Tuesday, April 29, 2008

शाम का अखबार हो गये

इंसानियत के वाक़ये दुशवार हो गये
ज़ज्बात ही दिल से जुदा सरकार हो गए

कब तक रखेंगे हम भला इनको सहेज कर
रिश्ते हमारे शाम का अखबार हो गये

हमने किये जो काम उन्हें फ़र्ज़ कह दिया
तुमने किये तो यार वो उपकार हो गये

कांटे मिलें या फूल हमें पथ में क्या पता
जब साथ चलने को कहा तैय्यार हो गए

ढूँढा जिसे था वो कहीं हमको नहीं मिला
आँखे करी जो बंद तो दीदार हो गये

रोंदा जिसे भी दिल किया जब थे गुरूर में
बदला समय तो देखिये लाचार हो गये

कल तक लुटाते जान थे हम जिस उसूल पर
लगने लगा है आज वो बेकार हो गये

नीरज करी जो प्यार की बातें कभी कहीं
सोचा सभी ने हाय हम बीमार हो गये

20 comments:

Shiv said...

बहुत खूब, भइया...वाह!

बहुत दिनों बाद...लेकिन इंतजार का फल बहुत मीठा है.

अमिताभ मीत said...

गज़ब है नीरज साहब. बहुत ही बढ़िया. एक एक शेर लाजवाब. वाह !

Alpana Verma said...

'कब तक रखेंगे हम भला इनको सहेज कर
रिश्ते हमारे शाम का अखबार हो गये'
ek naya nazariya rishton ko dekhne ka!

bahut khuub!
sabhi sher tazgi se bhare hain.
badhayee

Abhishek Ojha said...

कब तक रखेंगे हम भला इनको सहेज कर
रिश्ते हमारे शाम का अखबार हो गये,
वाह क्या बात कही है आपने !

राजीव रंजन प्रसाद said...

नीरज जी,

बेहद गहरे गहरे शेर..आनंद आ गया

कब तक रखेंगे हम भला इनको सहेज कर
रिश्ते हमारे शाम का अखबार हो गये

हमने किये जो काम उन्हें फ़र्ज़ कह दिया
तुमने किये तो यार वो उपकार हो गये

बेहतरीन रचना...

***राजीव रंजन प्रसाद

Rajesh Roshan said...

नीरज साहब बड़ा उम्दा लिखा है
राजेश रोशन

Pankaj Oudhia said...

क्या बात है, वाह।


अब यह सब आपके मुख से सुनने की तमन्ना है। आप पाडकास्टिंग करे। सचमुच बहुत मजा आयेगा।

Gyan Dutt Pandey said...

नीरज करी जो प्यार की बातें कभी कहीं
सोचा सभी ने हाय हम बीमार हो गये

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यहां असहमति है। आपकी प्यार भरी टिप्पणियां तो बहुत प्रिय हैं। बीमार होने का सवाल ही नहीं!

रंजू भाटिया said...

कांटे मिलें या फूल क्या पता है राह में
चल साथ जब तुमने कहा तैयार हो गये

दूंढ़ा किये जिसको मिला हम को कहीं नहीं
आँखे करी जो बंद तो दीदार हो गये

बहुत खूब नीरज जी ..सुंदर गजल है

Omnivocal Loser said...

हुज़ूर बेहतरीन क़लाम है
इसी को एक positive approach के साथ छेड़ने की गुस्ताख़ी कर रहा हूँ...
उम्मीद है आप नाराज़ नहीं होंगे मेरी इस गुस्ताख़ी से

इंसानियत के वाक़ये इतने भी दुशवार नहीं हैं
सबके दिल जुदा जज़्बात से सरकार नहीं हैं

इनको ना भूलिये ज़रा रखिये सहेज कर
रिश्ते हैं ये, शाम का अखबार नहीं हैं

जो भी करो तुम यार करो फ़र्ज़ समझ के
अपनों के लिये किया वो उपकार नहीं हैं

कांटे मिलें या फूल बस चल दो साथ तुम
यारों से कभी ये ना कहो तैयार नहीं हैं

क्यों ढ़ूँढ़ते हो हो तुम उसे जो पास है सदा
दिल में है भले आँख को दीदार नहीं हैं

रौंदो नहीं किसी का दिल तुम ग़ुरूर में
मत भूलो के वो हमेशा लाचार नहीं हैं

रखना संभाल कर ये तुम्हारे उसूल हैं
एहसास ये होगा के ये बेकार नहीं हैं

रोहित करें हम प्यार की बातें जहान से
दुनिया को दिखाएं के हम बीमार नहीं हैं


http://rohitler.wordpress.com

राकेश खंडेलवाल said...

कब तक रखेंगे हम भला इनको सहेज कर
रिश्ते हमारे शाम का अखबार हो गये
नीरज भाई,

कुछ पंक्तियां याद में ताजा हो गईं
शमअ जला के नज़्म किसी एक की गई
बाकी तो वज़्म में सभी अख़बार हो गये

गज़ल अच्छी है. एक दो जगह थोड़ा ध्यान चाहती है
सादर

नीरज गोस्वामी said...

रोहित जी
आप से सम्पर्क का कोई माध्यम नहीं मिला इसलिए यहीं आप से कह रहा हूँ की "ग़ज़ल को अंधेरे से उजाले में लाने का शुक्रिया"
नीरज

Manish Kumar said...

जबरदस्त ! अखबार तो नहीं पर आपकी ये ग़ज़ल सहेज कर रखने वाली जरूर है।

Dr. Chandra Kumar Jain said...

पहले तो मेरे ब्लॉग पर आज कई बार
आपकी स्नेह सिक्त दस्तक के लिए शुक्रिया.
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....और अब आपकी ये ग़ज़ल !
अच्छी है.... सुचिंतित भी.
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आपके ही शब्द चुरा कर ये भी कह दूँ कि
चुनाव के लिए तैयार सरकार पर
अगर अख़बार का उपकार हो जाए
और मतपत्र पर मत का दीदार ही जाए
तो वह सरकार
कितनी भी लाचार ,बेकार और बीमार क्यों न हो
सच मानिए उसका उद्धार हो जाए !

आपका
चंद्रकुमार

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा गजल, वाह!! मजा आ गया. बधाई.

कुश said...

रोंदा जिसे भी दिल किया जब थे गुरूर में
बदला समय तो देखिये लाचार हो गये

वैसे तो सारे ही शेर लाजवाब है पर ये वाला खास भा गया.. बढ़िया ग़ज़ल.. बधाई

डॉ .अनुराग said...

कब तक रखेंगे हम भला इनको सहेज कर
रिश्ते हमारे शाम का अखबार हो गये
बहुत खूबसूरत शेर है ,आपके गजल कहने का एक ख़ास अपना ही अंदाज है हाँ एक बात ओर आपकी मिष्टी को एक काला टीका लगा कर रखियेगा.....

मथुरा कलौनी said...

आपने सुकुमार भावों को भाषा में ऐसा संजोया है कि शब्‍द जीवंत हो उठे हैं। बधाई स्‍वीकारें।
मथुरा कलौनी

Unknown said...

क्या बात है
"बालक रहे आलस रहे हर बार की तरह
मंगल के रोज़ आना था, शुक्रवार हो गए "

Batangad said...

हर लाइन में सार्थक दर्शन है। इसे सहजेकर जर्नल की तरह रखने की जरूरत है।