Monday, May 12, 2008

खोजिये राह बढ़ जाइये



इस जहाँ से ना घबराइये
खौफ रब से मगर खाइये

वो सुनेगा करो तुम यकीं
बस सदा में असर लाइये

साथ हरदम चला कौन है
खोजिये राह बढ़ जाइये

खार से दुश्मनी किसलिए
साथ उनका भी अपनाइये

बात से कम करें दूरियां
क्या ज़रूरी कि टकराइये

दायरे में समाये रहें
पाँव इतने ही फैलाइये

ख्वाब महलों के देखो मगर
झोपडों को न ठुकराइये

हों भले ही परेशानियाँ
गीत आशा भरे गाइये

झूठ "नीरज" लगी बात ये
कर भला, तो भला पाइये



( आभारी हूँ प्राण शर्मा साहेब का जिन्होंने इस ग़ज़ल को ग़ज़ल कहलाने लायक बनाया )

14 comments:

Shiv said...

वाह!
बहुत खूब.

हम चले आयेंगे पढने को
आप लिखिए और छपवाईये

Dr. Chandra Kumar Jain said...

हौसला हक़ के लिए बाक़ी हो
तो डगर अपनी भी अपनाइये
===========

जीने का ज़ज़्बा साथ लाए हैं
चलिए अब संग भी हो जाइए
==========

पंख-परवाज़ प्यार की बातें
गौर से सुनिए औ'सुनाइये
==========

बधाई नीरज जी.
आपका
डा.चंद्रकुमार जैन

Omnivocal Loser said...

वाह.......

Pankaj Oudhia said...

लगातार यथार्थ के धरातल मे बने रहने के लिये ये पंक्तियाँ मार्गदर्शक बनेगी। मैने इन्हे सहेज लिया है। हमेशा की तरह आपका आभार शानदार प्रस्तुति के लिये।

रंजू भाटिया said...

बात से कम करें दूरियां
क्या ज़रूरी कि टकराइये

वाह बहुत खूब नीरज जी ..बेहद खूबसूरत लिखा है आपने

राजीव रंजन प्रसाद said...

खार से दुश्मनी किसलिए
साथ उनका भी अपनाइये

बात से कम करें दूरियां
क्या ज़रूरी कि टकराइये

वाह नीरज जी, वैसे तो अह्र शेर बेहतरीन है, उपर उद्धरित विषेश पसंद आये।

***राजीव रंजन प्रसाद

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा गज़ल बन गई है, वाह!!

साथ हरदम चला कौन है
खोजिये राह बढ़ जाइये

मीनाक्षी said...

खार से दुश्मनी किसलिए
साथ उनका भी अपनाइये --- यही करने में तो मज़ा है. हमेशा की तरह बहुत खूब .....

महावीर said...

वाह! एक उम्दा ग़ज़ल है जो पाठक को सोचने पर विवश कर दे कि यह क्या ग़ैरमुरद्दफ़ ग़ज़ल है जिस में रदीफ़ की जगह काफ़िया ले लेता है और मतले
के बिना ही ग़ज़ल बन जाती है या फिर कभी यह गुमान हो जाता है कि कहीं काफ़िये को रदीफ़ में ही छुपा दिया है। यानि रदीफ़ "इये" और "काफ़िया" इस में जुड़ा हुआ है?
ख़ैर, फिर भी मन ने इसे 'ग़ैर मुरद्दफ़' गज़ल की श्रेणी में मान ली। दूसरी ख़ूबी इस में तख़य्युल की है, बड़े अच्छे विचार दिए हैं।
काफ़ी दिनों बाद आपका ब्लॉग देखा है, आंखों की मजबूरी अभी भी चल रही है।
महावीर शर्मा

डॉ .अनुराग said...

बात से कम करें दूरियां
क्या ज़रूरी कि टकराइये

दायरे में समाये रहें
पाँव इतने ही फैलाइये

ख्वाब महलों के देखो मगर
झोपडों को न ठुकराइये


क्या बात है,आपका एक अलग ही अंदाज है जो जीवन की सामान्य बातो को भी गजल बनाता है ,वैसे कभी इसी विचार पर मैंने भी लिखा था ...गजलों के मूड पर कभी आपसे भी बाँटेंगे......

Gyan Dutt Pandey said...

@ शिवकुमार मिश्र - सबसे पहले टिप्पणी! लगता है नीरज जी पोस्ट आपको पहले ही आउट कर देते हैं।

Abhishek Ojha said...

ख्वाब महलों के देखो मगर
झोपडों को न ठुकराइये

वाह !

महावीर said...

नीरज जी
मेरी ऊपर लिखी टिप्पणी में इन शब्दों को अहमियत न देना क्योंकि यह थोड़ा सा मज़ाक में लिख डाला थाः- "कि कहीं यह गुमान हो जाता है कि कहीं काफ़िये को रदीफ़ में ही छुपा दिया है। यानि रदीफ़ 'इये' और काफ़िया इस में जुड़ा हुआ है।" इये तो कोई शब्द नहीं होता। इस टिप्पणी को नज़रअंदाज़ कर देना।
बहुत से बड़े बड़े शायरों ने भी ग़ैरमुरद्दफ़ गज़लें लिखी हैं जो बहुत मशहूर हुई हैं।
जैसे 'राही' साहब कीः
हमने लिया न जब किसी रहबर का सहारा
हर गाम पे 'राही' हमें मंज़िल ने पुकारा।
नीरज जी, आपकी यह बात बहुत पसंद है कि ग़ज़ल विधा में कुछ प्रयोग कर के ग़ज़ल को नयापन देकर विस्तृत रूप देकर साहित्य सेवा कर
रहे हैं। मुम्बइया भाषा में आपकी लिखी हुई ग़ज़ल आज भी याद है।
इसी तरह लिखते रहिए और रवायतों की बुनियाद (बहर वगैरह) पर ग़ज़लों को नये नये रूप दे कर लोगों को रास्ता दिखाते रहिए।

राकेश खंडेलवाल said...

इस गज़ल ने मचल कर कहा
गुनगुनाते हमें जाईये
वज़्म ने ये तकाजा किया
एक दो और फ़रमाईये