Monday, September 29, 2008

काव्य संध्या: आखरी खुराक


"जिस का डर था बेदर्दी वो ही बात हो गई...."जी नहीं मैं आप को "मिल गए नैना से नैना ओये क्या बात हो गई..." वाला गाना सुनाना नहीं चाहता, मैं तो ये कह रहा हूँ की एक डर जो दिल में था की एक न एक दिन तो इस काव्य संध्या की रोचक श्रृखला का अंत होना ही है वो बात अब हो गई है. अब भाई ये तो विधि का नियम है जो शुरू हुआ है उसका अंत तो होना ही है लेकिन एक के अंत से दूसरे का जन्म होता है, ये भी तो नियम है. काव्य श्रृखला समाप्त हुई तो क्या हुआ क्या पता कोई और नई श्रृंखला कहीं जन्म लेने की प्रक्रिया से गुजर रही हो...
चलिए अधिक दार्शनिकता ना बघारते हुए सीधे वहां चलते हैं जहाँ श्रोता अवाक् हैं ये देख कर की वागीश सारस्वत जी जिन्होंने अभी अपनी रचना का पाठ किया था, अचानक तेजी से मंच की और दुबारा क्यूँ बढ़ रहे हैं. आप भी इस बात से सर न खुजलायें क्यूँ की देखिये वो आमंत्रित कर रहे हैं इस काव्य संध्या के विलक्षण संचालक श्री देव मणि पाण्डेय जी को रचना पाठ के लिए...



परिचय: अत्यधिक मिलनसार, विनम्र और वाकपटु श्री देव मणि पाण्डेय देश भर में होने वाले कवि सम्मेलनों और मुशायरों में एक जाना पहचाना नाम है. आप उस विभाग में हिन्दी अधिकारी के पद पर हैं जिस विभाग के नाम से अच्छे खासे लोगों की घिघ्गी बंध जाती है, जी हाँ सही पहचाना--" आयकर विभाग".

मुस्कुराते हुए देव मणि साहेब ने जो एक बार अपने विशेष अंदाज में अपनी रचनाओं का पाठ शुरू किया तो श्रोता मन्त्र मुग्ध सुनते ही रहे...उन्होंने अपनी काव्य यात्रा का आगाज़ उस शाम से किया जिसने हम सब को एक सूत्र में पिरो दिया था....याने आज काव्य संध्या की शाम.

छ्म छ्म करती गाती शाम
चांद से मिलने निकली शाम.

उडती फिरती है फूलों में
रंग बिरंगी तितली शाम.

आंखों में सौ रंग भरे
आज की निखरी निखरी शाम.

अलग अलग हैं सबके ख्वाब
सबकी अपनी अपनी शाम.

*********
सावन आया धूल उड़ाता रिमझिम की सौग़ात कहां
ये धरती अब तक प्यासी है पहले सी बरसात कहां.

मौसम ने अगवानी की तो मुस्काए कुछ फूल मगर
मन में धूम मचाने वाली ख़ुशबू की बारात कहां.

खोल के खिड़की दरवाज़ों को रोशन कर लो घर आंगन
चांद सितारे लेकर यारो फिर आएगी रात कहां.

भूल गये हम हीर की तानें क़िस्से लैला मजनूं के
दिल में प्यार जगाने वाले वो दिलकश नग़्मात कहां.

ख़्वाबों की तस्वीरों में अब आओ भर लें रंग नया
चांद, समंदर, कश्ती, हमतुम,ये जलवे इक साथ कहां.

ना पहले से तौर तरीके ना पहले जैसे आदाब
अपने दौर के इन बच्चौं में पहले जैसी बात कहां.
*********

ना हंसते हैं ना रोते हैं
ऐसे भी इंसा होते हैं.

दुख में रातें कितनी तन्हा
दिन कितने मुश्किल होते हैं.

खुद्दारी से जीने वाले
अपने बोझ को खुद ढोते हैं.

सपने हैं उन आंखों में भी
फुटपाथों पर जो सोते हैं

**********
दिल के ज़ख्मों को क्या सीना
दर्द न हो तो फिर क्या जीना

प्यार नहीं तो बेमानी हैं
काबा , काशी और मदीना .

महलों वालों क्या समझेंगे
क्या मेहनत,क्या धूल पसीना .

तुम बिन तनहा है हर लम्हा
रीता रीता , साल - महीना

**********
श्रोता कहाँ उन्हें जाने देना चाहते थे...देव मणि जी भी मूड में थे लेकिन समय मूड में नहीं था...घड़ी की सुईयां अपनी रफ्तार से बढ़ रही थीं...समय को शायरी की समझ कहाँ...खुश्क, संवेदनहीन, भागने, दौड़ने वाले और गणित में उलझे हुओं को शायरी से वैसे भी कोई नाता नहीं रहता...
और अब अंत में बहुत आदर से बुलाया जा रहा है आज की हमारी विशेष मेहमान देवी नागरानी जी को :



परिचय: हिन्दी और सिन्धी दोनों भाषाओँ में समान रूप से लिखने वाली देवी नागरानी वर्तमान में न्यू जर्सी अमेरिका में शिक्षिका हैं, इनकी लगभग चार पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं.हाल ही में प्रकाशित पुस्तक "दिल से दिल तक " है जिसका विमोचन कुछ माह पूर्व मुंबई में हुआ था.

देवी नागरानी जी, जिन्हें मैं स्नेह से दीदी कहता हूँ, ने अपनी मीठी और सुरीली आवाज में जब गा कर अपनी ग़ज़लें सुनाईं तो श्रोता झूम उठे.

सबसे पहले उन्होंने अपनी ग़ज़लों के कुछ शेर सुनाये...आप देखें:

मुहब्बत की ईंटें न होती जो उस में
तो रिश्तों की पुख्ता ईमारत न होती
*
उस से कुछ इस तरह हुआ मिलना
मिलके कोई बिछुड़ रहा जैसे
*
तेगों से वार करते वो मुझ पर तो गम न था
लफ्जों के तीर चीर के मेरा जिगर गए

कुरुक्षेत्र है ये जिंदगी रिश्तों की जंग है
हम हौसलों के साथ हमेशा गुजर गए
*
मुस्काते मंद मंद हैं हर इक सवाल पर
हर इक अदा जवाब की कितनी है लाजवाब
*
फूलों की सोहबतों ने यूँ आदत बिगाड़ दी
भूली मैं कैसे खार चुभा था यहीं कहीं
*
वो खड़ी है बाल खोले आईने के सामने
एक बेवा का संवारना और सजना भी है क्या
*
डोली तो मेरे ख्वाब की उठ्ठी नहीं मगर
यादों में गूंजती हुई शहनाईयां रहीं

बचपन तो छोड़ आए थे, लेकिन हमारे साथ
ता-उम्र खेलती हुई अमराईयाँ रहीं

चाहत खुलूस प्यार के रिश्ते बदल गए
जज़्बात में न आज वो गहराईयाँ रहीं
*
दौलत को तिरे दर्द की रख्खा सहेज कर
मोती कभी पलकों से गिराए नहीं हमने

आई जो तेरी याद तो लिखने लगी ग़ज़ल
औरों को गीत रोके सुनाये नहीं हमने
**
जरा सोच लो दोष देने से पहले
क्या इक हाथ से कोई ताली बजी है
*
अनबन ईंटों में कुछ हुई होगी
यूँ न दीवार वो गिरी होगी

पुख्ता होंगीं कहाँ से दीवारें
कुछ मिलावट कहीं रही होगी

तेरी उंगली उठी किसी पे अगर
कोई तुझ पर भी तो उठी होगी
*
जैसे ही देवी जी ग़ज़लें सुना के मुडीं श्रोता खड़े हो कर उनके सम्मान में तालियाँ बजाने लगे...हर ताली और और की पुकार कर रही थी....लेकिन अब तक तो आप जान ही चुके होंगे की समय बहुत बलवान हो चुका था...शाम रात में ढल चुकी थी और दूर मुंबई से आए महमानों को घर लौटने की जल्दी अब उनके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रही थी...इस तरह एक यादगार काव्य संध्या अपने खूबसूरत मुकाम पर आख़िर पहुँच ही गयी और जिसका डर था बेदर्दी वही बात हो ही गयी....
इस काव्य संध्या की अद्भुत यात्रा में मुझे बहुत से सहयात्री मिले कुछ जो अंत तक मेरे साथ रहे लगातार मेरा हौसला बढ़ते रहे और कुछ जो बीच बीच में आ कर मुझे सँभालते रहे पूछते रहे की भाई कोई तकलीफ तो नहीं है ना, है तो बताओ हम मदद करते हैं, बढ़िया चल रहे हो चलते रहो.
मेरा फ़र्ज़ बनता है की मैं सर्व श्री अभिषेक ओझा जी, अमर ज्योति जी, अनिता जी, अनुराग जी, अनूप शुक्ल जी, अशोक पाण्डेय जी, बवाल जी, भावेश झा जी, चंद्र कुमार जैन जी, दीपक जी, फिरदौस खान जी, ज्ञान दत्त पाण्डेय जी, गौतम जी, हर्षद जंगला जी, जीतेन्द्र भगत जी, कंचन सिंह जी, कुश जी, लावण्या जी, मनीष कुमार जी, महेंद्र मिश्रा जी, मकरंद जी, मीत जी, मिनाक्षी जी, मुमुक्ष जी,नजर महमूद जी, नीतिश राज जी, पल्लवी जी, परमजीत बलि जी, पारुल जी, गुरुदेव पंकज सुबीर जी, रंजना भाटिया जी, राज भाटिया जी, रक्षंदा जी, रश्मि प्रभा जी, रंजन जी, रविकांत जी, सचिन मिश्रा जी, सीमा जी, शोभा जी, सुशील कुमार जी, स्मार्ट इंडियन जी, स्वाति जी, श्रद्धा जी, भाई शिव कुमार मिश्र जी, ताऊ रामपुरिया जी, उड़न तश्तरी महाराज( समीर लाल जी), विजय मुदगिल जी, वीनस जी, विपिन जिंदगी जी, योगेन्द्र मुदगिल जी और जाकिर अली जी.( वो सब भी भी जो चुपचाप आए और मेरा कन्धा थपथपा कर चले गए) को इस सहयोग के लिए आदर सहित नमन करूँ.

आप सोच रहे होंगे की भाई शिव ने जिस कुरता धारी शायर (याने की मैं ) के आने और अपनी शायरी सुनाने की बात की थी, वो कहाँ है? उसका नंबर कब आएगा? जो आप को बता दूँ की मेरे मन में आईडिया आया की जब मैंने वो ग़ज़ल, जिसे काव्य संध्या में सुनाया था, अपने ब्लॉग पर पहले से ही लगा रखी है तो उसे दुबारा यहाँ फ़िर से पढ़वाने में क्या तुक...??
आप इस बात को सुन कर शरमाते सकुचाते हुए कहिये ना "वाट एन आईडिया सर जी..."
और मैं फ़िर अभिषेक बच्चन की तरह सर को झटका देकर मुस्कुरा कर अपनी टांग हिलाता हूँ...

चलते चलते एक शेर मेरी अगली ग़ज़ल से:

जब तलक जीना है "नीरज" मुस्कुराते ही रहो
क्या ख़बर हिस्से में अब कितनी बची है जिन्दगी



Friday, September 26, 2008

काव्य संध्या: आखरी से पहली खुराक

देवियों और सज्जनों ...इस काव्य संध्या में मेरे साथ बने रहने वाले श्रोता, देवी या सज्जन की श्रेणी के ही हो सकते हैं...सीधी सी बात है इतनी सहनशीलता साधारण मानव में तो हो ही नहीं सकती, आप काव्य की पिछली चार श्रृंखलाओं में हमारे साथ बने हुए हैं...सिर्फ़ बने ही नहीं हुए बल्कि उसका आनंद भी उठा रहे हैं...और ऐसे काव्य पिपासु श्रोता अब दुर्लभ श्रेणी में आते हैं...इसलिए ऐसे विलक्षण श्रोताओं को नमन करते हुए चलिए इस यात्रा को आगे बढाते हैं.
मेरी ये इच्छा थी की इस श्रृंखला का समापन इसी पोस्ट में कर दूँ. लेकिन इसमें दो दुविधाएं थीं एक तो ये की बाकी के कवियों /शायरों की रचनाएँ थोडी लम्बी थीं और उनमें कांट छाँट का अधिकार मैंने अपने पास नहीं रखा था, दूसरे ये की माना आप लोग देवी और सज्जन की श्रेणी में घोषित हो चुके हैं लेकिन इसका अर्थ ये तो नहीं होता की उनपर आवशयकता से अधिक अत्याचार करूँ. इस कारण मेरी इस पोस्ट को आप काव्य संध्या श्रृंखला की अन्तिम से पूर्व की पोस्ट समझें.
चलिए आदर सहित बुलाते हैं अपनी विनम्रता से मोहित कर देने वाले श्री रामप्यारे रघुवंशी जी को



परिचय : हिन्दी सहित्य में एम्.ऐ. श्री रघुवंशी जी पिछले कई वर्षों से एम्.टी.एन.एल में कार्य करते हुए, साहित्य साधना में रत हैं. कवि सम्मलेन में अपनी रचनाओं की रस धार में श्रोताओं को भिगोने में प्रवीण हैं.

रघुवंशी जी ने तालियों की गड़गडाहट के बीच अपनी सुरीली आवाज में जब ये रचना गा कर सुनाई तो अपने गावं से दूर रह रहे लोगों के दिल भर आए...बिहार के देहात की जबान में आप भी इस रचना का आनंद लीजिये

ऊ पिपरा क छहियाँ ऊ दीदी क बहियाँ !
ऊ अँगुरी पकीर के, चलब लरिकइयाँ !!
ऊ दादी के अँचरा में, बचवन लुकाइल
हमें गाँव आपन बहुत याद आइल !!१!!

ऊ गांगू क ठेला, ऊ चवन्नी क मेला !
गोधुलिया की बेला में, खनवां क खेला !
चोटहिया जलेबी से, मन ना अघाईल !
हमें गाँव आपन बहुत याद आइल !!२!!

ऊ गइया बछरुआ, ऊ मुरुगवा क बोलिया !
रतियाँ पपिहरा दिनवां, कूहुके कोयलिया !
बरसे सवनवां जियरा मोर अकुलाइल !
हमें गाँव आपन बहुत याद आइल !!३!!

ऊ नेवता क पाँती, ऊ लड़िकपन क गाँती !
ऊ बाबा क सोटवा ,ऊ संघी सघाती !
ऊ मूंछी औबारा के संग कढ़ी बा देखाइल !
हमें गाँव आपन बहुत याद आइल !!४!!

ऊ बुन्नी बनवरी, ऊ बेसन क फुलवरी !
ऊ बेसन क भुरता, ऊ सतुआ क भौरी !
पेटवा ना भरल, नहीं मनवां अघाइल
हमें गाँव आपन बहुत याद आइल !!५!!

ऊ भईया क बोली, ऊ भौजी क ठिठोली !
ऊ दीया देवारी , ऊ फागुनवां क होरी !
गुलेला के रंगना में, गउँआ रंगाइल !
हमें गाँव आपन बहुत याद आइल !!६!!
*********
गाँव की मिटटी से रची बसी रघुवंशी जी की इस रचना के बाद उन्होंने आज के भारत की जो तस्वीर अपनी अगली रचना में पेश की वो अब आप के सामने है....पढिये और उनके फन की दाद दीजिये...
मेरा भारत महान
भारत की स्वर्ण जयंती पर
एक अस्सी वर्ष की बुढिया ने कहा
"मैं कभी परेशान नहीं हुई
तब भी जब मैंने इकलौता बेटा खोया था
मैं स्वयम कर्ज के बोझ से दबती रही
पर परेशान नहीं हुई
परन्तु उफ़! मैं हैरान थी ये सुनकर
की आजादी के अर्ध शताब्दी बाद
देश हजारों करोड़ के कर्ज के नीचे दबा है
और सचमुच परेशान तब हुई
जब मैं यह जान पाई
की देश के कर्ज से भी
कई गुना अधिक घोटाला करने वाले
भारत के वो सपूत हैं
जिन्हें कहने का हक़ मिला है की
"मेरा भारत महान"

हाथ में कटोरा लिए एक भिकारिन
ने कहा" आजाद भारत में हमें
निश्चित ही तरक्की मिली है,
आज हमारे कई भाई
कोट और टाई लगाकर
अंग्रेजी में भिक्षा मांगते हैं
और उनकी आमदनी
हमारे से कई गुना बेहतर है
अरे भाई अंग्रेजी की यह कीमत
तो अंग्रेजों के ज़माने में भी
नहीं थी
अब हम दोनों में बस येही फर्क है
की वो कहते हैं "अवर कंट्री इज ग्रेट"
और हम कहते हैं की "मेरा भारत महान"

नेहरू जी के साथ वर्षों
साथ निभाए एक परिंदे ने कहा
"आख़िर देश तो अपना है
पर अपने पंखों में
जटायु जैसी ताकत कहाँ है
जो चारों तरफ़ व्याप्त
इस प्रदूषण जैसे रावण से
भारत सी सीता को बचा सकूँ
प्रदूषण जो केवन वायु मंडल तक
सीमित नहीं बल्कि भारत के
घर आँगन समाज और राजनीती को
नेस्तनाबूद कर रहा है
अब तो बस एक ही सपना है
की प्राण छोड़ने से पहले
कोई राम भारत की गद्दी पर
पदासीन होवे और मैं
उसकी गोद में अन्तिम साँस लेते हुए
कह सकूँ "मेरा भारत महान"

दिल्ली से लौटे नेता जी से
मैंने पूछा ६० वर्षों बाद
न खादी वस्त्र, न खादी टोपी
अब इक्की द्दुक्की टोपियाँ ही बची हैं
जो या तो कीमत खो चुकी हैं
या अच्छी कीमत के इन्तेजार में हैं
नेताजी ने तपाक से उत्तर दिया
"हमारे पूर्वजों ने आजादी की
बहुत कीमत चुकाई है
हम उसे वसूल रहे हैं
जब तक देश का एक एक नेता
नहीं बनता धनवान
भला तुम्ही बताओ "मेरा भारत कैसे बनेगा महान"
********
ना थमने वाली तालियों के बीच रघुवंशी जी ने अपना स्थान ग्रहण किया...श्रोता और और की मांग करते रहे लेकिन समय की कमी ने उनकी आवाज को दबा दिया.
बाकि बचे कवि शायर अपनी अपनी कुर्सियों पर कसमसाते देखे गए इसलिए रघुवंशी जी को फ़िर कभी बुलाने के वादे के बाद संचालक महोदय ने आवाज दी भाई कवि कुलवंत को



परिचय: कवि कुलवंत रुड़की विश्विद्यालय से रजत पदक प्राप्त धातुकी में इंजीनियरिंग स्तानक हैं और भाभा परमाणु अनुसन्धान केन्द्र में वैज्ञानिक अधिकारी हैं. इनका हिन्दी काव्य प्रेम विलक्षण है. विभिन्न विषयों पर इनकी हिन्दी भाषा में कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं.

कवि कुलवंत जी ने अपनी चिर परिचित अनूठे अंदाज में श्रोताओं को अपनी रचनाओं से मुग्ध कर दिया. आयीये सुनते हैं अब कुलवंत जी को.

यकीं किस पर करूँ मै आइना भी झूठ कहता है।
दिखाता उल्टे को सीधा व सीधा उल्टा लगता है ॥

शिकायत करते हैं तारे जमीं पर आके अब मुझसे,
है मुश्किल देखना इंसां को नंगा नाच करता है ।
*******

जबसे गई है माँ मेरी रोया नही
बोझिल हैं पलकें फिर भी मैं सोया नही
ऐसा नही आँखे मेरी नम हुई न हों
आँचल नही था पास फिर रोया नही
*******

मिलीमुझे दुनिया सारी जब मिला मौला
भुला दूँ मै खुद को नाम की पिला मौला
गमों से टूट रहा शख्स हर यहां रोता
भरा दुखों से जहां तुमसे है गिला मौला
*******
भरम पाला था मैंने प्यार दो तो प्यार मिलता है ।
यहाँ मतलब के सब मारे न सच्चा यार मिलता है ।

लुटा दो जां भले अपनी न छोड़ें खून पी लेंगे,
जिसे देखो छुपा के हाथ में तलवार मिलता है ।
*******
दुनिया के असली अजूबे
हाल फिलहाल एक हुआ तमाशा,
दुनिया वालों दो ध्यान जरा सा।
विश्व में नए अजूबे चुने गए,
एस एम एस से वोटिंग किए गए।
.
करोड़ों का हुआ वारा - न्यारा,
देकर वास्ता इज्जत का यारा।
भोली जनता को बनाया गया,
ताज के नाम पर फंसाया गया।
.
मीडिया भी बेफकूफ बन गई,
वह भी ताज के पीछे पड़ गई।
जनता से सबने गुहार लगाई,
जितने चाहो वोट दो भाई।
.
वोट के नाम पर खूब कमाया,
भीख मांगने का नया तरीका पाया।
अरे भाई! ताज कहाँ अजूबा है ?
वहाँ तो सोई बस एक महबूबा है!
.
आज के युग में कितनी तरक्की है,
ट्रेनें, हवाई-जहाज, सड़क पक्की है।
राकेट, मिसाईल, कारें, सितारा होटल हैं,
खुलती दिन रात जहाँ शैंपेन बोटल हैं।
.
आओ दिखाता हूँ मै आपको सच्ची अजूबे,
प्रगति के दौर के ये हैं असली अजूबे।
.
विश्व का प्रथम अजूबा - ध्यान दें !
मुंबई की लोकल ट्रेन में सफर कर दिखला दें!
कोई माई का लाल साबित कर दे,
इससे बड़ा अजूबा दुनिया में दिखा दे।
.
आओ दिखाता हूँ मैं आपको सच्ची अजूबे,
प्रगति के दौर के ये हैं असली अजूबे।
.
दूसरा अजूबा भी हमारे देश में,
नजरें उठा कर देख लो किसी भी शहर गली में।
कचरे के डब्बों से खाना ढ़ूंढ़ता आदमी,
उसी को खा कर अपनी भूख मिटाता आदमी।
.
आओ दिखाता हूँ मै आपको सच्ची अजूबे,
प्रगति के दौर के ये हैं असली अजूबे।
.
तीसरा अजूबा - कीड़ों सा रेंगता आदमी,
स्लम, फुटपाथ, ट्रैक पर जीवन बिताता आदमी।
सड़कों पर सुबह, लोटा लेकर बैठा आदमी,
देखिए अजूबा, मजबूर कितना आदमी।
.
और भी कितने अजूबे हैं हमारे देश में,
एक एक कर गिनाना है न मेरे बस में।
एक एक कर गिनाना है न मेरे बस में॥
.*******
कुलवंत जी रचनाओं ने श्रोताओं को गुदगुदाया भी और सोचने पर मजबूर भी किया. अब भला ऐसे कवि को सुनना रोज रोज कहाँ नसीब होता है लेकिन जैसा की मैंने पहले कहा समय बड़ा बलवान...इसलिए कुलवंत जी के बाद आदर सहित बुलाया भाई वागीश सारस्वत जी को



परिचय: वागीश सारस्वत जी एक चुम्बकीय व्यक्तित्व के इंसान हैं "वाग्धारा" पत्रिका के संचालन और संपादन के अलावा वे म.न.से के उपाध्यक्ष भी हैं.
एक कद्दावर राजनितिक पार्टी के कद्दावर नेता का जो चेहरा उन्होंने अपनी रचनाओं में प्रस्तुत किया उस से सभी श्रोता गदगद हो गए. राजनेता इतना संवेदनशील भी हो सकता है ये देखना एक सुखद अनुभव था.

एकलव्य का अंगूठा
गलती तुम्हारी नहीं थी एकलव्य
जो काट दिया अंगूठा
द्रोणाचार्य के मांगने पर
तुम जानते थे सत्य के हिमायती नहीं हैं द्रोणाचार्य
फ़िर भी काट दिया था अंगूठा
गुरु-दक्षिणा के नाम पर

वक्त बदला
शब्द बदले
बदल गए अर्थ
मगर
द्रोणाचार्य कभी नहीं बदलते
हमेशा उपस्थित रहते हैं
कई-कई चेहरों में

आज भी द्रोणाचार्य
आहिस्ता -आहिस्ता निकलते हैं
अपने हितों की
बैसाखियाँ बना कर
अपनों को ही छलते हैं
श्रद्धा को विकलांग बना देते हैं
छलना उनका चरित्र है
आज के द्रोणाचार्यों का
वही पुराना चित्र है
एकलव्य आज भी श्रद्धावनत हो द्रोण की प्रतिमा बनाते हैं
पार्थ को परस्त करते हैं
पर
गुरुभक्ति नहीं बन पाती
एकलव्यों का कवच
स्वान मुखों को तीरों से बंद करके भी
बच नहीं पाते एक लव्य
द्रोणाचार्यों के हाथों ही ठगे जाते हैं
श्रद्धा और श्रम से हासिल
हुनर को छीन लेते हैं द्रोणाचार्य

चारण थे द्रोणाचार्य पहले भी
चारण हैं दोणाचार्य अब भी
शिक्षक थे द्रोणाचार्य तब भी
शिक्षक हैं द्रोणाचार्य अब भी
द्रोणाचार्य अब भी पढाते हैं
कौरवों और पांडवों को साथ साथ
करते हैं पक्षपात

राज भय नहीं है, राजाकर्षण है
स्वत्व और अर्थ का घर्षण है
गिरवी है स्वत्व
विजयी है अर्थ
आदर्श का प्रलाप
बिल्कुल व्यर्थ है
कौरव और पांडव
युद्ध में जुटेंगे जब
द्रोणाचार्य राजाकर्षण से नही बच पाएंगे
एकलव्य अंगूठा कटवा कर
हमेशा छटपटायेंगे
सत्य का विरोध
द्रोण की मजबूरी है
राजगुरु की पदवी जरूरी है
द्रोणाचार्य बदल नहीं सकते
नहीं बदल सकते कौरव और पांडव
मगर बदल सकते हैं एकलव्य
श्रधा के शाप से हो सकते हैं मुक्त

आज भी एकलव्य
सत्य के, ज्ञान के
पौरुष के, मान के
जाती सम्मान के
गुरु-गुरुभक्ति के
निष्ठा के, शक्ति के
महज अभिलाषी हैं
वे हासिल करते हैं जो ज्ञान
तप और त्याग से
छीन लेते हैं द्रोणाचार्य
बिल्कुल विराग से

आज भी द्रोणाचार्य के साथी हैं
छल और प्रपंच
तो श्रद्धा और निष्ठा
एकलव्यों की ढाल हैं
अंगूठा कटे एकलव्य
द्रोणाचार्यों के लिए चुनौती हैं
और द्रोणाचार्य
विकसित समाज के लिए पनौती हैं
द्रोण के द्वेष से
समाज मुक्त होना चाहिए
एकलव्यों का अंगूठा
अब नहीं कटना चाहिए
अगर कटता रहेगा
एकलव्यों का अंगूठा
तो शिक्षा का लहलहाता पेड़
ठूंठ बन जायेगा
द्रोणाचार्यों की वजह से
गुरु शब्द
इस दुनिया का
सबसे बड़ा झूठ बन जाएगा.
*******
यदा कदा
वो रोज मिलता है स्टेशन पर
प्रतिदिन दौड़कर
पकड़ता है ट्रेन
अक्सर मुस्कुराता है
देखकर
पर
नमस्कार करता है यदा कदा.

वो मेरा नाम नहीं जानता
मुझे भी नहीं पता
की वो
अवस्थी है या खोपकर
जेकब है या रियाज़
न तो मैंने कभी
बात की उससे
और न ही कभी
उसने ही पूछा
मेरा नाम
हम दोनों एक-दूसरे को देख
मुस्कुराते रहे अक्सर
पकड़ते रहे ट्रेन
वो
हांफते दौड़ते प्रतिदिन
खो जाता
ट्रेन की भीड़ में
तलाशता हुआ
चौथी सीट

एक दिन
मैं भी शामिल हो गया
ट्रेन पकड़ने की दौड़ में
उसके साथ
क्यूँ की
ललकार कर चेताया था उसने
समझाया था झिड़ककर
अगर खड़े रहे
भीड़ छटने के इंतज़ार में
तो इंतज़ार खत्म नहीं होगा कभी
बढती जायेगी भीड़
चली जायेगी ट्रेन
एक के बाद एक दूसरी
और तब
हासिल होगी
दफ्तर में
बॉस की फटकार
हाजिरी रजिस्टर पर
लाल स्याही से
दर्ज कर दिया जाएगा
लेट मार्क
और कट जायेगी
उस दिन की
आधी पगार

मैं सहमत था उससे
क्यूँकी उसने बताया था
भीड़ में दौड़कर घुसना
उसकी जिंदगी की
दौड़ धूप का एक हिस्सा है
यदा कदा हो जाता है लेट
तो कट जाती है पगार

उसने बताया था उस दिन
की दौड़ना जरूरी है
पगार कट जाए तो
भारी पड़ता है बिठाना
महीने का हिसाब
हाँ, उसदिन उसने
बात की थी मुझसे
पहली और आखरी बार
फ़िर टूट गया सिलसिला
यदा कदा नमस्कार का
लेट मार्क लगने का
खतरा टालने के लिए
उसने
अपने जीवन का सबसे बड़ा
खतरा उठाया
और, घुस जन चाह
भीड़ को चीर कर
तेजी से प्लेटफार्म
छोड़ती ट्रेन में
लेकिन उसकी एक ना चली
ट्रेन चली गई सरसराती हुई
और
थरथरा कर रह गया प्लेटफार्म
एक आदमी
अपने दफ्तर के
हाजरी रजिस्टर में
लगने से रोकने के लिए
लाल स्याही का निशान
कटने से बचाने के लिए
आधे दिन की पगार
पुरा कट गया था
और
प्लेटफार्म को अपने खून से
लाल कर गया था
*******
मैं नहीं चाहता की अचानक इस रोचक कार्यक्रम को यहाँ रोका जाए...लेकिन मजबूरी है बंधू आख़िर आप लोग भी एक ही पोस्ट पर अपना कितना समय देंगे? मेरे और भी तो ब्लोगर भाई बहिन हैं जिनकी पोस्ट आप के इन्तेजार में पलक पांवडे बिछाए है...उसे कैसे भूल जाऊँ? आख़िर एक ब्लोगर का ध्यान दूसरा नहीं रखेगा तो कौन रखेगा बताईये? चलिए समापन किस्त की और अग्रसर होने से पहले लेते हैं एक ब्रेक...जी हाँ सही समझे कमर्सिअल ब्रेक...

"तंदरुस्ती की रक्षा करता है लाईफ बाय....लाईफ बाय है जहाँ तंदुरस्ती है वहां...लाइफ बाय..." टिन टूँ

Monday, September 22, 2008

काव्य संध्या : तीसरी कड़वी खुराक

दर असल बात ये है की जैसा "वीनस जी" ने कहा ये काव्य का नुस्खा वैद जी का बनाया हुआ है इसको बनाने में वक्त लगता है...हर चीज के सही मिश्रण और लेने की विधि से ही इसका असर होता है, दवा हमेशा चम्मच से ही घूँट घूँट पी जाती है...सिर्फ़ शराब ही गिलास से पीते हैं...इसलिए मैंने इसे खुराक कहा...जाम नहीं...आप ने बहुत इंतज़ार किया, अब मैं वापस लौट आया हूँ तो एक् बार फ़िर आप सब को सलाम नमस्ते...हे काव्य प्रेमी श्रोताओ आप की सदा ही जय...ब्रेक पर जाने से पहले मैंने कहा था की अब आने वाली हैं अपने खूबसूरत अशआर से जादू बिखेरनी वाली हर दिल अजीज....और तभी पापी पेट के लिए निरमा पाउडर बीच में आ गया...तो अब आ रहीं हैं...अनीता जी



परिचय: अनीता जी ने मनो विज्ञानं में एम् ऐ किया है और नवी मुंबई के एक कालेज में लेक्चरार हैं...इनका एक ब्लॉग भी है जो बहुत सम्मान के साथ पढ़ा जाता है. लजीज खाना पकाने की विधियां सिखाने के अलावा ये बहुत खूबसूरत कविता भी लिखती हैं...

मुस्कुराते हुए अनीता जी मंच पर आयीं, उनके पुष्प गुच्छ दिया गया जिसे देख वो बोली की शायद इस फूल पर मेरा नाम लिखा था इसलिए मैं मंच पर हूँ जबकि वो ये सोच कर बिल्कुल नहीं आयीं थीं यहाँ की उनको अपनी कोई रचना भी सुनानी पड़ेगी...वो सिर्फ़ श्रोता बन कर आयीं हैं और श्रोता ही बने रहना चाहती हैं...देवमणि जी के आग्रह पर की आप कुछ तो कहें तो उन्होंने जो कहा उसे लिखते हुए मेरे हाथ काँप रहे हैं...उन्होंने गुरुदेव पंकज सुबीर जी(http://subeerin.blogspot.com/2008/09/blog-post.html) के ब्लॉग में छपी एक पोस्ट के हवाले से जिसमें उन्होंने मेरे बारे में कुछ आवश्यकता से अधिक प्रशंशनीय शब्दों का उदारता से प्रयोग किया है, कहा की....छोडिये....नहीं बता सकता क्यूँ की....मैं उनकी बातें सुन कर गर्म तवे पर रख्खे बर्फ के टुकड़े की मानिंद पानी पानी हो गया. इतनी भरी सभा में अपनी प्रशंशा सुनने का ये मेरा पहला अनुभव था. आसपास बैठे लोग मुझे शंकालु नजरों से घूरने लगे, बहुत सो ने अपनी गर्दन दूसरी और घुमा ली जैसे की जिसके बारे में कहा जा रहा है वो कोई और हो. कुछ एक ने बाद में कहा की नीरज जी आप तो ऐसे ना थे.हमने आपको क्या समझा...लेकिन आप तो शायर निकले च च च च....मेरा बैंड बजा कर अनीता जी मुस्कुराती हुई वापस अपनी जगह पर बैठ गयीं.

देवमणि जी भी शायद अनीता जी से सिर्फ़ मेरी प्रशंशा सुन कर कुछ निराश से लगे लेकिन उन्होंने अपने भाव छुपाते हुए निमंत्रित किया रेखा रौशनी जी को.



परिचय: रेखा जी वकील हैं, हाई कोर्ट की क्रिमिनल लायर और दिल से शायरी करती हैं...आपने देश भर में बहुत से मुशायरों में शिरकत की है और अपने कलाम से वाह वाही लूटी है. गुजरात के कच्छ की रेखा जी "रौशनी" के उप-नाम से लिखती हैं.

बहुत ठहरी हुई आवाज में इत्मीनान से उन्होंने ये ग़ज़लें सुनाई...


जहाँ में मुस्कुराना सीख लो तुम
दिलों से दिल मिलाना सीख लो तुम

न जाने कब कटे साँसों की डोरी
किसी के काम आना सीख लो तुम

दुआ बन कर के गूंजे हर जुबां से
कोई ऐसा तराना सीख लो तुम

सफर में काम आए वक्ते मुश्किल
हुनर कोई सुहाना सीख लो तुम

जहाँ में कोई भी दुश्मन नहीं हो
सभी से दोस्ताना सीख लो तुम

******

दिल का आना दिल का जाना दिल दीवाना, जाने भी दो
जान के भी है धोखा खाना फ़िर पछताना, जाने भी दो

जिसको तुमने अपना जाना उसने तो है दिल को तोडा
अपना है या वो बेगाना बन अनजाना, जाने भी दो

शम्मा की मानिंद है जलना शम्मा की मानिंद पिघलना
इश्क में पड़ता है मिट जाना ये अफसाना, जाने भी दो

तुम जो बिछुडे जान लिया है अपनों को पहचान लिया है
क्या है हकीकत क्या है फ़साना और जमाना, जाने भी दो

नजराना है उसकी चाहत "रौशनी" अपनी अपनी किस्मत
नसीब है बस फ़र्ज़ निभाना ये टकराना ,जाने भी दो

तालियों के शोर से इस बात का अंदाजा हो गया की उनकी रचनाएँ कितनी पसंद की गयीं हैं. हैरानी ये सोच के हुई की कैसे इतने मासूम ख्यालों की मलिका खूंखार अपराधियों से कटघरे में जिरह करती होंगी.

रेखा जी के बाद आवाज दे रहा हूँ अपनी कविताओं के माध्यम से झकझोर कर जगाने वाले श्री किरण कान्त वर्मा जी को



परिचय: पटना के रंग मंच से बरसों जुड़े किरण जी आजकल मुंबई में भोजपुरी फिल्मों के निर्देशक के रूप में कार्यरत हैं. आपने लगभग आधा दर्जन फिल्मों का सफल निर्देशन किया है, निर्देशन से समय मिलते ही लिखने और काव्य श्रवण का आनंद लेते हैं.

व्यक्तित्व
मेरा व्यक्तित्व टुकड़े टुकड़े बंधक है
किसी आस्था
किसी संस्था
किसी व्यक्ति के पास
मुझसे किरणे फूटती हैं कभी कभी
अँधेरा छटने को होता है
तभी जिस तरह बड़ी मछली निगल जाती है
छोटी मछली को
मेरे मैं को लील लेता है
उसी तरह
कभी कोई व्यक्ति
कभी कोई आस्था
कभी कोई संस्था
*******

भूख

गली के उस मोड़ पर पड़ा
बंद मुठ्ठियों वाला वो मुर्दा आदमी
मुझे डरा गया
भूख का इतिहास
कुछ और गहरा गया
जी में आया कुछ पैसे जोड़ दूँ
शवदाह के लिए
डरा
कहीं मार ना बैठे
अपनी बंद भिंची मुठ्ठियों से
क्यूँ की उसकी पथरायी आँखों
और जड़ होते होठों के कोने में लिखा था
भूख का इतिहास
आदमी के द्वारा आदमी का सर्वनाश

********

राजनीती

हैंगर पर टंगी कमीजों में
एक भी तो ऐसी नहीं
जिसे पहन कर हम अपना नंगा पन ढक सकते
रंग जरूर इनके अलग अलग हैं
फर्क सिलाई में भी है
परन्तु छेद सभी में हैं
कोई पेट के पास फटी है
किसी का दिल गायब है
और कुछ पैबंद लगे हैं
जिन पर रंगों का बेमेल होना
बार बार खटकता है
फ़िर भी इन्हीं में से किसी एक को
लगातार पॉँच वर्षों तक
अपने ऊपर लादे रहने की हमारी मजबूरी
रह रह कर अन्दर से कोंचती है

दोस्तों किरण जी ने इस काव्य संध्या को नई ऊँचाई दी है, इसे बरक़रार रखते हुए अब बुलाते हैं मलिकाए ग़ज़ल सादिका नवाब साहिबा को



परिचय: सादिका नवाब साहिबा ने हिन्दी, उर्दू और इंग्लिश में एम्.ऐ. की हुई हैं और साथ ही पी.ऐच.डी भी ,आप खोपोली के के.एम्.सी कालेज के हिन्दी विभाग में रीडर हैं. इनकी बहुत सी किताबें शाया हो चुकी हैं, बरसों से अलग अलग मंचों से शायरी करते हुए इन्होने अपना एक् खास मुकाम हासिल किया है. आप "सहर" तखल्लुस से लिखती हैं.

सादिका जी ने एक् छोटी सी नज़्म से अपनी शायरी के सफर को शुरू किया:

आग की गाड़ी
रुकते चलते मुझ तक पहुँची
तुम तक पहुँची
तुमने दामन अपना बचाया
छोड़ के आग की गाड़ी का
वो तपिश का साया
कूलर की ठंडी छावं में
मन भरमाया
आग की गाड़ी से
मैंने कुछ अंगारे ले
अपने दामन को सजाया.

******

जो मुश्किलात में हंस कर यहाँ निभा लेगा
मुझे यकीं है वो मंजिल जरूर पा लेगा

मुझे ना ढूंढ तुझे अब न मिल सकूँगी मैं
इस आरजू में कहीं ख़ुद को तू गवां लेगा

जूनून-ऐ-इश्क को क्यूँ रहनुमा ही हाज़त* हो
ये बहता पानी है ख़ुद रास्ता बना लेगा

मैं अपनी शायरी क़दमों में तेरे रख दूँगी
मुझे यकीन है पलकों से तू उठा लेगा

तू हमसफ़र है मेरा मुझको कोई फ़िक्र नहीं
मैं लड़खड़ाउं तो अब तू मुझे संभालेगा

खिरद** के साये से मुझको खुदा बचाए "सहर"
नहीं तो राहे जुनूं से मुझे हटा लेगा

* हाजत: जरुरत, **खिरद: अक्ल

********
उनका एक् शेर सुनिए:
मेरे खिलाफ अगर तू जबान खोलेगा
मेरी सफाई में तेरा ज़मीर बोलेगा
*******

और आख़िर में एक् ग़ज़ल के चंद शेर:

अब भी आंखों में ख्वाब बाकी है
मयकदे में शराब बाकी है

हमने पूछा था तुमसे एक् सवाल
अब भी उसका जवाब बाकी है

आए इन्किलाब कई ऐ "सहर"
आखरी इन्किलाब बाकी है

********
श्रोताओं की और और की फरमाईश पर उन्होंने कहा की वो खोपोली की ही हैं कभी भी आ जाएँगी...इस वक्त इजाजत चाहेंगी क्यूँ की उन्हें रोजा खोलने के लिए जल्द घर पहुंचना है. क्या करते सभी श्रोता मन मसोस कर रह गए.

दोस्तों ये थी एक कड़वी खुराक , अब हमारे पास आखरी कुछ शायर ,कवि बचे हैं जिन्हें आप की और हमारी सेहत का ध्यान रखते हुए अभी बुलाना ठीक नहीं है, इसलिए मजबूरी वश ले रहे हैं एक छोटा सा कमर्सिअल ब्रेक...आप इस बीच कहीं भी जाईये लेकिन लौट जरूर आयीयेगा...

"वज्र दंती...वज्र दंती..वीको वज्र दंती...टूथ पाउडर टूथ पेस्ट...आर्युवैदिक जडी बूटियों से बनाई पूर्ण स्वदेशी...टूथ पाउडर टूथ पेस्ट...वीको वज्र दंती...टन्न..."

Thursday, September 18, 2008

काव्य संध्या: दूसरी तेज असर खुराक


नमस्कार लीजिये फ़िर से हाजिर हैं एक ब्रेक के बाद....उम्मीद है आप अभी तक डटे हुए होंगे यदि नहीं तो अब डट जाईये और अपने इष्ट मित्रों को भी बुला लीजिये क्यूँ की जैसा मैंने पहले कहा अब बारी है...ओम प्रकाश तिवारी जी की


परिचय: हिन्दी भाषा के प्रकांड पंडित श्री ओम प्रकाश तिवारी जी "दैनिक जागरण" समाचार पत्र के विशेष संवाद दाता हैं और वर्षों से साहित्य सेवा में लीन हैं. देश के विभिन्न कवि सम्मेलनों में अपनी रचनाओं के माध्यम से ख्याति प्राप्त कर चुके हैं.

ओम जी छंदों के जादूगर हैं...शब्द जब उनके मुहं से झरते हैं तो समां देखते ही बनता है...उन्होंने काव्य रसिकों को सबसे पहले अपनी इस गणेश वंदना से भक्ति मय कर दिया.

गणेश वंदना -
गणईश कृपा जो मिले तो खिले जग में हर साधक का सपना ।
विघ्नेश्वर दृष्टि दयालु करें तो कटे घन विघ्न का हो जो घना ।
जब ध्यान करूं गणनायक का तब बोल उठे मन ये अपना ।
प्रभु शीश तुम्हारे समक्ष झुका जो रहे सर्वत्र सदैव तना ।
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सरस्वती वंदना-
ब्रह्मदेव व्यस्त हैं सुनत नांहीं कोहू केरि,
देखि के आबादी वृद्धि सारा विश्व हारा है ।
विष्णु महाराज राज आपका नाकारा हुआ,
मानवों को अन्न नाहीं तन भी उघारा है ।
मस्त हैं महेश राज करके संहार सृष्टि,
वृष्टि है अशांति की न शांति का गुजारा है ।
ऐसे में अनाथ विश्व हुआ है विवेकहीन ,
मातु वीणापाणिनी जी तेरा ही सहारा है ।
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स्वप्न में आए त्रिदेव -
देखा एक ख्वाब स्वर्ग में लगा है दरबार ,
ब्रह्मा-विष्णु-रुद्र निज आसन आसीन हैं ।
गांधी-नेहरू-पटेल जोरि हाथ टेकि माथ,
भारत बचाने हेतु स्तुति में लीन हैं ।
किंतु बोले विष्णु आज द्वापर व त्रेता नाहिं,
कलिकाल मांहिं अपनी दशा भी दीन है ।
बोलो वत्स इज्जत बचाएं याकि भिड़ जाएं,
रावण अनेक और देव सिर्फ तीन हैं ।
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शिव-विवाह के तीन छंद-
प्रथम दृश्य - शिव की बारात का दृश्य
बजने लगी मृदंग ताल बेमिसाल सुर
पुर व असुर निज सुधि बिसरा गए ।
डमरू की डम पे मिलाए ताल झम झम
नंदी नृत्य से स्वयं शिव शरमा गए ।
चित्कार फुफ्कार चिमटों की झनकार
बिजली तड़प उठि मेघराज छा गए ।
ऐसी ध्वनि सुनि कहें सखी एक-दूसरे से
शिव ले बारात ग्राम के नगीच आ गए ।
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दूसरा दृश्य- द्वार पूजा (सिंहावलोकन सवैया)


(पाठकों जरा गौर करें इन सवैयों में एक विशेषता है हर पंक्ति का आखरी शब्द दूसरी पंक्ति का प्रथम शब्द होता है जैसे यहाँ प्रथम पंक्ति का अन्तिम शब्द धायी है और दूसरी पंक्ति का प्रथम शब्द भी धायी है. हिन्दी में इस तरह के छंद लेखन की प्रथा अब लुप्त हो चुकी हैं लेकिन हमारा सौभाग्य है की ओम जी अपने अथक प्रयास से इसे अभी तक जीवित रखे हुए हैं:)


आयी बरात हिमाचल द्वार सुनी सगरी नगरी उठि धायी ।
धायीं कहांरिन नाउन बारिन शीश धरे कलशा इठलायीं ।
लायीं असीस भरे निच आंचल नारिहिं गीत सुमंगल गायीं ।
गायीं सखी सकुचाईं उमा अस की उपमा कवि को नहिं आयी ।
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तीसरा दृश्य - बारात का भोजनकाल
छप्पन भोग धरे थरिया मंहिं नारद बांचहिं मंत्र अधूरा ।
पूरी ही पूरी तहावहिं ब्रम्हा व विष्णु दही संग चाटहिं चूरा ।
इंद्र खड़े चटकार लगावहिं हाथ लिये बस पापड़ झूरा ।
रुद्र हिमाचल के पिछवाड़े हैं खोजत जाइके भांग धतूरा


हिन्दी के इन विलक्षण छंदों को सुनने के बाद आयीये सुने अब चेतन जी को


परिचय: श्री चेतन जी गुजराती हैं और नवी मुंबई में इनका अपना फर्नीचर का बहुत बड़ा व्यापार है, इस व्यापारी को शायरी के कीडे ने एक दिन काट लिया और तब से शायरी इनका जूनून है.

शर्मीले स्वाभाव के चेतन जब मंच से शायरी करते हैं तो श्रोता इनके साथ एहसास के समंदर में डूबते उतरते हैं. गुजरात दंगों से आहत हो कर उन्होंने अपनी लिखी ये ग़ज़ल बहुत संजीदगी से सुनाई

मैं तनहा हूँ, तनहा तू भी
लूटा हूँ मैं, लूटा तू भी
ये आग क्यूँ है हर कूंचे
जलता मैं हूँ, जलता तू भी
आँखें मेरी रोने ना दें
भीगा मैं हूँ, भीगा तू भी
ये रात अब जैसे कटे
जागा मैं हूँ जगा तू भी
अब हाथों से पत्थर लेलो
शीशा मैं हूँ शीशा तू भी
चेतन अब क्या तेरा मेरा
हारा मैं हूँ, हारा तू भी
मैं तनहा हूँ, तनहा तू भी
लुटा मैं हूँ लुटा तू भी

****

तालियों की गडगडाहट के बाद अपनी पहली ग़ज़ल के जज़्बात को आगे बढाते हुए उन्होंने अपनी दूसरी ग़ज़ल सुनाई. .

ये तेरा ये मेरा क्यूँ है
हर दिल में अँधेरा क्यूँ है
शीशा टूटा दिल भी टूटे
नफरत का ये डेरा क्यूँ है
अपनी अपनी किस्मत सबकी
रेखाओं का घेरा क्यूँ है
मेरी आँखें अश्रु तेरे
अब आंखों पर पहरा क्यूँ है
जैसे भी हो खुल के आओ
हर चेहरे पर चेहरा क्यूँ है
दुश्मन भी अब मीत हैं मेरे
चेतन फ़िर तू ठहरा क्यूँ है

दोस्तों तैयार हो जाईये क्यूँ की अब आप के सामने आ रहीं हैं जवां दिल हम सब की प्यारी शायरा मरयम गजाला जी


परिचय:लगभग सत्तर वर्षीय,ऊर्जा से भरपूर मरयम गजाला जिन्हें मैं आदर से आपा केहता हूँ ने एम्.ऐ. इंग्लिश तथा मनोविज्ञान,एम्.एड. शिक्षण, साहित्य रत्न की उपाधियाँ प्राप्त की हैं और पिछले कई वर्षों से लिख रहीं हैं. आपकी इंग्लिश, उर्दू तथा हिन्दी भाषा में बहुत सी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं.

बड़े ही मस्त अंदाज़ में उन्होंने अपनी कुछ गज़लों के शेर सुनाये और श्रोताओं को अभिभूत कर दिया. अब मैं उनके और आप के बीच से हट जाता हूँ ताकि आप बिना किसी बाधा के उन्हें सुनते रहें:

उसने मेरी नजर से सितारे चुरा लिए,
चेहरे से मेरे सारे उजाले चुरा लिए
नोटों भरी समझ के क़तर ली किसी ने जेब
जितने थे तेरे ख़त वो पुराने चुरा लिए

*****

सफर में खुशनुमा यादों का कोई कारवां रखना
बुजुर्गों की दुआ का धूप में इक सायबां रखना

भुलाने का तरीका ये नहीं है अपने माजी को
जला देना खतों को और फ़िर दिल में धुआं रखना

भले सर पर सफेदी है इरादों को जवां रखना
कलम में जो सियाही है गजाला वो रवां रखना

*****

तालियों की गडगडाहट के बीच उन्होंने अपनी एक और ग़ज़ल के ये शेर सुनाये

चले चलो कि बस्तियों में नफरतों का है चलन
गली गली में मुफलिसी मकाँ मकाँ घुटन घुटन

उदास उदास शाम में धुआं धुआं चराग हैं
हमें तेरे ख्याल में मिली फकत चुभन चुभन

दिलों में देश प्रेम कि वो भावना नहीं रही
भले ही चीखते हों सब मेरा वतन मेरा वतन

कटे न जब तलक कपट न मैल मन का ही धुले
अजान भी फरेब है फरेब है भजन भजन

श्रोताओं कि फरमाइश ने उन्हें वापस अपनी जगह पर लौटने नहीं दिया, मुस्कुराते हुए उन्होंने चंद और शेर सुनाये

प्यासे को रेगज़ार भी दरया दिखाई दे
सोना किसी फकीर को लोहा दिखाई दे

सरकारी दफ्तरों की तरह है ये ज़िन्दगी
कुछ भी न हो रहा हो प होता दिखाई दे

फैला के हाथ हंस दिया हर इक के सामने
बच्चे को जो मिला वही अपना दिखाई दे

जाने से पहले उन्होंने कहा की अपनी ग़ज़ल के दो शेर सुना रही हूँ इसी याद रखें

क्यूँ कुरेदे जा रहे हो याद के नाखून से
ज़ख्म जो दिल में है इक गहरा कुआँ हो जाएगा

पत्थरों पर तुम निशां छोडो तो हम माने तुम्हें
रेत पर चींटी के चलने से निशां हो जाएगा

मुझे दुःख है पाठकों लेकिन क्या करें हमें एक ब्रेक लेना ही होगा ये आप के और मेरे दोनों के स्वास्थ्य के लिए जरूरी है. अति तो हर चीज की बुरी होती है और फ़िर कविता श्रवण की..बाप रे बाप...याने करेला और नीम चडा वाली बात हो गयी...आप इतनी देर बिना चेनल बदले बैठे रहे....इतना सह लिए,अब क्या हम बच्चे की जान ही ले लें ?चलिए मुहं हाथ धो आयीये क्यूँ की अब आने वाली हैं अपने खूबसूरत अशआर से जादू बिखेरनी वाली हर दिल अजीज....(कट)

{कमर्सिअल ब्रेक}

तीं ईन इन् इन् वाशिग पाउडर निरमा वाशिंग पाउडर निरमा...ढूध सी सफेदी निरमा से आए...रंगीन कपड़े भी धुल धुल जायें...सबकी पसंद निरमा.....

Wednesday, September 17, 2008

काव्य संध्या...पहली खुराक


काव्य संध्या का संचालन जितनी दक्षता से मित्र देव मणि पांडे ने किया था अगर उसका शतांश भी मैं कर पाया तो अपने आप को धन्य समझूंगा. घटी हुई बात को लिखना एक बात है और उसे अपने अनुसार घटित करना दूसरी. हमारी काव्य संध्या के आरम्भ में बुला रहे हैं "अनामिका साहनी जी" को.



परिचय: अनामिका साहनी, एम्.ऐ.(हिन्दी), भूतपूर्व लेक्चरार, आज कल स्वतंत्र लेखन, टेली फिल्मो की पट कथा लिखने में व्यस्त.

अनामिका जी ने अपने सधे हुए गले से गणपति जी की वंदना से कार्यक्रम का शुभारम्भ किया:

"जय गणेश गण नायक दया निधि
सकल विघन कर दूर हमारे
प्रथम करे जो ध्यान तुम्हारो
उनके पूरण कारज सारे "
इतनी सुरीली शुरुआत से यकीन हो गया की कार्यक्रम सफल ही होगा. वंदना के बाद अनामिका जी ने अपनी ग़ज़लें सुनाई . श्रोता उनके इन शेरों पर मुकरर मुकरर कहते रहे...

ख्वाब जितने सुहाने लगे
वो मेरा दिल दुखाने लगे

फ़िर कोई गुल खिलेगा जरूर
जख्म फ़िर मुस्कुराने लगे

उनके दमन में पाई जगह
अपने आंसू ठिकाने लगे


परिचय: वि.के.सिंह, पेशे से इंजिनियर, अभी भूषण स्टील में असी.जनरल मेनेजर के पद पर कार्य रत, बचपन से ही साहित्य से लगाव, जब मन किया लिखते हैं और अक्सर लिख कर भूल जाते हैं.

वि.के. सिंह आशु कवि हैं...किसी परिस्तिथि विशेष में कविता इनमें जन्म लेती है ये तुंरत किसी फटे पुराने कागज पर, रुमाल पर, अखबार पर या टिशु पेपर पर उसे तुंरत लिखते हैं और फ़िर कहीं रख कर भूल जाते हैं. अपनी इस विलक्षण प्रतिभा के प्रति उदासीन व्यक्ति ने पहली बार काव्य प्रेमियों के बीच अपनी रचनाओं का पाठ किया और सभी को प्रभावित किया. आप भी देखें उनकी प्रतिभा की एक बानगी.

एक महल और उसके चारों तरफ़ मजबूत चार दीवारी
अन्दर राजा ऐश कर रहा, बाहर बिलखती प्रजा सारी
समाजवाद ऐसा भी देखा है इस देश में यारों
की आदमी ही देवता बना है आदमी ही पुजारी

2.

वाणी की टंकार सुना सुसुप्त चेतना जागृत कर दूँ
ऐसा मुझ में ओज कहाँ....मैं कवि नहीं हूँ
तम् मिटा धरा आलोकित कर दूँ
ऐसा मुझ में तेज कहाँ....मैं रवि नहीं हूँ
मेरे पथ के अनुगामी हों ये दुराग्रह ठीक नहीं
इंसान बनू ये काफ़ी है.....मैं नबी नहीं हूँ.

3.
पीछे बैठे नौजवानों को देख कर उन्होंने अपनी वो रचना सुनाई जो कभी एक बस यात्रा के दौरान किसी दूसरी सीट पर बैठी लड़की को देख कर लिख डाली थी:

स्थान रिक्त था पास यहीं, फ़िर जा बैठीं क्यूँ दूर कहीं
मन बार बार ये कहता है तुम आ जाती तो अच्छा था
मन क्या चाहे, ये क्यूँ बहके, क्यूँ ऐसी उम्मीद करे
एक तिरछी चितवन देकर ही मुस्का जाती तो अच्छा था.


परिचय: महिमा बोकाडिया, सूरत से हैं और अभी नवी मुंबई में रिलाएंस कम्पनी में कार्यरत हैं. साहित्य में गहरी रूचि है और मुंबई के मंचों से अकसर अपनी रचनाएँ सुनाती हैं.

उनके जीवन का सूत्र है

जीवन नहीं नहीं निज हाथ, मरण नहीं निज हाथ
जीवन अपने हाथ है लिखदे उज्जवल बात

ख्वाबों में आशाओं के रंग बिखरने दो
खुले नैनो में आकाश सिमटने दो
बनाली बहुत सीमायें चारों और
कल्पनाओं को उन्मुक्त उड़ान अब भरने दो
निराशा हताशा की चिता सजने दो
तन्हाईयों को मौन संगीत से भरने दो
अद्भुत सौन्दर्य दिखेगा हर तरफ़
एक बार अन्दर का गागर तो छलकने दो

तीन कवियों की गहरी भारी कविता पाठ से दबे श्रोताओं के लिए राहत की साँस लेकर आए मंच संचालक देव मणि पांडे जी. देखा पीछे बैठे युवा सर खुजला रहे हैं तो बोले की आज के युवा जो रिअलिटी शो के लिए लम्बी लाइन लगाते हैं कविता में रूचि भी लेते हैं "महिमा जी" जैसे युवा से बहुत आशाएं हैं. ये युवा लोग बात बात में रोचक कविता लिख डालते हैं... प्रेम प्रदर्शन का एक नमूना उन्होंने पेश किया. बोले एक लड़की ने एक लड़के को एस एम् एस डाला..लिखा:

क्या लेकर आया जालिम
क्या लेकर तू जाएगा
मुझको एस एम् एस ना करके
कितने पैसे बचायेगा ???
लड़के लिखा:
काश हम एस एम् एस होते
एक ही क्लिक में आपके पास होते
भले ही आप हमको डिलीट कर देते
मगर कुछ पल के लिए तो आप के पास होते


परिचय: घुमक्कड़ प्रवर्ती के श्री सत्य वीर शर्मा, सेना में रहे उसके बाद रिटायर होकर ओ एन जी सी में आफिसर बने, अब साहित्य साधना में लीन हैं.

कविता सुनाने से पहले बोले की मैं कवि नहीं हूँ इसलिए आप को एक चूं चूं का मुरब्बा टाइप कविता सुनाता हूँ...जिसका जो चाहे अर्थ आप निकल लें गहरे भी और मजाक में भी.
तुम कौन हो
तुम्हारे कौन हैं
कौन जाने?
अफसाना ऐ दिल क्यूँ हुआ
कौन माने?
आँखें कब खुलीं?
कब नजर बदले?
क़यामत भारी जवानी आई और ढल गयी
मुसाफिर तो सफर में मिल ही जाते हैं
समय आने पर वो बिछुड़ भी जाते हैं

श्रोता वास्तव में ग़मगीन हो गए. समझ नहीं पाए की क्या कहें तभी देव मणि जी ने कहा की की आप को आम पसंद है? सबने कहा हाँ...बोले कौनसा ? सबने कहा लंगडा...वो बोले मैंने मैंने एक बार एक लंगडे आम को ये कविता सुनाई...आप भी सुने

दिल हसीनो से प्यार करता है
जो कहें बस सदा वो करता है
आपके लिए खुशनसीबी है
वरना लंगडे पे कौन मरता है

तभी ठहाकों की वर्षा हुई और उदासी के बादल छट गए. देवमणि जी ने श्रोता और कवि समुदाय पर नजर डाली और कहा की अब बुलाते हैं उस कवि को जिसने अपनी मौलिक रचनाओं से पूरे भारत में एक विशेष स्थान पाया है, हिन्दी भाषा को नए आयाम दिए हैं और कविता की एक ऐसी विधा को जो मंचों पर अपना दम तोड़ चुकी है जिन्दा रखने में कामयाब रहे हैं..मैं आवाज दे रहा हूँ....
दोस्तों मिलते हैं एक छोटे से ब्रेक के बाद...कहीं जाईयेगा नहीं...हम आते हैं...चुटकी में... " सिर्फ़ एक सेरिडोन और सरदर्द से आराम...उसके बाद काव्य संध्या में बैठिये और मुस्कुरईये...टें ट टें...")

Monday, September 15, 2008

काव्य संध्या



घायल की गति घायल जाने,और ना जाने कोय...इसे यूँ कहें की एक ब्लोगर का दुःख ब्लोगर ही समझ सकता है...पूछिए की ब्लोगर का दुःख क्या? आपने पूछा है तो बता देता हूँ वैसे अगर आप ब्लोगर हैं तो जानते ही होंगे लेकिन अब जब पूछ ही रहे हैं तो जवाब भी सुनिए...ब्लोगर का सबसे बड़ा दुःख ये होता है की उसने अपने ब्लॉग पर कोई नई पोस्ट नहीं डाली, उसके बाद टिप्पणी ना मिलने का दुःख होता है...अभी मैं दुःख के प्रथम चरण की बात कर रहा हूँ...याने पोस्ट ना डाल पाने वाली.

चलिए सीधी सीधी बात कहता हूँ बेकार में नेताओं जैसे उलझाता नहीं आपको...विगत दस दिनों से हमारे यहाँ का नेट बगावत पर उतर आया है, सीधे मुहं बात ही नहीं करता, बहुत तुनक मिजाज हो गया है....इसे आप यूँ समझिये की पोस्ट टाटा की "नैनो" कार कम्पनी हो गयी और नेट "ममता दी"....लाख कोशिशों के बावजूद हम हमारी ही पोस्ट अपने ही ब्लॉग पर डालने से वंचित हो गए....कभी एक पंक्ति लिखने बाद तो कभी लगभग समाप्त हो चुकी पोस्ट से पहले ही नेट का अकस्मात् गायब हो जाना शुरू हो गया....लाख जतन किए लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ...बात दवा से दुआ पर आ पहुँची...खुदा खुदा करके आज कुछ देर से स्तिथि नियंत्रण में लेकिन तनाव पूर्ण है...


आप देखिये कार्यक्रम से पूर्व आपस में बैठ कर गपशप करते मेहमान.(देवमणि पाण्डेय जी,किरण कान्त वर्मा जी,रघुवंशी जी,देवी नागरानी जी और महिमा जी)

पिछले एक हफ्ते से अपने यहाँ हुई एक काव्य संध्या की रिपोर्ट प्रकाशित करना चाहता था अपने ब्लॉग पर लेकिन नहीं कर सका और आज देखिये अनीता जी ने अपने ब्लॉग पर उसके बारे में सूचना प्रसारित कर दी. आप लोगों ने उसे पढ़ा भी तारीफ भी की और शिकायत भी की उनसे की उन्होंने फोटो क्यूँ नहीं लगाई...तो आप से अनुरोध है की कार्यक्रम की जानकारी जिसे अनीता जी ने बड़े मनमोहक अंदाज में दिया है उनके ब्लॉग पर पढ़ें और फोटो यहाँ देख कर तसल्ली करें...


आप देखिये कार्यक्रम से पूर्व आपस में बैठ कर गपशप करते मेहमान.( बाएं से दायें : वी.के.सिंह जी, रेखा रौशनी जी,अनीता कुमार जी, आशा शर्मा जी, साहनी जी और मरयम गजाला जी )


गप शप में व्यस्त बाएं से दायें: नीरज गोस्वामी, ओम प्रकाश तिवारी जी, वागीश सारस्वत जी और देवमणि पाण्डेय जी)

चलिए शुरुआत करते हैं काव्य संध्या के बारे में जो खोपोली से अधिक भूषण स्टील में होना एक अजूबे से कम नहीं...साहित्य आज के युग में गरीबी की रेखा से बहुत नीचे है. कवि या कविताओं की बात करना और सुनना हेय समझा जाता है. काव्य संध्या के विचार का बीज मित्र कुलवंत सिंह जी ने हमारे उर्वर मष्तिष्क में डाला जो देखते ही देखते ये फलने फूलने लगा. आनन् फानन में कुछ लोग बुलाये गए और व्यापक रूप रेखा तैयार की गयी...कुछ लोग उत्साह से और कुछ नौकरी बचाए रखने के डर से हमारे साथ जुड़ गए.

( डरे हुए लोग अपनी पत्नियों से ये संवाद स्थापित करते पाए गए...
पति: भागवान इंसान का दिमाग भी देखो कब कैसे फ़िर जाता है...अच्छे भले थे गोस्वामी साहेब अचानक इस उम्र में जब इंसान भगवान को जपता है उनको कवि और कविताओं की लत लग गयी है ...अरे उनको लगी सो लगी...हमें भी अपने साथ घसीट रहें हैं...सोचता हूँ कवियों की खिदमत करने से अच्छा है किसी सूखे कुएं में कूद जाऊँ...लेकिन क्या करूँ तुम्हारा ख्याल मुझे रोक लेता है....पत्नी: हाय दैय्या...तुम्हें भी कविता सुननी पड़ेगी? पति, रोते हुए : हाँ...पत्नी: हे इश्वर तू कहाँ हैं बचा ले इन्हें...इनके तो भाग ही फूट गए...रे.)

ऐसे विकट लोगों और विषम परिस्तिथियों से झूझते आख़िर वो दिन आ ही पहुँचा. सभी कवि लोग लगभग २ बजे खोपोली पहुँच गए. अपनी रचनाओं से काव्य संध्या को बुलंदियों पर पहुँचने में में श्री देव मणि पाण्डेय, कवि कुलवंत सिंह, मरयम गजाला, सादिका नवाब, रघुवंशी जी, किरण कान्त वर्मा, वागीश सारस्वत , ओम प्रकाश तिवारी, रेखा रौशनी, महिमा जी, साहनी जी,चेतन जी और देवी नागरानी जी का विशेष हाथ रहा. इस आयोजन में हमारी विशेष मेहमान ब्लॉग जगत की सिद्ध हस्त लेखिका अनीता जी और फ़िल्म तथा टेलीविजन की मशहूर हस्ती आशा शर्मा जी थीं. कार्यक्रम का संचालन अनुभवी श्री देव मणि पाण्डेय जी ने किया और अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी देवी नागरानी जी ने खूब निभाई.



कार्यक्रम आरम्भ हुआ...दर्शक धीरे धीरे डरते डरते हाल में आ कर बैठने लगे. देवमणि जी ने अपनी चुटकियों से उन्हें सहज किया हंसाया और तालियाँ बजाने पर मजबूर किया.



बहुत से रचना कारों ने अपनी रचनाओं से श्रोताओं को अभिभूत कर दिया और वे उनकी सोच के साथ बह निकले.



श्रोताओं की संख्या ने मेरे अनुमान को ग़लत साबित कर दिया, बाद में बहुत से लोग बिना कुर्सियों के हाल में खड़े खड़े कार्यक्रम का आनंद लेते देखे गए. ये आयोजन की सफलता का प्रमाण था.



अधिकांश फोटो नौकरी बचाने के डर से खींचने वालों ने खींची हैं इसी से आप उनकी गुणवत्ता का अंदाजा लगा सकते हैं. )

अगली पोस्ट तक अगर नेट चल पड़ा तो आप को हर कवि, शायर, शायरा की रचनाएँ उनके चित्र के साथ पढ़वाऊंगा...तब तक के लिए उम्मीद के सहारे जिन्दा रहिये...

Friday, September 5, 2008

नमन, नमस्ते, नमस्कार




लीजिये मेरे ब्लॉग को प्रकाश में आए आज एक साल हो गया...पीछे मुड कर देखता हूँ तो हैरत होती है की कैसे पलक झपकते ही एक साल बीत गया. अभी कल सी बात लगती है जब शिव ने कहा था भईया आप का एक ब्लॉग बना रहा हूँ, आप इसमें पोस्ट किया कीजिये. ब्लॉग बन गया एक ग़ज़ल पोस्ट की इंतज़ार किया की देखें कौन पढता है...किसी ने नहीं पढ़ी. चिंतित हो कर ज्ञान भैय्या से गुहार लगाई और उन्होंने अपने ब्लॉग पर मेरे ब्लॉग तक पहुँचने का लिंक दिया ये कहते हुए की भाई एक शायर पैदा हुआ है ब्लॉग जगत में उसकी हौसला अफजाही करो. शिव ने इस बीच एक पोस्ट ही हमारे नाम पर ठेल दी, जिसमें उन्होंने हमारी बिना बात ही खूब तारीफ कर दी.
उस पोस्ट को पढ़ कर या पता नहीं हमारी अंतरात्मा की आवाज को सुन कर कुछ ब्लोगर भाई बहिन आए और साथ ही लाये कॉमेंट्स की सौगात. ब्लॉग ने मुझ साधारण से इंसान का परिचय बहुत से असाधारण लोगों से करवाया. कुछ से परिचय इतना बढ़ा, की लगा ही नहीं ये कभी अजनबी, अपरिचित थे.

आज की पोस्ट में मैं उन सब को याद करते हुए नमन, नमस्ते, नमस्कार, प्रणाम,सत श्री अकाल, सलाम और हाय करता हूँ.

१ ब्लोगर जिनसे मैं मिला.
इसे मेरा दुर्भाग्य कहिये की लाख कोशिशों और निमंत्रण देने के बावजूद मुझे अधिक ब्लोगर्स से मिलने का सौभाग्य प्राप्त अभी तक नहीं हुआ. जिन चंद ब्लोगर्स को मिल पाया हूँ वो हैं उड़न तश्तरी में विचरण करने वाले समीर भाई, अपनी कॉफी से रिझाने वाले कुशजी, अपनी पाक कला और कलम का लोहा मनवाने वाली अनीता जी, हिन्दी की गरिमा बढ़ाने वाले कवि कुलवंत जी और अपनी कहानियो से मायावी संसार रचने वाले भाई सूरज प्रकाश जी.

२. ब्लोगर जिनसे नहीं मिला लेकिन लगता है कि मिला हूँ
ऐसे परम प्रिय मित्रों की सूची लम्बी है जिनसे बिना मिले हरदम मिले जैसा अनुभव होता है. ये दिल के इतने करीब हैं की लगता ही नहीं अपरिचित हैं. इन लोगों से परिचय जीवन की एक उपलब्धि है. इन मित्रों को मैं दो श्रेणियों में रखता हूँ एक तो वो जिनकी आवाज सुनता रहता हूँ और दूसरे वो जिनका पत्र मिलता रहता है.

2a: आवाज के मित्र
छोटे भाई शिव कुमार मिश्रा और ज्ञान भईया के अलावा जिनकी आवाज ने मुझे संबल दिया है उनमें भाई पंकज सुबीर जी और द्विज जी का नाम आता है. उस वक्त जब ग़ज़ल के अथाह सागर में हाथ पाँव मारते हुए मैं तैरने की कोशिश कर रहा था तब इन्ही दो महानुभावों ने मुझे सिखाया की कैसे तैरा जाता है...हाथ पाँव मारने और तैरने में जो अन्तर है वो इन्होने समझाया और बड़े प्रेम से समझाया. आज भी जब कभी लेखन में मुझे दुविधा होती है ये मेरा मार्ग दर्शन करते हैं. कवि श्रेष्ट भाई राकेश खंडेलवाल जी ने समय समय पर मेरा उत्साह बढाया है, पंकज औधिया जी ने कई बार ये कह कर की मैं आप से मिलने आरहा हूँ अपना वादा तोडा है , इसके अलावा कलकत्ता के मीत साहेब से एक आध बार और बाल किशन महाराज से कई बार बात हुई है और आनंदित हुआ हूँ.

2b: पत्र के मित्र
अपने पत्रों से प्रेम प्रर्दशित करने वालों में अति संवेदन शील डाक्टर अनुराग, स्वर कोकिला पारुल जी, शब्दों के जादूगर भाई मनीष (जोशिम), ग़ज़ल सम्राट भाई मुदगिल जी, परम आदरणीय महावीर जी,दूर देश बैठीं बहिन मिनाक्षी जी, शब्दों का जादू बिखेरती छोटी बहिन स्वाति,अमृता प्रीतम की दीवानी रंजना जी, छोटी छोटी रचनाओं के माध्यम से जिंदगी सिखाने वाले भाई चंद्र कुमार जैन जी, रेडियो से सुर सरिता बहाने वाले युनुस भाई जी और सबसे पंगा लेने में उस्ताद अरुण जी सर्वोपरि हैं.

३. मेरे सहारे
ये वो लोग हैं जिनके होने से ही मैं हूँ. ये लोग मेरी ऊर्जा हैं, मुझे जिस स्थान पर मैं आज हूँ, वहां खड़े किए हुए हैं.मेरे अच्छे बुरे को इन्होने अपनाया है और अपने शब्दों से मुझे सहारा दिया है. ये वो लोग हैं जिनसे मिले उत्साह जनक शब्दों बिना शायद मैं आज ये पोस्ट ना लिख रहा होता. इन सब का नाम लेना बहुत मुश्किल का काम है क्यूँ की मैं नहीं चाहता इनमें से किसी भी एक का नाम छूट जाए, फ़िर भी डरते डरते कोशिश करता हूँ अगर कहीं भूल चूक हो जाए तो क्षमा कीजियेगा और इस भूल के लिए डांट भी लगाईयेगा.

चलिए शुरुआत करते हैं हास्यावतार आलोक पुराणिक जी से, और फ़िर लेते हैं अनूप शुक्ला जी, अनुनाद सिंहं जी, अखिलेश सोनी जी, बोधिसत्व जी ,अल्पना वर्मा जी, बसंत आर्य जी, अनिल रघुवंशी जी,अनिल चढ्ढा जी, अनूप भार्गव जी,बेजी जी, अनुराधा श्रीवास्तव जी, अनिल रघुराज जी,अजय कनोडिया जी,अजित जी,आशीष जी, अमिताभ फौजदार जी,अनुराग अन्वेषी जी,अनुराग आर्य जी,अतुल जी,अभिषेक ओझा जी, आशीष अंशु जी, बवाल जी,दीपांशु गोयल जी, अशोक पाण्डेय जी, इष्ट देव जी, जगत चंद्र जी, काकेश जी,क्रिशन लाल किशन जी,हर्षवर्धन जी,हेमज्योत्सना जी, कंचन सिंहं चौहान जी, जे.पी.नारायण जी, जीतेन्द्र भगत जी, इला जी, हर्ष जी,हरिमोहन जी,कुमुस्कन जी,घोस्ट बस्तर जी,हर्षद जंगला जी,खरी खरी जी,हनी हनी सब कुछ जी, नीलम जी, मोहिंदर जी,मनीष जी, प्रियंकर जी, घुघूती बासूती जी,परमजीत बाली जी, नीरज रोहिल्ला जी, प्रभाकर जी, महाशक्ति जी,महेंद्र मिश्रा जी, ममता जी, प्रवीण चौपडा जी,लवली कुमारी जी,मथुरा कोलोनी जी, प्रभाकर पाण्डेय जी,महामंत्री तस्लीम जी, पल्लवी त्रिवेदी जी, लावण्या जी, ललित मोहन जी, संजीत त्रिपाठी जी, शिरीष जी, सतेन्द्र श्रीवास्तव जी, रवि रतलामी जी, सुनीता(शानू) जी, सुभाष भौदौरिया जी, शोभा जी, राजीव जैन जी, सागर नाहर जी,रजनी भार्गव जी,विनोद कुमार जी, रीतेश जी, सृजन शिल्पी जी,विनय ओझा जी,राज यादव जी, तरुण जी, राज भाटिया जी, रोहित जी, रविन्द्र प्रभात जी, राजीव रंजन जी, राकेश रोशन जी, रक्षंदा जी, विजय चतुर्वेदी जी, रमेश पटेल जी,सीमा गुप्ता जी, विजय गौड़ जी, सुशील कुमार जी, श्रध्दा जैन जी, रंजन गोरखपुरी जी, जाकिर अली जी, शायद जी, ताऊ रामपुरिया जी, पूजा जी, नीतिश राज जी, स्मार्ट इंडियन जी,प्रीति बर्थवाल जी, रामपुरिया जी, अमर जी, राधिका जी,अमर ज्योति जी, चन्द्र मोहन गुप्ता जी ,चिराग जैन जी, विपिन ज़िन्दगी जी, अहमद अली बर्की जी. सुमित सिंह जी ,रश्मि प्रभा जी,शैली खत्री जी........और और और...बहुत से चाहने वालों का नाम.
इनके अलावा मेरे मित्र श्री चाँद हदियाबादी और गुरु प्राण शर्मा जी का जिक्र भी करना चाहूँगा, जिनका ब्लॉग नहीं है लेकिन बहुत बड़ा सहारा है.

अंत में आप सब से अनुरोध है की जो प्यार और आशीर्वाद आप सब ने मेरी रचनाओं और उससे भी अधिक इश्वर की रचना " मिष्टी " को दिया है उसे भविष्य में भी देते रहें ताकि ये सफर यूँ ही चलता रहे.......

Monday, September 1, 2008

नींद आंखों की उड़ाता कौन है



( सलाम करता हूँ भाई पंकज सुबीर जी को जिनके इशारे से ग़ज़ल की खामियां दूर कर पाया हूँ , प्रस्तुत है संशोधित ग़ज़ल)

नींद आंखों की उड़ाता कौन है
रात भर मुझको जगाता कौन है

भूल जाना चाहता हूं मैं जिसे
याद उसकी ही दिलाता कौन है

ये पता चलता नहीं है इश्क में
कौन पाता है लुटाता कौन है

प्यार के गुल रौंद मेरे मुल्क में
खार नफरत के उगाता कौन है

शाम से ही आ रही हैं हिचकियाँ
गीत मेरा गुनगुनाता कौन है

किसको फुर्सत आज के इस दौर में
रूठ जाने पर मनाता कौन है

मोल अपने आसुंओं का जानिये
मोतियों को यूं लुटाता कौन है

राग अपने और अपनी ढफलियां
पीठ दूजी थपथपाता कौन है

हम किसे आवाज दें ‘नीरज’ बता
देख कर बदहाल आता कौन है