकिन पता नहीं क्यों मन कर रहा है कि एक बार फिर से वहाँ जाया जाए , वहां क्यों जाया जाय इसका कोई संतोष जनक जवाब नहीं है मेरे पास बस जाया जाए ये मन कर रहा है। कुछ तो है जो आपको अपने मोहपाश में बांध लेता है , कुछ तो है जो हमारे आज के शायर से ये लिखवाता है :

मैं बनारस का निवासी काशी नगरी का फ़क़ीर
हिन्द का शायर हूँ ,शिव की राजधानी का सफ़ीर 

लेके अपनी गोद में गंगा ने पाला है मुझे 
नाम है मेरा नज़ीर और मेरी नगरी बेनज़ीर 

शायरी से मोहब्बत करने वाले मेरे जैसे जिनके बाल सफ़ेद चुके हैं या हो रहे हैं शायद इस मुक्तक से शायर के नाम तक पहुँच जाएँ लेकिन युवा पाठकों के लिए उनका नाम पता करना आसान नहीं होगा क्यूंकि वो फेसबुक या ट्वीटर पर सक्रिय होने की सम्भावना से परे जा चुके हैं। उनकी शायरी को जन-जन तक फैलाने वाला कोई ग्रुप भी किसी सोशल मिडिया पर उपस्थित नहीं है वरना गंगा पर उनकी एक लम्बी रचना की ये पंक्तियाँ आपको याद रहतीं :

मिला है गंगा का जल जो निर्मल ,उतरके उषा नहा रही है 
हवा है या रागिनी है कोई ,टहलके वीणा बजा रही है 
अँधेरे करते हैं साफ़ रस्ता ,सवारी सूरज की आ रही है
किरण-किरण अब कलश-कलश को सुनहरी माला पिन्हा रही है 

हुई है कितनी हसीन घटना नज़र की दुनिया संवर रही है 
किरण चढ़ी थी जो बन के माला वो धूप बन कर उतर रही है 

सबसे दुखद बात ये है कि जिस शायर ने बनारस में बहने वाली गंगा की ख़ूबसूरती का इस तरह बखान किया है उसी शायर को अपने ही जीवन काल में इसी गंगा के प्रदूषण पर ऐसी बात भी लिखनी पड़ी जिसे लिखते वक्त उसके दिल पर न जाने क्या गुज़री होगी.

डरता हूँ रुक न जाए कविता की बहती धारा 
मैली है जबसे गंगा , मैला है मन हमारा 

कब्ज़ा है आज इसपर भैंसों की गन्दगी का 
स्नान करने वालो जिस पर है हक़ तुम्हारा 

किस आईने में देखें मुंह अपना चाँद-तारे 
गंगा का सारा जल हो जब गन्दगी का मारा 

बूढ़े हैं हम तो जल्दी लग जायेंगे किनारे 
सोचो तुम्हीं जवानो क्या फ़र्ज़ है तुम्हारा 

हमारे शायर ने गंगा की स्वच्छता की बात आज के सरकारी "स्वच्छता अभियान" के शुरू होने के 25-30 साल पहले ही छेड़ दी थी ,अगर उनकी बात पर तब ध्यान दिया जाता तो आज गंगा का जल निर्मल होता। शायर वही होता है जो अवाम को चेताये झकझोरे सोते से उठाये और ये काम हमारे आज के शायर ने भरपूर किया। प्रदूषण ,फ़िरक़ापरस्ती ,आतंकवाद के साथ साथ उन्होंने समाज की हर बुराई पर कलम चलाई।

बाज़ार के हर शीशे को दर्पण नहीं कहते 
बिन प्यार के दीदार को दर्शन नहीं कहते 
उपवन से परे पुष्प को उपवन नहीं कहते 
गुलशन से अलग फूल को गुलशन नहीं कहते 

राहत भी उठाएंगे मुसीबत भी सहेंगे 
सब अहद करें आज कि हम एक रहेंगे 

हमारे आज के शायर का कविता शायरी की दुनिया में उर्दूमुखी हिंदी और हिंदीमुखी उर्दू के अकेले कवि के रूप में सबसे अधिक जाना हुआ और ग़ज़ल, रुबाई और कविताओं के क्षेत्र में भाषा और रचना की बारीकियों के लिए चर्चित ,नाम है और एक ऐसा नाम जो साहित्यिक दुनिया में भारत का प्रतिनिधित्व कर सकता है। अब चूँकि आज के शायर का मिज़ाज़ ग़ज़ल का है इसलिए उनकी ग़ज़लों के अलग अलग रंगों से आपको रूबरू करवाने का इरादा है ,लिहाज़ा पोस्ट अगर लम्बी हो जाय तो मुझे माफ़ कर दीजियेगा और इसे तभी पढियेगा जब आपके पास फुरसत हो।

मैं हूँ और घर की उदासी है ,सुकूते शाम है 
ज़िन्दगी ये है तो आखिर मौत किसका नाम है 
सुकूते शाम =सन्नाटा भरी शाम 

मेरी हर लग़ज़िश में थे तुम भी बराबर के शरीक़ 
बन्दा परवर सिर्फ़ बन्दे ही पे क्यों इलज़ाम है 
लग़ज़िश =ग़लती 

ख़ुशनसीबी ये कि ख़त से ख़ैरियत पूछी गयी 
बदनसीबी ये कि ख़त भी दूसरे के नाम है 

जिस प्रकार गौतम बुद्ध को ये ज्ञान हुआ था कि वीणा के तार इतने भी नहीं कसने चाहियें कि वो टूट जाएँ और इतने ढीले भी नहीं छोड़ने चाहियें कि उनमें से संगीत ही न निकले उसी तरह मुझे भी अभी ये ज्ञान हुआ कि पोस्ट में शायर के नाम को इतनी देर तक भी नहीं छुपाना चाहिए कि पाठक को उसका नाम जानने कि रूचि ही ख़तम हो जाय और न इतनी जल्दी बताना चाहिए कि पाठक की जिज्ञासा ही खतम हो जाय। समय आ गया है कि आपको बता दूँ कि हमारे आज के शायर हैं जनाब "नज़ीर बनारसी " जिनकी रचनाओं का संकलन पेपर बैक में राजकमल प्रकाशन, दिल्ली ने "नज़ीर बनारसी की शायरी " के नाम से किया है। इस किताब का प्रकाशन सन 2010 में किया गया था। किताब का संपादन जनाब "मूलचंद सोनकर" साहब ने किया है जो स्वयं भी प्रसिद्ध शायर,कवि,समीक्षक और दलित चिंतक हैं।


परदे की तरह मुझको पड़ा रहने दीजिये
उठ जाऊँगा तो साफ़ नज़र आइयेगा आप

दर पर हवा की तरह से दीजेगा दस्तकें
कमरे में आहटों की तरह आइयेगा आप

मेरे लिए बहुत है ये ज़ादे सफ़र 'नज़ीर'
वो पूछते हैं लौट के कब आईयेगा आप
ज़ादे सफ़र=सफ़र का सामान 

नज़ीर बनारसी साहब की पैदाइश बनारस के एक मध्यवर्गीय परिवार में 25 नवम्बर 1909 को हुई। ये परिवार हक़ीमों का परिवार कहलाता था। 'नज़ीर' साहब के पिता, दादा, परदादा सभी हकीम थे। इनके बड़े भाई 'मुहम्मद यासीन' तिब्बिया कॉलेज लखनऊ के पढ़े हुए सुप्रसिद्ध हकीम होने के साथ ही साथ एक अच्छे शायर भी थे। नज़ीर साहब ने रूचि न होते हुए भी जबरदस्ती पढ़ते हुए उस्मानिया तिब्बिया कॉलेज से जैसे तैसे हकीम की डिग्री हासिल की। कहा जाता है कि नज़ीर साहब बहुत पढ़े लिखे नहीं थे, उनके पास किसी डिग्री का दुमछल्ला भी नहीं था उन्होंने जो सीखा अपने घरेलू माहौल से सीखा।

तिरि मौजूदगी में तेरी दुनिया कौन देखेगा 
तुझे मेले में सब देखेंगे मेला कौन देखेगा 

अदाए मस्त से बेख़ुद न कीजे सारी महफ़िल को 
तमाशाई न होंगे तो तमाशा कौन देखेगा 

मुझे बाज़ार की ऊँचाई-नीचाई से क्या मतलब
तिरे सौदे में सस्ता और महँगा कौन देखेगा 

तुम्हारी बात की ताईद करता हूँ मगर क़िब्ला 
अगर उक़्बा ही सब देखेंगे तो दुनिया कौन देखेगा 
उक़्बा =परलोक

'नज़ीर' आती है आने दो सफेदी अपने बालों पर 
जवानी तुमने देखी है बुढ़ापा कौन देखेगा 

नज़ीर साहब की प्रतिभा विलक्षण थी ,उन्होंने उस वक्त शायरी करनी शुरू की जिस वक्त उन्हें लिखना भी नहीं आता था। बचपन से ही वो श्रोता की हैसियत से शायरी की महफ़िलों में जाने लगे थे ,वहीँ उस्तादों को सुनते सुनते उनमें शेर कहने का सलीका आने लगा जिसे उनके ख़ालाज़ाद भाई 'बेताब' बनारसी ने उस्ताद की हैसियत से और संवारा। अपने शायराना मिज़ाज़ के चलते उन्होंने अपने शेर कहने के हुनर में इतनी महारत हासिल कर ली कि वो बिना किसी पूर्व तैयारी के हाथों हाथ महफिलों में शेर कहने लगे। उनकी एक ग़ज़ल के जरा ये शेर देखें और उनके हिंदी लफ़्ज़ों को बरतने के खूबसूरत ढंग पर दाँतों तले उँगलियाँ दबाएं :

है जो माखनचोर वो नटखट है हृदयचोर भी 
इक नज़र में लूट कर पूरी सभा ले जायेगा 

अपने दर पर तूने दी है जिसको सोने की जगह
वो तिरि आँखों से नींदें तक उड़ा ले जाएगा 

हद से आगे बढ़ के मत दो दान हो या दक्षिणा 
वरना तुमको वक्त का रावण उठा ले जायेगा 

सहज सरल बोधगम्य भाषा नज़ीर साहब की बहुत बड़ी विशेषता है। अगर उर्दू के सभी शायर नज़ीर की बनाई राह पर चलते तो शायद उर्दू को आज ये दिन ना देखने पड़ते। सहज सरल भाषा में शेर कहना आसान नहीं होता तभी अपनी कमज़ोरी को छुपाने के लिए शायर मुश्किल लफ़्ज़ों का इस्तेमाल करते हैं। नज़ीर साहब की सबसे बड़ी खूबी उनकी हिंदी उर्दू की मिलीजुली भाषा है जो सुनने वाले को अपनी सी लगती है.

तुम हाल पूछते हो इनायत का शुक्रिया 
अच्छा अगर नहीं हूँ तो बीमार भी नहीं 

जो बेख़ता हों उनको फरिश्तों में दो जगह 
इंसान वो नहीं जो ख़तावार भी नहीं 

जीने से तंग आ गया हर आदमी मगर 
मरने के वास्ते कोई तैयार भी नहीं 

तेज तर्रार पत्रकार "भास्कर गुहा नियोगी " अपने ब्लॉग "भड़ास 4 मिडिया " में लिखते हैं कि "नज़ीर की शायरी उनकी कविताएं धरोहर है, हम सबके लिए। संकीर्ण विचारों की घेराबन्दी में लगातार फंसते जा रहे हम सभी के लिए नज़ीर की शायरी अंधरे में टार्च की रोशनी की तरह है, अगर हम हिन्दुस्तान को जानना चाहते है, तो हमे नज़ीर को जानना होगा, समझना होगा कि उम्र की झुर्रियों के बीच इस साधु, सूफी, दरवेश सरीखे शायर ने कैसे हिन्दुस्तान की साझी रवायतों को जिन्दा रखा। उसे पाला-पोसा, सहेजा। अब बारी हमारी है, कि हम उस साझी विरासत को कैसे और कितना आगे ले जा सकते है "

मिरे सर क़र्ज़ है कुछ ज़िन्दगी का 
नहीं तो मर चुका होता कभी का 

न जाने इस ज़माने के दरिंदे 
कहाँ से लाये चेहरा आदमी का 

क़ज़ा सर पर है लब पर नाम उनका 
यही लम्हा है हासिल ज़िन्दगी का 

वहां भी काम आती है मुहब्बत 
जहां कोई नहीं होता किसी का

 'नज़ीर' आती है बालों पर सफेदी 
सवेरा हो रहा है ज़िन्दगी का 

23 मार्च 1996 को दुनिया से रुखसत होने वाले नज़ीर साहब के कुल जमा छह काव्य संग्रह "गंगो जमन ", "जवाहर से लाल तक", ग़ुलामी से आज़ादी तक", "चेतना के स्वर", "किताबे ग़ज़ल " और "राष्ट्र की अमानत राष्ट्र के हवाले" मंज़र-ऐ-आम पर आये है , दुःख की बात है कि इन में से हिंदी में शायद ही कोई संग्रह उपलब्ध हो. हमें शुक्रगुज़ार होना चाहिए राजकमल प्रकाशन और सोनकर साहब के संयुक्त प्रयास का जिसकी बदौलत हमें नज़ीर साहब की चुनिंदा 51 लाजवाब ग़ज़लें और 36 नज़्में इस किताब के माध्यम से पढ़ने को मिल रही हैं।

दुनिया है इक पड़ाव मुसाफिर के वास्ते
इक रात सांस लेके चलेंगे यहाँ से हम

आवाज़ गुम है मस्जिदो-मंदिर के शोर में 
अब सोचते हैं उनको पुकारें कहाँ से हम 

है आये दिन 'नज़ीर' वफ़ा का मुतालबा 
तंग आ गए हैं रोज के इस इम्तिहाँ से हम
वफ़ा=निष्ठा , मुतालबा=मांग

इस किताब को आप अमेजन से ऑन लाइन तो मंगवा ही सकते हैं इसके अलावा राजकमल की साइट पर जाकर भी आर्डर कर सकते हैं। आपका कोई मित्र परिचित दिल्ली रहता हो तो वो आपको राजकमल प्रकाशन 1-बी नेताजी सुभाष मार्ग ,नयी दिल्ली से इसे ला कर भी दे सकता है। किताब का मूल्य इतना कम है कि जान कर आप हैरान हुए बिना नहीं रह पाएंगे। यूँ समझिये कि ये वो खज़ाना है जो सिर्फ 'खुल जा सिम सिम " बोलने मात्र से आप को हासिल हो सकता है. इस किताब की सभी रचनाएँ न केवल आज के सन्दर्भ में प्रासंगिक हैं बल्कि भविष्य के सन्दर्भों से भी संवाद करने में सक्षम हैं।
आप इस किताब को हासिल करने का कोई सा भी तरीका सोचें लेकिन मंगवा लें , अब मैं चलता हूँ उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर आपके हवाले करके किसी नयी किताब की तलाश में :

जाओ मगर इस आने को एहसाँ नहीं कहते 
जो दर्द बढ़ा दे उसे दरमाँ नहीं कहते 
दरमाँ=इलाज़ 

जो रौशनी पहुंचा न सके सबके घरों तक 
उस जश्न को हम जश्ने चराग़ाँ नहीं कहते 

हर रंग के गुल जिसमें दिखाई नहीं देते 
हम ऐसे गुलिस्तां को गुलिस्तां नहीं कहते

Monday, November 6, 2017

किताबों की दुनिया -150

तुमसे पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्तनशीं था 
उसको भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यकीं था 

ये उस शायर का शेर है जिसके इंतकाल के 15 साल बाद याने 2008 की फरवरी के अंतिम सप्ताह में मुशर्रफ़ समर्थक पाकिस्तान मुस्लिम लीग की हार के बाद पेशावर से कराँची तक लाखों लोगों ने दोहराया। ये कालजयी शेर है जिसे किसी एक मुल्क की हदों में नहीं बाँधा जा सकता। ये शेर हर उस मुल्क के हुक्मरां पर लागू होता है जो सत्ता के नशे में अपने अवाम को भूल जाता है और एक दिन अर्श से फ़र्श पर औंधे मुँह आ गिरता है।जिस ग़ज़ल का ये शेर है उस ग़ज़ल के बाकी शेर भी इसी मिज़ाज़ के हैं ,गौर फरमाएं :

कोई ठहरा है जो लोगों के मुकाबिल तो बताओ 
वो कहाँ हैं कि जिन्हें नाज़ बहुत अपने तईं था 

आज सोये हैं तरे-ख़ाक न जाने यहाँ कितने 
कोई शोला, कोई शबनम कोई मेहताब-जबीं था 
तरे-ख़ाक=ज़मीन के नीचे , मेहताब-जबीं=चाँद जैसे माथे वाला

ये वो शायर था जिसने अपनी शायरी ही नहीं, अपनी ज़िन्दगी भी अवाम के लिए वक़्फ़ कर दी थी और जो मरते मरते मर गया लेकिन न तो कैदो-बंद से उसके इरादे डाँवाडोल हुए और न ही तानाशाही के अत्याचार उसे अपनी राह से हटा सके। इस शायर ने बेख़ौफ़ हो कर अय्यूब खान,याह्या खान,ज़िआउल-हक़ और ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की सरकारों के खिलाफ लिखा। पाकिस्तान के 70 सालों के इतिहास में शायद ही कोई दूसरा ऐसा शायर होगा जिसने इतने बरस जेल की सलाखों के पीछे काटे,जितने कि इस शायर ने।

हर रोज़ क़यामत ढाते हैं तेरे बेबस इंसानों पर
ऐ ख़ालिक़े-इन्सां, तू समझा अपने खूनी इंसानों को 
ख़ालिक़े-इन्सां=इंसान के सृष्टा (खुदा )

दीवारों से सहमे बैठे हैं, क्या खूब मिली है आज़ादी 
अपनों ने बहाया खूं इतना, हम भूल गए बेगानों को 

 इक-इक पल हम पर भारी है ,दहशत तकदीर हमारी है 
घर में भी नहीं महफूज़ कोई , बाहर भी है खतरा जानों को 

 इस हर-दिल-अज़ीज़ और अवाम के मशहूर शायर का नाम था 'हबीब जालिब" जिनकी ग़ज़लों नज़्मों और गीतों के संकलन "प्रतिनिधि शायरी" श्रृंखला के अंतर्गत "राधा कृष्ण प्रकाशन " ने पेपर बैक में सन 2010 में प्रकाशित किया था। आज हम इसी किताब और इसके शायर की बात करेंगे जिसकी शायरी में ले-देकर कुल एक पात्र नज़र आता है और उस पात्र का नाम जनता है -सिर्फ पाकिस्तान की जनता नहीं, पूरे संसार की जनता। और ठीक यही वो जनता है जिसके हक़ में वे बार बार अपनी किताबें ज़ब्त कराते हैं और बार बार जेल जाते हैं।


और सब भूल गए हर्फ़े-सदाक़त लिखना 
रह गया काम हमारा ही बग़ावत लिखना 
हर्फ़े-सदाक़त=सच्चाई का अक्षर 

लाख कहते रहें ज़ुल्मत को न ज़ुल्मत लिखना 
हमने सीखा नहीं प्यारे ब-इजाज़त लिखना 
ब-इजाज़त=किसी के आदेश पर 

न सिले की न सताइश की तमन्ना मुझको 
हक़ में लोगों के हमारी तो है आदत लिखना 
सताइश=पुरस्कार 

हमने जो भूल के भी शह का क़सीदा न लिखा 
शायद आया इसी खूबी की बदौलत लिखना 
शह =बादशाह 

कुछ भी कहते हैं, कहें शह के मुसाहिब 'जालिब' 
रंग रखना यही अपना, इसी सूरत लिखना 

हबीब अहमद के नाम से 24 मार्च 1928 को होशियार पुर पंजाब में जन्में जालिब साहब अपनी किशोरावस्था और चढ़ती जवानी के दिनों में, मुस्लिम लीग के एक सरगर्म कार्यकर्ता रह चुके थे और उन्हें आशा थी कि पाकिस्तान के बनते ही मुस्लिम जनता के सारे दुःख-दर्द दूर हो जायेंगे और यही कारण था कि वो पाकिस्तान बनने के साथ ही याने 14 अगस्त 1947 को अपनी पैतृक धरती छोड़ कर इस नए देश में पहुँच गए। लेकिन फिर वहां जो कुछ उन्होंने देखा उससे उनका मोहभंग होते देर नहीं लगी- ठीक उसी तरह जैसे भारत में भी आज़ादी के बाद जल्द ही बहुत से वतनपरस्तों के सपने चूर-चूर होकर बिखर गए।

वतनपरस्तों को कह रहे हो वतन के दुश्मन,डरो ख़ुदा से  
जो आज हमसे ख़ता हुई है ,यही ख़ता कल सभी करेंगे 

वज़ीफ़ाख़्वारों से क्या शिकायत हज़ार दें शाह को दुआएं  
मदार जिनका है नौकरी पर, वो लोग तो नौकरी करेंगे 
वज़ीफ़ाख़्वारों=वज़ीफ़ा पाने वाले , मदार=निर्भरता 

लिए, जो फिरते हैं तमग़-ए-फ़न, रहे हैं जो हमख़याले-रहज़न 
हमारी आज़ादियों के दुश्मन हमारी क्या रहबरी करेंगे 
तमग़-ए-फ़न=कला का तमगा ,हमख़याले-रहज़न=लुटेरों की सोच वाले 

जालिब की शायरी सीधी दिल से निकली हुई शायरी है वो अपनी रचनाओं में बेहद आसान लफ़्ज़ों का इस्तेमाल करते थे उन्होंने इस बात का इज़हार अपने एक शेर में यूँ किया है :
जालिब मेरे शेर समझ में आ जाते हैं 
इसलिए कम-रुतबा शायर कहलाता हूँ 
दरअसल सच्चाई ये है कि सीधी-सादी भाषा को लोग घटियापन की अलामत मानते हैं। सदियों पहले दार्शनिक कुमारिल भट ने कहा था कि कुछ लोग मूढ़ता को छिपाने के लिए जान-बूझकर जटिल और दुरूह भाषा का प्रयोग करते हैं। लेकिन बात यहीं तक नहीं रहती , जो लोग 'मीर' की सीधी-सादी और दिल को छू लेनेवाली शायरी की दाद देते हैं और आहें भरते हैं वे भी अपने समकालीनों पर वैसे ही मानदंड लागू करने से इंकार करते हैं।

जिसकी आँखें ग़ज़ल, हर अदा शेर है 
वो मिरि शायरी है ,मिरा शे'र है 

अपने अंदाज़ में बात अपनी कहो
'मीर' का शे'र तो मीर का शे'र है 

मैं जहाने-अदब में अकेला नहीं 
हर क़दम पर मिरा हमनवा शे'र है 
जहाने-अदब=साहित्य का संसार, हमनवा=साथी 

इक क़यामत है 'जालिब' ये तनक़ीदे नौ 
जो समझ में न आये बड़ा शे'र है 
तनक़ीदे नौ=नयी आलोचना 

1959 की बात है अय्यूब खान को सत्ता हथियाये एक साल बीत चुका था इस एक साल के डिक्टेटरशिप वाले मिलेट्री शासन में हर सच बोलने वाले और शासक से अलग सोच वाले को जेल की दीवारों के पीछे बंद कर दिया गया था. सेंसरशिप लागू हो गयी थी। शायर, अय्यूब खान और मिलेट्री शासन के गीत गा रहे थे और तमाम अखबारें , रिसाले उसकी प्रशंशा में रँगे जा रहे थे। एक साल बीत जाने की ख़ुशी में पाकिस्तान रेडिओ से लाइव मुशायरा ब्रॉडकास्ट किया जा रहा था जिसमें सभी शायरों को महबूबा या देश की ख़ूबसूरती पर पढ़ने का फरमान जारी किया गया था। तभी एक दुबले पतले शायर ने सरकारी फरमान की धज्जियाँ उड़ाते हुए ये नज़्म पढ़ी जिसका एक बंद कुछ यूँ था :
बीस रूपय्या मन आटा
इस पर भी है सन्नाटा 
गौहर, सहगल, आदमजी 
बने हैं बिरला और टाटा 
मुल्क के दुश्मन कहलाते हैं 
जब हम करते हैं फ़रियाद 
सद्र अय्यूब ज़िन्दाबाद 
 फिर क्या था सन्नाटा छा गया ,वर्दीधारी सैनिकों के मुंह सफेद हो गए मुशायरा बीच में ही बंद कर दिया गया , रेडिओ स्टेशन के उच्च अधिकारी को फ़ौरन सस्पेंड कर दिया गया और शायर को जेल में बंद कर दिया , लेकिन जो होना था हो गया , लोगों की जबान पर "20 रुपैय्या मन आटा ,इस पर भी है सन्नाटा " चढ़ गया। ये शायर था "हबीब जालिब" जो सबक हुक्मरां उसे जेल भेज कर देना चाहते थे जालिब साहब ने उसका उल्टा ही समझा। जब जब वो जेल जाते बाहर आ कर दुगने जोश से सत्ता के ख़िलाफ़ लिखने लगते।

जीने की दुआ देने वाले ये राज़ तुझे मालूम नहीं 
तख़लीक़ का इक लम्हा है बहुत, बेकार जिए सौ साल तो क्या 
तख़लीक़ -रचना 

हर फूल के लब पर नाम मिरा, चर्चा है चमन में आम मिरा 
शोहरत की ये दौलत क्या कम है गर पास नहीं है माल तो क्या 

हमने जो किया महसूस , कहा ,जो दर्द मिला हंस हंस के सहा 
भूलेगा न मुस्तक़बिल हमको, नालां है, जो हमसे हाल तो क्या 
मुस्तकबिल=भविष्य , नालां =नाराज़ ,हाल =वर्तमान 

1964 में अचानक मोहतरमा फ़तिमाः जिन्ना ने पाकिस्तान के राष्ट्रपति के चुनाव में लड़ने का फैसला किया। अपने भाषणों में उन्होंने हबीब साहब की नज़्म "सद्र अय्यूब ज़िंदाबाद "को शुमार कर लिया। वो जीत भी जातीं लेकिन उनके खिलाफ सत्ता धारियों द्वारा रचे षड्यंत्र के चलते उन्हें हार का सामना करना पड़ा। उनके चुनाव हारते ही हबीब साहब पर सत्ता धारी गिद्ध की मानिंद टूट पड़े ,आये दिन उन्हें जेल की हवा खानी पड़ी। उनका पासपोर्ट भी जब्त कर लिया गया लेकिन हबीब जालिब , हबीब जालिब ही रहे जरा सा भी नहीं बदले।

दुश्मनों ने जो दुश्मनी की है 
दोस्तों ने भी क्या कमी की है 

अपनी तो दास्ताँ है बस इतनी
ग़म उठाये हैं, शायरी की है 

अब नज़र में नहीं है एक ही फूल
फ़िक्र हमको कली कली की है 

 पा सकेंगे न उम्र भर जिसको 
जुस्तजू आज भी उसी की है 

हबीब साहब ने उस दौर में सत्ता धारियों से लोहा लिया जिस दौर में नासिर काज़मी और हफ़ीज़ जालंधरी जैसे शायर हुक्मरानो के कसीदे पढ़ रहे थे। सुना है कि एक बार पाकिस्तान के राष्ट्रकवि हफ़ीज़ साहब जब अपनी चमचमाती सरकारी कार से कहीं जा रहे थे तो उनको जालिब साहब फ़टे पुराने कपड़ों में राह पर चलते मिले उन्होंने कार रुकवाई और कहा की उन्होंने हुक्मरानों से बात कर ली है अगर वो अपना सुर बदल दें तो उनके भी वारे न्यारे हो सकते हैं ,हबीब साहब मुस्कुराये और आगे बढ़ गए। उन्होंने इस वाकये पर बिना हफ़ीज़ साहब का नाम लिए एक तन्ज़िया नज़्म "मुशीर " लिखी जिसका अर्थ होता है 'सलाहकार' जो आगे चल कर बहुत प्रसिद्ध हुई। ये नज़्म आपको इस संकलन में पढ़ने को मिलेगी , यहाँ नहीं।

लाख कहते रहें वो चाक गिरेबां न करूँ
कभी दीवाना भी पाबंद हुआ करता है

इज़्न से लिखने का फ़न हमको न अब तक आया
वही लिखते हैं जो दिल हमसे कहा करता है 
इज़्न =आदेश 

उसके ममनून ही हो जाते हैं दरपै उसके 
क्या बुरा करता है जो शख़्स भला करता है 
उसके ममनून ही हो जाते हैं दरपै उसके=उसके कृतज्ञ ही उसे कष्ट देने पर आमादा हो जाते हैं 

हबीब साहब जैसा खुद्दार शायर शायद ही कोई दूसरा हुआ हो। उनकी बीमारी में एक बार बेनज़ीर भुट्टो उनकी मिजाज़पुर्सी को हॉस्पिटल तशरीफ़ लाईं तो उन्होंने किसी भी तरह की सरकारी मदद के लिए साफ़ मना कर दिया और कहा कि अगर आप को मदद ही करनी है मेरे इस वार्ड के और ऐसे ही दूसरे वार्डों के मरीज़ों की मदद करें जिनकी मदद को कोई नहीं है। मुल्क में हो रहे हर अन्याय के खिलाफ उन्होंने कलम उठाई। ये हरदिल अज़ीज़ शायर जब 12 मार्च 1993 को दुनिया से रुख़्सत हुआ तो पूरे शहर में इनकी मैय्यत को कांधा देने वालों में होड़ मच गयी और "शायरे अवाम हबीब जालिब ज़िंदाबाद " के नारों से फ़ज़ायें गूँज उठी।

बीत गया सावन का महीना ,मौसम ने नज़रें बदली 
लेकिन इन प्यासी आँखों से अब तक आंसू बहते हैं 

एक हमें आवारा कहना कोई बड़ा इलज़ाम नहीं 
दुनिया वाले दिल वालों को और बहुत कुछ कहते हैं 

वो जो अभी इस राहगुज़र से चाक-गरेबाँ गुज़रा था 
उस आवारा दीवाने को जालिब-जालिब कहते हैं 

आखिर इस बेमिसाल शायर को पाकिस्तान की सरकार ने पहचाना और उन्हें 23 मार्च 2009 को पाकिस्तान का सर्वश्रेष्ठ सिविलियन अवार्ड दिया गया.हबीब साहब की शायरी का ये अनूठा संकलन हर इन्साफ पसंद इंसान के पास होना चाहिए। इस संकलन में जालिब साहब की 80 ग़ज़लें 65 नज़्में और 12 गीत हैं। ये सभी रचनाएँ बार बार पढ़ी जाने लायक हैं। उनकी बेजोड़ नज़्मों को पढ़े बिना हबीब साहब की शायरी को नहीं समझा जा सकता। राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित ये किताब अमेजन पर भी उपलब्ध है और इसके 209 पेज वाले पेपरबैक संस्करण की कीमत इतनी कम है कि आप विशवास नहीं करेंगे।
चलते चलते हबीब साहब की एक छोटी सी नज़्म आपको पढ़वाता हूँ जो उन्होंने लता मंगेशकर पर ,हैदराबाद ,सिंध की दमघोटूं जेल में लिखी - कौन कहेगा ये एक पाकिस्तानी शायर की रचना है ? 

तेरे मधुर गीतों के सहारे 
बीते हैं दिन रैन हमारे 
तेरी अगर आवाज़ न होती 
बुझ जाती जीवन की ज्योति 
तेरे सच्चे सुर हैं ऐसे 
जैसे सूरज-चाँद-सितारे 

क्या क्या तूने गीत हैं गाये
सुर जब लागे मन झुक जाए 
तुमको सुनकर जी उठते हैं 
हम जैसे दुःख-दर्द के मारे 

मीरा तुझमें आन बसी है 
अंग वही है रंग वही है 
जग में तेरे दास हैं इतने 
जितने हैं आकाश में तारे 
तेरे मधुर गीतों के सहारे 
बीते हैं दिन रैन हमारे