Monday, August 29, 2011

पढ़िए तो क्या क्या लिक्खा है दरिया की पेशानी पर


आपको याद होगा पिछले महीने की पोस्ट में मैंने एक अत्यंत प्रतिभा शाली युवा शायर अखिलेश तिवारी जी का परिचय आप सब से करवाया था. उनकी ग़ज़ल को सुधि पाठकों ने बहुत पसंद भी किया था इसीलिए आज फिर एक बार आपको अखिलेश जी की एक बेहद खूबसूरत ग़ज़ल पढवाता हूँ. मुझे उम्मीद है आप इस होनहार शायर की हौंसला अफ़जाही जरूर करेंगे. उनका मोबाईल नंबर एक बार फिर नोट कर लें:- 9460434278


हँसना रोना पाना खोना मरना जीना पानी पर
पढ़िए तो क्या क्या लिक्खा है दरिया की पेशानी पर

मँहगाई है दाम मिलेंगे सोचा था हमने लेकिन
शर्मिंदा हो कर लौटे हैं ख़्वाबों की अर्ज़ानी पर
अर्ज़ानी : सस्ताई, मंदी

इस उजड़ेपन में भी कुछ तो नज्ज़ारों के लायक हैं
वर्ना जमघट क्यूँ उमड़ा रहता है इस वीरानी पर

रात जो आँखों में चमके जुगनू मैं उनका शाहिद हूँ
आप भले चर्चा करिए अब सूरज की ताबानी पर
ताबानी: गर्मी , ताकत

सुब्ह,सवेरा दफ्तर,बीवी,बच्चे,महफ़िल,नींदें,रात
यार किसी को मुश्किल भी होती है इस आसानी पर

उसकी सपनों वाली परियां मैं क्यूँ देख नहीं पाता
बच्चा हैराँ है मुझ पर मैं बच्चे की हैरानी पर

एक अछूता मंज़र मुझको छूकर गुज़रा था अब तो
पछताना है खुद में डूबे रहने की नादानी पर

हम फ़नकारों की फितरत से वाकिफ हो तुम तो 'अखिलेश'
मक्सद समझो रुक मत जाना बस लफ़्ज़ों के मानी पर


लीजिये अब देखिये अखिलेश जी को ग़ज़ल सुनाते हुए

Monday, August 22, 2011

किताबों की दुनिया -58

उलझन में हूँ, कहाँ से शुरू करूँ? इसी उलझन की वजह से इस किताब को जब से ख़रीदा है न जाने कितनी बार उठाया पढ़ा और रख दिया. हमेशा ये ही उलझन रहती के कौनसे शेर रखें जाए और कौनसे छोड़े जाएँ. ये शायर हैं ही ऐसे. अपने कलाम से इन्होने उर्दू शायरी को जन जन तक पहुँचाया और इसका दीवाना बनाया. आज हिन्दुस्तान में दूसरा कोई शायर इनके जैसे मासूम और रेशमी एहसास में लिपटे शेर कहने वाला नहीं है.आज भले ही उम्र और बीमारी की वजह से ये मुशायरों से दूर रहते हों लेकिन एक वक्त था जब किसी भी मुशायरे में इनकी उपस्थितिउसकी कामयाबी की गारंटी मानी जाती थी. अपने तरन्नुम और मुहब्बत में डूबी शायरी से ये सुनने वाले पर जादुई असर डालते थे. मैं बात कर रहा हूँ आज हमारे देश के सबसे मकबूल शायर जनाब बशीर बद्र साहब का जिनकी शायरी की किताब "मैं बशीर हूँ" का जिक्र हम करने जा रहे हैं.


मैं कब कहता हूँ वो अच्छा बहुत है
मगर उसने मुझे चाहा बहुत है

खुदा इस शहर को महफूज़ रखे
ये बच्चों की तरह हँसता बहुत है

इसे आंसू का एक कतरा न समझो
कुआँ है और ये गहरा बहुत है

मैं हर लम्हे में सदियाँ देखता हूँ
तुम्हारे साथ इक लम्हा बहुत है

वाणी प्रकाशन वालों ने पिछले साल ही इस किताब को प्रकाशित किया है लेकिन इस के मुख्य पृष्ठ पर लिखी "बशीर बद्र की ताज़ा ग़ज़लें" वाली बात अखरती है. ये पाठकों को धोके में रखने वाली बात है क्यूँ की इस किताब में उनकी नयी पुरानी सभी ग़ज़लें हैं. ऐसी ग़ज़लें भी हैं जिन्हें पढ़ते पढ़ते हम जवान हुए और अब उम्र के इस मोड़ पर भी उन्हें पढ़ते हुए उतना ही आनंद उठा रहे हैं जितना पहली बात पढ़ के उठाया था. मुहब्बत की जुबान कभी बासी नहीं पड़ती इसी लिए बद्र साहब की शायरी आप जब जितनी बार पढ़ें हमेशा ताज़ा लगती है.

बेवक्त अगर जाऊँगा सब चौंक पड़ेंगे
इक उम्र हुई दिन में कभी घर नहीं देखा

जिस दिन से चला हूँ मेरी मंजिल पर नज़र है
आँखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा

ये फूल कोई मुझको विरासत में मिले हैं
तुमने मेरा काँटों भरा बिस्तर नहीं देखा

पत्थर मुझे कहता है मेरा चाहने वाला
मैं मोम हूँ उसने मुझे छू कर नहीं देखा

गुलज़ार साहब ने एक जगह कहा है "डा. बशीर बद्र से जब मिला था तो लगा ज़िन्दगी ने एक और एहसान किया. उनकी ग़ज़ल में आज ही के दौर का एहसास होता है. उनकी ग़ज़ल का शेर सिर्फ एक ख्याल ही नहीं रह जाता, हादसा भी बन जाता है, अफसाना भी. मैं डा. बशीर बद्र का बहुत बड़ा फैन हूँ" गुलज़ार साहब ही क्यूँ हर वो इंसान जिसने बशीर साहब को पढ़ा या सुना है उनका फैन बने बिना रह ही नहीं सकता.

आंसुओं से मिरी तहरीर नहीं मिट सकती
कोई कागज़ हूँ कि पानी से डराता है मुझे

दूध पीते हुए बच्चे की तरह है दिल भी
दिन में सो जाता है रातों में जगाता है मुझे

सर पे सूरज की सवारी मुझे मंज़ूर नहीं
अपना कद धूप में छोटा नज़र आता है मुझे

पद्म श्री बशीर बद्र साहब का जन्म 15 फरवरी 1935 को अयोध्या में हुआ. अलीगढ यूनिवर्सिटी से एम् ऐ, पी.एच डी. करने बाद कुछ समय वहीँ लेक्चरार की हैसियत से पढाया और फिर बरसों मेरठ कालेज में उर्दू विभाग के विभागाध्यक्ष रहे. एक हादसे के दौरान बशीर साहब का घर आग में जल गया और उसके कुछ समय बाद उनकी पत्नी का भी देहांत हो गया. इन दोनों हादसों ने बशीर साहब को तोड़ कर रख दिया. उन्होंने दुनिया और अपनी शायरी से नाता तोड़ लिया. दोस्तों और रिश्तेदारों के बेहद इज़हार के बाद वो भोपाल चले आये जहाँ उनकी मुलाकर डा. राहत से हुई जिनसे बाद में उन्होंने निकाह भी किया. डा. राहत ने बशीर साहब के टूटे दिल को फिर से जिंदगी की ख़ूबसूरती से रूबरू करवाया. उसके बाद बशीर साहब ने फिर मुड़ कर नहीं देखा.


बशीर साहब अपनी शरीके हयात डा. राहत के साथ...दुर्लभ फोटो.

बस गयी है मिरे एहसास में ये कैसी महक
कोई ख़ुशबू मैं लगाऊं तिरी ख़ुशबू आये

मैंने दिन रात खुदा से ये दुआ मांगी थी
कोई आहट न हो दर पे मिरे और तू आये

उसने छू के मुझे पत्थर से फिर इंसान किया
मुद्दतों बाद मिरी आँखों में आंसू आये


बशीर साहब के अशआर इतने मकबूल हैं के इस किताब में से ऐसे अशआर छांटना जिन्हें मकबूलियत हासिल न हुई हो या कम सुने पढ़े गए हों बहुत मुश्किल काम है. जिस ग़ज़ल के शेर पढता हूँ लगता है अरे इसे तो पहले भी पढ़ा है. इसी उलझन के चलते ये किताब अब तक इस श्रृंखला में नहीं आ पा रही थी. दरअसल बशीर साहब की मैंने इस किताब को खरीदते वक्त इसके मुख्य पृष्ठ पर दी जानकारी को सच्ची मान लिया था. उनकी अनेक हिंदी में छपी किताबें जैसे "अल्लाह हाफिज़", "बशीर बद्र-नयी ग़ज़ल का एक नाम", "आसपास", "रहमतों की बारिश" आदि मेरे पास हैं लेकिन उनका जिक्र इस श्रृंखला में सिर्फ इसीलिए नहीं किया के मुझे कोई शेर ऐसा नहीं लगा जो लोगों की जबान पर अब न चढ़ा हो. खैर अब जब किताब का जिक्र शुरू कर ही दिया है तो चाहे आपके पहले से पढ़े हों इन शेरों का लुत्फ़ फिर से लीजिये क्यूँ के जैसा मैंने पहले भी कहा बशीर साहब की शायरी कभी बासी नहीं पड़ती.

कोई पत्थर नहीं हूँ कि जिस शक्ल में मुझको चाहो बनाया बिगाड़ा करो
भूल जाने की कोशिश तो की थी मगर याद तुम आ गए भूलते भूलते

आँखें आसूं भरी, पलकें बोझिल घनी, जैसे झीलें भी हों नर्म साये भी हों
वो तो कहिये उन्हें कुछ हंसी आ गयी, बच गए आज हम डूबते डूबते

अब वो गेसू नहीं हैं जो साया करें अब वो शाने नहीं जो सहरा बनें
मौत के बाजुओ तुम ही आगे बढ़ो थक गए आज हम घूमते घूमते


अपनी बेमिसाल शायरी के लिए बशीर साहब को ढेरों पुरूस्कार मिले हैं जिनमें सबसे अहम् हैं, भारत सरकार द्वारा दिया गया "पद्म श्री" , चार बार उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी द्वारा पुरूस्कार, एक बार बिहार उर्दू अकादमी द्वारा पुरूस्कार,पूंछ जम्मू और कश्मीर का "चराग हसन हसरत पुरूस्कार", न्यू यार्क में सन १९८० के लिए सर्वश्रेष्ठ शायर के लिए मीर अकादमी पुरूस्कार, दुबई में दिया गया "जश्न-ऐ-बशीर", राष्ट्रिय पुलिस अकादमी पुरूस्कार आदि...दुनिया भर में फैले उनके लाखों प्रशंशकों की फरमाइश पर उन्हें बहुत विदेश यात्रायें भी कीं. वो जहाँ गए वहीँ बस छा गए. उनकी शायरी पर शहरयार साहब ने कहा है" नयी ग़ज़ल पर किसी भी उनवान से गुफ्तगू की जाय बशीर बद्र का जिक्र जरूर आएगा. वो एक सच्चे और जिंदा शायर हैं"

पास रह कर जुदा सी लगती है
ज़िन्दगी बेवफ़ा-सी लगती है

नाम उसका लिखा है आँखों में
आंसुओं की खता सी लगती है

प्यार करना भी जुर्म है शायद
मुझसे दुनिया खफा सी लगती है

बशीर साहब की ग़ज़लों को यूँ तो बहुत से गायकों ने अपना स्वर दिया है खास तौर पर जगजीत सिंह जी ने तो उनकी बेशुमार ग़ज़लें गायीं हैं लेकिन मैं आपको वो सब नहीं सुना रहा. मैं आपको वो सुना रहा हूँ जो आपने शायद नहीं सुना होगा. सन 2003में भारत में पहली बार एक फिल्म बनी जिसमें हाड मांस के किरदारों के साथ एनिमेटेड कलाकार भी थे. फिल्म थी "भागमती" . उस फिल्म का एक गीत था जिसे बशीर बद्र साहब ने लिखा, रेखा भारद्वाज जी ने गाया और हेमा मालिनी पर फिल्माया गया था. आप ये गीत सुनिए और देखिये अगर पसंद आये तो मुझे धन्यवाद दीजिये. मैं तो इस गीत का दीवाना हूँ और ना जाने इसे कितनी बार सुन देख चुका हूँ.



Monday, August 15, 2011

तुझ पे दिल क़ुरबान

The Tri Colour Indian Flag


आईये स्वतंत्रता दिवस पर हम सब मिल कर उस वतन को याद करें जो कभी अपना हुआ करता था और जो कभी फिर से अपना होगा. आज हम आमजन, काबुलीवाला के पठान की तरह, निर्वासितों सा जीवन जीने को मजबूर है क्यूँ के आज ये वतन हमारी अकर्मण्यता की वजह से लुटेरों, घूसखोरों, घोटाले बाजों, ढोंगीयों और संवेदन हीन लोगों के कब्ज़े में है. वक्त आ गया है के हम जागें और फिर से अपने उसी वतन को हासिल करें जिस पर हमें कभी नाज़ हुआ करता था.


ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन
तुझ पे दिल क़ुरबान
तू ही मेरी आरज़ू, तू ही मेरी आबरू
तू ही मेरी जान

(तेरे दामन से जो आए उन हवाओं को सलाम
चूम लूँ मैं उस ज़ुबाँ को जिसपे आए तेरा नाम ) - २
सबसे प्यारी सुबह तेरी
सबसे रंगीं तेरी शाम
तुझ पे दिल क़ुरबान ...

(माँ का दिल बनके कभी सीने से लग जाता है तू
और कभी नन्हीं सी बेटी बन के याद आता है तू ) - २
जितना याद आता है मुझको
उतना तड़पाता है तू
तुझ पे दिल क़ुरबान ...

(छोड़ कर तेरी ज़मीं को दूर आ पहुंचे हैं हम
फिर भी है ये ही तमन्ना तेरे ज़र्रों की क़सम ) - २
हम जहाँ पैदा हुए
उस जगह पे ही निकले दम
तुझ पे दिल क़ुरबान ...

Monday, August 8, 2011

डरूंगी मैं धमाकों से हुआ पागल है क्या ढक्कन?

मुंबई में बम ब्लास्ट अब कोई अनहोनी घटना नहीं है. इस शहर को न जाने कितने बम ब्लास्टों के हादसों से गुज़ारना पड़ा है. अभी हाल ही में तेरह जुलाई की शाम को भी बम ब्लास्ट हुआ जिसमें कई मासूम जानें गयीं. मुंबई इन सब वारदातों से बहुत आहत है लेकिन टूटी नहीं है. ये ही मुंबई की खासियत है. जिंदादिली कोई इस शहर से सीखे।

मुंबई ने मुझे खुद अपनी ज़बान में, जो उसी की तरह मस्त और बिंदास है, ये ग़ज़ल भेजी है जिसमें उसने आतंकवादियों को डराया धमकाया भी है और समझाया भी है. काश इसे कोई आतंकवादी पढ़े, समझे और गुणे.

मुझे क्‍या सोच कर तू यूं डराता है, बता ढक्‍कन,
डरूंगी मैं धमाकों से हुआ पागल है क्या ढक्कन

ऐ हलकट सुन, अगर है नाज़ ताक़त पर तुझे तो फिर,
हमेशा वार छुप छुप के ही क्यूँ तूने किया ढक्कन
?

बहुत लफड़े किये हैं अब लगेगी वाट वो तेरी
करेगा ज़िन्दगी भर फिर नहीं कोई खता ढक्कन

जला करता है क्‍यों तू आग में हरदम अदावत की
कभी तो प्यार के दरिया में भी डुबकी लगा ढक्कन

बड़ी ही रापचिक सी ज़िन्दगी रब ने अता की है
इसे बर्बाद करने पर भला तू क्यूँ तुला ढक्कन ?

किसी के काम आने के लिए ही जिंदगानी है
किसी की जान ले लो ये कहाँ तूने पढ़ा ढक्कन ?

लगा कलटी बदी की तू अँधेरी सर्द राहों से
नहीं कुछ हाथ आएगा अगर इन पर चला ढक्कन




(इस ग़ज़ल को लिखवाने के पीछे गुरुदेव पंकज सुबीर जी का बहुत बड़ा हाथ है)

Monday, August 1, 2011

किताबों की दुनिया -57

मैंने देखा है, जरूरी नहीं के मैंने जो देखा है उस से आप भी सहमत हों, के खूबसूरत अशआर कहने वाले शायर अक्सर खूबसूरत नहीं होते. शायर का नाम आने पर हमारे ज़ेहन में एक दाढ़ी वाले अचकन टोपी पहने हुए शख्स का चेहरा उभरता है. हमें फिल्मों में और पत्र पत्रिकाओं में ऐसे ही चेहरे देखने की आदत पड़ चुकी है. बहुत हुआ तो सूट बूट में या फिर कमीज़ बुशर्ट में भी आजकल कभी कभार शायर मुशायरों में दिखाई दे जाते हैं.चलिए आप पहनावे को पहनावे को छोडिये और एक बात नोट कीजिये कि खुदा ने जिन्हें भी शायरी की सौगात दी है उनसे अच्छी शक्लो सूरत छीन ली है. लेकिन साहब अपवाद कहाँ नहीं होते. आज हम किताबों की दुनिया में एक ऐसे शायर की किताब की बात करेंगे जो देखने में भी उतना ही खूबसूरत है जितनी कि उसकी शायरी.

ये चाह कब है मुझे सब-का-सब जहान मिले
मुझे तो मेरी जमीं, मेरा आसमान मिले

जवां हैं ख़्वाब क़फ़स में भी जिन परिंदों के
मेरी दुआ है उन्हें फिर नयी उड़ान मिले

हो जिसमें प्यार की खुशबू, मिठास चाहत की
हमारे दौर को ऐसी भी इक जुबान मिले

प्यार की खुशबू और चाहत की मिठास से लबरेज़ इस खूबसूरत शायर का नाम है "देव मणि पांडेय " जिनकी किताब "खुशबू की लकीरें" का हम आज जिक्र करने जा रहे हैं. शायरी का शायद ही कोई ऐसा चाहने वाला होगा, खास तौर पर मुंबई में, जो देव मणि जी के नाम से वाकिफ़ न हो. मुंबई में होने वाली नशिश्तें, कविता और शायरी से सम्बंधित कार्यक्रम उनकी मौजूदगी के बिना अधूरे माने जाते हैं. अपने आकर्षक व्यक्तित्व और दिलकश अंदाज़ से वो हर महफ़िल में जान डाल देते हैं.



इस तरह कुछ आजकल अपना मुकद्दर हो गया
सर को चादर से ढका तो पाँव बाहर हो गया

जब तलक दुःख मेरा दुःख था, एक कतरा ही रहा
मिल गया दुनिया के ग़म से तो समंदर हो गया

इस कदर बदलाव आया आदमी में इन दिनों
कल तलक जो आइना था आज पत्थर हो गया

हमेशा मुस्कुराते, खुश मिजाज़ देव मणि जी से मेरी पहली मुलाकात मुंबई की बतरस काव्य संस्था द्वारा अनीता कुमार जी के घर पर आयोजित काव्य संध्या में लगभग पांच वर्ष पहले हुई थी. उसके बाद उनसे मिलने मिलाने का सिलसिला चल निकला. खोपोली के भूषण गार्डन में हुई पहली काव्य संध्या भी उनकी रहनुमाई में ही आयोजित की गयी थी.


"बतरस" की सभा में रचना पाठ करते हुए देवमणि पांडेय


दिल के आँगन में उगेगा ख़्वाब का सब्ज़ा जरूर
शर्त है आँखों में अपनी कुछ नमी बाकी रहे

आदमी पूरा हुआ तो देवता बन जाएगा
ये जरूरी है कि उसमें कुछ कमी बाकी रहे

दिल में मेरे पल रही है ये तमन्ना आज भी
इक समंदर पी चुकूं और तिश्नगी बाकी रहे

4 जून 1958 को सुल्तानपुर (यु.पी.) में जन्में देवमणि जी ने हिंदी एवं संस्कृत में प्रथम श्रेणी में एम्.ऐ. किया है और अब आयकर विभाग की मुंबई शाखा में कार्यरत हैं. उनकी अब तक दो किताबें दिल की बातें -1999 और खुशबू की लकीरें-2005 प्रकाशित हो चुकी हैं. इसके अलावा दूरदर्शन और आकाशवाणी से भी उनकी रचनाएँ प्रसारित हुई हैं. हिंदी के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में भी उनकी रचनाएँ प्रकाशित होती रहती हैं. उन्हें फिल्म पिंजर के लिए लिखे गीत "चरखा चलती माँ..." पर सन 2003 का “सर्वोत्तम गीत” पुरूस्कार मिल चुका है.

कितने दिलों में आज भी जिंदा हैं कुछ रिवाज़
पक्के घरों के बीच में अंगनाईयां मिलीं

हर शै में जैसे आज भी खुशबू है प्यार की
छू कर किसी को झूमती पुरवाइयाँ मिलीं

पलकों ने जब सजाया है कोई हसीन ख़्वाब
वादी में दिल की गूंजती शहनाईयां मिलीं

"खुशबू की लकीरें" किताब में देव मणि जी की न केवल तीस के लगभग ग़ज़लें हैं बल्कि इतने ही गीत और नगमें भी हैं. गीत ग़ज़लों के रसिक पाठकों के लिए ये किताब खास तौर से पठनीय है. इस किताब से आप देवमणि जी के बहु आयामी लेखन की एक झलक पा सकते हैं. आज के जीवन की आपाधापी, हर्ष-विषाद, मिलन-विछोह, ठोकर-पुचकार ,राग-विराग, सफलता-असफलता, आशा-अवसाद, उतार-चढाव जैसे सभी रंग इस किताब की रचनाओं में मिलते हैं.

ईद, दशहरा, दीवाली का रंग है फीका फीका सा
त्योंहारों में इक दूजे को गले लगाना भूल गए

बचपन में हम जिन गलियों की धूल को चंदन कहते थे
बड़े हुए तो उन गलियों में आना जाना भूल गए

शहर में आ कर हमको इतनी खुशियों के सामान मिले
घर-आँगन, पीपल-पगडण्डी,गाँव सुहाना भूल गए

मेघा बुक्स एक्स -11, नवीन शाहदरा, दिल्ली द्वारा प्रकाशित इस किताब को 01122323672 पर फोन करके इसकी प्राप्ति का रास्ता पूछा जा सकता है अथवा श्री देव मणि जी को इन खूबसूरत अशआरों के लिए उनके मोबाइल + 919821082126 पर बधाई देते हुए उनसे इस किताब के लिए आग्रह किया जा सकता है. दोनों में से कोई सा भी रास्ता चुनने को आप स्वतंत्र हैं. मेरी आपसे बस इतनी सी प्राथना है के इन खूबसूरत अशआरों के लिए देवमणि जी को कम से कम बधाई जरूर दें.

जीवन ऐसे पनप रहा है साए में दुःख दर्दों के
जैसे फूल खिला हो कोई काँटों की निगरानी में

दुनिया जिसको सुबह समझती तुम कहते हो शाम उसे
कुछ सच की गुंजाइश रख्खो अपनी साफ़ बयानी में

खुदगर्ज़ी और चालाकी में डूब गयी दुनिया सारी
वर्ना सच्चा ज्ञान छुपा है बच्चों की नादानी में

छीन लिया दुनिया ने सबकुछ फिर भी माला माल रहा
जब-जब मुझको हँसते देखा, लोग पड़े हैरानी में

लोग उन्हें हँसते देख भले ही हैरानी में न पड़ते हों लेकिन पचास के ऊपर की उम्र में भी उनके चेहरे की ताजगी और मासूमियत जरूर लोगों को हैरानी में डाल देती है. पचास क्या वो चालीस के भी नहीं लगते. एक बार उनकी इस सदा बहार जवानी का रहस्य मेरे पूछने पर उन्होंने हँसते हुए जवाब दिया "बहुत सीधा जवाब है नीरज भाई न हम किसी को टेंशन देते हैं और न किसी बात का टेंशन लेते हैं, जो है जैसा है हर हाल में खुश रहते हैं बस." बात यकीनन बहुत सरल और सीधी है लेकिन हम में से अधिकाँश इसका पालन नहीं करते. दूसरों के सुख से उपजा दुःख और नकारात्मक सोच हमें समय से पहले ही बूढा कर देती है.

यकीन कीजिये ये देवमणि जी हैं अपने नाती सार्थक के साथ

जब तलक रतजगा नहीं चलता

इश्क क्या है पता नहीं चलता

ख़्वाब की रहगुज़र पे आ जाओ
प्यार में फासला नहीं चलता

उस तरफ चलके तुम कभी देखो
जिस तरफ रास्ता नहीं चलता

आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि देवमणि जी अपना एक ब्लॉग भी "खुशबू की लकीरें" नाम से है.जिसमें वो अपनी ताज़ा रचनाएँ और साहित्य से सम्बंधित लेख पोस्ट करते रहते हैं. साहित्य प्रेमियों को उनके ब्लॉग पर जरूर जाना चाहिए. चलते चलते देवमणि जी की ग़ज़ल के चंद शेर और पढ़िए:-

अभी तक ये भरम टूटा नहीं है
समंदर साथ देगा तश्नगी का

न जाने कब छुड़ा ले हाथ अपना
भरोसा क्या करें हम ज़िन्दगी का

लबों से मुस्कराहट छिन गयी है
ये है अंजाम अपनी सादगी का