Monday, November 21, 2011

किताबों की दुनिया - 63

महरूम करके सांवली मिट्टी के लम्स से
खुश-रंग पत्थरों में उगाया गया मुझे
महरूम: वंचित, लम्स: स्पर्श

किस किस के घर का नूर थी मेरे लहू की आग
जब बुझ गया तो फिर से जलाया गया मुझे

मैं भी तो इक सवाल था, हल ढूंढते मेरा
ये क्या कि चुटकियों में उड़ाया गया मुझे

ऐसे अशआर पढ़ कर अचानक मुंह से कोई बोल नहीं फूटते, हैरत से आँखें फटी रह जाती हैं और दिल एक लम्हे के लिए धड़कना बंद कर देता है. हकीकत तो ये है कि ऐसे कुंदन से अशआर यूँ ही कागज़ पर नहीं उतरते इस के लिए शायर को उम्र भर सोने की तरह तपना पड़ता है. इस तपे हुए सोने जैसे शायर का नाम है "निश्तर खानकाही" जिनकी किताब "मेरे लहू की आग" का जिक्र आज हम यहाँ करने जा रहे हैं. "निश्तर खानकाही" के नाम से शायद हिंदी के पाठक बहुत अधिक परिचित न हों क्यूँ की निश्तर साहब उन शायरों की श्रेणी में आते हैं जो अपना ढोल पीटे बिना शायरी किया करते थे.


सारे जग की प्यास बुझाना, इतना आसाँ काम है क्या?
पानी को भी भाप में ढलकर बादल बनना पड़ता है

जलते दिए की लौ ही जाने उसकी आँखें जानें क्या?
कैसी कैसी झेल के बिपता , काजल बनना पड़ता है

'मीर' कोई था 'मीरा' कोई, लेकिन उनकी बात अलग
इश्क न करना, इश्क में प्यारे पागल बनना पड़ता है

'निश्तर' साहब! हमसे पूछो, हमने जर्बें झेली हैं
घायल मन की पीड़ समझने घायल बनना पड़ता है
ज़र्बें :चोटें

घायल मन की पीड़ समझ कर उसे अपने अशआरों में ढालने वाले इस शायर ने अपने जन्म के बारे में एक जगह लिखा है: " 'कोई रिकार्ड नहीं है, लेकिन मौखिक रूप में जो कुछ मुझे बताया गया है, उसके अनुसार 1930 के निकलते जाड़ों में किसी दिन मेरा जन्म हुआ था, जहानाबाद नाम के गाँव में, जहाँ मेरे वालिद सैयद मौहम्मद हुसैन की छोटी-सी जमींदारी थी". पाठकों की सूचना के लिए बता दूं के जहानाबाद उत्तर प्रदेश के 'बिजनौर जनपद का एक गाँव है. बिजनोर में जीवन के अधिकांश वर्ष गुज़ारने के बाद 7 मार्च 2006 को खानकाही साहब ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया.

बस सफ़र, पैहम सफ़र, दायम, मुसलसल, बे क़याम
चलते रहिये, चलते रहिये, फासला मत पूछिए
पैहम: निरंतर, दायम: हमेशा, मुसलसल: लगातार, बे-क़याम: बिना रुके

ज़िन्दगी का रूप यकसां, तजरुबे सबके अलग
इस समर का भूल कर भी जायका मत पूछिए
यकसां: एक जैसा, समर: फल

क्या खबर है कौन किस अंदाज़, किस आलम में हो
दोस्तों से उनके मस्कन का पता मत पूछिए
मस्कन: घर

खानकाही साहब के वालिद बहुत सख्त मिजाज़ इंसान थे । इस कारण उनका लगाव माँ से अधिक था। उनकी माँ फ़ारसी ज़बान में शायरी करने वाली एक विदुषी महिला थीं। उन्होंने बचपन में ही आपको फारसी के महान शायरों- हाफ़िज शीराजी, सादी और नज़ीरा का काव्य कंठस्थ करा दिया था। शायद बचपन में अपनी अम्मी से मिले ये संस्कार ही थे कि वे एक सफल शायर बन सके। अपनी वालिदा के इन्तेकाल के बाद उनकी याद में लिखी एक ग़ज़ल के चंद शेर पढ़ें जिस से आपको अंदाज़ा हो जायेगा के निश्तर साहब अपनी अम्मी से किस कदर बेपनाह मोहब्बत करते थे, इन अशआर को पढ़ते हुए आँखें अपने आप नम हो जाती हैं:.

कौन अब रक्खेगा मुझको अपनी तस्बीहों में याद
कौन अब रातों को जीने की दुआ देगा मुझे
तस्बीहों: माला

भीग जाएगी पसीने से जो पेशानी मेरी
कौन अपने नर्म आँचल की हवा देगा मुझे

कौन अब पूछेगा मुझसे मेरी माज़ूरी का हाल
कौन बीमारी में जिद करके दवा देगा मुझे
माज़ूरी: लाचारी

निश्तर साहब बहुत संवेदन शील व्यक्ति थे और वो अपनी इस संवेदन शीलता से परेशान भी थे उन्होंने एक जगह कहा भी है "'अपने जीवन में मेरे लिए सबसे बड़ा अभिशाप मेरा संवेदनशील होना रहा है। संवेदनशील न होता, केवल भावुक होता तो हालात अथवा अपने-परायों के व्यवहार की प्रतिक्रिया में चीख़ सकता था, शोर मचा सकता था, विद्रोह कर सकता था। किंतु मैं ऐसा नहीं कर सका, क्योंकि संवेदनशील आदमी की प्रवृत्ति ही चुपचाप महसूस करना और देर तक घुलते रहना होती है। वह भडक़ता नहीं धीरे-धीरे सुलगता है और अंतत: स्वयं अपनी ही आग में जल-बुझकर राख हो जाता है।"

मेरे लहू की आग ही झुलसा गयी मुझे
देखा जो आईना तो हंसी आ गयी मुझे

मैं जैसे एक सबक था कभी का पढ़ा हुआ
उठ्ठी जो वो निगाह तो दोहरा गयी मुझे

तेरी नज़र भी दे न सकी ज़िन्दगी का फ़न
मरने का खेल सहल था, सिखला गयी मुझे
सहल: आसान

निश्तर साहब ने लगभग दस वर्ष की उम्र से ही लेखन आरम्भ कर दिया था. इतनी छोटी उम्र में लेखन शुरू करने के हिसाब से हमारे पास उनके द्वारा रचे साहित्य का बहुत बड़ा ज़खीरा होना चाहिए था, लेकिन नहीं है. इसके पीछे दो कारण हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं की कोई प्रति अपने पास नहीं रखी। आकाशवाणी से प्रकाशित होने वाली अथवा पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली रचनाओं- रूपकों, कहानियों, लेखों, नज़्मों अथवा ग़ज़लों की प्राय: कोई प्रति उनके पास नहीं रही। दूसरा कारण तो और भी कष्टप्रद है। उन्हीं के शब्दों में- 'उस्तादों की तलाश से निराश होकर जब मैंने अभ्यास और पुस्तकों को अपना गुरु माना तो हर साल रचनाओं का एक बड़ा संग्रह तैयार हो जाता, किंतु मैं हर साल स्वयं उसे आग लगा देता। यह सिलसिला लगभग बीस वर्ष तक चलता रहा। हर पांडुलिपि पाँच सौ से सात सौ पृष्ठों तक की होती थी।' .ग़ज़लकार निश्तर जी के इस कथन से ही कल्पना की जा सकती है कि यदि उनके द्वारा रचित साहित्य का व्यवस्थित रूप से प्रकाशन होता तो साहित्य-जगत् को आज उनका विपुल साहित्य पढ़ने को उपलब्ध होता।

दस्तकों पे दोस्तों के भी खुलते नहीं हैं दर
हर वक्त इक अजीब सी दहशत घरों में है

क्या फिर कहीं पे कोई बड़ा हादिसा हुआ
क्यूँ आज इतनी भीड़ इबादत घरों में है

अच्छे दिनों की आस में दीवारो-दर हैं चुप
सड़कों पे कहकहें हैं, हकीक़त घरों में है

निश्तर साहब के लिए किसी भी विधा में लिखना सामान्य-सी बात थी , किंतु उनके व्यक्तित्व का एक प्रभावशाली पक्ष ये था कि उनकी दृष्टि सदैव आदमी और उसके भीतर के आदमी, समाज और उसके भीतर के समाज पर टिकी रहती थी , जो यथार्थ को कला के सुंदर रूप में प्रस्तुत करती है. निश्तर ख़ानक़ाही के नाम की साहित्यिक रूप में व्याख्या कर डा. मीना अग्रवाल लिखती हैं- 'नश्तर या निश्तर का अर्थ है चीर-फाड़ करने का यंत्र। साहित्य में चीर-फाड़ शब्दों के स्तर पर भी होती है। निश्तर साहब की शायरी भी एक ऐसा ही नश्तर है कि पाठक के दिल में स्वयं बिंध जाता है। उनकी शायरी हृदय को छूने वाली है।'

अब फर्श हैं हमारे छतें दूसरों की हैं
ऐसा अज़ाब पहले कहाँ था घरों के साथ

बिस्तर है पास पास मगर कुर्बतें नहीं
हम घर में रह रहे हैं अजब फासलों के साथ
कुर्बतें: निकटता

मैय्यत को अब उठाके ठिकाने लगाइए
मौके के सब गवाह हुए क़ातिलों के साथ

निश्तर साहब की लाजवाब शायरी से ये किताब "हिंदी साहित्य निकेतन" बिजनोर से प्रकाशित हुए है. इसकी और ऐसे उनके सांकलों की बेहतरीन ग़ज़लें आप http://nishtar-khanqahi.blogspot.com ब्लॉग पर भी पढ़ सकते हैं जिसे उनकी बेटी शगुफ्ता, जो स्वयं डाक्टर हैं, चलाती हैं. ये किताब आपको आन लाइन मंगवाने के लिए इस पते पर क्लिक कर आर्डर देना होगा :http://www.simplybooks.in/authorsrch/Nishtar+Khanqahi मैंने भी ये किताब जिसमें खानकाही साहब की लगभग स्व सौ ग़ज़लें हैं इसी पद्धति से मंगवाई हैं..

खुदा हाफिज़ कहने से पहले चलिए पढ़ते हैं निश्तर साहब की एक अलग ही रंग में कही ग़ज़ल के चंद शेर जिसे अंदाज़ा हो जाता है के वो किस पाए के शायर थे और अपनी बात किस ख़ूबसूरती से कहने में माहिर थे :

रात एक पिक्चर में, शाम एक होटल में, बस यही बसीले थे
मेज़ की किनारे पर, चाय की पियाली में, उसके होंट रक्खे थे

मैंने तुमको रक्खा था, बक्स में सदाओं के, तह-ब-तह हिफाज़त से
रात मेरे घर में तुम इक महीन फीते पर गीत बनके उभरे थे

दस्तखत नहीं बाकी, बस हरूफ टाइप के, कागजों में जिंदा हैं
याद भी नहीं आता, प्यार के ये ख़त जाने, किसने किसको लिक्खे थे

अरेरे जाते जहाँ हैं? इतनी भी क्या जल्दी है? आप जरा "नशा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिले " का लुत्फ़ तो लेते जाइए, याने शायरी और मौसिकी के मिलन का मज़ा भी तो उठाइए. याद कीजिये जगजीत सिंह जी की आवाज़ में ग़ालिब साहब की ग़ज़ल सुन कर जैसे मज़ा दुगना हो जाता है उसी तरह निश्तर साहब की ग़ज़ल को आप इन मोहतरमा की आवाज़ में सुन कर लुत्फ़ उठाइए और हमें बताइए ये किसकी आवाज़ है?


52 comments:

इस्मत ज़ैदी said...

ek behtareen shayar se parichay karaane kaa bahut bahut shukriya

क्या फिर कहीं पे कोई बड़ा हादिसा हुआ
क्यूँ आज इतनी भीड़ इबादत घरों में है

अच्छे दिनों की आस में दीवारो-दर हैं चुप
सड़कों पे कहकहें हैं, हकीक़त घरों में है

bahut hee umdaa kalaam !!
ap is tarah jo adab ki khidmat kar rahe hain ye bhi ibadat hai

Rajput said...

"मैं जैसे एक सबक था कभी का पढ़ा हुआ
उठ्ठी जो वो निगाह तो दोहरा गयी मुझे"
निश्तर साहब का जवाब नहीं | वाह ! नीरज जी , मैं आपके ब्लॉग में काफी दिनों से डेरा डाले हुए हूँ.|
लाजबाब शेरों का खजाना है , जो आपने अजीम शायरों से चुनकर यहाँ रखा हुआ है |

सदा said...

क्या फिर कहीं पे कोई बड़ा हादिसा हुआ
क्यूँ आज इतनी भीड़ इबादत घरों में है
इस बेहतरीन प्रस्‍तुति के लिए आभार ।

शारदा अरोरा said...

hamesha ki tarah laajavaab shayar ko le aaye hain ..aap .

प्रवीण पाण्डेय said...

धीरे धीरे आकर्षण बढ़ रहा है।

दिगम्बर नासवा said...

उफ्फ ... गज़ब की शायरी है निश्तर साहब की ... एक एक शेर कई कई बार पढ़ा है और अगर आप कहें की कोई एक शेर कोट करू तो मेरे बस में नहीं होगा आज ... बेहतरीन शायर के कलाम से मिलवाया है आज आपने नीरज जी ... जादुई करिश्मा हैं उकने शेर सभी ..

kshama said...

Aapkee 'Kitabon kee duniya' ek alag duniya me le jaatee hai!

vandana gupta said...

सारे जग की प्यास बुझाना, इतना आसाँ काम है क्या?
पानी को भी भाप में ढलकर बादल बनना पड़ता है

जलते दिए की लौ ही जाने उसकी आँखें जानें क्या?
कैसी कैसी झेल के बिपता , काजल बनना पड़ता है

'मीर' कोई था 'मीरा' कोई, लेकिन उनकी बात अलग
इश्क न करना, इश्क में प्यारे पागल बनना पड़ता है

'निश्तर' साहब! हमसे पूछो, हमने जर्बें झेली हैं
घायल मन की पीड़ समझने घायल बनना पड़ता है
गज़ब गज़ब गज़ब्……………जितनी तारीफ़ की जाये कम है …………नीरज जी हम आपके शुक्रगुजार हैं कि आप इतने नये नये शायरो और उनके कलामो से हमे अनुगृहित करते हैं।

नीरज गोस्वामी said...

Msg received on mail from Sh.Digambar Naswa:

उफ्फ ... गज़ब की शायरी है निश्तर साहब की ... एक एक शेर कई कई बार पढ़ा है और अगर आप कहें की कोई एक शेर कोट करू तो मेरे बस में नहीं होगा आज ... बेहतरीन शायर के कलाम से मिलवाया है आज आपने नीरज जी ... जादुई करिश्मा हैं उकने शेर सभी ..

नीरज गोस्वामी said...

Comment received on mail from Vandna Ji:-

सारे जग की प्यास बुझाना, इतना आसाँ काम है क्या?
पानी को भी भाप में ढलकर बादल बनना पड़ता है

जलते दिए की लौ ही जाने उसकी आँखें जानें क्या?
कैसी कैसी झेल के बिपता , काजल बनना पड़ता है

'मीर' कोई था 'मीरा' कोई, लेकिन उनकी बात अलग
इश्क न करना, इश्क में प्यारे पागल बनना पड़ता है

'निश्तर' साहब! हमसे पूछो, हमने जर्बें झेली हैं
घायल मन की पीड़ समझने घायल बनना पड़ता है
गज़ब गज़ब गज़ब्……………जितनी तारीफ़ की जाये कम है …………नीरज जी हम आपके शुक्रगुजार हैं कि आप इतने नये नये शायरो और उनके कलामो से हमे अनुगृहित करते हैं।

pran sharma said...

EK AUR UMDAA SHAYAR KEE GAZLON SE
PARICHAY KARWAA KAR AAPNE LAJAWAAB
KIYAA HAI . AAPKEE PRASTUTI
SRAHNIY HEE , ULLEKHNIY BHEE HAI .

Anonymous said...

मैं भी तो इक सवाल था, हल ढूंढते मेरा
ये क्या कि चुटकियों में उड़ाया गया मुझे

भीग जाएगी पसीने से जो पेशानी मेरी
कौन अपने नर्म आँचल की हवा देगा मुझे

मैं जैसे एक सबक था कभी का पढ़ा हुआ
उठ्ठी जो वो निगाह तो दोहरा गयी मुझे

क्या फिर कहीं पे कोई बड़ा हादिसा हुआ
क्यूँ आज इतनी भीड़ इबादत घरों में है

क्या कहूँ........दिल को छू लेने वाली शायरी है नश्तर साहब कि एक एक शेर जैसे मोती है.....और लफ्ज़ नहीं बचे हैं आपका बहुत शुक्रिया.......और उनकी कही ये बात दिल को बहुत गहरे तक छू गयी -

अपने जीवन में मेरे लिए सबसे बड़ा अभिशाप मेरा संवेदनशील होना रहा है। संवेदनशील न होता, केवल भावुक होता तो हालात अथवा अपने-परायों के व्यवहार की प्रतिक्रिया में चीख़ सकता था, शोर मचा सकता था, विद्रोह कर सकता था। किंतु मैं ऐसा नहीं कर सका, क्योंकि संवेदनशील आदमी की प्रवृत्ति ही चुपचाप महसूस करना और देर तक घुलते रहना होती है। वह भडक़ता नहीं धीरे-धीरे सुलगता है और अंतत: स्वयं अपनी ही आग में जल-बुझकर राख हो जाता है।"

रेखा said...

अब फर्श हैं हमारे छतें दूसरों की हैं
ऐसा अज़ाब पहले कहाँ था घरों के साथ

बिस्तर है पास पास मगर कुर्बतें नहीं
हम घर में रह रहे हैं अजब फासलों के साथ
कुर्बतें: निकटता

मैय्यत को अब उठाके ठिकाने लगाइए
मौके के सब गवाह हुए क़ातिलों के साथ

वाह ..लाजबाब

Sonroopa Vishal said...

हर लफ़्ज उम्दा !

अरुण चन्द्र रॉय said...

एक शायर ही नहीं विचारक के रूप में भी मैं उन्हें देख रहा हूं... अफ़सोस मुझे उन नज्मो के लिए है जो आग के सुपुर्द हो गईं... अफसोसजनक है यह ...

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') said...

निश्तर साहब का एक एक शेर गहरे डूब कर निकाले हुए मोती के सामान हैं.... वाह शब्द की इतनी बार आवृति हुई कि बताना मुमकिन नहीं...

बेहद आभार आदरणीय नीरज सर बेशकीमती शायर से मुलाक़ात करवाने के लिए....
सादर...

तिलक राज कपूर said...

निश्‍तर खानकाही साहब का नाम तो सभी शायरों को अच्‍छी तरह मालूम है और शायरी में उनका स्‍थान भी। बड़े अदब से उनका नाम लिया जाता है और एंसा क्‍यूँ है का जवाब हैं ये अशआर जो आपने प्रस्‍तुत किये हैं।
आभार इन नगीनों के लिये।

मनोज कुमार said...

इनसे बिल्कुल ही परिचय नहीं था। जानकर अच्छा लगा।

Atul Shrivastava said...

बेहतरीन प्रस्‍त‍ुति।
जानकारी भरी पोस्‍ट।

अनुपमा पाठक said...

सुन्दर प्रस्तुति!
कई कई बार पढ़ी यह पोस्ट और अब आपके द्वारा दिए गए ब्लॉग के पते पर चलते हैं!
आभार!

Udan Tashtari said...

निश्तर खानकाही साहेब को पढ़कर आनन्द आ गया...आपका साधुवाद एक से बढ़कर एक बेहतरीन शायरों से परिचय कराने का.

Manish Kumar said...

bahut bahut shukriya is azeem shayar se humein milwane ke liye. Ghazal suni behtareen par kiski aawaaz hai ye nahin bitaya aapne?

जयकृष्ण राय तुषार said...

आपकी किताबों की दुनियां नीरज भाई अद्भुत और बहुत सुखद है |आप ऐसे ही यह महफिल सजाते रहिये वक्त के साथ गुनगुनाते रहिये |आभार

SANDEEP PANWAR said...

बढिया खजाना,

राजेश उत्‍साही said...

शुक्रिया एक और शायर से परिचय के लिए।

Smart Indian said...

खानक़ाही जी से परिचय का आभार। आवाज़ की खनक तो पीनाज़ मसानी की लगती है मगर अन्दाज़ फ़र्क है इसलिये ठीक से नहीं कह सकता। आप ही बत दीजिये।

नीरज गोस्वामी said...

Smart Indian - स्मार्ट इंडियन has left a new comment on your post "किताबों की दुनिया - 63":

खानक़ाही जी से परिचय का आभार। आवाज़ की खनक तो पीनाज़ मसानी की लगती है मगर अन्दाज़ फ़र्क है इसलिये ठीक से नहीं कह सकता। आप ही बत दीजिये।

Suman said...

सच में रचना की हर पंक्ति मन को जैसे छू गई है !
एक संवेदनशील व्यक्तित्व से परिचय कराने का
आभार ! आवाज पहचान नहीं पाई ....पर बहुत सुंदर लगी !

Ankur Jain said...

अब फर्श हैं हमारे छतें दूसरों की हैं
ऐसा अज़ाब पहले कहाँ था घरों के साथ

बिस्तर है पास पास मगर कुर्बतें नहीं
हम घर में रह रहे हैं अजब फासलों के साथ

बहुत ही सुन्दर शायरियां और एक उम्दा लेखक से परिचय करवाने के लिए धन्यवाद...

डॉ .अनुराग said...

शुक्रिया .....ये तार्रुफ़ जारी रहेगे

सर्वत एम० said...

किस किस को पढाएँगे भाई! खुशी होती है और दुःख भी कि जब आज के युग में हर शख्स खुद की पब्लिसिटी करता फिर रहा है, यह नीरज गोस्वामी साहब किस मिट्टी के बने हैं जो हमेशा दूसरों का ही परचम बुलंद करते नज़र आते हैं.
भाई, आपकी अजमतों को सलाम!

SATISH said...

आदरणीय नीरज साहब,

जनाब निश्तर खानकाही साहब से परिचय कराने
और उनके चुनिन्दा अशआर पढवाने का बहुत बहुत शुक्रिया..

आपसे गुज़ारिश करूंगा के इस शे'र पर ख़ास तवज्जो दीजियेगा और अमल की कोशिश भी कीजियेगा कि यह श्रंखला भी इसी तरह अनवरत रूप से चलती रहे....

बस सफ़र,पैहम सफ़र,दायम,मुसलसल, बे क़याम
चलते रहिये,चलते रहिये,फासला मत पूछिए

यकीनन माँ के अलावा कोइ नहीं....

कौन अब रक्खेगा मुझको अपनी तस्बीहों में याद
कौन अब रातों को जीने की दुआ देगा मुझे

बहुत खूबसूरत शे'र...

बिस्तर है पास पास मगर कुर्बतें नहीं
हम घर में रह रहे हैं अजब फासलों के साथ

अगली पोस्ट के लिए शुभकामनाएं.

सादर,

सतीश शुक्ला 'रक़ीब'

Akshitaa (Pakhi) said...

मैं सोच रही थी कि इसी बहाने आप कित्ती अच्छी-अच्छी किताबें पढ़ लेते हैं..

नीरज गोस्वामी said...

सर्वत एम० has left a new comment on your post "किताबों की दुनिया - 63":

किस किस को पढाएँगे भाई! खुशी होती है और दुःख भी कि जब आज के युग में हर शख्स खुद की पब्लिसिटी करता फिर रहा है, यह नीरज गोस्वामी साहब किस मिट्टी के बने हैं जो हमेशा दूसरों का ही परचम बुलंद करते नज़र आते हैं.
भाई, आपकी अजमतों को सलाम!

आकर्षण गिरि said...

एक बार फिर शुक्रिया बेहतरीन शायर और उनकी शायरी से रुबरु कराने के लिए..... ये सिलसिला चलता रहे...

आकर्षण

mark rai said...

क्या फिर कहीं पे कोई बड़ा हादिसा हुआ
क्यूँ आज इतनी भीड़ इबादत घरों में है.........
......सुन्दर प्रस्तुति!

Onkar said...

प्रभावशाली प्रस्तुति

Bharat Bhushan said...

आपके माध्यम से निश्तर जी से परिचय हुआ. आपका कराया हुआ तआर्रुफ़ दिल में बस गया. बहुत खूब नीरज जी.

मुदिता said...

नीरज जी ,
कई बार पढ़ा ..बहुत ही उम्दा शायर से आपने परिचय कराया.....बहुत शुक्रिया और बहुत बधाई आपको साहित्य को विस्तृत करने के लिए

नीरज गोस्वामी said...

मुदिता has left a new comment on your post "किताबों की दुनिया - 63":

नीरज जी ,
कई बार पढ़ा ..बहुत ही उम्दा शायर से आपने परिचय कराया.....बहुत शुक्रिया और बहुत बधाई आपको साहित्य को विस्तृत करने के लिए

मुदिता

अशोक सलूजा said...

एक बार फिर इतनी प्यारी हस्ती से रूबरू कराने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया .....
आह:
किस किस के घर का नूर थी मेरे लहू की आग
जब बुझ गया तो फिर से जलाया गया मुझे

खुश रहिये!

निवेदिता श्रीवास्तव said...

सारे जग की प्यास बुझाना, इतना आसाँ काम है क्या?
पानी को भी भाप में ढलकर बादल बनना पड़ता है
........बहुत ही उम्दा !!!

Kailash Sharma said...

ज़िन्दगी का रूप यकसां, तजरुबे सबके अलग
इस समर का भूल कर भी जायका मत पूछिए

....एक बेहतरीन शायर से परिचय करवाने के लिये आभार..उत्कृष्ट प्रस्तुति...

daanish said...

नीरज भाई
निश्तर साहब की बहुत उम्दा और मेआरी
शाइरी से रु ब रु करवाने के लिए
शुक्रिया कुबूल कीजिये
अशार का तिलिस्म
भुलाए न भूलेगा ... वाह !

Kunwar Kusumesh said...

निश्तर खानकाही जी की क़लम का जवाब नहीं.
उनकी किताब के बारे में जानकर अच्छा लगा.

nishtar said...

MAi appki zindgi bahr abhari rahoongi...bahut hi accha likha hai apne..bahut bahut shukriya Neeraj Sahab.Shagoofa Amber

Rohitas Ghorela said...

आपकी "किताबों की दुनिया" का मैं हरदम इंतजार में रहता हूँ

आपका ये kolm तो बहुत ही शानदार हैं
अब फर्श हैं हमारे छतें दूसरों की हैं
ऐसा अज़ाब पहले कहाँ था घरों के साथ

बिस्तर है पास पास मगर कुर्बतें नहीं
हम घर में रह रहे हैं अजब फासलों के साथ

मैय्यत को अब उठाके ठिकाने लगाइए
मौके के सब गवाह हुए क़ातिलों के साथ

आपका मेरे ब्लॉग पर हार्दिक अभिन्दन हैं नीरज जी
please join my blog
http://rohitasghorela.blogspot.com

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

BAHUT-BAHUT SUNDAR PRASTUTI...

ACHCHHE SHAYAR KI ACHCHHI SHAYRI PADHNE KO MILI....AABHAR

प्रदीप कांत said...

मेरे लहू की आग ही झुलसा गयी मुझे
देखा जो आईना तो हंसी आ गयी मुझे

मैं जैसे एक सबक था कभी का पढ़ा हुआ
उठ्ठी जो वो निगाह तो दोहरा गयी मुझे

_______________________

नाम सुना था मगर परिचय नहीं था...

Gyan Darpan said...

बहुत ही बढ़िया और बेहतरीन प्रस्तुति

Gyan Darpan
Matrimonial Site

nishtar said...

Neeraj Sahab..ek deepak ko apne phir se jala diya..bahut aabhar aapka..sabhi ko dhanyawad bhi blog ko pasnd krne ke lye..ap sabhi log or kalam padhne ke lye http://nishtar-khanqahi.blogspot.com/ par padh sakte hai...meri koshish hai Papa ke or kalam apke samne laau..jo urdu mai parkashit hui..Shagoofa Amber

नीरज गोस्वामी said...

Comment received from Sh.Om Prakash Sapra Ji, Delhi:-


esp neeraj ji
namatey
shri nishtar ji ke bare mein aap ka article achha laga, dhanyawad., especially these line are beautiful :-

अब फर्श हैं हमारे छतें दूसरों की हैं
ऐसा अज़ाब पहले कहाँ था घरों के साथ


बिस्तर है पास पास मगर कुर्बतें नहीं
हम घर में रह रहे हैं अजब फासलों के साथ
कुर्बतें: निकटता

Om Prakash