Monday, May 30, 2011

किताबों की दुनिया - 53

पिछली बार आपको एक पेंटर शायर से मिलवाया आज मिलिए एक इंजिनीयर शायर से. वैसे इंसान दिल से शायर होता है पेशे से नहीं इसीलिए आज शायरी के आकाश पर चमकने वाले अधिकांश सितारे किसी न किसी ऐसे पेशे से जुड़े हुए हैं जिनका शायरी से दूर दूर तक का नाता नहीं है. कहने का सीधा सा मतलब है के वो दिन अब लद गए जब मियां ग़ालिब जैसे पाए दार शायर सिर्फ और सिर्फ शायरी ही किया करते थे, तब शायरी पेशा था अब शौक है. आज का शायर चूँकि ज़मीन से जुड़ा हुआ है इसी कारण आज की शायरी में जामो-मीना, हुस्नो-इश्क की जगह इंसानी जद्दोजहद ने ले ली है. आज का शायर अपनी और अपने जैसे दूसरों की तकलीफें और खुशियाँ अपनी शायरी में ढालता है इसी कारण आज की शायरी अवाम की अपनी दास्ताँ है.

इस तरह कब तक हंसेगा- गायेगा
एक दिन बच्चा बड़ा हो जाएगा

फाइलें यदि मेज़ पर ठहरें नहीं
दफ्तरों के हाथ क्या लग पायेगा

'रेस' जीतेंगी यहाँ बैसाखियाँ
पाँव वाला दौड़ता रह जाएगा

हमारे आज के शायर हैं जनाब ओम प्रकाश 'यती' जी, जो उत्तर प्रदेश सिचाईं विभाग में सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत हैं. खास बात ये है के 'यती' जी ने सिर्फ सिविल इंजिनीयरिंग ही नहीं की बल्कि विधि में स्नातक और हिंदी साहित्य में एम्.ऐ. भी किया है जो अपने आप में एक विलक्षण बात है. उनका एक ग़ज़ल संग्रह "बाहर छाया भीतर धूप" सन १९९७ में छप चुका है और दूसरा जिसकी हम आज बात करेंगे "सच कहूँ तो" अभी हाल ही में प्रकशित हुआ है.



मन में मेरे उत्सव जैसा हो जाता है
तुमसे मिलकर खुद से मिलना हो जाता है

भीड़ बहुत ज्यादा दिखती है यूँ देखो तो
लेकिन जब चल दो तो रस्ता हो जाता है

जब आते हैं घर में मेरे माँ-बाबूजी
मेरा मन फिर से इक बच्चा हो जाता है

माँ-बाप के सामने फिर से बच्चा बन जाने की बात मन को कहीं भीतर से छू जाती है और येही शायरी की खूबी है. दो मिसरों में वो बात कह दी जाती है जिसे कहने में दूसरी विधा में शायद ग्रन्थ लिखने पड़ें . एक और शायर मन से बच्चा बनने की बात करता है और दूसरी और बड़े होने के बाद की दुश्वारियों की भी चर्चा बहुत सार्थक ढंग से करता है. ओम जी की शायरी में ये विविधता देखते ही बनती है.

हमें मालूम है फिर भी नहीं हम खिलखिला पाते
बहुत से रोग तो केवल हंसी से भाग जाते हैं

निभाने हैं गृहस्थी के कठिन दायित्व हम को ही
मगर कुछ लोग इस रस्साकशी से भाग जाते हैं

यहाँ इक रोज़ हड्डी रीढ़ की हो जायेगी गायब
चलो ऐसा करें इस नौकरी से भाग जाते हैं

इस आखरी शेर में यती जी ने लाखों करोड़ों नौकरी पेशा लोगों की दुखती रग पर हाथ रख दिया है. ऐसे शेर कहना आसान काम नहीं इसीलिए ये बड़ी मुश्किल से नज़र आते हैं. श्री बाल स्वरुप राही जी ने इस पुस्तक की भूमिका में तभी कहा है कि "ओम जी के बारे में अगर मैं सच कहूँ तो यही कहूँगा कि इन्होने हिंदी-ग़ज़ल को अलग पहचान दी है. इनकी हर ग़ज़ल का अपना रंग है जो आजकल थोक में लिखी जा रही ग़ज़लों से अलग है. इनकी ग़ज़लों में हिंदी मुहावरों का सटीक प्रयोग है. 'यती' जी के एक-एक शेर में हिंदी कविता के संस्कार विधमान हैं."

हम भी खुश थे जब वो जीते, लेना एक न देना दो
भाग रहे थे तुम भी पीछे , लेना एक न देना दो

उनको तो मंदिर-मस्जिद से वोट की खेती करनी थी
हम आपस में लड़ना सीखे, लेना एक न देना दो

क्यूँ देते हो राय किसी को, पूछ रहा है क्या कोई ?
बोले मुझसे मेरे बेटे, लेना एक न देना दो

'यती' जी की अधिकांश ग़ज़लों का वातावरण पारिवारिक है. परिवार के बिखरने और बुजुर्गों के हाशिये पर चले जाने की पीड़ा उनकी शायरी में उभर कर आई है. जिस पारिवारिक एकता की हम विश्व भर में एक मिसाल थे आज उसकी चर्चा करने मात्र से हम कतराते हैं. हम आधुनिकता की आंधी में अपने परिवार को छिन्न भिन्न होता देख रहे हैं लेकिन उसे बचाने के प्रयास में कुछ कर नहीं रहे. हमारे यहाँ के बुजुर्ग भी आधुनिक विकसित देशों के बुजुर्गों की तरह अकेले या उपेक्षित जीवन जीने को विवश हैं. इस पीड़ा को 'यती' जी ने अपनी शायरी में बहुत सशक्त शब्द दिए हैं.

कुर्ता, धोती, गमछा, टोपी सब जुट पाना मुश्किल था
पर बच्चों की फीस समय से भरते आये बाबूजी

बडकी की शादी से लेकर फूलमती के गौने तक
जान सरीखी धरती गिरवी धरते आये बाबूजी

नाती-पोते वाले होकर अब भी गाँव में तनहा हैं
वो परिवार कहाँ हैं जिस पर मरते आये बाबूजी

इसी पीड़ा को एक और ग़ज़ल में किस तरह से 'यती' जी ने ढाला है इसकी भी बानगी देखिये. इन ग़ज़लों में इश्वर न करे आपको अपने घर परिवार की छवि दिखाई दे., क्यूँ की इनकी पीड़ा को एक भुक्त भोगी बहुत गहरे से समझ सकता है. अगर आपके घर परिवार में ऐसा है तो कृपया इसे सुधारने की और कदम बढायें क्यूँ की परिवार के टूटने या बुजुर्गों की अवहेलना करने के नतीजे फलदायी नहीं होते.

हंसी को और खुशियों को हमारे साथ रहने दो
अभी कुछ देर सपनों को हमारे साथ रहने दो

तुम्हें फुर्सत नहीं तो जाओ बेटा आज ही जाओ
मगर कुछ रोज़ बच्चों को हमारे साथ रहने दो

ये जंगल कट गए तो किसके साए में गुज़र होगी
हमेशा इन बुजुर्गों को हमारे साथ रहने दो

अविचल प्रकाशन -बिजनौर द्वारा प्रकाशित इस किताब की प्राप्ति के लिए आप उन्हें ई-मेल avichalprakashan@yahoo.in कर सकते हैं या फिर 03142-263659 पर फोन भी कर सकते हैं. सबसे आसान और तर्क संगत बात तो ये होगी यदि आप ओम जी को उनके मोबाइल न. 09410476193 पर पहले उन्हें इन खूबसूरत ग़ज़लों के गुलदस्ते के लिए बधाई दें और फिर इस किताब की प्राप्ति का आसान रास्ता पूछें. आप चाहें तो ओम जी को yatiom@gmail.com मेल भी कर सकते हैं. आईये एक बार फिर हम ओम जी के माध्यम से उस सुनहरी पलों को जी लें जिनकी यादें अब सिर्फ गिनती के लोगों के पास ही बचीं हैं.

खेतों खलियानों की फसलों की खुशबू
लाते हैं बाबूजी गाँवों की खुशबू

गठरी में तिलवा है, चिवड़ा है, गुड है
लिपटी है अम्मा के हाथों की खुशबू

बाहर हैं भैय्या की मीठी फटकारें
घर में है भाभी की बातों की खुशबू

मंगरू भी चाचा हैं, बुधिया भी चाची,
गाँवों में जिंदा है रिश्तों की खुशबू

खिचड़ी है, बहुरा है, पिंडिया है, छठ है
गाँवों में हरदम त्योंहारों की खुशबू

Monday, May 23, 2011

सो चकनाचूर होता जा रहा हूँ

मेरे खोपोली से बार बार जयपुर आने का राज़ किसी से छुपा नहीं है , छुपाने का कोई कारण भी नहीं है , इंसान अपने घर नहीं आएगा तो कहाँ जाएगा? पिछली बार जब घर आया तो हमारे पारिवारिक मित्र और शुभचिंतक श्री नन्द लाल सचदेव जी ने अपनी पिछली सवा सात सालों से निर्बाध चल रही काव्य संध्या "काव्य लोक" में शिरकत का निमंत्रण दिया. "काव्य लोक" जयपुर के अनूठे कवियों और शायरों की महफ़िल है जो हर माह के तीसरे रविवार को शाम पांच बजे से एक निश्चित जगह पर जमती है. पिछले 86 महीनों से बिना एक भी व्यवधान के इसे लगातार चलाय रखना इसके सदस्यों का काव्य के प्रति प्रेम दर्शाता है. मुझे इसकी पिछली दो महफ़िलों में शिरकत का फ़ख्र हासिल हो चुका है. "काव्य लोक" अब मेरे लिए जयपुर आने का एक अतिरिक्त आकर्षण भी हो गया है.

("काव्य लोक" के संस्थापक आदरणीय श्री नन्द लाल सचदेव जी कविता पाठ करते हुए)

इसी महफ़िल में मैंने दो शायरों को पहली बार सुना जिनके बारे में मुझे इस से पहले कुछ इल्म नहीं था. इन दोनों शायरों ने मुझे अपनी शायरी से दीवाना बना दिया. पहले शायर है युवा आकर्षक "अखिलेश तिवारी " और दूसरे धीर गंभीर जनाब "लोकेश साहिल". अखिलेश अधिकतर छोटी बहर में बहुत मारक शेर कहते हैं. साहिल साहब की शायरी में बहुत गहराई है और सुनाने का लहजा...उफ़ यू माँ...है. इन दोनों को सुनना एक ऐसा अनुभव है जिस से बार बार गुजरने को दिल करता है.


(अपनी शायरी से श्रोताओं को भाव विभोर करते हुए श्री अखिलेश तिवारी जी)

"साहिल साहब" ने पिछली बार कमाल के माहिये सुनाये थे और इस बार एक लाजवाब ग़ज़ल. मैंने ग़ज़ल को सुनते वक्त ही तय कर लिया था के ऐसे खूबसूरत कलाम और उसके शायर को अपने पाठकों तक जरूर पहुंचाउंगा. मैं साहिल साहब का तहे दिल से शुक्र गुज़ार हूँ क्यूँ की उन्होंने मुझे अपनी इस ग़ज़ल को मेरे ब्लॉग पर पोस्ट करने की अनुमति सहर्ष देदी.

(जनाब लोकेश 'साहिल' जी अपनी बे -मिसाल अदायगी के साथ खूबसूरत शायरी सुनाते हुए)

सुधि पाठक इस ग़ज़ल को पढ़ें और दिली दाद इस ब्लॉग के माध्यम से या फिर सीधे उनके मोबाइल न.09414077820 पर बात कर के उन्हें जरूर दें.



ज़मीं से दूर होता जा रहा हूँ
मैं अब मशहूर होता जा रहा हूँ

ज़रा सी बात था दिल में किसी के
मगर नासूर होता जा रहा हूँ

बहुत हैं दोस्त इस महफ़िल में मेरे
बहुत मजबूर होता जा रहा हूँ

उजालों में ही बस दिखता हूँ सब को
तो क्या बेनूर होता जा रहा हूँ ?

निभाते ही नहीं अपने भी जिसको
मैं वो दस्तूर होता जा रहा हूँ

मुझे कुछ तालियाँ क्या मिल गयी हैं
बड़ा मगरूर होता जा रहा हूँ

दिखाता फिर रहा था ऐब सबको
सो चकनाचूर होता जा रहा हूँ

लुटेरे बन रहे मालिक हैं मेरे
मैं कोहीनूर होता जा रहा हूँ

मुसलसल तीरगी झेली है मैंने
सरापा नूर होता जा रहा हूँ

दिलों में इस कदर सबके हूँ 'साहिल'
कि सबसे दूर होता जा रहा हूँ

दोस्तों इस ग़ज़ल का एक शेर "दिखाता फिर रहा था..." में कहीं आईने लफ्ज़ का इस्तेमाल नहीं किया है जबकि पूरा शेर उसकी और बड़ी ख़ूबसूरती से इशारा कर रहा है...ऐसा कमाल करने के लिए उस्तादी चाहिए और उनका शेर " मुसलसल तीरगी झेली है...." तो हासिले महफ़िल शेर था. इस शेर को कम से कम उन्हें आठ से दस बार सुनाना पड़ा...लोग थे के मुकरर्र मुकरर्र कहते नहीं थक रहे थे...यक़ीनन ऐसे शेर रोज रोज नहीं होते और जब तक ऊपरवाला न लिखवाये कलम पर उतरते भी नहीं हैं.

Monday, May 16, 2011

किताबों की दुनिया - 52

पहले जैसा गाँव नहीं है
पेड़ बहुत हैं छाँव नहीं है
**
गाँवों में जो घर होता है
शहरों में नंबर होता है
****
तुमसे जितनी बार मिला हूँ
पहली पहली बार मिला हूँ
**
मैं कुछ बेहतर ढूंढ रहा हूँ
घर में हूँ घर ढूंढ रहा हूँ
**
रहने दे ये परिभाषाएं
घर का मतलब घर होता है
**
तुम हो तो ये घर लगता है
वर्ना इसमें डर लगता है

किताबों की दुनिया की इस श्रृंखला में आज हम आपकी पहचान एक ऐसे शायर से करवाने जा रहे हैं जिसकी प्रतिभा हैरत में डाल देने वाली है. ये इंसान मूल रूप से चित्रकार है या शायर ये तय करना बहुत जटिल मामला है क्यूँ की उनकी चित्रकारी में ग़ज़ल और ग़ज़ल में चित्रकारी नज़र आती है. यूँ इश्वर ने हम सभी को कोई न कोई प्रतिभा दी है लेकिन हम में से चंद ही अपने में छुपी प्रतिभा को प्रकाश में ला पाते हैं. अपने में छुपी प्रतिभा को चमकाने में महनत और लगन का होना बहुत जरूरी होता है , शिखर पर वो ही पहुँचते हैं जिनमें महनत करने का माद्दा कूट कूट कर भरा हो. कुंदन तप कर ही निखरता है ये बात तो जग जाहिर है फिर भी इसका प्रमाण हम आपको आज दे रहे हैं.

आज हम उस विलक्षण प्रतिभा के इंसान की किताब की बात करने जा रहे हैं जिसकी पेंटिंगस भारत के राष्ट्रपति भवन , जयपुर के जवाहर कला केंद्र , पंजाब यूनिवर्सिटी के फाइन आर्ट म्यूजियम, मुरारी बापू के गुरुकुल, साहित्य कला परिषद् आदि के अलावा देश- विदेश की प्रसिद्द कला वीथियों की दीवारों की शोभा बढ़ा रही हैं. उसी इंसान ने जब कलम उठाई तो अपने आपको छोटी बहर की ग़ज़ल कहने की विधा में बहुत बड़ा उस्ताद सिद्ध कर दिया. छोटी बहर में कही उनकी ग़ज़लों के चार संकलन अब तक प्रकाशित हो चुके हैं.

"विज्ञान व्रत" जी के उन्हीं चार संकलनो में से एक " बाहर धूप खड़ी है " की चर्चा हम करने जा रहे हैं.



एक जरा सी दुनिया घर की
लेकिन चीजें दुनिया भर की

पापा घर मत लेकर आना
रात गए बातें दफ्तर की

बाहर धूप खड़ी है कब से
खिड़की खोलो अपने घर की

डा. विनय मिश्र जी ने विज्ञान जी के शेरों पर बहुत बढ़िया टिप्पणी की है " घर को लेकर विज्ञान व्रत ने अद्भुत शेर कहे हैं ये घर इस मायने में अनेकार्थी हैं जिसमें अपने समय में विखरती जा रही घर की सम्वेदनाओं से लेकर वसुधैव कुटुम्बकम के निरंतर छीजते जाते हुए एहसास का स्पंदन दिखाई देता है " 17 अगस्त 1947 को एक अनाम से ग्राम तेडा, मेरठ में जन्में विज्ञान जी ने आगरा से फाइन आर्ट में एम् ऐ. किया और फिर राजस्थान से फाइन आर्ट में ही डिप्लोमा भी किया.

जब तक एक विवाद रहा मैं
तब तक ही आबाद रहा मैं

महलों के लफ्फाज़ कंगूरे
गूंगी सी फ़रियाद रहा मैं

शब्दों के उस कोलाहल में
अनबोला संवाद रहा मैं

छोटी बहर में बात कहने की एक कठिन तकनीक को विज्ञान जी ने अपने हुनर से वो ऊँचाई प्रदान की है जिस तक पहुंचना एक साधारण शायर के लिए सिर्फ सपना ही हो सकता है. आम भाषा में कहे गए उनके शेर सपाट नहीं हैं बल्कि काव्य की गहराई लिए हुए हैं.छोटी बहर में बड़ी बात कहना वैसे ही है जैसे गागर में सागर भरना. ये ऐसा हुनर है जो अनवरत प्रयास लगन और महनत मांगता है.शायद इसीलिए विज्ञान व्रत की गिनती उस्ताद शायरों में की जाती है

कोई रस्ता बेहतर ढूंढो
खुद को अपने अन्दर ढूंढो

सुबह मिले ना सिलवट जिसमें
ऐसा कोई बिस्तर ढूंढो

सिर्फ इमारत बनवाई है
इसमें घर का मंज़र ढूंढो

"अयन प्रकाशन" दिल्ली ने विज्ञान व्रत जी की ग़ज़लों की चारों पुस्तकों "बाहर धूप खड़ी है", "चुप की आवाज़", "जैसे कोई लौटेगा" और "तब तक हूँ" के अलावा दोहा संकलन "सप्तपदी " का भी प्रकाशन किया है . आप अयन प्रकाशन के श्री भोपल सूद जो स्वयं शायरी के बहुत अच्छे जानकार होने के अलावा पाठकों से बेपनाह मुहब्बत करने वाले इंसान हैं, से उनके मोबाइल न. 9818988613 पर बात कर किताब प्राप्त करने की जानकारी ले सकते हैं. सूद साहब पुस्तक प्रेमियों से बात कर कितने खुश होते हैं इसका यादगार अंदाज़ा आपको उनसे बात करने के बाद ही होगा.

जब घर में हों सब मेहमान
कौन करे किसका सम्मान

बढ़ता जाता है सामान
छोटा होता घर दालान

घर है रिश्तों से अनजान
अपने घर में हूँ मेहमान

प्रतिभाशाली व्यक्ति को सम्मानित करने से सम्मान की गरिमा बढती है. विज्ञान जी पर सम्मान और पुरुस्कारों की बारिश सी हुई है : वातायन (लन्दन), समन्वय(सहारनपुर),सुरुचि(गुडगाँव),परम्परा(बिजनौर),कंवल सरहदी (मेरठ) आदि संस्थाओं ने उन्हें सम्मानित किया है और उत्तर प्रदेश की राज्य ललित कला अकादमी ने उन्हें पुरुस्कृत किया है. विज्ञान जी की ग़ज़लों को प्रसिद्द ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह, धनञ्जय कौल और निशांत अक्षर अपना स्वर दे चुके हैं. उनकी ग़ज़लों का एक अल्बम "चुप की आवाज़" बाज़ार में उपलब्ध है.

रोशन सारा घर अन्दर से
लेकिन ताला है बाहर से

सो जाने तक बच्चे तरसे
तब लौटे पापा दफ्तर से

कैसे सुस्ता सकता है वो
रिश्ते झूल रहे कांवर से

विज्ञान जी का ईस्ट आफ कैलाश में स्टूडियो है और वो स्वयं नोएडा (यू.पी) के सेक्टर 25 में रहते हैं. एक दिलचस्प बात ये भी जान लीजिये कि उन्हें अभिनय का शौक भी है. इसी के चलते उन्होंने टी.वी. धारावाहिक "वापसी" के लिए गीत भी लिखे और अभिनय भी किया. ऐसे बहु मुखी प्रतिभा के व्यक्ति से आप उनके मोबाईल न. 9810224571 पर बात कर उन्हें इन शानदार ग़ज़लों के लिए बधाई दे सकते हैं और जिन्हें पेंटिंग्स में दिलचस्पी हो वो भी उनसे बात कर सकते हैं.

आज़ादी की परिभाषा भी
जनम जनम का बंधन भी वो

बिंदी की ख़ामोशी भी है
खन-खन करता कंगन भी वो

प्रश्नों का भी हल लगता है
और जटिल सी उलझन भी वो

पेंटिंगस से याद आया इस किताब में आपको विज्ञान जी की 74 ग़ज़लें तो पढने को मिलेंगी ही साथ की उनके बनाये कुछ दुर्लभ रेखा चित्र भी दिखाई देंगे. यूँ तो विज्ञान जी और उनकी ग़ज़लों पर जितना लिखें कम ही होगा लेकिन हमें अब यहीं रुकना होगा. पोस्ट के अधिक लम्बा होने पर आप मुंह बिचकाएं इस से पहले ही हम आपसे रुखसत होते हैं एक नयी किताब की तलाश के लिए. चलते चलते बता दें के विज्ञान जी के बारे में विस्तार से आप उनकी वेब साईट http://vigyanvrat.com पर जा कर पढ़ सकते हैं इसके अलावा भाई जय कृष्ण राय तुषार जी के ब्लॉग http://sunaharikalamse.blogspot.com/2011/03/blog पर जा कर भी पढ़ सकते हैं जिस पर उन्होंने बहुत मेहनत से विज्ञान जी पर लिखा है और उनकी पांच बहुत प्यारी सी ग़ज़लें भी पोस्ट की हैं.
आखरी में उनके ये तीन शेर आप तक पहुंचा कर विदा लेते हैं.

ऊंचे लोग सयाने निकले
महलों में तहखाने निकले

आहों का अंदाज़ नया था
लेकिन ज़ख्म पुराने निकले

जिनको पकड़ा हाथ समझ कर
वो केवल दस्ताने निकले

Monday, May 9, 2011

साथ बच्चों के जब खिलखिलाने लगे


जब वो मेरी ग़ज़ल गुनगुनाने लगे
तो रकीबों के दिल कसमसाने लगे

आप जिस बात पर तमतमाने लगे
हम उसी बात पर मुस्कुराने लगे

ग़म न जाने कहाँ पर हवा हो गए
साथ बच्चों के जब खिलखिलाने लगे

जिन चरागों को समझा था मज़बूत हैं
जब हवायें चलीं टिमटिमाने लगे

है मुनासिब यही, मयकशी छोड़ दे
पाँव पी कर अगर, डगमगाने लगे

फिर हमें देख कर मुस्कुराए हैं वो
फिरसे बुझते दिये जगमगाने लगे

जुल्म करके बड़े सूरमा जो बने
वक्त बदला तो वो गिड़गिडाने लगे

आज के दौर में, प्यार के नाम पर
देह का द्वार सब, खटखटाने लगे

ख्वाहिशों के परिंदे थे सहमे हुए
देख 'नीरज' तुम्हें चहचहाने लगे





( ये ग़ज़ल सिर्फ मेरी नहीं है इसे कहने में पचास प्रतिशत की भागीदारी मेरे अनुज तिलक राज कपूर साहब की है )

Monday, May 2, 2011

किताबों की दुनिया - 51

किताबों की दुनिया श्रृंखला की हाफ सेचुरी पूरी करने के बाद चलिए अब इसके अगले पड़ाव की और कदम बढाते हैं. रास्ता मुश्किल है लेकिन आपके स्नेह और संबल से इसे पार करने में शायद मैं समर्थ हो जाऊं. आपने साथ छोड़ दिया तो इस श्रृंखला का दम तोडना निश्चित है. किताबें मेरी कमजोरी हैं लेकिन मैं अपने आपको इतना सक्षम नहीं समझता के किसी किताब की समीक्षा कर सकूँ इसलिए आपने देखा होगा के मैंने किताब पर कभी आलोचक की नज़र से कुछ नहीं कहा क्यूँ कि आलोचना का अधिकार सिर्फ उसे होता है जिसका ज्ञान पुस्तक के लेखक से अधिक हो. शायरी का प्रेमी जरूर हूँ लेकिन इस विधा पर लिखने में अभी बच्चा हूँ. मेरी कोशिश रहती है के किताब की खूबियों की और आपका ध्यान दिलाऊं ताकि आप उसे खरीद कर पढ़ें क्यूँ की आज के युग में किताब खरीद कर पढने वाले पाठकों की संख्या में अप्रत्याशित कमी आई है. हम पान बीडी सिगरेट सिनेमा में आराम से पैसे उड़ा देते हैं लेकिन पचास सौ रुपये की किताब खरीदने में हिचकते हैं. किताब पढने के लिए वक्त की कमी का बहाना बनाते हैं जबकि यार दोस्तों के साथ फ़िज़ूल की बातों में या टी.वी के ऊलजुलूल कार्यकर्मों के सामने बैठ कर घंटों बिता देते हैं. चलिए छोडिये ये बहस का विषय है आईये शायरी की और लौटते हैं.

मोहब्बत का ज़ज्बा जगा कर के देखो
कभी दिल को तुम दिल बना कर के देखो

हो तुम भी तभी तक, कि जब तक कि हम हैं
न मानो तो हमको मिटाकर के देखो

भुलाना हमें इतना आसाँ नहीं है
है आसाँ तो हमको भुला कर के देखो

सच है ऐसे बाकमाल शेर कहने वाले शायर को कौन भुला सकता है? शीरीं ज़बान में ऐसे रोमांटिक शेर कहने वाले शायर अब गिनती के ही बचे हैं जिन्हें उँगलियों पर गिना जा सकता है. आज हम ऐसे ही अनूठे शायर डाक्टर ऐ.के.श्रीवास्तव उर्फ़ नवाब शाहाबादी साहब की किताब " थोडा सा रूमानी हो लें हम " का जिक्र करेंगे जिसे पढ़ कर थोडा सा नहीं बहुत ज्यादा रूमानी होने की प्रबल संभावनाएं हैं. इस किताब में नवाब साहब की लगभग एक सौ अस्सी लाजवाब ग़ज़लें संकलित हैं.


तल्खी है बहुत ही जीवन में, थोडा सा रूमानी होलें हम
कुछ रंग तुम अपने छलकाओ, कुछ प्यार की मस्ती घोलें हम

हम कैस नहीं, फ़रहाद नहीं, जो होश गँवा बैठें अपना
क्या राज़ है अपनी उल्फ़त का, क्यूँ तुझपे जमाना खोलें हम

है मुंह में जबाँ तो अपने भी, होंठों को सिये बैठे हैं मगर
'नव्वाब' किसी की महफ़िल में, ये सोचते हैं क्या बोले हम

अब आप ही बताइए ऐसी शायरी आजकल कहाँ पढने सुनने को मिलती है. ज़िन्दगी की तल्खियों ने शायरी की जबान को भी तल्ख़ कर दिया है, ये किताब कुछ हद तक उस तल्खी को दूर कर आपकी रूह को सुकून पहुंचाने का काम करती है. कभी कभी मैंने देखा है अचानक पढ़ा एक शेर आपके मूड को बदल देता है आप अवसाद से मुक्ति पा लेते हैं और वाह कह उठते हैं. तभी तो आज भी लोग उस एक शेर की तलाश में सारी सारी रात जाग कर मुशायरा सुनते हैं.

देने चला है जान का नजराना देखिये
लिपटा है जा के शमअ से परवाना देखिये

मज़हब की इन किताबों ने आखिर दिया है क्या
एक बार पढ़ के प्यार का अफ़साना देखिये

मरने लगे हैं वो भी उसी पर के जिस पे हम
यारों का ये सलूके - हरीफ़ाना देखिये

नवाब शाहाबादी साहब पेशे से डाक्टर हैं , आपको शायद मालूम हो लेकिन मुझे इस किताब से ही मालूम पड़ा के उस्ताद शायर जनाब मोमिन खां 'मोमिन' भी अपने ज़माने के मशहूर हकीम थे. जनाब इब्राहिम'अश्क' साहब फरमाते हैं " नवाब साहब ऐसे शायर हैं जो वक्त पड़ने पर सबके काम आते हैं. जो शख्स सबके काम आता है उसका मज़हब इंसानियत होता है" ये इंसानियत उनकी पूरी शायरी में नज़र आती है.

आये तो गुलिस्तां में कुछ ऐसी बहार आये
फूलों को सुकूं आये काँटों को करार आये

लोगों ने गुज़ारी है, जैसी भी वहां गुज़री
कुछ हँस के गुज़ार आये कुछ रो के गुज़ार आये

'नव्वाब' कहीं सदमा पहुंचे न कोई उनको
हम जीती हुई बाज़ी ये सोच के हार आये

काटों के करार और जानबूझ के बाज़ी हारने की बातें करने वाले शायर किस कदर इंसानियत से भरे होंगे इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है. बकौल नवाब साहब " कल-कल करते झरनों का संगीत, नीले आकाश में उड़ते हुए बादल, सुरमई साँझ, लहरों का गीत, कलरव करते पक्षी, मुस्कुराती हुई कलियाँ, अमराई की गंध, ओस में नहाई चांदनी आदि कितने बिम्ब मूड को बदल देते हैं. तल्खियाँ कम हो जाती हैं और मन ऐसे वातावरण में चला जाता है जहाँ आनंद की अनूभूति होती है."

किसे देखने को हैं बेताब आँखें
जो खुलने लगी खिड़कियाँ धीरे धीरे

जो मौजों के तेवर से वाकिफ़ नहीं हैं
डुबों देंगे वो कश्तियाँ धीरे धीरे

बड़ा प्यार आया जो बालों पे मेरे
फिराने लगे उँगलियाँ धीरे धीरे

"डायमंड पाकेट बुक्स" ने इस किताब को, जिसे राजेश राज जी ने संकलित किया है, बहुत आकर्षक कलेवर के साथ छापा है. इस किताब को आसानी से किसी भी हिंदी पुस्तकों के विक्रेता से प्राप्त किया जा सकता है फिर भी न मिलने की स्तिथि में आप ओखला इंडस्ट्रियल एरिया दिल्ली स्तिथ डायमंड बुक्स वालों को 011- 41611861 नंबर पर फोन करके इसे मंगवा सकते हैं.

उस सितम को सितम नहीं कहते
जो सितम बार बार होता है

कोई हँसता है सुन के हाले ग़म
और कोई अश्क बार होता है

हाथ डालें जरा संभल के आप
फूल के पास खार होता है



फूल के पास भले ही खार होता हो लेकिन नवाब साहब की शायरी तो उस फूल की तरह है जिसमें रंग है खुशबू है और खार अगर कहीं है भी तो बहुत दूर है. आपको यदि उनकी शायरी की बानगी पसंद आई है तो आप बराए मेहरबानी नवाब साहब को, जो रायबरेली रोड ,लखनऊ के निवासी हैं,उनके मोबाईल न. 09839221614 या उनके लैन लाइन न. 0522-2442121 पर बात करके मुबारकबाद तो दे ही सकते हैं.

कुछ तो शरीके इश्क़ की नाकामियाँ भी थीं
कुछ हाले - नामुराद ने शायर बना दिया

तुम कोशिशों के बाद भी शायर न बन सके
हमको तुम्हारी याद ने शायर बना दिया

करता अदा हूँ शुक्र तुम्हारा मैं दोस्तों
मुझको तुम्हारी दाद ने शायर बना दिया

तो आप दोस्ती का फ़र्ज़ निभाइए नवाब साहब को उनके कलाम के लिए दाद दीजिये तब तक हम निकलते हैं एक और किताब की तलाश में.