Monday, December 24, 2012

किताबों की दुनिया - 77

नए प्रोजेक्ट के सिलसिले में इन दिनों लगभग हर महीने दो तीन दिनों के लिए गाजिआबाद और दिल्ली जाना पड़ रहा है. ज़िन्दगी अभी मुंबई -जयपुर और दिल्ली के बीच घूम रही है. अटैची पूरी तरह खुलती भी नहीं के फिर से पैक करने का समय हो जाता है. उम्र के इस मोड़ पर भागदौड़ का अपना मज़ा है लेकिन इस वजह से पढना लिखना कुछ कम हो रहा है. अब साहब ज़िन्दगी है, इसमें तो ये सब चलता रहता है :

ज़िन्दगी में फूल भी हैं खार भी 
हादसे भी हैं मगर त्यौहार भी 

हर जगह हैं गैर -ज़िम्मेदार लोग 
हर जगह हैं लोग ज़िम्मेदार भी 

प्यार हो जाय जहाँ पर बे-असर 
बे-असर होगी वहां तलवार भी 

खूबसूरत इत्तेफाक देखिये कि गाजिआबाद के जिस होटल में अक्सर मैं ठहरता हूँ उसी के पास पता चला मेरे प्रिय शायर " अशोक रावत " भी रहते हैं. अशोक जी की ग़ज़लें मैं सतपाल ख्याल साहब के ब्लॉग पर पढ़ कर उनका प्रशंशक हो चुका था, वहीँ से उनका मोबाइल नंबर भी मिला. उन्हें फोन किया तो लगा जैसे बरसों की पहचान हो. बात निकली और फिर दूर तलक गयी. पहली ही बार में इतनी आत्मीयता से बात करने वाले शख्स मैंने बहुत कम देखें हैं आज के इस युग में जहाँ :

अनपहचानी सी लगती हैं अपने ही घर की दीवारें 
अपनी ही गलियों में लगता जैसे हम अनजान हो गए 

बिगड़ गए ताऊ जी, पापा के हिस्से का जिक्र किया 
जब ज़ेवर की जब बात चली तो चाचा बेईमान हो गए 

छोटे भाई के बच्चों की शक्लें अब तक याद नहीं हैं 
राखी नहीं भेजती जीजी भैया अब महमान हो गए 

अशोक जी जैसा व्यक्ति किसी अजूबे से कम नहीं. मैंने फोन पर उनसे उनका ग़ज़ल संग्रह "थोडा सा ईमान" ,जिसका जिक्र आज हम करेंगे , पढने की ख्वाइश का इज़हार किया. अगले दिन सुबह ही वो अपनी किताब के साथ मेरे होटल की लाबी में मेरा इंतज़ार करते हुए मिले. मेरी खातिर अपने घर से दूर खास तौर पर उनका मुझसे मिलने और किताब देने आना मुझे भाव विभोर कर गया. बातों का सिलसिला जब शुरू हुआ तो लगा जैसे बरसों से बिछुड़े दो मित्र गप्पें मार रहे हैं.


फूलों का अपना कोई परिवार नहीं होता 
खुशबू का अपना कोई घर द्वार नहीं होता 

इस दुनिया में अच्छे लोगों का ही बहुमत है 
ऐसा अगर न होता ये संसार नहीं होता 

कितने ही अच्छे हों कागज़ पानी के रिश्ते 
कागज़ की नावों से दरिया पार नहीं होता 

अशोक जी की ग़ज़लें उनके व्यक्तित्व की तरह सच्ची और सरल हैं. उनमें लफ्फाज़ी बिलकुल नहीं है. वो जो अपने आस पास देखते हैं महसूस करते हैं वो ही सब उनके शेरों में दिखाई देता है. इंसान और समाज में आ रहे नकारात्मक बदलाव से वो आहत होते हैं. उनकी ये पीड़ा उनके शेरों में ढल कर उतरती है :

मील के कुछ पत्थरों तक ही नहीं ये सिलसिला 
मंजिलें भी हो गयी हैं अब लुटेरों की तरफ 

जो समंदर मछलियों पर जान देता था कभी 
वो समंदर हो गया है अब मछेरों की तरफ 

सांप ने काटा जिसे उसकी तरफ कोई नहीं 
लोग साँपों की तरफ हैं या सपेरों की तरफ 

15 नवम्बर 1953 को मथुरा जिला के मलिकपुर गाँव में जन्में अशोक भाई सिविल इंजिनियर हैं, आगरा के निवासी हैं और नॉएडा स्थित भारतीय खाद्य निगम में उच्च अधिकारी हैं. सिविल इंजीनियर से बेहतर भला कौन शायर हो सकता है. सिविल इंजीनियर को पता होता है किस काम के लिए कैसा मिश्रण तैयार किया जाता है कैसे नक़्शे बनाये जाते हैं और कैसे ईंट दर ईंट रख कर निर्माण किया जाता है. जरा सी चूक भारी पड़ जाती है. अशोक जी ग़ज़लों में छुपा उनका सिविल इंजीनियरिंग पक्ष साफ़ दिखाई देता है. उनके शेर एक दम कसे हुए नपे तुले होते हैं जिसमें न एक लफ्ज़ जोड़ा जा सकता है और न घटाया.

मेरी नादानी कि जो सपनों में देखे 
मैं हकीक़त में वो मंज़र चाहता था 

भूल मुझसे सिर्फ इतनी सी हुई है 
मैं भी हक़ सबके बराबर चाहता था 

घर का हर सामान मुझको मिल गया पर 
वो नहीं जिसके लिए घर चाहता था 

मेरे ये कहने पर की आजकल लोग न शायरी पढ़ते हैं न सुनते हैं वो तमतमा गए. बोले नीरज जी आप सही नहीं हैं आज कल भी लोग अच्छी शायरी पढ़ते और पसंद करते हैं. आजके दौर में कच्चे शायरों का जमावड़ा अधिक हो गया है. हर कोई शेर या ग़ज़ल कह रहा है, बिना ग़ज़ल का व्याकरण समझे. कम्यूटर पर इतनी सुविधा है के आप कुछ भी लिखें आपको वाह वाह करने वाले तुरंत मिल जाते हैं जो आपके पतन का कारण बनते हैं. पहले एक शेर कहने में पसीना निकल जाता था उस्ताद लोग एक एक मिसरे पर हफ़्तों शागिर्द से कवायद करवाते थे तब कहीं जा कर एक शेर मुकम्मल होता था आज उस्ताद को कौन पूछता है फेसबुक पे शेर डालो और पसंद करने वालों की कतार लग जाती है क्यूँ की पसंद करने वाले को भी तो आपकी वाह वाही की जरूरत होती है. तू मुझे खुजा मैं तुझे खुजाऊं की परम्परा चल पड़ी है.

तुम्हारा बेख़बर रहना बड़ी तकलीफ देता है 
पता तो है तुम्हें सब कुछ कहाँ पर क्या खराबी है 

कभी इक पल गुज़रता है तो लगता है कि युग बीता 
कभी यह ज़िन्दगी, महसूस होता है ज़रा सी है 

खुदा का काम हो जैसे तमाशा देखते रहना 
कभी भी ये नहीं लगता कहीं कोई खुदा भी है 

ग़ज़लों की ये छोटी सी किताब गागर में सागर समान है ,जिसे शब्दकार प्रकाशन शाहगंज आगरा ने प्रकाशित किया है. अत्यंत सादे कलेवर वाली इस किताब में अशोक जी की वो ग़ज़लें हैं जो देश की प्रसिद्द पत्रिकाओं और अखबारों में छप चुकी हैं. हर ग़ज़ल के नीचे उस पत्रिका या अखबार का नाम और प्रकाशन तिथि अंकित है. आपको इस किताब की प्राप्ति के लिए अशोक जी से संपर्क करना होगा जो इन दिनों अपने दूसरी पुस्तक के प्रकाशन की तैय्यारी में व्यस्त हैं. आप अशोक जी से उनके मोबाइल +919458400433 (आगरा ) और +919013567499 (नोयडा ) पर संपर्क कर उन्हें इतने बेहतरीन शेरों के लिए बधाई दें और आज की ग़ज़ल पर चर्चा करें आपको असीमित आनंद आएगा. यकीन न हो तो आजमा कर देखें. अब समय हो गया है आपसे विदा लेने का लेकिन चलने से पहले पढ़िए अशोक जी की ग़ज़ल के ये शेर :

चैन से रहने का हमको मशवरा मत दीजिये 
अब मज़ा देने लगी हैं ज़िंदगी की मुश्किलें 

कुछ नहीं होगा अंधेरों की शिकायत से जनाब 
जानिये ये भी कि क्या हैं रौशनी की मुश्किलें 

रोज़ उठने बैठने की साथ में मजबूरियां 
वर्ना कोई कम नहीं हैं दोस्ती की मुश्किलें

Monday, December 10, 2012

जहाँ उसूल दांव पर लगे वहां उठा धनुष

इस बार दिवाली के शुभ अवसर पर गुरुदेव पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर तरही मुशायरा आयोजित किया गया. तरही का मिसरा था "घना जो अन्धकार हो तो हो रहे तो हो रहे" इस मिसरे के साथ शिरकत करने वाले शायरों और कवियों ने अपनी रचनाओं से अचंभित कर दिया. मुशायरे का पूरा मज़ा तो आप गुरुदेव के ब्लॉग पर जा कर ही ले सकते हैं यहाँ पढ़िए वो ग़ज़ल जो मैंने उस तरही में भेजी थी. उम्मीद है पसंद आएगी:




तुझे किसी से प्यार हो तो हो रहे तो हो रहे 
 चढ़ा हुआ ख़ुमार हो तो हो रहे तो हो रहे 

 जहाँ पे फूल हों खिले वहां तलक जो ले चले 
 वो राह, खारज़ार हो तो हो रहे तो हो रहे 

 उजास हौसलों की साथ में लिये चले चलो 
 घना जो अन्धकार हो तो हो रहे तो हो रहे 

बशर को क्या दिया नहीं खुदा ने फिर भी वो अगर 
बिना ही बात ख़्वार हो तो हो रहे तो हो रहे 

 मेरा मिजाज़ है कि मैं खुली हवा में सांस लूं 
 किसी को नागवार हो तो हो रहे तो हो रहे 

 चमक है जुगनूओं में कम, मगर उधार की नहीं 
 तू चाँद आबदार हो तो हो रहे तो हो रहे 
 आबदार: चमकीला 

 जहाँ उसूल दांव पर लगे वहां उठा धनुष 
 न डर जो कारज़ार हो तो हो रहे तो हो रहे 
 कारज़ार : युद्ध 

 फ़कीर हैं मगर कभी गुलाम मत हमें समझ 
 भले तू ताज़दार हो तो हो रहे तो हो रहे 

 पकड़ तू सच की राह को भले ही झूठ की तरफ 
 लगी हुई कतार हो तो हो रहे तो हो रहे