Monday, September 27, 2010

किताबों की दुनिया - 38

" किताबों की दुनिया " में आपको सब की दुनिया मिल जाएगी लेकिन सब की दुनिया में किताबें मिलें ऐसा शायद संभव न हो....किताबों हमें हमेशा कुछ न कुछ देती हैं बिना बदले में हमसे कुछ भी लिए...इसलिए मैं हमेशा आग्रह करता हूँ के अपनी दुनिया में किताबों को जगह दो...जिनको आपने अब तक जगह दे रखी है उन्हें वहीँ रहने दो लेकिन किताबों के लिए भी थोड़ी सी जगह बना लो. आज माना आप बहुत व्यस्त हैं, आपके ढेर मित्र हैं, नाते, रिश्तेदार हैं, जिम्मेवारियां हैं, सामने बड़े बड़े टार्गेट हैं, पैसा कमाने की होड़ है लेकिन ये स्तिथि हमेशा नहीं रहेगी. एक दिन आप तन्हा होंगे एक दम तन्हा...इतने तन्हा के सन्नाटा बोला करेगा और आप उसे सुन कर डरेंगे तब आपको किताबें सहारा देंगी, सन्नाटों को संगीत के सातों सुरों से भर देंगी. सूखे पेड़ों पर हरी पत्तियां ले आएँगी, उन पर फिर से फूल खिला देंगीं

क्या कहा ?? जी ?? टाइम खोटी मत करूँ सीधे मुद्दे पे आऊँ ? ठीक है भाई सीधे मुद्दे पर आता हूँ और आपको एक ऐसी किताब से रूबरू करवाता हूँ जो आपको अभी पढने का वक्त न होने की स्तिथि में भी खरीद कर रख लेनी चाहिए. शायरी की ये किताब ज़मीन से जुडी किताब है जो गुलाब के फूलों की नहीं उसके काँटों की बात करती है क्यूँ की, यदि मुग़ल-ऐ-आज़म फिल्म का डायलोग दोहराने की इजाज़त दें तो कहूँगा "काँटों को मुरझाने का खौफ़ नहीं होता"

भूख के अहसास को शेरों सुखन तक ले चलो
या अदब को मुफलिसों की अंजुमन तक ले चलो

जो ग़ज़ल माशूक के जल्वों से वाकिफ हो गयी
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो

ग़ज़ल के इस 'अदब' को 'मुफलिसों की अंजुमन' और 'बेवा के माथे की शिकन' तक ले चलने की आवाज़ लगाने वाले शायर का नाम है " अदम गोंडवी ", आज हम उनकी ही बेमिसाल शायरी की किताब " समय से मुठभेड़ " का जिक्र करेंगे जिसे "वाणी प्रकाशन" दरियागंज , नयी दिल्ली ने प्रकाशित किया है .आप उनसे फोन न: 011-23273167 / 23275710 पर या फिर उनकी ई-मेल vaniprakashan@gmail.com द्वारा भी संपर्क कर सकते हैं


बाईस अक्तूबर १९४७ को गोस्वामी तुलसीदास के गुरु स्थान सूकर क्षेत्र के करीब परसपुर (गोंडा) के आटा ग्राम में स्व. श्रीमती मांडवी सिंह व् श्री देवी कलि सिंह के पुत्र के रूप में बालक रामनाथ सिंह का जन्म हुआ जो बाद में "अदम गोंडवी" के नाम से सुविख्यात हुए.

अदम जी कबीर परंपरा के कवि हैं, अंतर यही कि अदम ने कागज़ कलम छुआ पर उतना ही जितना किसान ठाकुर के लिए जरूरी था.

देखना सुनना व् सच कहना जिन्हें भाता नहीं
कुर्सियों पर फिर वही बापू के बन्दर आ गए

कल तलक जो हाशिए पर भी न आते थे नज़र
आजकल बाजार में उनके कलेंडर आ गए

दुष्यंत जी ने अपनी ग़ज़लों से शायरी की जिस नयी राजनीति की शुरुआत की थी, अदम ने उसे उस मुकाम तक पहुँचाने की कोशिश की है जहाँ से एक एक चीज़ बगैर किसी धुंधलके के पहचानी जा सके.

जो उलझ कर रह गयी है फाइलों के जाल में
गाँव तक वह रौशनी आएगी कितने साल में

बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गयी
राम सुधि की झौपड़ी सरपंच की चौपाल में

खेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो गए
हम को पट्टे की सनद मिलती भी है तो ताल में

मुशायरों में ,घुटनों तक मटमैली धोती, सिकुड़ा मटमैला कुरता और गले में सफ़ेद गमछा डाले एक ठेठ देहाती इंसान जिसकी और आपका शायद ध्यान ही न गया हो यदि अचानक माइक पे आ जाए और फिर ऐसी रचनाएँ पढे के आपका ध्यान और कहीं जाए ही न तो समझिए वो इंसान और कोई नहीं अदम गोंडवी हैं. उनकी निपट गंवई अंदाज़ में महानगरीय चकाचौंध और चमकीली कविताई को हैरान कर देने वाली अदा सबसे जुदा और विलक्षण है.

किसको उम्मीद थी जब रौशनी जवां होगी
कल के बदनाम अंधेरों पे मेहरबां होगी

खिले हैं फूल कटी छातियों की धरती पर
फिर मेरे गीत में मासूमियत कहाँ होगी

आप आयें तो कभी गाँव की चौपालों में
मैं रहूँ या न रहूँ भूख मेज़बां होगी

अदम शहरी शायर के शालीन और सुसंस्कृत लहजे में बोलने के बजाय वे ठेठ गंवई दो टूकपन और बेतकल्लुफी से काम लेते हैं.उनके कथन में प्रत्यक्षा और आक्रामकता और तड़प से भरी हुई व्यंग्मयता है.

वस्तुतः ये गज़लें अपने ज़माने के लोगों से 'ठोस धरती की सतह पर लौट ' आने का आग्रह कर रही हैं.

ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नजारों में
मुसलसल फन का दम घुटता है इन अदबी इदारों में

अदीबों ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ
मुलम्मे के सिवा क्या है फ़लक के चाँद तारों में

अदम जी की शायरी में आज जनता की गुर्राहट और आक्रामक मुद्रा का सौंदर्य मिसरे-मिसरे में मौजूद है, ऐसा धार लगा व्यंग है के पाठक का कलेजा चीर कर रख देता है.आप इस किताब का कोई सफह पलटिए और कहीं से भी पढ़ना शुरू कर दीजिए, आपको मेरी बात पर यकीन आ जायेगा.

काजू भुने प्लेट में व्हिस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में

पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में

जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो हवाश में

अदम साहब की शायरी में अवाम बसता है उसके सुख दुःख बसते हैं शोषित और शोषण करने वाले बसते हैं. उनकी शायरी न तो हमें वाह करने के अवसर देती है और न आह भरने की मजबूरी परोसती है. सीधे सच्चे दिल से कही उनकी शायरी सीधे सादे लोगों के दिलों में बस जाती है.

बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को
भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को

सब्र की इक हद भी होती है तवज्जो दीजिए
गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरखान को

शबनमी होंठों की गर्मी दे न पाएगी सुकून
पेट के भूगोल में उलझे हुए इंसान को

लगभग सौ पृष्ठों की इस अनमोल किताब में ऐसे ढेरों शेर हैं जिन्हें पढ़ कर कभी मुस्कराहट के फूल खिलते हैं तो कभी विद्रोह के अंगार. आम इंसान के दुःख दर्द समेटे इन अशआरों को एक नहीं बार बार पढ़ने का जी करता है. शब्दों की मारक क्षमता का अंदाज़ा आपको इस किताब को पढकर हो जायेगा. लिजलिजी थोथी भावुकता से कोसों दूर ये अशआर आपको अपने लगने लगेंगे.

घर में ठन्डे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है
बताओ कैसे लिख दूं धूप फागुन की नशीली है

बगावत के कमल खिलते हैं दिल की सूखी दरिया में
मैं जब भी देखता हूँ आँख बच्चों की पनीली है

सुलगते ज़िस्म की गर्मी का फिर अहसास हो कैसे
मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है

अमूमन मैं किसी किताब के बहुत अधिक शेर इस श्रृंखला में कोट नहीं करता बहुत से अपने पास रख लेता हूँ लेकिन इस किताब के दिल करता है सारे शेर कोट कर दूं, मुझे पता नहीं क्यूँ ये आभास होता है के अधिकांश पाठक इस पोस्ट को पढ़ने के बाद इस श्रृंखला में चर्चित किताब को बजाये खरीदने के भूल जाते हैं, मैं चाहता हूँ के आप मेरी इस धारणा तोडें, और इसे खरीद कर पड़ें, इसलिए अपने आप पर संयम रखते हुए आपको और अधिक शेर नहीं पढ़वाऊंगा आप इस किताब को ढूंढें तब तक मैं भी तलाशता हूँ आपके लिए कोई और शायरी किताब. चलते चलते न चाहते हुए भी ये शेर और दिए जा रहा हूँ पढ़ने के लिए...आप भीं क्या याद रखेंगे. पढ़िए और सोचिये क्या कह गए हैं अदम साहब...

जो बदल सकती है इस दुनिया के मौसम का मिजाज़
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये

जल रहा है देश ये बहला रही है कौम को
किस तरह अश्लील है संसद की भाषा देखिये



श्री अदम गोंडवी साहब

Monday, September 20, 2010

हमारे दिल में सभी के लिए दुआएँ हैं

गुरुदेव पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर हाल ही में संपन्न हुए तरही मुशायरे में ख़ाकसार को भी नामी गिरामी शो’अरा के साथ शिरकत करने का मौका मिला, उसी तरही मुशायरे में भेजी अपनी ग़ज़ल आपके सामने पेश कर रहा हूँ.

आप कहेंगे वहां पंकज जी के ब्लॉग पर तो इसे पढ़ा ही था अब फिर से यहाँ क्यूँ पढ़ें? हम कहेंगे सही कह रहे हैं आप , ये कोई ग़ालिब का कलाम तो है नहीं जिसे बार बार पढ़ा जाए लेकिन अगर आप पूरी ग़ज़ल पढने के मूड में नहीं हैं तो न सही ग़ज़ल का मक्ता ही पढ़ते चलिए क्यूँ के यहाँ ये वो नहीं है जो वहां था, नहीं समझे?.... उस मकते से अलग है...:))


गुलों को चूम के जब से चली हवाएँ हैं
गयीं, जहॉं भी, वहॉं खुशनुमा फि़ज़ाऍं हैं

भुला के ग़म को चलो आज मिल के रक्स करें
फलक पे झूम रहीं सांवली घटाएँ हैं

सबूत लाख करो पेश बेगुनाही का
शरीफ शख्स को मिलती सदा सज़ाएँ हैं

तड़प हिरास घुटन बेकसी अकेलापन
अगर वो साथ है, तो दूर ये बलाएँ हैं

रकीब हों, के हों कातिल, के कोई अपना हो
हमारे दिल में सभी के लिए दुआएँ हैं

वही जो सुन के, पलट के भी देखता ही नहीं
उसी के वास्‍ते इस दिल की सब सदाएँ हैं

चला हजूम सदा साथ झूठ के " नीरज "
लिखी नसीब में सच के सदा खलाएं हैं



हिरास : निराशा
बेकसी : निःसहाय
ख़लाएँ :एकाकीपन

Monday, September 13, 2010

किताबों की दुनिया - 37

'वाशी', याने नवी मुंबई का एक जाना पहचाना नाम, मेरे घर से लगभग पैंतालीस की.मी. दूर है , मेरा ड्राइवर मज़े से कार चलाते हुए अमूमन ये रास्ता करीब चालीस मिनट में तय कर लेता है, लेकिन जिस दिन उसकी अपनी बीवी से खटपट हो या कोई और तनाव हो,उस दिन ये रास्ता मात्र तीस मिनट में निपटा देता है. घर के तनाव को वो तेज़ कार चला कर ही उतारना जानता है.याने वो घर के तनाव को, तेज़ कार चला कर ओवर टेक करता है. ये उसका तरीका है जो जोखिम भरा और गलत है. एक तनाव को दूसरे और अधिक तनाव से कम नहीं किया जा सकता.

अब बिना तनाव के ज़िन्दगी जीना असंभव है, हर एक व्यक्ति अपने तनाव से मुक्त होने या उसके स्तर को कम करने का तरीका खुद ढूंढ लेता है. मैं अपने खुद के इजाद किये तरीके से तनाव मुक्त तो होता ही हूँ बल्कि मेरे आस पड़ौस बैठने उठने वालों के तनाव को भी दूर करने में सहायता करता हूँ. वो तरीका है शायरी की किताबें पढना. मेरे पास शायरी की इतनी किताबों से ये अंदाज़ा मत लगा लीजियेगा के मेरी ज़िन्दगी में बहुत तनाव हैं बल्कि ये सोचिये के मेरे पास तनाव करीब न फटकने देने के इतने कारण हैं.

'वाशी' के एक बड़े से हाल में पिछले सात सालों से चल रही किताबों की प्रदर्शनी पर पचास प्रतिशत छूट का बोर्ड लगा हुआ है. मैं जब जब उसमें गया मुझे निराशा ही हाथ लगी, क्यूँ की वहां सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी की किताबें ही मुझे नज़र आयीं. मैं जब भी मिष्टी के लिए कोई रंग भरो या वर्क बुक टाइप किताब देखने के लिए जाता तो हमेशा काउंटर पर कान खुजलाते बुजुर्ग से पूछता के क्या कभी हिंदी की किताबें भी यहाँ आएँगी और वो गर्दन हिला कर बताता "नहीं". इस बार आदतन जब मैं इस हाल में गया तो काउंटर वाले बुजुर्ग ने मुस्कुराते हुए मुझे एक कोने की और इशारा किया जिसमें तीस चालीस किताबों का ढेर बेतरतीब पड़ा था. ढेर में पाक शास्त्र, हर रोग का आसान घरेलू इलाज़, कैसे करें बागबानी, स्वास्थ्य और योग, सफलता के सूत्र आदि किताबों के बीच दबी झांकती शायरी की एक किताब नज़र आ गयी. ये मेरे लिए गहरे समंदर में मोती मिलने से कम करिश्मा नहीं था.

आज हम शायरी की उसी किताब का जिक्र करेंगे जिसे पेंगुइन बुक्स वालों ने आकर्षक कलेवर के साथ " अंगारों पर नंगे पाँव " के शीर्षक से छापा है. शायर हैं जनाब "माधव कौशिक".


उससे क्या उम्मीद रखे अब कोई बंदानवाज़
आदमी जितना है उतना खोखला कोई नहीं

हँसते-हँसते ही हटा दे सबके चेहरों से नक़ाब
ऐसा लगता है शहर में सिरफिरा कोई नहीं

मेरी बस्ती के सभी लोगों को जाने क्या हुआ
देखते रहते हैं सारे बोलता कोई नहीं

मैं तो अपनी कहता हूँ, मैंने माधव कौशिक जी की शायरी पहले कभी नहीं पढ़ी थी, शायरी क्या उनका नाम भी नहीं सुना था. हैरत की बात है दुनिया में ऐसे कितने नायाब खजाने छुपे हुए हैं जिनका हमें अंदाज़ा ही नहीं होता और जो किस्मत वालों को ही नसीब होते हैं. इस मामले में तो आप मेरी किस्मत पर रश्क कर सकते हैं, जो मैंने इनकी किताब ढूंढ निकाली . इनके बारे में जो जितना जाना है वो सब इसी किताब की मार्फ़त जाना है. एक नवम्बर 1954 को भिवानी (हरियाणा ) में जन्मे, पंजाब विश्व विद्द्यालय से एम्.ऐ.( हिंदी) और बी.एड किये माधव कौशिक जी सन 2005 में हरियाणा साहित्य अकादमी के 'बाबू बाल मुकुंद सम्मान से , सन 2006 में राष्ट्रिय स्तर के 'बलराज साहनी' पुरूस्कार से तथा हिंदी साहित्य सम्मलेन प्रयाग द्वारा 'राज भाषा रत्न' से सम्मानित हो चुके हैं .आपकी अभी बीस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें नौ ग़ज़ल संग्रह मुख्य हैं. माधव जी पंजाब साहित्य अकादमी के सचिव पद पर कार्यरत हैं और चण्डीगढ़ में रहते है.

निहथ्थे आदमी के हाथ में हिम्मत ही काफी है
हवा का रुख़ बदलने के लिए चाहत ही काफी है

ज़रुरत ही नहीं अहसास को अलफ़ाज़ की कोई
समन्दर की तरह अहसास में शिद्दत ही काफी है

बड़े हथियार लेकर जंग में शामिल हुए लोगों
बुराई से निपटने के लिए क़ुदरत ही काफी है

माधव जी की शायरी में हमें आम इंसान की सोच,उसके अहसास और उसके दर्द रूबरू होते हैं . उनकी शायरी शहरों की तरफ भागती ज़िन्दगी पर एक कटाक्ष हैं, वहीँ समाज की हक़ीक़त को बेपर्दा भी करती हैं.

छप नहीं सकता किसी भी पत्रिका के पृष्ठ पर
आपका किस्सा बहुत सच्चा है, सम्मोहक नहीं

राजपथ से दूर गन्दी बस्तियों के बीच में
एक जनपथ है जहाँ पर कोई अवरोधक नहीं

चाहे वो धर्मों के हों, दुनिया के या तहज़ीब के
आदमी बंधन में भी कहता है मैं बंधक नहीं

जैसा के मैं बता चुका हूँ मेरे लिए माधव जी का नाम आज से पहले अनजान था, इसका कारण माधव जी का स्वयं को बाज़ार से दूर रखना हो सकता है. आज के युग में दो मिसरे लिखने वाले अपने फन की शान में ज़मीन आसमान एक कर देते हैं वहीँ माधव जी जैसे शायर सिर्फ अपनी ख़ुशी के लिए लिखते हैं. उनका मानना है के हर रचनाकार को अपना मुक़ाम देर सवेर से ही सही, मिल जाता है. उनके लिए चुपचाप घर बैठ कर लिखने पढने के आनंद के सामने हर तरह की इश्तिहार बाज़ी बेमानी है.

तुमने तो घर के आँगन में नागफनी उगवा ली है
तुम्हीं बताओ कहाँ उगायें पौधे अपनी तुलसी के

नज़र वक़्त की छू कर उनको जाने कब मशहूर करे
सदियों से गुमनाम पड़े हैं लाल हज़ारों गुदड़ी के

सिवा राम के यह सच्चाई किसे समझ में आएगी
जूठे होकर भी सच्चे हैं बेर समय की शबरी के

इस पुस्तक की भूमिका में माधव जी ने लिखा है " इन ग़ज़लों में समय की काली पृष्ठ भूमि में उजास की गहरी लकीरें अधिक दिखाई देंगीं. जीवन को खूबसूरत बनाने के लिए सपनो के इन्द्रधनुषी रंग आपको ' अंगारों पर नंगे पाँव ' चलने के लिए प्रेरित करते रहेंगे.

भीड़ पथराव करके लौट गयी
चौक पर दम गरीब का निकला

सारी बदसूरती उभर आई
मेरी बस्ती में चाँद क्या निकला

ओस मेहँदी रचा गयी होती
धूप का हाथ खुरदुरा निकला

लगभग सौ पृष्ठों में फैली माधव जी की शायरी के अलग अलग रंग आपको इस किताब में बिखरे दिखाई देंगे. उत्कृष्ट कागज़ पर की गयी प्रिंटिंग, किताब पढने का मज़ा दोगुना कर देती है. पहले पृष्ठ से अंतिम पृष्ठ तक की ये यात्रा आप कभी भूल नहीं पाएंगे और उनके कुछ एक शेर तो हो सकता है किताब ख़तम करने के बाद हमेशा के लिए आपके साथ ही चल दें. पुस्तक प्राप्ति के लिए अगर आस पास के पुस्तक भण्डार वाले आपकी मदद न कर पायें तो सीधे पैगुइन बुक्स वालों की साईट www.penguinbooksindia.com पर जा कर उन्हें लिखें और घर बैठे मंगवा लें. किताब आपको निराश नहीं करेगी ये पक्का है.

कल तलक जिनकी इबादत वक़्त करता था बहुत
अब उन्हीं लोगों के बुत शहरों से हटवाने पड़े

मेरे अन्दर के पयम्बर फूट कर तब रो दिये
जब ख़ुदा के सामने भी हाथ फैलाने पड़े

हादसों के दौर में इक हादसा यह भी हुआ
क़ातिलों को अपने दिल के ज़ख्म दिखलाने पड़े

आप नंगे पाँव या फिर कोई चप्पल जूता पहन कर इस किताब को ढूढने की सोचिये तब तक हम निकलते हैं आपके लिए ऐसी ही किसी और किताब की खोज में....पढ़ते रहिये...पढने से बेहतर कुछ भी नहीं...सच्ची.

Sunday, September 5, 2010

मेघ छाएं तो मगन हो नाचता

मेरी दो सौ वीं पोस्ट के साथ ही आज ब्लॉग के तीन साल भी पूरे हुए....आज ये गीत गाने का मन कर रहा है: --

"मुझे ख़ुशी मिली इतनी कि मन में ना समाय, पलक बंद कर लूं कहीं छलक ही ना जाये"

ये ख़ुशी बिना आप सब के सहयोग के मिलनी असंभव थी. तो आप सबको तहे दिल से शुक्रिया मेहरबानी करम....



झूम कर आई घटा घनघोर है
डर रहा हूँ घर मेरा कमज़ोर है

मेघ छाएं तो मगन हो नाचता
आज के इन्‍सां से बेहतर मोर है

चल दिया करते हैं बुजदिल उस तरफ
रुख हवाओं का जिधर की ओर है

फासलों से क्‍यों डरें हम जब तलक
दरमियाँ यादों की पुख्ता डोर है

जिंदगी में आप आये इस तरह
ज्यूँ अमावस बाद आती भोर है

इस जहाँ में तुम अकेले ही नहीं
हर किसी के दिल बसा इक चोर है

बात नज़रों से ही होती है मियां
जो जबां से हो वो 'नीरज' शोर है


(इस ग़ज़ल के सिर्फ लफ्ज़ मेरे हैं, करिश्मा गुरुदेव पंकज सुबीर जी का है)