Monday, April 6, 2009

किताबों की दुनिया - 8


(पोस्ट थोडी लम्बी हो गयी है...इसे सरसरी तौर पर नहीं, जब फुर्सत हो तभी पढें)

जितनी जितनी ख्वाहिशें ऊंचाईयां छूने लगीं
उतना उतना आदमी छोटा नज़र आने लगा

दोस्तों कई बार अचानक ऐसे शख्श से आपकी मुलाकात हो जाती है जिससे मिल कर आपको अपनी ही किस्मत पे रश्क होने लगता है. जनाब "जाफ़र रज़ा" साहेब को मैंने सबसे पहले कवि कुलवंत जी द्वारा समीर लाल और देवी नागरानी जी की शान में रखी गोष्ठी में देखा और सुना. उसके बाद ये मौका दुबारा अनीता जी के घर पर हुई गोष्ठी में मिला. हर बार उनसे मिल कर जो जेहनी सुकून मिलता है वो लफ्जों में बयां नहीं किया जा सकता.

सीधे सादी ज़बान में जाफ़र साहेब जब शेर पढ़ते हैं तो लगता है जैसे आप हार सिंगार तले बैठे हैं और फूल झड़ रहे हैं. सादगी उनके लिबास में ही नहीं उनकी पूरी शायरी में नज़र आती है. ऐसे ही किसी गोष्ठी में वो अपनी किताब से शेर सुना रहे थे और लोग वाह वा कर कर रहे थे. जब वो शेर सुना कर वापस अपनी जगह लौटने लगे तो रास्ते में ही मैंने उन्हें पकड़ लिया और कहा रज़ा साहेब आपसे एक गुजारिश है, मुस्कुराते हुए बोले कहिये..मैंने कहा मुझे आप अपनी ये किताब अपने दस्तखत कर के दे दीजिये...और उन्होंने बिना एक पल जाया किये मेरी बात मान ली. आज मैं आप को उनकी उसी किताब "दूसरा मैं" से रूबरू करवाता हूँ.

कोशिश कर लो लाख "रज़ा" आसान नहीं
शेरों में ज़ज्बात पिरोना समझेना

रज़ा साहेब अपने ही इस लाजवाब शेर को बड़ी खूबसूरती से पूरी किताब में नकारते नज़र आते हैं. ज़ज्बात को जिस तरह से उन्होंने अपने कलाम में पिरोया है वो बेमिसाल है, उनका ये शेर शायद औरों पर सटीक बैठता हो लेकिन खुद उनपर लागू नहीं होता.

छोटी बहर की इस ग़ज़ल में देखिये किस अंदाज़ से वो अपनी बात कहते हैं:

हसरतें, आरजू, लगन, चाहत
ग़म का सामान मुझमें रहता है

ढूंढता है खुलूस लोगों में
ये जो नादान मुझमें रहता है


ग़म किसी का हो ग़म समझता हूँ
अब भी इंसान मुझमें रहता है

उनकी शायरी आम इंसान की शायरी है जो उसे हर हाल में जीने का संदेशा देती है, उसे जीने के आसान गुर सिखाती है:

बढ़ानी थी अगर अश्कों की कीमत
तबस्सुम में समोना चाहिए था

सलीका सीख लेते खेलने का
अगर दिल का खिलौना चाहिए था

हकीक़त में जो थी फूलों से उल्फत
तो फिर काँटों पे सोना चाहिए था

छोटी बहर में ग़ज़ल कहना मुश्किल होता है क्यूँ की आप को कम लफ्जों में सारी बात करनी होती है...ये फ़न बहुत कोशिशों से हासिल होता है , लीजिये पढिये रज़ा साहेब की एक छोटी बहर की ग़ज़ल के चंद शेर :

दर दर ठोकर खाना क्या
समझेगा दीवाना क्या

वो जो आँखें कहती हैं
लफ्जों में समझाना क्या

ज़ख्म खिले तो बात बने
फूलों का खिल जाना क्या


तुम हमको पहचानोगे
अपने को पहचाना क्या

दिल भर जाये तो जाने
दामन का भर जाना क्या

खोटे सिक्के का यारों
खोना क्या और पाना क्या

ग़म की दौलत है तो है
दुनिया को दिखलाना क्या

फारान बुक डिपू, कुर्ला, मुंबई ( 09223903515) से प्रकाशित एक सौ पचास रुपये मूल्य की ये किताब हिंदी और उर्दू लिपि में छपी हुई है. किताब के बाएँ पृष्ट पर हिंदी में और उसी ग़ज़ल को दायें पृष्ठ पर उर्दू लिपि में पढ़ सकते हैं. उर्दू सीखने में दिलचस्पी रखने वालों के लिए तो ये एक वरदान ही समझिये. जो लोग किताब खरीद में परेशानी महसूस करते हैं उनसे इल्तेज़ा है की इन बेहतरीन शेरों के लिए कम से कम रज़ा साहेब का शुक्रिया उनके मोबाईल( 09821146565) पर ही कर दें.

आयीये चलते चलते एक ग़ज़ल के चंद शेर और पढ़ते चलें:

लगेगी एक दिन उनके गुरूर को ठोकर
ज़मीन पर जो क़दम देखकर नहीं रखते

हिरास-ओ-यास* के बिस्तर पे नींद क्या आती
सुहाने ख्वाबों का तकिया अगर नहीं रखते
*हिरास-ओ-यास* = परेशानी और ना उम्मीदी

वो लुत्फे-गर्मिये- रुख्सारे-जीस्त* क्या जाने
जो उँगलियों को कभी आग पर नहीं रखते

*वो लुत्फे-गर्मिये- रुख्सारे-जीस्त*= जिंदगी के गालों की गर्मी का मज़ा

न जाने कब कोई झोंका फ़साद ले आये
इसी से लोग हवादार घर नहीं रखते

"रज़ा" वो सर किसी काँधे पे कैसे रखेंगे
जो अपना हाथ किसी हाथ पर नहीं रखते

उम्मीद है रज़ा साहेब और उनकी किताब से मुलाकात आपको पसंद आयी होगी...अगर आयी है तो इसे अपने ईष्ट मित्रों को भी पढ़वाएं, किसी शायर की शायरी जितने लोग पढेंगे उतनी ही ख़ुशी शायर को मिलेगी. आप जाफ़र साहेब को खुश रखने के अभियान में लगिए और तब तक हम अगली किताब की खोज में निकलते हैं.

किसकी तरफ ये दस्ते-मोहब्बत* बढाईये
हाथों से अपने ज़ख्म दबाये हुए हैं लोग

दस्ते-मोहब्बत*= मोहब्बत का हाथ

बाँहों में बाहें डाले हुए हैं मगर "रज़ा"
एक दूसरे से खुद को छुपाये हुए हैं लोग

37 comments:

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत धन्यवाद जी इस जानकारी के लिये. शाम को घर जाकर आराम से इसका आनन्द लेंगे.

रामराम.

mehek said...

न जाने कब कोई झोंका फ़साद ले आये
इसी से लोग हवादार घर नहीं रखते

"रज़ा" वो सर किसी काँधे पे कैसे रखेंगे
जो अपना हाथ किसी हाथ पर नहीं रखते
bahut hi sidhi jaban mein khubsurat sher hai,in se milwane ka shukran,waah ke alawa koi shabd hi nahi nikal raha.

रंजू भाटिया said...

बहुत बढ़िया शुक्रिया इस के बारे मे बताने का

Alpana Verma said...

एक नयी किताब के बारे में जानकारी के लिए धन्यवाद,जाफर रज़ा साहब को पहले भी पढ़ा है.उनके शेर काबिले तारीफ़ हैं और आप की समीक्षा भी.

'ढूंढता है खुलूस लोगों में
ये जो नादान मुझमें रहता है
'
यहीं उन के सुन्दर शेरो के लिए उन को धन्यवाद दे देती हूँ और हिंदी और उर्दू दोनों लिपियों में ही यह एक किताब है यह बहुत ही अच्छी बात है.शुभकामनाओं सहित.

seema gupta said...

'ढूंढता है खुलूस लोगों में
ये जो नादान मुझमें रहता है
" इस नई किताब से रूबरू करने और जानकारी के लिए आभार....."

Regards

vijay kumar sappatti said...

aadarniy neeraj ji , bahut dil se aapki ye post padha aur bahut sakun paaya ... main aapka dil se shukriya ada karta hoon ki , aap itni acchi kitaabe aur lekhako se parichay karwaate hai ..

mujhe ye sher bahut dil ke kareeb laga..

ढूंढता है खुलूस लोगों में
ये जो नादान मुझमें रहता है

once again , thanks and regards for such a reading material.

aapka
vijay

बवाल said...

अजी नीरज दा,
पोस्ट आपकी है तो अब लम्बी भी होगी तो ज़बर्दस्ती फ़ुरसत निकाली जाएगी। हा हा ।
आपने क्या फ़ुर्सत नहीं निकाली हमारे लिए इतना सुन्दर विश्लेषण करने के लिए जनाब जाफ़र साहब की पुस्तक का। वाह वाह साहब, एक से बढ़कर एक शेर, एक से खिलकर एक बात। अहा! और तिस पर आपका अंदाज़े-बयाँ। बहुत बड़ा काम कर रहे हैं सरजी आप। क्या कहना!

डॉ .अनुराग said...

ढूंढता है खुलूस लोगों में
ये जो नादान मुझमें रहता है


कई बार एक शेर पूरी किताब से बड़ा हो जाता है...एक अजीम शायर से मुलाकात के लिए शुक्रिया...यहाँ ढूँढेगे जरूर ..फ़िलहाल तो ये शेर लिए जा रहे है.....

Udan Tashtari said...

कहाँ लम्बी है. कब शुरु हुई और कब खत्म-पता ही नहीं चला. यही तो लेखनी का कमाल है आपकी.

Udan Tashtari said...

सलीका सीख लेते खेलने का
अगर दिल का खिलौना चाहिये था.

-वाह!! शायर ने भी किसी अंदाज में ये बात कही है.

दिगम्बर नासवा said...

राजा साहब की किताब के बारे में सुन्दर जानकारी. नीरज जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद,आपने इतनी लाजवाब शायरी से परिचय करवाया.
जाफर रज़ा साहब को पहले कभी पढ़ा नहीं पर लगता है न पढ़ कर गलती करी, शुक्रिया आपने गलती सुधर दी उनके शेर काबिले तारीफ़ हैं और आप की समीक्षा का तो कोई जवाब ही नहीं.

Unknown said...

शेर लाजवाब लगे । आपने अच्छी चर्चा की ।

Anonymous said...

नीरज सर, आपकी पोस्ट पढने के लिए हम फुर्सत निकाल ही लेते है. कुछ जादूगरी ही ऐसी है आपमें.

ढूंढता है खुलूस लोगों में
ये जो नादान मुझमें रहता है

बहुत उम्दा ......

धन्यवाद.

Dr. Chandra Kumar Jain said...

नीरज जी,
आपने नायाब तोहफा भेज दिया
हमें. 'रज़ा' साहब का एक-एक शेर
जिंदगी को 'राजी' करने की मुद्रा में
दिखता है मुझे.
ये शेर सही तजुर्बात हैं
जिन्हें बेहद सहज लहज़े में शायर ने सबका
बना दिया है......शुक्रिया आपका.=========

आपका
डॉ.चन्द्रकुमार जैन

संध्या आर्य said...

किसकी तरफ ये दस्ते-मोहब्बत* बढाईये
हाथों से अपने ज़ख्म दबाये हुए हैं लोग


मौन मे हुँ किन शब्दो मे आपकी प्रसंशा करू समझ मे नही आ रहा है क्योकि दुर्लभ रचनाओ को हम सबके लिये प्रस्तुत करते है .....शुक्रिया
हसरतें, आरजू, लगन, चाहत
ग़म का सामान मुझमें रहता है

क्या बात है!

कंचन सिंह चौहान said...

न जाने कब कोई झोंका फसाद ले आये
इसी से लोग हवादार घर नही रखते..!

बहुत हि अच्छे शायर से परिचय कराया नीरज जी..! लफ्ज़ ब लफ्ज़ पढ़ा। शुक्रिया

Science Bloggers Association said...

किताबों की दुनिया संसार की सबसे खूबसूरत दुनिया होती है।
-----------
तस्‍लीम
साइंस ब्‍लॉगर्स असोसिएशन

दिनेशराय द्विवेदी said...

जाफर रजा साहब के बारे में जानकारी के लिए शुक्रिया। वाकई वे अपने फन में माहिर हैं।

डॉ. मनोज मिश्र said...

पूरी पोस्ट पढा हूँ .यकीन मानिये आनंद आ गया .

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

तुम हमको पहचानोगे
अपने को पहचाना क्या ?
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
नीरज भाई ,
आपका बहुत बहुत आभार !
मोती चुनकर लाते हैँ आपतो !
शायर और उनकी पुस्तक से परिचित करवाने के लिये शुक्रिया
स स्नेह,
- लावण्या

ओम आर्य said...

जो हम चाहते थे कहना वो तुमने पहले हीं कह दिया गालिब
फिर खुदा ने जाने क्यूँ मुझे पैदा किया गालिब

रश्मि प्रभा... said...

raja saheb ki har nazm bahut achhi lagi......
gam kisi ka ho,gam samajhta hun.....ab bhi insaan mujhme rahta hai......tareefe kaabil hai

गौतम राजऋषि said...

नीरज जी आप का ये पुण्य खुदा की किताब में दर्ज़ हो रहा है...
तमाम शुक्रिया-मएहरबानी कम है

वीनस केसरी said...

कुछ शेर तो दिल में नश्तर बन कर लगे
और कुछ फूलों की तरह महका कर गए

आपका वीनस केसरी

कडुवासच said...

अब क्या कहें ..... धन्यवाद, धन्यवाद, धन्यवाद।

shama said...

Pehli do panktiyan hee kaafee hain, aageki rachnakaa ehsaas dilaneke liye...Sahee kaha aapne...mujhe phir ekbaar ise poora dhyan deke padhna hoga..tabiyat zaraa kharab chal rahee hai, isliye zyada samay baith nahee paa rahi hun..
Neeraj ji shayad aap mujhse naraz lag rahe hain...maine to maafeebhi maang lee thee..."kshama badanki den, chhotanki utpaat"...aur kya kahun....anjaneme huee khata ke liye phir ekbaar kshama prarthi hun...asha hai, phir ekbaar pehleki tarah aap hausla afzayee zaroor karenge...bohot ummed leke aapke blogpe aayee hun...aur aapki gaihazaree manko behad khalee hai...

अनिल कान्त said...

ek se badhkar ek sher padhne ko mile ...maza aa gaya

"अर्श" said...

लो जी यहाँ किताबों की कहानी जनाब नीरज की जुबानी चल रही है और मैं कहीं और घूम रहा हूँ.. मुआफी जी... मगर आपने जिस लहजे में जनाब जाफ़र साहिब की किताब के बारे में महफ़िल को गरमाया है क्या कहने आपके .... पोस्ट इतनी छोटी है के ख़तम कब हो गई पता भी नहीं चला और कहते है के .....नीरज जी ये नेक काम का फल हम अपने दुआवों के जरिये दे सकते है मगर ऊपर वाला देख रहा है वो आपको बरकत और खुशियाँ देगा ...

बधाई आपको

अर्श

Dr. Amar Jyoti said...

जाफ़र साहब की भावपूर्ण सशक्त रचनाओं से परिचित कराने के लिये आभार। कविता की अच्छी पुस्तकों से परिचित कराके एक बड़ा काम कर रहे हैं आप। एक अनुरोध है-अपनी ग़ज़लों से लम्बे समय तक वंचित न रखा करें।

Mumukshh Ki Rachanain said...

पोस्ट इतनी छोटी है कि ख़तम कब हो गई पता भी नहीं चला और आप कहते है "पोस्ट थोड़ी लम्बी हो गई, सो फुर्सत में पढें" फुर्सत में पढने के आग्रह या आदेश के कारण ही कमेन्ट में देरी हो गई.

जाफ़र साहब की भावपूर्ण सशक्त रचनाओं से परिचित कराने के लिये आभार।

चन्द्र मोहन गुप्त

हरकीरत ' हीर' said...

नीरज जी,
सबसे पहले इस अप्रत्याशित स्थिति में सान्तवना जताने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया ....आहात तो हुई थी पर जिस तरह आप सब ने साथ दिया बहुत तसल्ली हो गयी.......!!

और ये इतने अच्छे अच्छे शायर आपको कहाँ मिल जाते हैं ....??
कमाल के शे'र हैं सीधे दिल में उतारते हुए .......

हकीकत में जो थी फूलों से उल्फत
तो फिर काँटों पे सोना चाहिए था

बहुत खूब.......!!

और ये.......

जख्म खिले तो बात बने
फूलों का खिल जाना क्या

वाह जी वाह.....!!

लगेगी एक दिन उनके गरूर को ठोकर
ज़मीं पर जो कदम देख कर नहीं रखते

देखिये कितनी गहरी बात दो लाइनों में.....!!

'रजा'वो सर किसी कांधे पे कैसे रखेगें
जो अपना हाथ किसी हाथ पे नहीं रखते

नीरज जी लाजवाब कर दिया रजा जी ने तो....अब तो फोन करना ही पड़ेगा उन्हें .....!!

daanish said...

ek behtareen shaayar se mulaqaat
karvaane ke liye dheroN shukriya
sabhi adab-nvaaz logo par ye ehsaan rahaa aapka.....
abhivaadan svikaareiN.
---MUFLIS---

महावीर said...

'रज़ा' साहब का हर शेर सहेजने के क़ाबिल है। किताब तो नहीं पढ़ी है लेकिन उनके चंद अशाअर पढ़कर एक उत्सुक्ता सी हो गई है पढ़ने की। आपकी कलम का कमाल भी कम नहीं है। पढ़ने में आनंद आगया।
फारान बुक डिपो का पता देने के लिए धन्यवाद।

निर्मला कपिला said...

अनुरागजी अपकी हर पोस्ट ही मै फुरसत मे पढती हूँ आलेख हो,गज़ल हो कवितापकी पोस्ट का एक एक शब्द पढ कर ही संतुश्टी होती है आज अपकी ये पोस्ट भी पडःा कर ये सोछ रही हू कि आप लेखन के प्रती कितने समर्पित है बहुत ही बडिया अलेख है धन्यवाद्

KESHVENDRA IAS said...

Zafar Saheb ki Gazle man ko chhu gayi...Unke kuchh sher or fir usi ki kadi me main apna ek sher de rha hoon-
ढूंढता है खुलूस लोगों में
ये जो नादान मुझमें रहता है

ग़म किसी का हो ग़म समझता हूँ
अब भी इंसान मुझमें रहता है

हसरतें, आरजू, लगन, चाहत
ग़म का सामान मुझमें रहता है
===ज़फर रज़ा===

प्रार्थनाएँ सुनता हूँ बहरों कि तरह
लगता है भगवान मुझमें रहता है.
----केशवेन्द्र-----

Neeraj ji ko itne achhe blog ke liye badhai...maine apne Gazal premi doston ko is blog ke bare me bataya hai...

Aakash said...

शब्दों से आगे घर हे मेरा
जंहा सुर का दरिया बहता हे

जफर रजा साहब की गजल दिल को छु लेने वालीं हे

Nipun Pandey said...

सचमुच एक एक शे'र में एक अलग सी गहराई बेहद खूबसूरती से बयां की है जाफर साहब ने ! आपकी किताबों की दुनिया बड़े नायाब हीरे खोज निकालती है । शुक्रिया :)