Monday, September 28, 2009

बचपन की वो शैतानियां

मेरी ये पोस्ट समर्पित है हम सब के लाडले जाबांज मेजर गौतम राजरिश और उनके साथियों की हिम्मत, बहादुरी और देश प्रेम के जज्बे को. काश हर माँ का बेटा उनके जैसा हो.



जिंदगी की राह में हो जायेंगी आसानियां
मुस्‍कुराएं याद कर बचपन की वो शैतानियां

होशियारी भी जरूरी मानते हैं हम मगर
लुत्फ़ आता ज़िन्दगी में जब करें नादानियाँ

देख हालत देश की रोकर शहीदों ने कहा
क्‍या यही दिन देखने को हमने दीं कुर्बानियां

तेरी यादें ति‍तलियां बन कर हैं हरदम नाचतीं
चैन लेने ही नहीं देतीं कभी मरजानियां

तब रहा करता था बरसों याद सबको हादसा
अब नहीं होती किसी को जान कर हैरानियाँ

जी हुजूरी जब तलक है तब तलक वो आपका
फेर लेता है नज़र जब भी हों ना-फर्मानियाँ

बरकतें खुलकर बरसतीं उन पे हैं "नीरज" सदा
मानते हैं बेटियों को जो घरों की रानियाँ


{तहे दिल से शुक्र गुज़ार हूँ गुरुदेव "पंकज सुबीर" जी का जिन्होंने बहुत ज़्यादा मसरूफ़ियत होने के बावज़ूद इस ग़ज़ल के लिए अपना कीमती वक्त निकाला और इसे प्रकाशन योग्य बनाया}

Monday, September 21, 2009

बादलों से दोस्ती अच्छी नहीं


गुनगुनाती हुई गिरती हैं फलक से बूँदें
कोई बदली तेरी पाजेब से टकराई है

बारिश अब सायोनारा कहने के मूड में आ चुकी है. अब देखिये ना कहीं तो वो सिर्फ दूर से हाथ हिला जा रही है और कहीं ससुराल जाती बेटियों सी फूट फूट कर आँखों से पानी बरसाती हुई. जाती बरसात ने गुजरात, हरियाणा,उत्तर प्रदेश और देल्ही को तर- बतर कर दिया.मुंबई में हालाँकि जाती बरसात थोडा सा पानी लायी लेकिन जितना चाहिए था उतना नहीं.

खैर मेरा मकसद मौसम की जानकारी देने का नहीं है. मेरा मकसद सायोनारा कहती बरसात में आपको घुमाने का है. घुमाने के लिए बन्दे के पास अभी सिर्फ और सिर्फ खोपोली और उसके आस पास के खूबसूरत इलाके ही हैं, जिन्हें मेरे जैसे बहुत कम खुशकिस्मत ब्लोगर ही देख पायें हैं.

लोनावला का नाम तो आप सुने ही होंगे, क्या कहा नहीं?चलिए मान लेते हैं की नहीं सुने लेकिन खंडाला का नाम नहीं सुने हैं ये नहीं मान सकते. इस रविवार को सोचा की लोनावला खंडाला की सैर की जाये दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए स्थान हैं. हमारे घर से मात्र बीस की.मी दूर एक झील है "भुशी झील" जिसे भुशी डैम के नाम से जाना जाता है. मुंबई वासियों के लिए ये किसी स्वर्ग से कम जगह नहीं है. बरसातों में झील से होने वाले पानी के ओवरफ्लो के स्थान पर सीडियां बनाई हुई हैं. लोग सैंकडों की तादाद में उन सीडियों पर बैठ कर भीगते हुए भुट्टे खाते हैं और चाय पीते हैं.ऐसा नज़ारा शायद ही आपको कहीं देखने को मिले.

झील के साथ साथ चलते हुए अगर आप उसके पीछे वाले हिस्से में चले जाएँ तो पहाडों से गिरते झरने आपको सम्मोहित कर देंगे.आप इन झरनों के नीचे बैठ कर घंटों नहाने का आनंद उठा सकते हैं.
इस खूबसूरत सफ़र में अब आपके साथ सिर्फ चुनिन्दा शेर होंगे और होंगी चंद तस्वीरें.

बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हो गए
मौसम के हाथ भीग के शफ्फाक हो गए
:'परवीन शाकिर'



कागज़ की कश्ती, जुगनू, झिलमिल झिलमिल
शौहरत क्या है इक नदिया बरसाती है
:बशीर बद्र




तुम्हारे साथ में ये मौसम फरिश्तों जैसा है
तुम्हारे बाद ये मौसम बहुत सताएगा
:बशीर बद्र



पेडों की तरह हुस्न की बारिश में नहा लूं
बादल की तरह झूम के घिर आओ किसी दिन



फूल खुशबू झील मौसम धूप तितली और हवा
सब के चेहरों पर उदासी है तेरे जाने के बाद



मुझे उन नीली आँखों ने बताया
तुम्हारा नाम पानी पर लिखा है
:'बशीर बद्र'



जाती है किसी झील की गहराई कहाँ तक
आँखों में तेरी डूब के देखेंगे किसी दिन
:'अमजद इस्लाम अमजद'



दिल हो रहा है देर से खामोश झील सा
क्या दोस्तों के हाथ में पत्थर नहीं कोई
:'सागर आज़मी'


सुनाई दे तिरे क़दमों की आहट
ये रस्ता मुस्कुराना चाहता है
:वसीम बरेलवी



तू की दरिया है मगर मेरी तरह प्यासा है
मैं तेरे पास चला आऊँगा बादल की तरह
:'अमीर कजलबाश'



कूचे तो तेरे छोड़ कर जोगी ही बन जाएँ मगर
जंगल तेरे परबत तेरे बस्ती तेरी सेहरा तेरा
:'इब्ने इंशा'



घरों में रह के कोई रास्ता नहीं मिलता
घरों को छोड़ के निकलो तो क्या नहीं मिलता
:वसीम बरेलवी




ज़मीं भीगी हुई है आंसुओं से
यहाँ बादल इबादत कर रहे हैं
:बशीर बद्र



तिरे क़दमों से रोशन हैं सफ़र की रौनकें सारी
तू जिस रस्ते पे चलना छोड़ दे वीरान हो जाये
:वसीम बरेलवी


ये ख्वाब है खुशबू है के झोंका है के पल है
ये धुंध है बादल है के साया है के तुम हो
:'अहमद फ़राज़'



और अब आखिर में

इन बादलों से दोस्ती अच्छी नहीं फ़राज़
कच्चा तेरा मकान है कुछ तो ख्याल कर
:'अहमद फ़राज़'



(ये सभी चित्र मेरे द्वारा एक साधारण मोबाईल कैमरे से खींचे हुए हैं: चित्रों का असली आनंद लेने के लिए इन्हें बड़ा करके देखें)

Monday, September 14, 2009

किताबों की दुनिया - 16


"दहलीज़ पे रख दी हैं किसी शख्स ने आँखें
रोशन कभी इतना तो दिया हो नहीं सकता"

भटकना मेरी आदत नहीं है, ये जानते हुए भी की इंसान को अभी तक जो भी खजाने मिले हैं वो उसके भटकने के कारण ही मिले हैं. दुनिया की सारी विलक्षण खोजें इंसान के भटकने का ही परिणाम हैं. इंसान भटकता नहीं तो क्या उसे हीरे सोना चांदी या अन्य धातुओं की खाने मिलतीं ?समंदर में मोती मिलते? सच्चाई की खोज होती ?नहीं.एक जगह बैठे रहने से कभी कुछ हासिल नहीं होता. जरूरी नहीं की आप हमेशा किसी उद्देश्य को लेकर ही भटकें...निरुद्देश भटकने पर भी खजाने हाथ आ जाते हैं. मैं उसका जीता जागता प्रमाण हूँ. पूछिए कैसे? पूछिए पूछिए क्यूंकि शंका का निवारण जितनी जल्दी हो मानसिक शांति के लिए उतना ही अच्छा है.

आप पूछ रहे हैं सो बताता हूँ. हुआ यूँ की मैंने अपनी एक मात्र उपलब्ध पत्नी के साथ फिल्म "लव आजकल" देखने का कार्यक्रम बनाया. घर से करीब तीस की.मी. दूर खारघर नामक खूबसूरत उपनगर में मल्टीप्लेक्स है वहीँ गए. जा कर पता चला की जिस शो की टिकट उपलब्ध है वो दो घंटे बाद शुरू होगा. टिकट लिया और दो घंटे बिताने के उद्देश्य से खारघर भ्रमण का कार्यक्रम बनाया. भ्रमण की जगह भटकने का कार्यक्रम कहना अधिक उपयुक्त होगा. हमने अपने दिमाग को पैरों के हवाले किया और वो जिधर उठ गए उधर ही चल पड़े.

बाज़ार में पत्नी श्री एक वस्त्र भण्डार में घुस गयीं और हम उसके बाहर बैठे एक किताब वाले से चौंच लड़ाने लगे. बहुत सी हिंदी अंग्रेजी की नयी पुरानी पत्रिकाओं और उपन्यासों के ढेर के बीच हमें वो दिखाई दी जिसका सपने में भी गुमान नहीं था. हम जिस किताब का जिक्र कर रहें हैं वो अंग्रेजी के उपन्यासों के बीच "साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं" की मानिंद झाँक रही थी.




भूमिका की लम्बाई को कम करते हुए सीधी बात करते हैं :वो किताब थी हर दिल अजीज़ शायर जनाब मुनव्वर राना साहेब का एक दम ताज़ा ग़ज़ल संग्रह " नए मौसम के फूल". पेपर बैक संस्करण में ये किताब मात्र एक सौ पच्चीस रुपये की है जिसे दूकानदार ने हमें सौ रुपये में दे दिया. किताब ग़ज़लों का अनमोल खजाना है. अब मुनव्वर राना साहब जैसे शायर की कलम जो शेर निकलेंगे वो हीरे मोतियों से कम थोड़े न होंगे. मैं मानता हूँ की उर्दू या हिंदी ग़ज़ल का प्रेमी उनके बारे में जरूर जानता होगा इसलिए उनकी बात न कर मैं सिर्फ उनकी इस किताब का जिक्र ही करूँगा.

मुनव्वर साहब ने " माँ " पर शेर लिख कर ग़ज़लों की दुनिया को एक नयी रौशनी दी है. जैसे शेर उन्होंने माँ पर कहें हैं वैसे शायरी की इतिहास में कहीं नहीं मिलते. वरिष्ठ साहित्यकार श्री कन्हैया लाल नंदन कहते हैं की "मुनव्वर ने माँ को बुलंदियों पर पहुंचाकर साक्षात् पयम्बर का दर्जा दिया है."

इस किताब में भी उनके माँ पर कहे दर्ज़नों लाजवाब शेर हैं लेकिन हम इस चर्चा में उनका जिक्र नहीं करेंगे क्यूँ की उन्होंने " माँ "पर जो शेर कहें हैं वो उनके प्रशंशकों ने जरूर पढें होंगे, अगर नहीं भी पढ़े तो उन्हें हर कहीं पढ़ सकते हैं. तो आईये किताब के वर्क पलटते हैं और पढ़ते हैं जिंदगी के मुक्तलिफ़ रंगों पर कहे उनके लाजवाब शेर:

ये सलतनत मिली है फ़कीरों से इसलिए
लहजे में गुफ़्तगू में चमक बरक़रार है

मुद्दत से उसने पाँव ज़मीं पर नहीं धरे
पाज़ेब में अभी भी छनक बरक़रार है

वो आइने के सामने जाता नहीं कभी
अच्छा है उसमें थोड़ी सी झिझक बरक़रार है

मुनव्वर साहब जिस कारीगरी, नफासत और बेबाकी से सियासत पर शेर कहते हैं वो कमाल शायरी में बहुत कम देखने को मिलता है. उनके शेर सियासत के कारनामों से दिल में उपजे दर्द को क्या खूब बयां करते हैं :

सियासत बांधती है पाँव में जब मज़हबी घुंघरू
मेरे जैसे तो फिर घर से निकलना छोड़ देते हैं

अगर मंदिर तुम्हारा है अगर मस्जिद हमारी है
तो फिर हम आज से ये अपना दावा छोड़ देते हैं

ये नफरत में बुझे तीरों से हमको डर नहीं लगता
अगर तू प्यार से कह दे तो दुनिया छोड़ देते हैं

शायरी को असरदार बनाने में भाषा का बहुत अहम् रोल होता है. जब शायर रोजमर्रा की छोटी छोटी बातों को एक अलग ही अंदाज़ में पेश करता है तो सुन / पढ़ कर मुंह से बरबस वाह निकल पड़ती है.

सियासत किस हुनर मंदी से सच्चाई छुपाती है
कि जैसे सिसकियों के ज़ख्म शहनाई छुपाती है

ये बच्ची चाहती है और कुछ दिन माँ को खुश रखना
ये कपड़ों की मदद से अपनी लम्बाई छुपाती है

"दिव्यांश पब्लिकेशन्स" एम्.आई.जी. 222 फेस 1 एल.डी.ऐ , टिकैत राय कालोनी, लखनऊ -226017 , मोबाईल: 9415185960 द्वारा प्रकाशित इस किताब में मुनव्वर साहब की चुनिन्दा एक सौ अठारह ग़ज़लें हैं और सारी की सारी एक से बढ़कर एक. मुनव्वर जी की अभी अभी हमने 'ग़ज़ल गाँव' , 'पीपल छाँव', 'सब उसके लिए', 'बदन सराय', 'माँ', 'नीम के फूल', 'जिल्ले ईलाही से', 'बगैर नक्शे का मकान', और 'घर अकेला हो गया' जैसी शायरी की विलक्षण किताबों को पढ़ा ही था की अचानक ये किताब भी पीछे पीछे छप के हमारे सामने आ गयी...कहाँ तो उन्हें ढूंढ ढूंढ कर रिसालों या नेट पर पढना पड़ता था और कहाँ उनके लिखे का खजाना घर बैठे मिल गया. हम पाठकों की तो समझिये किस्मत ही खुल गयी.

कम से कम बच्चों के होंटों की हंसी की खातिर
ऐसी मिटटी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊँ

सोचता हूँ तो छलक उठती हैं आँखें लेकिन
तेरे बारे में न सोचूं तो अकेला हो जाऊँ

शायरी कुछ भी हो रुसवा नहीं होने देती
मैं सियासत में चला जाऊँ तो नंगा हो जाऊँ

मुझे इस किताब के बारे में लिखते समय सबसे बड़ी दुविधा इसमें से आप के लिए शेर छांटने में हुई...मैंने भी ज्यादा दिमाग नहीं लगाया आँख बंद की और पन्ने खोल कर ऊँगली रखता चला गया जिस ग़ज़ल पर ऊँगली रखी गयी उसी में से एक आध शेर पेश कर दिए. ऐसा मैंने हर उस किताब के साथ किया है जिसमें से शेर छांटने में मुझे दुविधा हुई. गंगा जमनी जबान का मजा लेते हुए आप इस किताब को एक सांस में पढ़ सकते हैं.

ये अमीरे शहर के दरबार का कानून है
जिसने सजदा कर लिया तोहफे में कुर्सी मिल गई

मैं इसी मिटटी से उट्ठा था बगूले की तरह
और फिर इक दिन इसी मिटटी में मिटटी मिल गई

खुदकुशी करने पे आमादा थी नाकामी मेरी
फिर मुझे दीवार पर चढ़ती ये च्यूंटी मिल गई

आखिर में पाठको मैं वो खबर आपको दे रहा हूँ जिसे जान कर आपकी बांछें खिल जाएँगी. इस किताब के साथ आपको एक वी.डी.ओ सी.डी. मुफ्त दी गयी है. इस वी.सी.डी. में मुनव्वर राना साहब को देखिये अपने दिलकश अंदाज़ में खूबसूरत शेर सुनाते हुए और बरसों बरस इस मंज़र को याद रखिये. ऐसा अनमोल तोहफा आजतक किसी शायरी की किताब के साथ मुझे नहीं मिला है. ये अकेला एक कारण ही बहुत है इस किताब को खरीदने के लिए. अब देर करना ठीक नहीं...इस से पहले की स्टोक ख़तम हो जाये दौड़ पड़िये वरना पछतायेंगे.

बहुत जी चाहता है कैद-ए-जाँ से हम निकल जायें
तुम्हारी याद भी लेकिन इसी मलबे में रहती है

अमीरी रेशम-ओ-कमख्वाब में नंगी नज़र आई
गरीबी शान से एक टाट के परदे में रहती है


Saturday, September 5, 2009

कब तक आखिर आखिर कब तक


दो साल पहले ये ही दिन था जब मैंने अपना ब्लॉग शुरू किया. इसके एक साल पूरे करने के बाद मैंने एक पोस्ट डाली थी "नमन नमस्ते नमस्कार" उम्मीद है सुधि पाठक उसे भूल गए होंगे. वैसे भी आज के युग में सिर्फ काम की चीजें याद रक्खी जातीं हैं ,अनर्गल प्रलाप वाली नहीं.

मैं आपको वो पोस्ट पढने की दावत नहीं दे रहा बल्कि ये बता रहा हूँ की उस पोस्ट में जितने भी महानुभावों के नाम आये थे अब दूसरे साल के समापन पर उनकी संख्या में अप्रत्याशित बढोतरी हुई है.
( गैर शायराना किस्म के लोग कृपया नोट करें, लेकिन दिल पर ना लें )

दो साल और लगभग ढेड सौ पोस्ट...क्या कहते हैं ? ब्लॉग ठीक चल रहा है ना? मेरे विचार से तो बहुत ही बढ़िया चल रहा है. मैं खुश हूँ और इस ख़ुशी का कारण आप पाठक हैं. आते हैं पढ़ते हैं हौसला बढाते हैं सिखाते हैं...और क्या चाहिए?

...लेकिन हकीकत वो नहीं है जो नज़र आती है...सोच नहीं पा रहा की इसे आगे चलाया जाये या रोक दिया जाये... :)) कारण....ब्लॉग के दो साल पूरे होने पर जो आवाज़ मेरे दिल से आ रही है उसे ही ग़ज़ल पैरोडी के रूप में पेश कर रहा हूँ...ग़ज़ल पैरोडी का रदीफ़ जगजीत सिंह और चित्र सिंह जी की आवाज में गायी एक ग़ज़ल से प्रभावित है...(मारा हुआ है)

( ये ग़ज़ल पैरोडी सिर्फ मेरे ब्लॉग के लिए ही है इसे अपने लिए न समझें , ऐसा करने पर कहीं आपका अंतर्मन जाग गया तो?


झूटी सच्ची बात बताना, कब तक आखिर आखिर कब तक
उल्टी सीधी हांके जाना, कब तक आखिर आखिर कब तक

गीत नये सब ब्लोगर गाते, गा कर सबको खूब रिझाते
तेरा मेंडक सा टर्राना, कब तक आखिर आखिर कब तक

एक बरस में दो इक पेलो, मत हर हफ्ते ग़ज़लें ठेलो
पाठक को बेबात सताना, कब तक आखिर आखिर कब तक

साल गुज़ारे दो ये माना, खा हर पल बीवी से ताना
खा कर ताना ब्लॉग चलाना, कब तक आखिर आखिर कब तक

हम जा कर जिस को टिपियाये, क्या बदले में वो भी आये
इसमें 'नीरज' ध्यान लगाना, कब तक आखिर आखिर कब तक


( अरे ये क्या आप तो सिरिअस हो गए...हम तो केवल मजे के लिए ये ग़ज़ल लिखें हैं...बोलो तारारारा... )