Monday, August 31, 2015

किताबों की दुनिया -108

उर्दू शायरी पर अगर आप एक नज़र डालें तो वो ज्यादातर गुल,गुलशन ,तितलियाँ, बहार , खार ,दश्त ,ख़िज़ाँ , बादल, हवा, फलक, चाँद, सितारे, ख़्वाब ,नीदें ,सहरा ,झील ,समंदर,दरिया,साहिल ,कश्ती ,तूफाँ ,महबूब ,आँखें ,होंट ,हिज्र , फ़िराक ,विसाल ,भूलना ,याद , मय ,सुबू , मयखाना, ज़ाहिद ,पाक ,होश ,रब ,जन्नत ,जहन्नुम , दोस्त ,दुश्मन ,रकीब ,वफ़ा ,बेवफाई ,शाम, रात ,शमअ, परवाना, अँधेरा,उजाला ,हार,जीत, खंज़र ,दवा ,ख़ामुशी ,शोर ,इंतज़ार ,इज़हार, परिंदा, तीर ,निशाना, मुस्कराहट ,आंसू या अश्क ,तबस्सुम ,ज़ख्म , बरसात ,मौसम , वैगरह वगैरह लफ़्ज़ों के इर्द गिर्द ही रची गयी है।

मज़े बात ये है कि इन्हीं लफ़्ज़ों के सहारे तमाम शायर पिछली तीन सदियों से अब तक और आने वाले कल को भी ऐसा तिलिस्म रचते रहे थे रचते रहे हैं और रचते रहेंगे जिसके हुस्न में गिरफ्तार लोग इसकी तरफ खिचते रहे थे , खिचते रहे हैं और खिचते रहेंगे।

हमारी आज " किताबों की दुनिया " श्रृंखला की शायरा "जया गोस्वामी" ने उर्दू के इन तमाम खूबसूरत लफ़्ज़ों के जुड़वाँ भाई जैसे हिन्दी शब्दों को लेकर अपनी ग़ज़लों की किताब "पास तक फासले " में वैसा ही तिलिस्म रचा है जैसा कि शायर उर्दू लफ़्ज़ों से रचते आये हैं।


कब अचानक शुष्क कांटे पुष्प डाली हो गये 
लौ लगी जब से अँधेरे दिन, दिवाली हो गये 

दिग्भ्रमित मन ने समर्पित प्रेम की जब राह पायी 
कामना बंजारने और तन मवाली हो गये 

सच समझ कर ज़िन्दगी भर तक जिन्हें संचित किया 
उस प्रवंचक मोह के अभिलेख जाली हो गये 

युग-युगों के मोह तम में प्रेम चन्द्रोदय हुआ 
ज्योति के वे क्षण युगों से शक्तिशाली हो गये 

भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति का एक माध्यम है इसलिए अगर बात खूबसूरत होगी तो वो हर भाषा में खूबसूरत लगेगी। उर्दू हिंदी के झगडे में ग़ज़ल को घसीटने वालों को समझना चाहिए कि कोई शेर अगर बुरा है तो वो उर्दू में भी उतना ही बुरा लगेगा जितना हिंदी में और ये ही बात अच्छे शेर पर भी लागू होती है अच्छा शेर अच्छा ही लगेगा वो चाहे जिस भाषा में कहा गया हो।

जब से मन पर कंकरीट के बाँध रचे दुनियादारी ने 
आँखों से बहते पानी की बाढ़ रुक गयी, धीरे धीरे 

उधर कलुष रिश्तों के बरगद इधर अकेलेपन का आतप 
स्वाभिमान की आहत शाखा इधर झुक गयी ,धीरे धीरे 

उर्दू के शायरों जैसे ज़फर इकबाल , एहतराम इस्लाम आदि ने हिंदी भाषा में कमाल की ग़ज़लें कही हैं लेकिन चूँकि वो हिंदी में कही गयी हैं इसलिए उर्दू पसंद लोगों को हलकी लगती हैं।मुस्लिम शायरों की बात छोड़ें, अफसोस इस बात का है कि ग़ज़लों पर जान छिड़कने वाले हिंदी भाषी पाठक भी जो कि उर्दू भाषा न पढ़ सकते हैं न लिख सकते हैं, हिंदी या उर्दू में ग़ज़लें कहने वाले गैर मुस्लिम शायरों को शायर मानने तक को तैयार नहीं होते। ऐसे माहौल में एक ऐसी शायरी की किताब की चर्चा करना जिसमें शायरा ने शुद्ध हिंदी में कमाल की ग़ज़लें कही हैं ,एक जोखिम भरा काम है और मुझे इस जोखिम को उठाने में मज़ा आ रहा है।

आप क्या आये कि सम्मोहन नदी में बह गए हम
यह न जाना डूब कर 'स्व' से रहित हो जायेंगे 

शब्द जो अभिव्यक्ति के संचित किये थे उम्र भर 
क्या पता था देखते ही अनकहित हो जाएंगे 

स्वप्न पागलपन हताशा कामनाएं और मन 
ये सभी अब आप में अंतर्निहित हो जायेंगे 

स्नेह के दो बोल या फिर बोलती सी चितवनें 
आप फेंको तो सही हम अनुग्रहित हो जायेंगे 

पांच फ़रवरी 1939 को जयपुर में जन्मी जया जी ने प्रारम्भ में हिंदी साहित्य का अध्यन 'साहित्य सदावर्त' में पंजाब विश्व विद्ध्यालय से 'प्रभाकर' परीक्षा पास की तदुपरांत 1962 में जे जे स्कूल ऑफ आर्ट्स मुंबई से ड्राइंग और पेंटिंग में इंटर आर्ट किया। उसके बाद आपने राजस्थान विश्व विद्द्यालय से संस्कृत और समाजशास्त्र विषयों में एम ऐ किया। इतना ही नहीं आपने 'वैदिक सौर देवता ' विषय पर शोध कार्य भी किया है। उनकी ग़ज़लों में प्रस्तुत बिम्ब कैनवास पर बनी पेंटिंग का आभास कराते हैं।

बादलों की बीच उगते सूर्य का चित्रण किया तो 
तूलिका ने सूर्य में मुख केश में बादल उतारे 

नयन-खंजन गिरिशिखिर उत्तुंग वक्षों से बनाये 
इंद्रधनुषी ओढ़नी में टँक गए सब चाँद तारे 

नेह की चित्रित नदी पर अश्रु रंगों में बहे जो 
सेतु बन मिलवा दिए उसने नदी के दो किनारे 

राजस्थान आवासन मंडल में वरिष्ठ कार्मिक प्रबंधक पद से सेवानिवृत जया जी का काव्य लेखन खास तौर पर ग़ज़ल, उम्र के पचास बसंत पार करने के बाद जागा। उन्हीं के शब्दों में " आयु के पचासवें दशक में अचानक न जाने क्यों और कैसे कुछ छंद बद्ध रचने की ललक जागी, मैं स्वयं नहीं जान पायी। चुनौतियाँ स्वीकार करना अपनी फितरत में होने के कारण ही शायद मैं इस कठिन साध्य विद्द्या में प्रवेश करने की हिम्मत कर सकी। " उनकी इसी हिम्मत के फलस्वरूप उनके दो ग़ज़ल संग्रह "अभी कुछ दिन लगेंगे" और "पास तक फासले " क्रमश: 1995 और 2010 में प्रकाशित हो कर लोकप्रिय हो चुके हैं।

हों न हों वे पास उनकी याद अपने पास तो है 
वो नहीं अपने हमें अपनत्व का आभास तो है 

क्या हुआ जो हम तरसते ही रहे अपनी हंसी को 
आज अपनी ज़िन्दगी जग के लिए परिहास तो है 

भूल कर भी याद उनको हम कभी आएँ न आएँ 
याद हम करते उन्हें इस बात का विश्वास तो है 

बहुआयामी प्रतिभा की धनी जया जी की वार्ताओं का सतत प्रसारण आकाशवाणी से होता रहा है इसके अतिरिक्त ललित कला अकादमी एवं सूचना केंद्र की कला दीर्घाओं में उनकी एकल चित्र प्रदर्शनियां लगती रही हैं। उन्होंने चित्रकला में 'शिल्पायन' नामक नयी शैली का विकास भी किया है। राष्ट्रीय स्तर की सभी प्रमुख पत्र -पत्रिकाओं में उनकी ग़ज़लों ,गीतों ,कविता और लेखों का प्रकाशन होता रहा है।

देह की मैं थिरकने हूँ नृत्य में तो भाव हो तुम 
पायलों के बोल मैं हूँ और तुम रुनझुन रहे हो 

कामना की तकलियों पर नेह के धागे गुंथे जो 
मैं नयन से कातती तुम चितवनो से बुन रहे हो 

धड़कनों के स्वर तुम्हारे नाम के सम्बोधन बने हैं 
सांस की अनुगूंज से यूँ लग रहा तुम सुन रहे हो 

जया जी के इस ग़ज़ल संग्रह के पहले खंड में 32 ग़ज़लें शुद्ध हिंदी में है और दूसरे खंड में आम हिंदुस्तानी जबान में कही गयी 50 ग़ज़लें हैं। हिंदी ग़ज़लों की बानगी ऊपर प्रस्तुत की चुकी है आईये अब नज़र डालते हैं उन ग़ज़लों पर जो आम जबान में खास बातें कहती हैं। ये ग़ज़लें जया जी की व्यापक सोच को दर्शाती हैं मानव मन की वेदनाएं संवेदनाएं व्यथाएं तो इनमें हैं ही लेकिन इन सब के साथ प्रेम की अतल गहराईयों की झलक भी दिखाई देती है।

बिना विधिवत रूप से किसी गुरु की शरण में गए, उनकी लिखी कुछ ग़ज़लों में कहीं व्याकरण दोष मिल सकता है और शायद ये बात ग़ज़ल प्रेमियों को नागवार भी गुज़रे लेकिन मेरी गुज़ारिश है कि उसे नज़र अंदाज़ करते हुए उनके कहन की ईमानदारी पर तालियां बजाई जाएँ।   

तुम न थे दिल पास था तुम आ गए तो दिल गया 
है ग़ज़ब फिर भी रहे हम इस ठगी से बेखबर 

क्या अंधेरों की घुटन को जान पायेगी शमां 
जो सदा रोशन रही है तीरगी से बेखबर 

इस तरह भी याद में खोया हुआ कोई न हो 
सामने तुम और हम मौजूदगी से बेखबर 

कैनेडा से प्रकाशित होने वाली हिंदी पत्रिका "हिंदी चेतना" के पन्ने पलटते हुए मेरी नज़र जया जी की लिखी एक कविता पर पड़ी। परिचय में उनका फोटो ,पता ,टेलीफोन न. और ग़ज़ल संग्रहों की संक्षिप्त जानकारी दी गयी थी। ये पता लगने पर कि वो भी जयपुर निवासी हैं मैंने ग़ज़ल संग्रहों की प्राप्ति का रास्ता पूछने को उन्हें तुरंत फोन किया, औपचारिक बातचीत के दौरान ही मैं उनके अपनत्व से बाग़ बाग़ हो गया, लगा जैसे मुद्दतों बाद बड़ी बहन मिल गयी हो।उन्होंने बड़े स्नेह से आशीर्वचनों के साथ अपनी दोनों किताबें मुझे भेट में देदीं।

तू न था पर हाथ में खत देख कर 
फिर कबूतर पास आये आदतन 

जब किसी ने नाम तेरा ले लिया 
ज़ख्म सारे सनसनाये आदतन 

दे गया क़ासिद फटे खत हाथ में 
ले लिए , सर से लगाए आदतन 

आज के इस दौर में आत्म प्रशंशा और आत्म प्रचार से खुद को सर्वश्रेष्ठ साबित करने में लगी होड़ से कोसों दूर जया जी एक सच्चे साधक की तरह एकांत में बैठी साहित्य साधना में लगीं हैं। इस पुस्तक की प्राप्ति का रास्ता पूछने के लिए आप उन्हें 09829539330 अथवा उनके 206 ,पद्द्मावती कालोनी किंग रोड जयपुर स्तिथ घर के नंबर 01413224860 पर फोन करें और ऐसे श्रेष्ठ लेखन बधाई दें।

अंत में नयी किताब की तलाश में निकलने से पहले आईये उम्र के 76 वसंत देख चुकी दिल से युवा जया जी के उत्तम स्वास्थ्य और दीर्घ सुखमय जीवन की कामना के साथ दुआ करें कि उनकी लेखनी सतत यूँ ही जवाँ रहे। 

आखरी में उनका ये शेर अपने साथ लेते जाइए :-

 जल चुकी दे कर महक वो धूप बत्ती हूँ 
 फर्क क्या अटकी रहूँ या फिर बिखर जाऊँ

Monday, August 17, 2015

किताबों की दुनिया -107/2

हज़ारों मुश्किलें हैं दोस्तों से दूर रहने में 
मगर इक फ़ायदा है पीठ पर खंज़र नहीं लगता 

कहीं कच्चे फलों को संगबारी तोड़ लेती है 
कहीं फल सूख जाते हैं कोई पत्थर नहीं लगता 

हर इक बस्ती में उसके साथ अपनापन सा लगता है 
नहीं है वो तो अपना घर भी अपना घर नहीं लगता 

मुज़फ़्फ़र साहब की शायरी फ़लक से गुनगुनाती हुई गिरती बरसात की बूंदों की याद दिलाती है जिसमें लगातार भीगते रहने का मन करता है। भाषा की ऐसी मिठास ऐसी रवानी ओर कहीं मिलना दुर्लभ है। ये खासियत उनकी एक आध नहीं बल्कि सभी ग़ज़लों में दिखाई देती है।

कागज़ी फूल हैं उसकी तकदीर में 
जिसको फूलों में काँटा नहीं चाहिए 

ग़म बंटाने को इक आम सा आदमी 
दोस्ती को फ़रिश्ता नहीं चाहिए 

ज़ख़्म छिल जायेंगे ग़म बिफर जायेगा 
बेसबब मुस्कुराना नहीं चाहिए 

मात्र 14 साल की उम्र से अब तक लगातार ग़ज़लें कहने वाले मुज़फ़्फ़र साहब ने अब तक 1700 अधिक ग़ज़लें कह डाली हैं। मुज़फ्फ़र हनफी कि शायरी (ग़ज़ल) कि पहली किताब “पानी कि जुबां “ जो 1967 में प्रकाशित हुई थी , हिंदुस्तान में आधुनिक शायरी कि पहली किताब मानी जाती है।

दो बूंदों की हसरत ले कर चुप टीले पर रेत खड़ी है 
चारों जानिब घुँघरू बांधे रिमझिम रिमझिम बरसा पानी 

सूखी डालें सोच रहीं हैं अब आने से क्या होता है 
पत्ते ताली पीट रहे हैं आया पानी आया पानी 

अक्सर उसकी याद आती है रौ में तेज़ी आ जाती है 
वो परबत की ऊंची चोटी , मैं झरने का बहता पानी 

हनफी साहब के बारे में आज के दौर के कामयाब शायर और उर्दू शायरी पर पुख्ता जानकारी रखने वाले जनाब 'मयंक अवस्थी 'साहब ने ठीक ही फ़रमाया है कि : " हर शायर गज़ल की तलाश करता है लेकिन हनफी साहब इकलौते शायर हैं जिनकी तलाश ग़ज़ल खुद करती है।आज के दौर के मंच के बड़े बड़े नाम –किसकी गज़लों की नकल करते हैं सब जानते हैं — गज़लों के नक्काल बहुत हैं और मुज़फ्फर एक — हनफी साहब से कई शायरों को बहुत रश्क है और उनपर ऐसे शायरों ने ज़बर्दस्त तंज़बारी की है लेकिन मुज़फ्फर हनफी साहब को न कोई पा सका है और न पा सकेगा “

अगर सोचो तो वजनी हो गयी है 
हमारी बात ना मंज़ूर हो कर 

किसी का पास आकर दूर होना 
कहीं अन्दर महकना दूर हो कर 

मुहब्बत की इज़ाज़त भी नहीं है 
बड़े घाटे में हूँ मशहूर हो कर 

हनफ़ी साहब की ग़ज़लें देवनागरी में यूँ तो इंटरनेट की बहुत सी लोकप्रिय साइट्स मसलन 'लफ्ज़ ', कविताकोश, रेख्ता के अलावा कुछ छुटपुट ब्लॉग पर भी पढ़ीं जा सकती हैं लेकिन एक मुश्त पढ़ने के लिए सिवा ''मुज़फ़्फ़र की ग़ज़लें" की किताब के दूसरा कोई रास्ता नहीं है। इस किताब में मुज़फ़्फ़र साहब की चुनिंदा 127 ग़ज़लें शामिल की गयी हैं। 


पूछता हूँ कि क्या कह रही थी हवा 
चांदनी रात बातें बनाने लगी 

इस तरह याद आने से क्या फायदा 
जैसे नागिन कहीं सरसराने लगी 

आओ लंगर उठायें मुज़फ़्फ़र मियाँ 
बादबाँ को हवा गुदगुदाने लगी 

'लफ्ज़' के पोर्टल पर जाने माने शायर जनाब तुफैल चतुर्वेदी साहब ने लिखा है कि "मुज़फ्फ़र हनफ़ी साहब ग़ज़ल के दरबार के वो अमीर हैं कि उनसे दरबार ही धन्य नहीं है बल्कि उनकी किसी भी महफ़िल में मौजूदगी महफ़िल के सारे लोगों को बाशऊर बना देती है. मैंने उनकी सदारत में मुशायरे पढ़े हैं. बड़े-बड़े वाचाल शायर हाथ बांधे उनसे इजाज़त लेते देखे हैं.
ग़ज़ल के दो रंग जनाबे-मीर और जनाबे-सौदा से चले हैं. तीसरे रंग यानी व्यंग्यात्मकता का इज़ाफ़ा जनाबे-यास यगाना चंगेज़ी और शाद आरिफी साहब ने किया. मुज़फ्फर साहब उन शाद आरिफी साहब के शागिर्द हैं.

मेरे हाथों के छाले फूल बन जाते हैं कागज़ पर 
मेरी आँखों से पूछो रात भर तारे बनाता हूँ 

जिधर मिट्टी उड़ा दूँ आफताब-ऐ-ताज़ा पैदा हो 
अभी बच्चों में हूँ साबुन के गुब्बारे बनाता हूँ 

ज़माना मुझसे बरहम है मेरा सर इसलिए खम है 
कि मंदिर के कलश, मस्जिद के मीनारे बनाता हूँ 
 बरहम = नाराज , खम =झुका हुआ 

मेरे बच्चे खड़े हैं बाल्टी ले कर कतारों में 
कुएँ ,तालाब, नहरें और फ़व्वारे बनाता हूँ 

'मुनव्वर राना' साहब ने किताब के कवर फ्लैप पर क्या खूब लिखा है "मुज़फ़्फ़र साहब की हर ग़ज़ल अनोखी उपज और हुनरमंदी का सबूत देती है उनका हर शेर विश्वास और ज़िन्दगी करने की अलामत बन जाता है। 

जनाब 'गोपी चंद नारंग 'साहब दूसरे फ्लैप पर लिखते हैं कि 'मुज़फ्फर हनफ़ी उन शायरों में हैं जो अपने लहजे और आवाज से पहचाने जाते हैं। तबियत की रवानी की वजह से उन के यहाँ ठहराव की नहीं बहाव की कैफियत है। किसी शायर का अपने लहजे और अपने तेवर से पहचाना जाना ऐसा सौभाग्य है जिस को कला की सब से बड़ी देन समझना चाहिए।

कुछ ऐसे अंदाज़ से झटका उस ने बालों को 
मेरी आँखों में दर आया पूरा कजरी बन 

उल्फ़त के इज़हार पे उस के होंटो पर मुस्कान 
पेशानी पर बेचैनी सी, आँखों में उलझन 

कैसे तेरे शेरों में हो जाते हैं आमेज़ 
पत्थर का ये दौर मुज़फ़्फ़र और ग़ज़ल का फ़न 

कुछ लोग होते हैं जो अवार्ड्स लेने की फ़िराक में दिन रात एक करते हैं लेकिन कुछ ऐसे होते हैं जिनकी तलाश में अवार्ड्स रहते हैं। मुज़फ़्फ़र साहब दूसरे तबके के लोगों में शुमार हैं जिनकी गिनती उँगलियों पर की जा सकती है। ज़िन्दगी में उन्होंने अवार्ड्स को कभी कोई अहमियत नहीं दी। पचास से ऊपर अवार्ड प्राप्त हनफ़ी साहब को हाल ही में सन2013 -14 के लिए उर्दू अकादमी की और से पुरुस्कृत किया गया।

अवार्ड लेने में उनकी बेरुखी उनके सुनाये इस सच्चे किस्से से बयाँ होती है " 1995 की बात है। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा उस दिन मुझे उर्दू के सर्वोच्च मिर्जा गालिब अवार्ड से सम्मानित करने वाले थे। उसी दिन खंडवा में आयोजित मुशायरे के लिए दोस्तों ने निमंत्रण भेजा था। जन्म स्थली और दोस्तों के बीच जो खुशी मिलती वह राष्ट्रपति के हाथों अवार्ड लेने से नहीं। मिर्जा गालिब अवार्ड लेने के लिए मैंने अपने बेटे फिरोज हनफी को दिल्ली भेजा और मैं खंडवा चला आया। (जैसा उन्होंने चर्चा में बताया)"

जब खाली बिस्तर लगता है काँटों का इक ढेर 
किरनों सा परदे से छन कर आ जाता है कौन 

फूलों की पंखुड़ियों से जब मन करता है बात 
कोमल कोमल टहनी में ये बल खाता है कौन 

चिड़ियों की चहकार से इतने भोलेपन के साथ 
हंस हंस कर कानों में अमृत छलकाता है कौन 

वो कहती है और किसी को अपने शेर सुना 
तेरी चिकनी चुपड़ी बातों में आता है कौन 

मुज़फ़्फ़र साहब की बुलंद शक्शियत और बेजोड़ शायरी पर ऐसी कई पोस्ट्स भी अगर लिखें तो भी कामयाबी हासिल नहीं होगी। मैंने तो सिर्फ 'टिप ऑफ द आइस बर्ग ' ही दिखाने कोशिश की है। इस किताब को हिंदी अकादमी (दिल्ली ) के सौजन्य से फ़रवरी 2003 में प्रकाशित किया गया था। इस संकलन के लिए मुज़फ़्फ़र साहब की ग़ज़लों का चयन उन के बेटे फ़ीरोज़ और जनाब फ़ुज़ैल ने किया है। किताब प्राप्ति के लिए आप अल किताब इंटरनेशनल ,मुरादी रोड, बटाला हाउस नई दिल्ली ,विजय पब्लिशर्स 9 मार्किट दरिया गंज और मॉडर्न पब्लिशिंग हाउस वगोला मार्किट नयी दिल्ली से सम्पर्क कर सकते हैं।

ये सब कुछ नहीं करना तो यूँ करें कि आप मुज़फ़्फ़र साहब के साहिब जादे जनाब फ़िरोज़ भाई को उनके मोबाईल न.09717788387 पर संपर्क कर किताब प्राप्ति का आसान रास्ता पूछें। कुछ भी करें एक बात पक्की है कि इस किताब के पन्नों को पलटते हुए आप जिस अनुभव से गुज़रेंगे उसे लफ़्ज़ों में बयां नहीं किया जा सकता। ,
इस पोस्ट के अंत तक आने के बाद मुझे महसूस हो रहा है कि अभी बहुत कुछ छूट गया है जिसका जिक्र होना चाहिए था सागर की एक बूँद से चाहे आप सागर में मौजूद अथाह पानी का स्वाद या उसमें मिले नमक और दूसरे मिनरल्स की मात्रा का भले पता लगा लें, लेकिन सागर की गहराई का अंदाज़ा नहीं लगा सकते उसके लिए तो आपको उसमें डुबकी ही लगानी पड़ेगी।

आखिर में उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर आपको पढ़वाते हैं और अगली किताब की खोज में निकलते हैं :

फन को महकाये रखते हैं ज़ख़्मी दिल के ताज़ा फूल 
टूटी तख्ती काम आती है नय्या पार लगाने में 

तितली जैसे रंग बिखेरो घायल हो कर काँटों से 
मकड़ी जैसे क्या उलझे हो ग़म के ताने बाने में 

बुझते बुझते भी ज़ालिम ने अपना सर झुकने न दिया 
फूल गयी है सांस हवा की एक चिराग़ बुझाने में 

 इस पोस्ट को अगर मुज़फ़्फ़र साहब के एक शेर से की नज़र से देखा जाय तो वो शेर होगा :

 अंदर से अच्छे होते हैं अक्सर आड़े तिरछे लोग 
 जैसे अफ़साना मंटो मन्टो का,जैसे शेर मुज़फ़्फ़र का


Monday, August 3, 2015

किताबों की दुनिया -107/1

बन में जुगनू जग मग जग मग 
सपनों में तू जग मग जग मग 

जब से दिल में आग लगी है 
हर दम हर सू जग मग जग मग 

रैन अँधेरी यादें तेरी 
आंसू आंसू जग मग जग मग 

काले गेसू बादल बादल 
आँखें जादू जग मग जग मग 

मेरी ग़ज़लें गहरी नदिया 
मोती सा तू जग मग जग मग 

मेरे साथ बहुत कम ऐसा हुआ है कि किसी किताब पर लिखते वक्त मेरी कलम ठिठक जाए। जब दिल की बात कह सकने में लफ्ज़ कामयाब होते नज़र नहीं आते तब ऐसी हालत होती है। आज हम जिस किताब और शायर का जिक्र किताबों की दुनिया श्रृंखला में करने जा रहे हैं उसके बारे में लिखते वक्त कलम ठिठका हुआ है। आप ही ऊपर दी गयी ग़ज़ल के शेर पढ़ कर बताएं कि जिस किताब में ऐसे अनूठे ढंग से काफिये और रदीफ़ पिरोये गए हों उसकी तारीफ़ के लिए लफ्ज़ कहाँ से जुटाएँ जाएँ ? 

शेर हमारे नश्तर जैसे अपना फन है मरहम रखना 
क्या ग़ज़लों में ढोल बजाना, शाने पर क्यों परचम रखना 

उन पेड़ों के फल मत खाना जिनको तुमने ही बोया हो 
जिन पर हों अहसान तुम्हारे उनसे आशाएं कम रखना 

लुत्फ़ उसी से बातों में है, तेज उसी का रातों में है 
खुशियां चाहे जितनी बांटो घर में थोड़ा सा ग़म रखना 

जी तो ये कर रहा है की मैं हमारे आज के शायर जनाब 'मुज़फ़्फ़र हनफ़ी ' साहब और उनकी किताब ' मुज़फ़्फ़र की ग़ज़लें ' के बीच से हट जाऊं लेकिन क्या करूँ अगर मैंने ऐसा किया तो ये उर्दू शायरी के दीवाने हिंदी पाठकों के साथ अन्याय होगा। दरअसल मुज़फ़्फ़र हनफ़ी साहब जैसे कद्दावर शायर के नाम से हिंदी का पाठक अधिक परिचित नहीं है। उर्दू भाषा में 90 से अधिक विभिन्न विषयों पर लिखी किताबों के लेखक की सिर्फ ये एक किताब ही ,जिसकी हम चर्चा करेंगे ,देवनागरी में उपलब्ध है।


हमें वो ढूंढता फिरता है सातों आसमानों में 
उसे हम आँख से मिटटी लगाकर देख लेते हैं 

ख़ुदा महफ़ूज़ रक्खे इस मोहल्ले को तअस्सुब से 
यहाँ हमसाए मुझको मुस्कुरा कर देख लेते हैं 
तअस्सुब= सम्प्रदायिकता 

मियाँ बेवज्ह तुम क्यों डूब जाते हो पसीने में 
अगर कुछ लोग तुमको तीर खा कर देख लेते हैं 

इस किताब पर आगे बात करने से पहले मेरा ये फ़र्ज़ बनता है कि मैं जनाब मुज़फ़्फ़र हनफ़ी साहब के साहबज़ादे जनाब फ़िरोज़ हनफ़ी साहब का तहे दिल से शुक्रिया अदा करूँ जिन्होंने ये किताब मुझे भेजी वरना सच बात तो ये है कि मैं शायद ही इस किताब तक पहुँच पाता। फ़िरोज़ साहब से भी थोड़ी बहुत गुफ़्तगू व्हाट्स एप के उस ग्रुप के माध्यम से हुई जिसे मुंबई निवासी शायर मेरे अज़ीज़, छोटे भाई नवीन चतुर्वेदी चलाते हैं।

वो हमारे मकान पर आया 
तीर आखिर कमान पर आया 

रह गए दंग हाँकने वाले 
शेर सीधा मचान पर आया 

दोस्तों ने चलाये थे नेज़े 
और दोष आसमान पर आया 

मेज़ पर गेंद खेलता बच्चा 
धूप निकली तो लान पर आया 

अपना पहला शेर मात्र 9 साल की कच्ची उम्र में कहने वाले मुज़फ़्फ़र साहब का जन्म एक अप्रैल 1936 को खंडवा मध्य प्रदेश में हुआ। उनका असली वतन हस्वा फतेहपुर उत्तर प्रदेश है। प्रारम्भिक शिक्षा मध्य प्रदेश से पूरी करने के बाद उन्होंने बी.ऐ , एम. ऐ, एल. एल. बी , और पी एच डी की डिग्रियां क्रमश; अलीगढ और बरकतुल्लाह यूनिवर्सिटी भोपाल से हासिल कीं। चौदह वर्षों तक मध्य प्रदेश के फारेस्ट विभाग में काम करने के बाद हनफ़ी साहब दिल्ली आ गए। बहुत कम लोग जानते होंगे कि फारेस्ट विभाग में काम करने के दौरान हनफ़ी साहब की पहचान काव्य गोष्ठियों में दुष्यंत कुमार से हुई और उन्हें ग़ज़ल लेखन के लिए प्रोत्साहित किया।

सबकी आवाज़ में आवाज़ मिला दी अपनी 
इस तरह आप ने पहचान मिटा दी अपनी 

लोग शोहरत के लिए जान दिया करते हैं 
और इक हम है कि मिट्टी भी उड़ा दी अपनी 

देखिये, खुद पे तरस खाने का अंजाम है ये 
इस तरह आप ने सब आग बुझा दी अपनी 

1974 में जनाब मुज़फ्फ़र हनफ़ी साहब देहली गये और नेशनल कौंसिल ऑफ़ रिसर्च एंड ट्रैनिंग में असिस्टेंट प्रोडक्शन ऑफ़िसर पद पर 2 साल तक काम किया। फरवरी 1978 में जामिया मिलिआ यूनिवर्सिटी में उर्दू के अध्यापक नियुक्त हुऐ और 1989 तक जामिआ में रीडर के पद पर काम किया।

आग लगाने वालों में थे मेरे भाई भी 
जलने वाली बस्ती में था मेरा भी घर एक 

सोने की हर लंका उनकी और मुझे बनवास 
चतुर सयाने दस दस सर के मुझ मूरख सर एक 

गुलशन पर दोनों का हक़ है काँटा हो या फूल 
टकराने की शर्त न हो तो शीशा पत्थर एक 

ऐसे में भी कायम रक्खी लहज़े की पहचान 
ग़ज़लों के नक़्क़ाल बहुत हैं और मुज़फ़्फ़र एक 

1989 में कलकता यूनिवर्सिटी ने उन्हे इक़बाल चेयर प्रोफेसेर के पद पर नियुक्त किया और जून 1989 में वह यह पद क़बूल कर के कलकता पहुँचे। इक़बाल चेयर 1977 में स्थापित की गयी थी और इस पर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का चयन होगया था और वो यह पद स्वीकार करने को तैयार थे मगर ऑफिशियल करवाई में कुछ देरी हुई और वो लोटस के संपादक /एडिटर हो कर बैरूत चले गए। इक़बाल चेयर 12 साल तक खाली रही फिर 1989 में पहली बार मुज़फ्फर हनफी का चयन हुआ। मुज़फ्फर हनफी कलकता यूनिवर्सिटी के पहले इक़बाल चेयर प्रोफेसर हुऐ।

बहुत अच्छा अगर जम्हूरियत ये है तो हाज़िर है 
उन्हें आबाद कर देना, हमारे घर जला देना 

बुलंदी से हमेशा एक ही फ़रमान आता है 
शगूफ़े नोच लेना, तितलियों के पर जला देना 

वो हाथों हाथ लेना डाकिये को राह में बढ़ कर 
लिफ़ाफ़ा चूम लेना फिर उसे पढ़ कर जला देना 

हनफ़ी साहब के बारे में कहने के लिए एक पोस्ट काफी नहीं है , अभी तो बहुत सारी बातें बतानी हैं उनके ढेर सारे मकबूल शेर पढ़ने हैं लिहाज़ा हमें इस किताब का जिक्र अपनी अगली पोस्ट में भी करना होगा तभी कुछ बात बनेगी। आप तब तक इस पोस्ट को दुबारा तिबारा चौबारा पढ़िए, पढ़ते रहिये हम जल्द फिर हाज़िर होते हैं इस किताब की कुछ ग़ज़लों के शेर और हनफ़ी साहब के बारे में अधिक जानकारी लेकर।

आईये चलते चलते हम आप को उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर भी पढ़वाते चलते हैं : 

फूल की आँख में लहू कैसे 
ओस ने कह दिया है कान में क्या 

पूछना चाहता हूँ बेटों से 
मैं भी शामिल हूँ खानदान में क्या 

मौज, खुशबू, सबा, किरण, शबनम 
ये क़सीदे हैं तेरी शान में क्या


जनाब मुज़फ्फ़र हनफ़ी साहब