Thursday, December 20, 2007

जीते हैं संग बचपन के





आँख से याद बनके ढलते हैं
साँस जैसे जो साथ चलते हैं

इतनी काँटों से बेरुखी क्यों है
ये भी फूलों के साथ पलते हैं

नाम उनका शराबी ठीक नहीं
पी के गिरने पे जो संभलते हैं

आखरी वक्त पे न जाने क्यों
लोग हसरत से हाथ मलते हैं

इस नए दौर के ये बच्चे भी
हाथ खंज़र हो तो बहलते हैं

हाल क्या हो गया ज़माने का
देख हँसते को लोग जलते हैं

होती सच की ज़मीन ही चिकनी
लोग अक्सर तभी फिसलते हैं

चाहे जितने हों जिस्म फौलादी
नर्म बाँहों में घिर पिघलते हैं

जो भी जीते हैं संग बचपन के
वो न नीरज कभी बदलते हैं

7 comments:

  1. आपने जो सामान्य परिवेश की द्वन्द्वात्मक स्थितियां वर्णित की हैं वे सचमुच समग्र,पैनी और सूक्ष्म दृष्टि का परिचायक हैं। पर नीरज जी इस प्रकार समाज - परिवेश सदैव रहा है अथवा अब उत्तरोत्तर होता जा रहा है?
    आपकी गजल सदा की भांति बहुत अच्छी लगी।

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  2. "नाम उनका शराबी ठीक नहीं
    पी के गिरने पे जो संभलते हैं"

    बहुत खूब! शानदार गजल!

    लेकिन उनका क्या जो बगैर पिए ही गिरते हैं और सम्हलने की कोशिश भी नही करते?

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  4. ब्लॉग पे पढ़ के आपकी गजलें
    जाने कितनों के मन बहलतें हैं

    नीरज भैया,

    बहुत बढ़िया गजल है...हमेशा की तरह.

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  5. बहुत बढ़िया ।
    घुघूती बासूती

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  6. नीरज भाई - जियें संग बचपन के - आप भी और हम भी :-) बहुत बढ़िया

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तुझको रक्खे राम तुझको अल्लाह रक्खे
दे दाता के नाम तुझको अल्लाह रक्खे