Monday, May 28, 2012

गुलमुहर के पेड़ नीचे

देश में गर्मी अपने पूरे रंग में है लेकिन यहाँ खोपोली में बादलों ने हलके से आहट देनी शुरू कर दी है. गर्मियों का अपना आनंद होता है इसी विषय पर पंकज जी के ब्लॉग पर पिछले साल एक तरही मुशायरा हुआ जिसमें दिया गया मिसरा " और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी" पर पेश की गयी खाकसार की ग़ज़ल अब मेरे ब्लॉग पर पढ़िए और गर्मियों को दुआएं दीजिये.



आम, लीची सी रसीली, गर्मियों की वो दुपहरी
और शहतूतों से मीठी, गर्मियों की वो दुपहरी

फालसे, आलू बुखारों की तरह खट्टी-ओ-मीठी
यार की बातों सी प्यारी, गर्मियों की वो दुपहरी

थे पिता बरगद सरीखे और शीतल सी हवा माँ
तो लगा करती थी ठंडी, गर्मियों की वो दुपहरी

भूलना मुमकिन नहीं है, गुलमुहर के पेड़ नीचे
साथ हमने जो गुजारी, गर्मियों की वो दुपहरी

कूकती कोयल के स्वर से गूँजती अमराइयों में
प्यार के थे गीत गाती, गर्मियों की वो दुपहरी

बिन तेरे उफ़! किस कदर थी जानलेवा यार लम्बी
और सन्नाटे में डूबी, गर्मियों की वो दुपहरी

सर्दियों में भी पसीना याद कर आता है 'नीरज'
तन जलाती चिलचिलाती, गर्मियों की वो दुपहरी

Monday, May 14, 2012

किताबों की दुनिया - 69

पिछले दिनों मुंबई के अपने मित्र सतीश शुक्ल "रकीब " द्वारा अजीम शायर तर्ज़ लखनवी साहब की याद में आयोजित कार्यक्रम में जाने का मौका मिला. सोचा था इतने बड़े शायर की याद में रखे कार्यक्रम में बहुत से नए पुराने शायरों को सुनने का मौका मिलेगा लेकिन ऐसा हो नहीं पाया. जिस शहर में छुट भैय्ये अभिनेता और नेताओं को देखने के भीड़ जुट जाती है उसी शहर में एक अदीब को याद करने वाले सिर्फ मुठ्ठी भर लोग ही नज़र आये. अपने देश में अदीबों के साथ ऐसा व्यवहार कोई नयी बात नहीं है. हमारे देश में जहाँ "अदम गौंडवी" जैसे कद्दावर शायर उपयुक्त चिकित्सा के अभाव में दम तोड़ देते हों वहां किसी अदीब की याद में आयोजित कार्यक्रम में लोगों के न आने की घटना असाधारण नहीं है. बस, एक अदीब की याद में रखे कार्यक्रम में शिरकत करने अदीब ही न आयें ये बात दुःख पहुंचाती है. कहते हैं की औरत ही औरत की दुश्मन होती है वैसे ही मुझे लगता है अदीब ही अदीब का दुश्मन बना हुआ है. लेकिन शुक्र है अभी भी एक आध ही सही, अदीब हैं जो दूसरे अदीब की तहे दिल से प्रशंशा करते हैं.

इस कार्यक्रम में अपनी बढती उम्र और ख़राब स्वाथ्य के बावजूद उर्दू के मशहूर शायर जनाब "नक्श लायलपुरी" आये और उन्होंने न केवल अपने अज़ीज़ दोस्त को श्रधांजलि दी बल्कि कार्यक्रम की अध्यक्षता भी पूरी तन्मयता से की. आज हम उन्हीं की लिखी किताब " तेरी गली की तरफ" जिसका एक पृष्ठ देव नागरी में और दूसरा उर्दू लिपि में छपा है का जिक्र अपनी किताबों की दुनिया श्रृंखला में करेंगे.


लोग फूलों की तरह आयें के पत्थर की तरह
दर खुला है मेरा आगोशे-पयम्बर की तरह

रात के वक्त कोई इसका तमाशा देखे
दिल के बिफर हुआ रहता है समंदर की तरह.

ये भी ग़म दे के गुज़र जाते तो क्या रोना था
हादिसे ठहरे हुए हैं किसी मंज़र की तरह

सच है नक्श साहब और उनका घर आगोशे पयम्बर से कम नहीं. जो इंसान इतना प्यारा सरल सीधा और सच्चा हो और जिस से मिल कर ऐसी राहत और सुकून मिले जैसे तेज़ गर्मी में किसी बरगद के पेड़ के नीचे आने से मिलती है तो वो पयम्बर नहीं तो और क्या होगा? नक्श साहब के लिखे " रस्मे उल्फत को निभाएं तो निभाएं कैसे..." और "तुम्हें हो न हो मुझको तो इतना यकीं है..." जैसे फ़िल्मी गानों का मैं दीवाना था और आज भी हूँ, लेकिन उनकी शायरी के बारे में मुझे इल्म नहीं था. इस किताब को पढ़ कर मुझे अंदाज़ा हुआ के वे कितने अजीम शायर हैं. वो अब मेरे लिए क्या हैं ये मैं आपको उन्हीं के इन शेरों के माध्यम से बता रहा हूँ:

तेरी आँखों में कई रंग झलकते देखे
सादगी है के झिझक है के हया है क्या है ?

रूह की प्यास बुझा दी है तेरी कुरबत ने
तू कोई झील है, झरना है, घटा है क्या है?

नाम होटों पे तेरा आए तो राहत सी मिले
तू तसल्ली है, दिलासा है, दुआ है क्या है ?

24 फरवरी 1928 को बंटवारे से पहले पंजाब के लायलपुर जिसका नाम अब पकिस्तान सरकार ने फैसलाबाद कर दिया गया है, के एक गाँव गोगेरा में नक्श साहब का जन्म हुआ. इनका बचपन का नाम जसवंत राय था लेकिन शायर बनने के बाद नक्श हुआ और फिर नक्श ही रह गया. बंटवारे के समय बिगड़ते हालात देखते हुए इनका परिवार लखनऊ चला आया.नक्श साहब का मन जब लखनऊ में रमा नहीं तो वो मुंबई के लिए रवाना हो गए. अनजान शहर में एक भले इंसान को जिन दिक्कतों का सामना करना पड़ता है वो इन्हें भी करना पड़ा जैसे भूखे पेट खुले में सोना , काम की तलाश में दर दर भटकना वगैरह वगैरह. घुन के पक्के नक्श साहब ने हिम्मत नहीं हारी . भारी संघर्ष के बाद उन्हें सरकारी नौकरी मिली जिसे करते हुए वो अपना पहला प्यार शायरी भी करते रहे फिर एक दिन नौकरी छोड़ दी और फिल्मों की और रुख किया, धीरे धीरे उनकी गिनती फिल्मों के चर्चित गीतकारों में होने लगी.

ज़हर देता है कोई, कोई दवा देता है
जो भी मिलता है मेरा दर्द बढ़ा देता है

वक्त ही दर्द के काँटों पे सुलाए दिल को
वक्त ही दर्द का एहसास मिटा देता है

नक्श रोने से तसल्ली कभी हो जाती थी
अब तबस्सुम मेरे होटों को जला देता है


नक्श साहब ने साफ़ सुथरी समझ में आने वाली ज़बान, दिलकश अंदाज़ और खूबसूरत लहजे में फ़िल्मी नगमें और गीत लिखे और इसी खासियत को अपनी शायरी में भी दोहराया. मुंबई के मशहूर शायर जनाब "ज़मीर काज़मी" साहब ने इस किताब में लिखा है की "कामयाब शायरी वही है जो दिल से निकले और दिलों में समा जाय". नक्श साहब की शायरी उनकी इस बात की पैरवी करती दिखाई देती है. वो बहुत आसानी से अपने अशआर लोगों के दिलों में उतार देते हैं:


अपनी शायरी सुनाते हुए नक्श साहब

शाखों को तुम क्या छू आए
काँटों से भी खुशबू आए

कोई तो हमदर्द है मेरा
आप न आए आंसू आए

'नक्श' घने जंगल में दिल के
फिर यादों के जुगनू आए

काँटों से भी खुशबू की बात करने वाले ऐसे नायाब शायर को वो बुलंदी नसीब नहीं हुई जो उनके समकालीन शायरों को हुई. कारण आपको नक्श साहब से मिल कर साफ़ हो जायेगा या फिर अज़ीज़ कैसी साहब ने जो इस किताब में लिखा है उसे पढ़ कर " नक्श साहब के चाहने वाले बहुत हैं, उनके गीत मशहूर हैं उनकी ग़ज़लें महफ़िलों सभाओं में गई जाती हैं लेकिन उनको अपने चाहने वालों और दोस्तों का इस्तेमाल करके अपने आपको प्रोजेक्ट करने का हुनर नहीं आता."

ग़म तो है हासिले ज़िन्दगी दोस्तों
बांटना है तो बांटो ख़ुशी दोस्तों

यह गनीमत है कुछ तो अँधेरा छटा
घर जले रौशनी तो हुई दोस्तों

'नक्श' से मिल के तुमको चलेगा पता
जुर्म है किस कदर सादगी दोस्तों

कार्यक्रम की समाप्ति के बाद मैं उन्हें घर छोड़ने गया . रास्ते में ज़र्दे की दो तीन पत्तियां अपनी ज़बान पर रख कर वो अपने और अपने ज़माने के शायरों के पुराने फ़िल्मी गीत बड़े रस ले कर सुनाते गए. उन्होंने आज के फ़िल्मी गीतों के स्तर पर दुःख व्यक्त किया. बोले " बरखुरदार हमारे ज़माने के फ़िल्मी गानों में अर्थ समाये होते थे पर आज के गानों में शब्द ही नहीं होते तो अर्थ कहाँ से होंगे? पुराने फ़िल्मी गीत पूरे के पूरे आज भी लोगों की जबान पर हैं लेकिन आज के गीतों की दूसरी लाइन भी शायद ही कोई बता पाए, दरअसल बरखुरदार पहले लोग दिल से गाने सुना करते थे आज कल कान से सुनते हैं, कहने का मतलब ये के एक कान से सुनते हैं दूसरे से निकाल देते हैं ."
बच्चों सी निश्चल मुस्कराहट उनके चेहरे पर खिल उठी.
उनके मुस्कुराते हुए चेहरे पर आप उन ग़मों को नहीं पढ़ सकते जो इनकी शायरी में झलकते हैं

प्यार को दो ही पल नसीब हुए
इक मुलाकात, इक जुदाई है

आइना पत्थरों से टकराया
ये सजा सादगी की पाई है

मेरी इक सांस भी नहीं मेरी
ज़िन्दगी किस कदर पराई है

शायरी की इस लाजवाब किताब खरीदने के लिए आप को इन में से किसी पते पर संपर्क करना होगा :-
१. किताबदार 5/A ,18/110 जलाल मंजिल, टेमकर स्ट्रीट, जे.जे. हस्पताल के पास मुंबई- 400008
२. गौरव अपार्टमेन्टस C/A/5 होली क्रास रोड, आई. सी.कोलोनी, बोरीवली (वेस्ट) मुंबई 400103
३. अदब नामा , 303 क्लासिक प्लाज़ा तीन बत्ती, भिवंडी, थाणे .
मुझे अफ़सोस है के मेरे पास नक्श साहब का फोन या मोबाइल नंबर नहीं है लेकिन आप उन्हें इस खूबसूरत शायरी के लिए बधाई यहाँ कमेन्ट द्वारा दे सकते हैं. इस पोस्ट की एक प्रिंटेड प्रति मैं कुछ दिनों बाद उन्हें पहुंचाने वाला हूँ. चलते चलते नक्श साहब के ये तीन शेर और पढ़ते चलिए और मानिए कि एक अच्छा इंसान ही अच्छे शेर कह सकता है:

कोई परदेस अगर जाय तो क्या ले जाये
भीगी भीगी हुई आँखों की दुआ ले जाये

याद रखता है उसे अहले ज़माना बरसों
ज़ख्म औरों के जो सीने में सजा ले जाये

मुझसे कलियों का तड़पना नहीं देखा जाता
काश गुलशन से कहीं दूर हवा ले जाये

तो चलते हैं दोस्तों शायरी की एक और किताब की तलाश में तब तक आप नक्श साहब की जादुई शायरी का मज़ा इस गीत को सुन कर लें...हो सकता है आज के नौजवानों ने रुना लैला के गाये फिल्म "घरोंदा" के इस गाने को न सुना हो लेकिन जिन्होंने सुना है वो दुबारा सुन कर इसका मज़ा लें:-