Monday, November 23, 2015

किताबों की दुनिया - 114

" मोती मानुष चून" ये तीन शब्द पढ़ते ही हमें रहीम दास जी के दोहे " रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून , पानी गये न ऊबरे मोती मानुष चून " का स्मरण हो आता है और ये स्वाभाविक भी है क्यों कि हमने अब तक इन तीन शब्दों को इस दोहे के अलावा शायद ही कभी कहीं और पढ़ा हो। हमें पता ही नहीं था कि किसी अलबेले शायर ने इन तीन शब्दों को न केवल अपनी ग़ज़ल के एक शेर में ख़ूबसूरती से पिरोया है बल्कि इसी शीर्षक से अपनी ग़ज़लों की एक किताब भी प्रकाशित करवाई है।

दिल में एक तन्हाई घर करने लगी 
बस गयी जब घर-गृहस्थी जिस्म की 

रूह की महफ़िल तभी सज पाती है 
जब उजड़ जाती है बस्ती जिस्म की 

मोती मानुष चून में से क्या है ये 
जल गयी जल में ही हस्ती जिस्म की 

अब जिस शायर ने रहीम दास जी के दोहे की एक पंक्ति के टुकड़े को किताब का शीर्षक देने का साहस किया है वो यकीनन कोई आम शायर तो हो ही नहीं सकता। जरूर उसमें रहीम की तरह बेबाक हो कर अपनी बात कहने की कुव्वत होगी, रहीम ही की तरह समाज को कुछ नया कुछ अच्छा समझाने की चाहत होगी और रहीम ही की तरह उसकी भाषा ऐसी होगी जो आम जन मानस की हो याने उसकी अपनी हो, सहज हो ,सरल हो. हम आज 'किताबों की दुनिया ' श्रृंखला में चर्चा करेंगे ग़ज़लों की किताब " मोती मानुष चून ' की जिसके शायर हैं जनाब "देवेन्द्र आर्य" साहब।


दिनन के फेर हैं, चुप बैठ देखिये रहिमन 
समय बसाने के पहले उजाड़ देता है 

ये मुफलिसी है कि अज्ञान है कि कमज़र्फ़ी 
ये क्या है, वो मुझे जब देखो झाड़ देता है 

लगा न बैठे कोई शेरो-शायरी दिल से 
अदब दिमाग़ का नक्शा बिगाड़ देता है 

हमारा होना न होना है फ़ायदे से जुड़ा 
दरख़्त अपने ही पत्तों को झाड़ देता है 

देवेन्द्र आर्य का जन्म 18 जून 1957 में गोरखपुर में हुआ. गोरखपुर विश्विद्यालय से ही देवेन्द्र ने इतिहास में एम. ए. किया। पिछले ग्यारह वर्षों में उनकी ग़ज़लों की चार किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। "मोती मानुष चून" देवेन्द्र जी की चौथी ग़ज़लों की किताब है, इस से पूर्व उनकी ग़ज़लों की ये तीन किताबें "किताब के बाहर (किताब महल , इलाहबाद ), ख्वाब ख्वाब ख़ामोशी (शिल्पायन, दिल्ली ) और उमस (अभिदा प्रकाशन, मुजफ्फरपुर ) प्रकाशित हो चुकी हैं. ग़ज़लों अलावा उनके गीतों के संकलन "खिलाफ जुल्म के (सहकारी प्रकाशन -सिलसिला ), धूप सिर चढ़ने लगी (राजेश प्रकाशन -दिल्ली) , सुबह भीगी रेत पर ( शैवाल प्रकाशन - गोरखपुर) और आग बीनती औरतें (किताब महल -इलाहबाद) भी प्रकाशित हुए हैं।

खिलाफ जुल्म के कविता बयान है कि नहीं 
अगर नहीं है तो फिर बेज़बान है कि नहीं 

सवाल ग्राम-सभा, ब्लाक ,बीडीओ के तो हैं 
मगर एजेंडे में भूखा किसान है कि नहीं 

चलो ये मान लिया जनविरोधी है फिर भी 
हलफ़ उठाने को एक संविधान है कि नहीं 

देवेन्द्र जी के ये तेवर अदम गौंडवी साहब की याद दिलाते हैं लेकिन उनकी ग़ज़लों की अपनी एक अलग पहचान है , अलग राह है , अलग सोच है इसीलिए वो भीड़ में भी अकेले खड़े नजर आ जाते हैं। ग़ज़ल के एक बहुत बड़े उस्ताद मुज़फ्फर हनफ़ी साहब फरमाते हैं कि
"गजल बड़ी अजीब विधा है, बिलकुल छुई-मुई जैसी. जहाँ इसके साथ किसी ने अनुचित व्यवहार किया और यह लाजवंती की भाँती अपने आप में सिमटी. आज रचनाकार हिन्दी, मराठी, पंजाबी, बांग्ला, कश्मीरी तो क्या फ्रेंच, अंग्रेजी, जर्मन, जापानी आदि भाषाओँ में भी गज़ल कह रहे हैं. जहाँ तक हिंदी का सवाल है मेरे स्वर्गीय मित्र दुष्यंत कुमार के अतिरिक्त गिनती के दो-चार कवि गण ही गज़ल की नजाकतों को सहार पाए हैं. और मुझे स्वीकार करते हुए प्रसन्नता है कि देवेन्द्र आर्य उनमें से एक हैं."

क्या क्या न हुआ देश में गांधी तेरे रहते 
क्या होता अगर देश में गांधी नहीं होते 

अब कौन भला पेड़ों को दुलरा के सुलाता 
और कौन जगाता जो ये पंछी नहीं होते 

स्कूल यूनिफार्म सा घर हो गया होता 
बच्चे जरा नटखट जरा पाजी नहीं होते 

कुछ टोल फ्री नंबर हैं मुसीबत के समय में 
हम फ़्लैट हैं और फ़्लैट पड़ौसी नहीं होते 

हनफ़ी साहब देवेन्द्र जी की ग़ज़लों के बारे में आगे कहते हैं कि " देवेन्द्र की गज़ल लाजवंती जैसी सिमटी न हो कर चंचल तितली की तरह परों को फैला कर थिरकती है. इन ग़ज़लों में भाषा के साथ रचनात्मक बर्ताव की निराली शान देखी जा सकती है. अपने रोजमर्रा के संवेदनशील अनुभवों को सरल स्वभाव वरन गहरे चिंतन में संजो कर देवेन्द्र आर्य ने अपनी गज़ल को गज़ल भी रखा है और उर्दू गज़ल से मुख्तलिफ भी कर लिया है. यह कोई मामूली कामयाबी नहीं है. उन्हें इसकी दाद मिलनी चाहिए " 

मैं कहूँ और वह सुने, ना भी कहूँ तो भी सुने 
बंदगी किस काम की , कहनी पड़े अपनी रज़ा 

खदबदाहट, खिलखिलाहट, तिलमिलाहट और बस 
शायरी क्या है, खुद अपनी आहटों का सिलसिला 

ज़िन्दगी कविता है जिसका फ़न यही है दोस्तों 
अनकहा कहना मगर कहके भी रहना अनकहा 

देवेन्द्र जी ने किताब की भूमिका में अपने हवाले से बहुत दिलचस्प और काम की बात कही है जो सभी शायरों पर भी लागू होती है वो कहते है कि " ग़ज़ल इंसानियत की आँख का पानी है. आब हो या हया या खुद्दारी या मौलिकता एक तरह की आतंरिक नमी है जो आभा बनके चेहरे पर चमकती है और जिसके बिना मोती मानुष और चून निरर्थक हैं, निर्जीव हैं। पानीदार होना पानी में रहना और किसी का पानी न उतारना तीनो अन्तर्वस्तु एक ही हैं। " इस किताब की ग़ज़लें पढ़ते वक्त लगता है कि ये रहीम के 'पानी' को बचाने मददगार हैं।

जीत पाने का सलीका खुद-ब -खुद मिट जाएगा 
छीन ली जाएँगी जब भी हार की संभावना 

तोड़ देती है ज़रा सी चूक ,हलकी सी चुभन 
चाहना पर तुम किसी को टूट कर मत चाहना 

स्वाद और आस्वाद में क्या फर्क है क्या साम्य है 
कविता लिखने से नहीं कमतर है आटा सानना 

 'मोती मानुष चून' में देवेन्द्र जी की मार्च 2009 के बाद कही ग़ज़लों में से 105 ग़ज़लें संकलित की गयीं जो कहन के अंदाज़ और कथ्य की नवीनता के कारण बार बार पढ़ी जा सकती हैं। कुछ ग़ज़लों में जो काफिये और रदीफ़ के साथ प्रयोग किये गए हैं वो बहुत दिलचस्प और लीक से हट कर हैं। ये प्रयोग देवेन्द्र जी के साहस के प्रतीक हैं। उन्होंने ग़ज़ल के मापदंडों को बरकरार रखते हुए नया कुछ कर गुजरने की ठानी है।

शुरू तो हुई थीं विरासत की बातें 
मगर छिड़ गई हैं सियासत की बातें 

शराफ़त की बातें, नफ़ासत की बातें 
लुटेरों के मुंह से हिफाज़त की बातें 

मोहल्ला कमेटी के हल्ले के पीछे 
सुनी जा रही हैं रियासत की बातें 

मुझे भी मज़ा है , कमाई उसे भी 
समझता है हाथी महावत की बातें 

आज इंटरनेट मोबाइल के इस दौर में ग़ज़ल की लोकप्रियता में जबरदस्त इज़ाफ़ा हुआ है। यूँ लगता है मानो जितने ग़ज़ल कहने वाले हैं उतने ही सुनने वाले भी हैं।अक्सर देखा गया है कि जहाँ जिस चीज की बहुतायत से आमद हुई है वहीँ उसकी क़द्र और गुणवत्ता में कमी हुई है। ग़ज़लकार तो बहुत हो गए लेकिन या तो वो सदियों से कही गयी, भुगती गयी, सुनी गयी बातों की जुगाली कर रहे हैं या सिर्फ शुद्ध रूप से तुक्केबाज़ी। इस भीड़ में सिर्फ वो ग़ज़लकार अपनी पहचान बना पा रहे हैं जो ग़ज़ल के मूलरूप से उसके नियम कायदे से छेड़ छाड़ किये बिना उसमें नवीनता पैदा करने की ईमानदार कोशिश में लगे हैं। देवेन्द्र आर्य यकीनन उनमें एक हैं जो अपनी पहचान बनाये रखने में कामयाब हैं।

बचेगी कितनी जमीं हम से आपसे यारो 
हमारे बच्चों का जीवन उसी से तय होगा 

ये फोरलेन की बातें बहुत हुई अब तक 
नए विकास का नक्शा गली से तय होगा

हमारे मुल्क का मेयार क्या है, कितना है 
अमीरी से नहीं ये मुफलिसी से तय होगा 

केन्द्र सरकार के मैथिली शरण गुप्त पुरस्कार तथा उ. प्र. हिन्दी संस्थान के विजयदेव नारायण साही पुरस्कार से सम्मानित देवेन्द्र जी अभी पूर्वोत्तर रेलवे, गोरखपुर में मुख्य वाणिज्य निरीक्षक के पद पर कार्यरत हैं। देवेन्द्र जी को आप उनकी ग़ज़लों के लिए उनके मोबाइल 09794840990 अथवा 07408774544 पर या उनसे इ-मेल devendrakumar.arya1@gmail.com पर संपर्क कर उन्हें बधाई सकते हैं। इस किताब की प्राप्ति के लिए जैसाकि पूर्व में भी बताया है अयन प्रकाशन के श्री भूपल सूद साहब से 09818988613 पर संपर्क कर सकते हैं।

साथ में होके भी जब कोई न हो 
सोचिये कैसा लगेगा आपको 

या तो फ्रीज़र में, नहीं तो सीधे फिर 
आँच पर रखता है संबंधों को वो 

बस यही अंतर है माँ और बाप में 
बाप के संग रास्ते भर चुप रहो 

चाहते हो शायरी में गर निखार 
बाल बच्चों को भी थोड़ा वक़्त दो 

अब 105 बेहतरीन ग़ज़लों में से कुछ अशआर छाँट कर आपतक पहुँचाने का काम है तो मुश्किल लेकिन जो काम आसान हो उसे करने में मज़ा भी क्या है ?जब तक आप जैसे पाठक मौजूद हैं हम ये मजे उठाते रहेंगे।
किताब में देवेन्द्र जी की कुछ मुसलसल ग़ज़लें भी शामिल हैं उनमें उर्दू और औरत पर कही उनकी मुसलसल ग़ज़ल कमाल हैं। इस पहले कि आप से रुखसत हुआ जाय चलिए औरत वाली मुसलसल ग़ज़ल के कुछ अशआर आपको पढ़वाता चलता हूँ :-

मैके में पी का घर, पी के घर पीहर 
औरत की फितरत में होते दो-दो घर 

यहाँ रहो तो वहां की चिंता मथती है 
वहाँ जाओ तो लगता यहीं पे थे बेहतर 

शौहर भी क्या किस्मत लेकर आते हैं 
खाए-पीए, उठे, चले आये दफ़्तर 

आंसू जैसे मौन हो गयी हो भाषा 
हँसी कि जैसे मक्खन सूखी रोटी पर 

छाँव भी है, ईंधन भी है और फल भी है 
औरत है या चलता फिरता एक शजर 

सारे ईश्वर मर्दों की पैदाइश हैं 
काश! हुई होती कोई औरत ईश्वर

Monday, November 9, 2015

किताबों की दुनिया -113

कितने झुरमुट कट गए बांसों के , किसको है पता 
इक सुरीली-सी, मधुर-सी, बांसुरी के वास्ते 

रतजगे, बैचेनियां, आवारगी और बेबसी 
इश्क ने क्या क्या चुना है पेशगी के वास्ते 

झूठ की दुनिया है ये, अहले-सुखन ! लेकिन सुनो 
कुछ तो सच्चाई रखो तुम, शायरी के वास्ते 

सच्चाई रखने की बात कहने और करने में बहुत फर्क होता है। सच्चाई की बात रखने के लिए अदम्य साहस की जरुरत होती है। हमारे आज के शायर के पास साहस की कोई कमी नहीं। यही कारण है कि हमें उसकी बातों पे यकीन होता है। शायर तो कोई भी हो सकता है लेकिन वो शायर जो अपने हाथों में बन्दूक थामे देश के लिए दुश्मन का सीना छलनी करने वाला भी हो और फिर उन्हीं हाथों में कलम थामे लोगों के सीनों में मोहब्बत के फूल उगा देने की कुव्वत भी रखता हो विरला ही होता है। हमारी "किताबों की दुनिया" श्रृंखला में आज हम उसी युवा जाँबाज शायर की शायरी की चर्चा करेंगे।

बारिश की इक बूँद गिरी जो टप से आकर माथे पर 
ऐसा लगा , तुम सोच रही हो शायद मेरे बारे में 

हौले-हौले लहराता था, उड़ता था दीवाना मैं 
रूठ गई हो जब से तो इक सुई चुभी गुब्बारे में 

फ़िक्र करे या जिक्र करे ये, या फिर तुमको याद करे 
कितना मुश्किल हो जाता है दिल को इस बँटवारे में 

इस पोस्ट को लिखते वक्त ये मुश्किल आज मुझे भी हो रही है। तय करना मुश्किल हो रहा है कि शायर का जिक्र करूँ या उनकी किताब "पाल ले इक रोग नादाँ " का। इस किताब से मेरा परिचय तो सिर्फ साल भर पुराना है लेकिन इसके शायर से मेरा परिचय तो बरसों का है। सन 2012 सिहोरे में गुज़ारी सर्द रात की याद अभी भी ज़ेहन में ताज़ा है जब चुम्बकीय व्यक्तित्व के इस बाँके अलबेले फक्कड़ शायर से पहली बार रूबरू मुलाकात हुई। जो भी एक बार "गौतम राजरिशी", जी हाँ ये ही नाम है हमारे आज के इस शायर का, से मिल लेता है वो उनका दीवाना हुए बिना नहीं रह सकता। अगर आपको कहीं मेरी उनके या उनकी शायरी के प्रति कही बातों में अतिरेक झलके तो आप मुझे उसे मेरी उनके प्रति दीवानगी समझ कर मुआफ करें ।



लिखती हैं क्या किस्से कलाई की खनकती चूड़ियाँ 
जो सरहदों पर जाती हैं, उन चिट्ठियों से पूछ लो 

होती है गहरी नींद क्या, क्या रस है अबके आम में 
छुट्टी में घर आई हरी इन वर्दियों से पूछ लो 

होती हैं इनकी बेटियां कैसे बड़ी रह कर परे 
दिन-रात इन मुस्तैद सीमा-प्रहरियों से पूछ लो 

सभी प्रकार की सुविधा से भरा अपना घर बार, परिवार और खास तौर पर नन्हीं बेटी तान्या, अपने संगी-साथी , बाग़- बगीचे, फूल-तितलियाँ, नदियां-तालाब, रंग बदलते मौसम , चमकते सूरज से कोसों दूर बर्फ से ढकी पहाड़ियों पर सीमा के पास बने बंकर में समय बिताते, लहू जमा देने वाली ठण्ड से झूझते, हर वक्त मौत की आहट सुनते जैसे गैर शायराना मौहोल में जिस तरह की शायरी गौतम ने की है उसे पढ़ कर कभी होटों पर मुस्कान खिलती है तो कभी आँखें छलछला उठती हैं। ये गौतम का करिश्मा ही है कि उसने बंकर के काले, सफ़ेद और घूसर से दिखाई देने वाले रंगों को अपनी बेमिसाल शायरी की मदद से इंद्रधनुषी जामा पहना दिया है। दिल करता है उसे सेल्यूट करते हुए लगातार तालियां बजाता रहूँ।

मिट गया इक नौजवाँ कल फिर वतन के वास्ते 
चीख तक उठ्ठी नहीं इक भी किसी अखबार में 

कितने दिन बीते कि हूँ मुस्तैद सरहद पर इधर 
बाट जोहे है उधर माँ पिछले ही त्योंहार से 

मुठ्ठियाँ भींचे हुए कितने दशक बीतेंगे और 
क्या सुलझता है कोई मुद्दा कभी हथियार से 

बैठता हूँ जब भी 'गौतम' दुश्मनों की घात में 
रात भर आवाज़ देता है कोई उस पार से 

किताब की भूमिका में डा. राहत इंदौरी लिखते हैं कि " गौतम की शायरी में मुझे नासिर काज़मी की शायरी बिखरी नज़र आती है। मुझे उनकी शायरी में जहाँ बशीर बद्र के महबूब का खूबसूरत, मासूम और सलोना चेहरा, उदास मुस्कराहट और आँचल का नाज़ुक लम्स भी महसूस होता है वहीँ फ़िराक गोरखपुरी की शोख़ उदासी भी मयस्सर होती है। मालूम होता है, गौतम की ग़ज़लों की सरहदें नासिर, बशीर और फ़िराक की सरहदों से दूर नहीं है।
लेकिन जो बात गौतम को अपने समकालीन शायरों से अलग करती है, एक नयी पहचान देती है वो है गौतम की इमेजरी ---रोजमर्रा की ज़िन्दगी में इस्तेमाल होनी वाली चीजें और आम जुबान में पुकारी जाने वाली बातें कुछ इसतरह उनके अशआर में घुल-मिल कर उभरती है कि बस दाद निकलती रहती है पढ़ने के बाद।"

उँड़स ली तूने जब साड़ी में गुच्छी चाभियों वाली 
हुई ये ज़िन्दगी इक चाय ताज़ा चुस्कियों वाली 

भरे-पूरे से घर में तब से ही तन्हा हुआ हूँ मैं 
गुमी है पोटली जब से पुरानी चिठ्ठियों वाली 

खिली-सी धूप में भी बज उठी बरसात की रुन-झुन 
उड़ी जब ओढ़नी वो छोटी-छोटी घंटियों वाली 

राहत साहब की बात की ताकीद करती गौतम की एक ग़ज़ल के इन शेरों पर गौर फरमाएं और देखें कि किस बला की ख़ूबसूरती से वो ऐसे नए लफ़्ज़ों को मिसरों में पिरोते हैं जो अमूमन अब तक ग़ज़ल की हदों दूर ही रखे गए हैं। मज़े की बात ये है कि ये लफ्ज़ शेर को नया मानी देते हैं और लगता है जैसे ये लफ्ज़ इन शेरों के लिए ही इज़ाद किये गए हों , ये गौतम का सिग्नेचर स्टाइल है :-

सुब्ह के स्टोव पर चाय जब खौल उठी 
ऊंघता बिस्तरा कुनमुना कर जगा 

धूप शावर में जब तक नहाती रही 
चाँद कमरे में सिगरेट पीता रहा 

दिन तो बैठा है सीढ़ी पे चुपचाप से 
और टेबल पे है फोन बजता हुआ 

रात की सिलवटें नज़्म बुनने लगीं 
कँपकपाता हुआ बल्ब जब बुझ गया 

वीरता के लिए पराक्रम पदक और सेना मेडल प्राप्त सौम्य व्यक्तित्व के मालिक मृदु भाषी गौतम, जो वर्तमान में कर्नल के पद पर एक इन्फेंट्री बटालियन का कमांड संभाले हुए हैं, की ग़ज़लें अपनी नजाकत और नए लहज़े से पाठकों को हैरान करती हैं तभी तो उन्हें 'हंस' ,'वागर्थ' 'आजकल', 'कादम्बिनी', 'कथादेश' , 'कथाक्रम' , ' बया' , ' काव्या', 'लफ्ज़', 'शेष' , 'कृति' ' हिन्द चेतना 'और 'अहा ज़िन्दगी ' जैसी हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं द्वारा नियमित रूप से प्रकाशित किया जाता है। पाठकों का एक बहुत बड़ा वर्ग उनकी नयी ग़ज़लें की प्रतीक्षा में हमेशा पलक-पांवड़े बिछाए रहता है।

उन होंठों की बात न पूछो, कैसे वो तरसाते हैं 
इंग्लिश गाना गाते हैं और हिंदी में शरमाते हैं 

चाँद उछल कर आ जाता है कमरे में जब रात गये 
दीवारों पर यादों के कितने जंगल उग जाते हैं 

घर-घर में तो आ पहुंचा है मोबाइल बेशक, लेकिन 
बस्ती के कुछ छज्जे अब भी आईने चमकाते हैं 

लगभग कॉफी टेबल साइज़ की इस निहायत ही खूबसूरत किताब को श्री पंकज दीक्षित जी ने अपने अद्भुत रेखा चित्रों से संवारा है। शिवना प्रकाशन, सिहोरे के श्री सनी गोस्वामी की आकर्षक आवरण डिजाइन और शहरयार अमजद खान की बेजोड़ कम्पोजिंग-लेआउट ने किताब में चार चाँद लगा दिए हैं
इस किताब में सहरसा (बिहार) निवासी कर्नल गौतम की 104 ग़ज़लें संगृहीत हैं जिन्हें ग़ज़ल प्रेमियों के साथ साथ इस देश से प्यार करने वाले हर व्यक्ति को भी जरूर पढ़ना चाहिए ताकि उन्हें सिर्फ गौतम के ही नहीं बल्कि उन जैसे अनेक फ़ौज की कड़क वर्दी में सामने नज़र आते भावहीन चेहरों के नकाब के पीछे छिपे अति संवेदनशील इंसान के ज़ज़्बात का भी थोड़ा बहुत एहसास हो।

रह गयी उलझी किचन में भीगी जुल्फों की घटा 
और छत पर 'धूप' बेबस हाथ मलती रह गयी 

चौक पर 'बाइक' ने जब देखा नज़र भर कर उधर 
कार की खिड़की में इक 'साड़ी' संभलती रह गयी 

एक कप कॉफी का वादा भी न तुमसे निभ सका 
कैडबरी रैपर के अंदर ही पिघल कर रह गयी 

किताब की सभी लाजवाब ग़ज़लों लिए आप कर्नल गौतम को सबसे पहले उनके मोबाइल न 09759479500 पर दाद दें और फिर किताब की प्राप्ति के लिए शिवना प्रकाशन सीहोर से +917562405545 पर संपर्क करें। ये किताब अमेजन, फ्लिपकार्ड आदि साइट पर ऑन लाइन भी उपलब्ध है।

ठिठुरी रातें, पतला कम्बल, दीवारों की सीलन --- उफ़ 
और दिसंबर ज़ालिम उस पर फ़ुफ़कारें है सन सन --उफ़ 

बूढ़े सूरज की बरछी में जंग लगी है अरसे से 
कुहरे की मुस्तैद जवानी जैसे सैनिक रोमन --उफ़ 

पछुआ के ज़ुल्मी झोंके से पिछवाड़े वाला पीपल 
सीटी मारे दोपहरी में जैसे रेल का इंजन --उफ़ 

पोस्ट की लम्बाई और आप के पढ़ने का धैर्य आड़े आ रहा है वरना दिल तो पूरी किताब आप तक पहुँचाने का कर रहा है। पन्ने पलटते हुए अफ़सोस हो रहा है कि अरे ये शेर तो पढ़वाने से रह ही गए !!!!!

खैर, आईये चलते चलते उनकी उस ग़ज़ल के ये शेर पढ़ते चलें जिन्हें मैं जब मौका मिले उनसे सुनाने का हमेशा आग्रह करता हूँ :-

दूर उधर खिड़की पे बैठी सोच रही हो मुझको क्या ? 
चाँद इधर छत पर आया है थक कर नीला नीला है 

बादल के पीछे का सच अब खोला तेरी आँखों ने 
तू जो निहारे रोज इसे तो अम्बर नीला नीला है 

इक तो तू भी साथ नहीं है, ऊपर से ये बारिश उफ़ 
घर तो घर, सारा का सारा दफ्तर नीला नीला है