Thursday, December 27, 2007

तभी मुस्कान होती है.



चलिए इस बार आप को कुछ हलकी फुलकी रचनाओं से रूबरू करवाता हूँ. इन्हें समझना आसान है क्यों की ये ग़ज़ल के शेर की तरह घुमावदार नहीं हैं. सीधी बात सीधे ढंग से कही गई है . तकनिकी दृष्टि से ये शायद रुबाई नहीं हैं लेकिन उसी की सगी सम्बन्धी जैसी की कुछ हैं, जो भी हैं आप तो आनंद लीजिये.




मेरे दिल को समझती हो
मैं सच ये मान जाता हूँ
तेरे दिल की हरेक धड़कन को
मैं भी जान जाता हूँ
मगर फ़िर भी ये लगता है
कहीं कुछ बात है हम में
जिसे ना जान पाती तुम
ना मैं ही जान पता हूँ





ये सूखी एक नदी सी है
कहाँ कोई रवानी है
इबारत वो है के जिसका
नहीं कोई भी मानी है
मैं कहना चाहता जो बात
बिल्कुल साफ है जानम
तुम्हारे बिन गुजरती जो
वो कोई जिंदगानी है ?





तुम्हारे साथ हँसते हैं
तुम्हारे साथ रोते हैं
कहीं पर भी रहें
लगता है जैसे साथ रहते हैं
जो दूरी का कभी एहसास
होने ही नहीं देता
मेरी नज़रों से देखो तो
उसी को प्यार कहते हैं





कहाँ किसकी कभी ये
ज़िंदगी आसान होती है
कभी जलती ये सहरा सी
कभी तूफ़ान होती है
मगर जब हाथ ये तेरा
हमारे हाथ आ जाए
तभी खिलती ये फूलों सी
तभी मुस्कान होती है.

Wednesday, December 26, 2007

भटकेगा तू भी बन बन में



दोस्तों आज आप को मेरे एक बहुत ही अज़ीज़ दोस्त और शायर जनाब चाँद शुक्ला "हदियाबादी" साहेब की ग़ज़ल पढ़वा रहा हूँ. चाँद साहेब बरसों से डेनमार्क में रह कर भी अपने वतन और उसकी मिटटी की खुशबू को नहीं भूले हैं. वहां शायरी के अलावा चाँद साहेब प्रवासी भारतीयों के लिए "रेडियो सबरंग" भी चलाते हैं. ग़ज़ल पसंद आए तो आप लिखने के लिए उन्हें और पेश करने के लिए मुझे शुक्रिया कह सकते हैं.



मैं जानता हूँ तुझे क्या मिला है अन बन मैं
तू मुझको ढूँढता रहता है दिल के दर्पण में

तू जा रहा है तो सुन जा सदा फकीरों की
किसी के प्यार में भटकेगा तू भी बन बन में

तुम्हे ख़बर हो के न हो यह लोग कहते हैं
तुम्ही ने आग लगाई है मेरे तन मन में

मेरे चमन में सभी रंग रूप के हैं फूल
न पूछ मुझसे क्यों कांटे हैं तेरे गुलशन में

वो मेरे हाथ लगाते ही मुझसे टूट गया
मिला था मुझको खिलौना जो मेरे बचपन में

"चाँद" जब था तो गगन रौशनी से था भरपूर
आज अँधेरा पनपता है तेरे आँगन में

Saturday, December 22, 2007

प्यार की छाया में सुस्ताने लगे




हमको अपने नोचने खाने लगे
देख इसको गिद्ध शरमाने लगे

मानते गहना जो थे इमान को
आज उसको बेच कर खाने लगे

रो रहे थे देख हालत देश की
हुक्मरां बनते ही वो गाने लगे

रोज उनसे इस कदर पाले पड़े
मेरे दुश्मन अब मुझे भाने लगे

ये उमस तन्हाई की हट जायेगी
याद के बादल से हैं छाने लगे

वो मेहरबान है ये होगा तब यकीं
जब बिना मांगे ही तू पाने लगे

जब थके चलते ग़मों की धूप में
प्यार की छाया में सुस्ताने लगे

सच्ची बातें जब भी नीरज ने कही
फेर कर मुंह लोग मुस्काने लगे



Thursday, December 20, 2007

जीते हैं संग बचपन के





आँख से याद बनके ढलते हैं
साँस जैसे जो साथ चलते हैं

इतनी काँटों से बेरुखी क्यों है
ये भी फूलों के साथ पलते हैं

नाम उनका शराबी ठीक नहीं
पी के गिरने पे जो संभलते हैं

आखरी वक्त पे न जाने क्यों
लोग हसरत से हाथ मलते हैं

इस नए दौर के ये बच्चे भी
हाथ खंज़र हो तो बहलते हैं

हाल क्या हो गया ज़माने का
देख हँसते को लोग जलते हैं

होती सच की ज़मीन ही चिकनी
लोग अक्सर तभी फिसलते हैं

चाहे जितने हों जिस्म फौलादी
नर्म बाँहों में घिर पिघलते हैं

जो भी जीते हैं संग बचपन के
वो न नीरज कभी बदलते हैं

Tuesday, December 18, 2007

डालियों पर देखिये फल भर दिए




जिस शजर* ने डालियों पर देखिये फल भर दिए
उसको चुनचुन कर के लोगों ने बहुत पत्थर दिए

कौन करता याद सच है बात बिल्कुल दोस्तों
वो दीवाने ही हैं जो ये जान कर भी सर दिए

फूल देता है सभी को क्या गज़ब इंसान है
भूल जाता किसने उसको बदले में नश्तर दिए

प्यार गर जागा नहीं दिल में तेरे किसकी खता
हर बशर** को तो खुदा ने सैंकडों अवसर दिए

कैद कर रखना था पंछी को अगर सैय्याद ने
फड्फड़ाने के लिए क्यों छोड़ उसके पर दिए

कुछ नहीं मिलता है रब से जान लो खैरात में
नींद लेता उस से जिसको रेशमी बिस्तर दिए

ज़िंदगी बख्शी खुदा ने इस तरह नीरज हमें
यूँ लगा हमको की जैसे खीर में कंकर दिए

*शजर=पेड़ **बशर= इंसान


Monday, December 10, 2007

जब तू चलेगा तनहा





इन दस्तकों ने हमको कितना सताया है
हर बार यूँ लगा है अब के तू आया है

कितने ही रंग बदले हैं याद ने तुम्हारी
घायल कभी किया कभी मरहम लगाया है

जाने क्या बीतती है उस पेड़ पर ये सोचो
जिसकी न डालियों पे चिडियों ने गाया है

वो दोस्त है तभी तो हँसता है देख कर के
मुश्किल में मैंने जब जब आंसू गिराया है

मंजिल तुझे मिलेगी जब तू चलेगा तनहा
संग भीड़ ना किसी ने कुछ यार पाया है

तकलीफ होती देखी है हर बशर के दिल में
जब छोड़ के चले वो जो कुछ कमाया है

गर्दिश के अंधेरों में होता नज़र से ओझल
फितरत है ये उसी की बनता जो साया है

भोला है दिल तभी तो गाने लगा है नीरज
मिलने का फ़िर भरोसा सच मान आया है

Thursday, December 6, 2007

ज़िंदगी ज्यूँ गुलाब की डाली




हम फकत अटकलें लगाते हैं
किसको पूरा सा समझ पाते हैं

आम की डाल सा है दिल मेरा
आप कोयल से गीत गाते हैं

ज़िंदगी ज्यूँ गुलाब की डाली
साथ काँटों के फूल आते हैं

वक्त खुशियाँ बटोरता देखो
संग बच्चों के जब बिताते हैं

माँ ही आती जबान पर पहले
दर्द से जब भी बिलबिलाते हैं

आप खुश हैं मेरे बगैर अगर
सबसे चेहरे को क्यों छुपाते हैं

कर अमावस में चाँद की बातें
हम अंधेरों को मुंह चिढ़ाते हैं

जिनकी होती ना हसरतें पूरी
वो ही सपनो में कसमसाते हैं

हुस्न निखरे कई गुना नीरज
ओस में फूल जब नहाते हैं

Tuesday, December 4, 2007

मीरा को ज़हर आप पिलाते क्यों हो




नहीं मिलना तो भला याद भी आते क्यों हो
इस कमी का मुझे एहसास दिलाते क्यों हो

डर तुम्हे इतना भी क्या है कहो ज़माने का
रेत पे लिख के मेरा नाम मिटाते क्यों हो

दिल में चाहत है तो काँटों पे चला आएगा
आप पलकों को गलीचे सा बिछाते क्यों हो

हम पर इतने किए उपकार सदा है माना
हम को हर बार मगर आप गिनाते क्यों हो

जाने किस वक्त तुम्हे इनकी ज़रूरत होगी
आप बे वक्त ही अश्कों को गिराते क्यों हो

यारी पिंजरे से ही कर ली है जब परिंदे ने
आसमां उसको खुला आप दिखाते क्यों हो

ज़िंदगी फूस का इक ढेर है इसमें आकर
आग तुम इश्क की सरकार लगाते क्यों हो

मुझको मालूम है दुश्मन नहीं हो दोस्त मेरे
मुझसे खंजर को बिना बात छुपाते क्यों हो

इश्क मरता नहीं नीरज है पता सदियों से
फ़िर भी मीरा को ज़हर आप पिलाते क्यों हो

Saturday, December 1, 2007

परिंदे प्यार के रख हाथ




क्यों ऐसे रहनुमा तुमने चुने हैं
किसी के हाथ के जो झुनझुने हैं

तपिश रिश्तों में न ढूंढे कहीं भी
शुकर करना अगर वो गुनगुने हैं

बहुत कांटे चुभेंगे याद रखना
अलग गर रास्ते तुमने चुने हैं

जबाँ को दिल बनाया है उन्होंने
जिन्होंने गीत कोयल से सुने हैं

यहाँ जीने के दिन हैं चार माना
मगर मरने के मौके सौ गुने हैं

परिंदे प्यार के रख हाथ नीरज
हटा जो जाल नफरत के बुने हैं

Wednesday, November 28, 2007

भइया सुनो पते की बात




जायका बदलना जीवन में ज़रूरी है इसलिए मैंने सोचा की ग़ज़ल की जगह एक कविता पोस्ट करता हूँ. इस कविता की परिकल्पना मेरी छोटी बहिन ने की थी, मैंने सिर्फ़ शब्दों को इधर उधर कर दिया है. आशा है (और तो है भी क्या?) की आप को ये पसंद आएगी.


भइया सुनो पते की बात
नेता गर बनना चाहो तो
मार शरम को लात.

झूठ ,कपट,चोरी मक्कारी
हरदम ख़ूब चलाओ तुम
दीन धरम इमान की मिलकर
धज्जी ख़ूब उडाओ तुम
बेशर्मी से पहन ले रेशम
पर खादी को कात
भइया सुनो पते की बात

रख के सच को ताक पे प्यारे
खुशियाँ रोज मनाये जा
देश समझ के माल बाप का
जितना चाहे खाए जा
कहाँ कहाँ लूटा जा सकता
इसपे रखना घात
भइया सुनो पते की बात

लिख पढने में समय गवाना
तेरा काम नही है
चाक़ू डंडा छुरी चलाना
तेरे लिए सही है
गिर जा जहाँ तलक गिर सकता
पर मत खाना मात
भइया सुनो पते की बात

इक दिन तेरे नाम की माला
देखो जिसे घुमायेगा
पाठ्य पुस्तकों तक में तेरा
चित्र छपाया जाएगा
पता मगर ना चलने देना
तू अपनी औकात

भइया सुनो पते की बात
नेता गर बनना चाहो तो
मार शरम को लात.

Tuesday, November 27, 2007

आंधी ये हकीकत की





रखोगे बात दिल की जब तुम जुबाँ पे लाकर
जीना नहीं पड़ेगा फ़िर यार मुहं छुपाकर

ज़ज्बात के ये कागज़ यूँ न खुले में रखना
आंधी ये हकीकत की ले जायेगी उड़ा कर

तुम चाहतों की डोरी इतनी भी मत बढ़ाना
घिर जाए गर्दिशों में दिल की पतंग जाकर

इन आसुओं को अपनी आंखों से मत गिराना
पछताओगे तुम अपनी कमजोरियां दिखाकर

दोहरी है धारवाला खंज़र ये दुश्मनी का
करता उसे भी घायल जो देखता चलाकर

अपने सिवा नहीं कुछ तुमको दिखाई देता
फ़िर यार फायदा क्या यूँ ज़िंदगी बिताकर

ये पाप की परत तो हर पल ही चढ़ रही है
कैसे ये मिट सकेगी गंगा में बस नहा कर

मज़बूत मेरा सीना है या हौसला तुम्हारा
कर लो ये फ़ैसला भी कुछ तीर तो चलाकर

जब नींव ही नहीं है नीरज तेरे मकाँ की
कब तक इसे रखोगे गिरने से तुम बचाकर

Tuesday, November 20, 2007

तो आगे मोड़ आते हैं





कहाँ मरजी से अपनी ही कहानी हम बनाते हैं
जब चलना चाहते सीधा तो आगे मोड़ आते हैं

उधर से तुम इधर से कुछ कदम हम भी बढ़ायें
यूँही चलने से सच है फासले कम होते जाते हैं

बहुत गाये हैं हमने गीत लोंगों के लिये अबतक
अभी सोचा है कुछ अपनी लिए भी गुनगुनाते हैं

कशिश उनमें जुदा होती सभी से बात सच्ची है
बिना रिश्ते के जोभी लोग मेरे दिल को भाते हैं

ये बहता खून सबसे कह रहा देखो ओ दीवानों
मुहब्बत की ज़ुबां वालों के सर पे संग* आते हैं
संग* = पत्थर

ना जाने कौन सी दुनिया में बसते लोग हैं ऐसे
जो दूजे की खुशी में झूम कर के गीत गाते हैं

किया महसूस ना हो ग़र तो कोइ जान ना पाये
मजा कितना है रूठा जब कोइ बच्चा मनाते हैं

मेरी ग़ज़लों को पढ़कर दोस्तों ने ये कहा नीरज
किया हमने जो तेरे साथ सबको क्यूं बताते हैं

Friday, November 16, 2007

याद का तेरी चाँद आने से




मैं एक छोटी बहर की ग़ज़ल आज पेश कर रहा हूँ जिसके कुछ शेर में ऐसे शब्द प्रयोग किए गए हैं जो अमूनन रिवायती ग़ज़ल में पढने को नहीं मिलते. मेरा ये प्रयोग पसंद आया या नहीं कृपया बताएं.

जिक्र तक हट गया फ़साने से
जब से हम हो गए पुराने से

लोग सुनते कहाँ बुजुर्गों की
सब खफा उनके बुदाबुदाने से

जोहै दिलमें जबांपे ले आओ
दर्द बढ़ता बहुत दबाने से

रब को देना है तो यूंही देगा
लाभ होगा ना गिड़गिड़ाने से

याद आए तो जागना बेहतर
मींच कर आँख छटपटाने से

राज बस एक ही खुशी का है
चाहा कुछ भी नहीं ज़माने से

गम के तारे नज़र नहीं आते
याद का तेरी चाँद आने से

देख बदलेगी ना कभी दुनिया
तेरे दिन रात बड़बड़ाने से

बुझ ही जाना बहुत सही यारों
बेसबब यूं ही टिमटिमाने से

वो है नकली ये जानलो "नीरज "
जो हँसी आए गुदगुदाने से

Monday, November 12, 2007

हाथ उसकी तरफ़ जरा कीजे





गुफ्तगू इस से भी करा कीजे
दोस्त है दिल न यूं डरा कीजे

बात दिल की कहा करो सबसे
आप घुटघुट के ना मरा कीजे

जब सुकूंसा कभी लगे दिल में
तब दबी चोट को हरा कीजे

याद आना है खूब आओ मगर
मेरी आंखों से मत झरा कीजे

तेरा इन्साफ बस सजायें ही
खोटे को भी कभी खरा कीजे

वो न थामेगा है यकीं फिर भी
हाथ उसकी तरफ जरा कीजे

वो है खुशबू ना बांधिए नीरज
उसको साँसों में बस भरा कीजे

Friday, November 9, 2007

शुभकामनाओं की औपचारिकता





ये पोस्ट लिखने की मेरी कोई चाह नहीं थी. नक्कार खाने मैं तूती क्यों बजाई जाए?

कई बार मन की बात या तो कह ली जाए या लिख ली जाए तो कहते हैं मन हल्का हो जाता है अब चूँकि यहाँ मैं अकेला हूँ और सुनने वाला कोई उपलब्ध नहीं है सो लिख रहा हूँ. कोई इसे पढे न पढे ये मेरे लिए महत्व नहीं रखता. मेरी ये पोस्ट मेरे तमाम शुभ चिंतकों के नाम हैं जो पिछले ३ दिनों से मुझे जीवन मैं जो अब तक नहीं मिला वो मिल जाए उसकी कामना मैं घुले जा रहे हैं.

दिवाली क्या आयी मानो मेरी और मोबाइल दोनों की शामत आगई. इन्ही दिनों मुझे मालूम पड़ा की मेरे परिचित लोग मोबाइल कम्पनी वालों के साथ अधिक हैं और मेरे साथ कम. टिड्डी दल की तरह यहाँ वहाँ न जाने कहाँ से दनादन मेसज आ रहे हैं. जो अधिक संपन्न शुभचिन्तक हैं वो ई-मेल का सहारा ले रहे हैं. न दिन देख रहे हैं न रात दनादन भेजें जा रहे हैं एक से रूप शब्दों चित्रों वाले संदेश. कुछ महानुभाव तो अपना नाम भी नहीं लिख रहे संदेश के अंत मैं. वो चाहते हैं की उनके नंबर याद रखना मेरा कर्तव्य है.

मुझे मालूम है की इस तकलीफ को सहने वाला मैं अकेला ही नहीं हूँ बहुत से लोग हैं मेरे जैसे लेकिन खामोश हैं क्यों की उनको अपनी प्रतिष्ठा समाज मैं बनाई जो रखनी है. जो घर फूंके वाले लोग अब कहाँ?

सच बताएं क्या आप को ऐसे शुभ चिंतकों से तकलीफ नहीं होती? अगर आप कहते हैं की नहीं तो क्षमा करें आप भी उनकी के जैसे ही किसी के शुभ चिन्तक हैं. अरे भाई अगर आप किसी के लिए दुआ कर रहे हैं तो उसे एक फ़ोन करने से क्यों शर्मा रहे हैं? संदेश भेजना हो सकता है की बात करने से सस्ता हो तो भाई पहले अपनी जेब देख लो फिर किसी के लिए दुआ करो. अगर आप सोचते है की अगले के घर धन बिना आप की शुभ कामनाओं के नहीं आएगा तो इस सोच को दूर कर लें. यकीन माने अगर जिसको आपने संदेश भेजा है उसको पढ़ कर धन देवी अगर उसके घर पहुँच गयी तो सबसे अधिक तकलीफ आप को ही होगी.सबको कहते रहोगे की देखो संदेश मैंने भेजा और फायदा उसको हो गया. घोर कलयुग है.
ये संदेश भेजने का चलन मातहतों से शुरू होता है जो अपने बॉस को भेजते हैं. गला काट प्रतियोगिता है अगर राम ने बॉस को संदेश भेज दिया तो श्याम की परेशानी बढ़ जाती है. जनवरी से प्रमोशन होने हैं साहेब को अभी याद दिलाना पड़ेगा और दीवाली पर संदेश भेजना सबसे आसान है.उनको ये नहीं मालूम की जिस बॉस को वो ये संदेश भेज रहे हैं वो अपने बॉस कों संदेश भेजने मैं व्यस्त है. ये सिलसिला चलता रहता है और अंत मैं जो शीर्ष पर है उसे ये सब पढने की फुरसत कहाँ उसके संदेश तो उसका पी ऐ पढ़ कर हटा देता है.

हम सच मैं किसी के भले के लिए शुभ कामनाएं नहीं भेजते सिर्फ़ अपने शुभ के लिए ये सब करते हैं. हमारे दिल मैं किसी के प्रति प्रेम या श्रद्धा के लिए समय नहीं है. एक औपचारिकता है जो निभाई जाती है. दीवाली जो न सिर्फ़ अपने आसपास के अंधेरे दूर करने का त्योंहार है वरन हमारे मन के अंधेरे कोनो मैं भी रौशनी करने का अवसर है. क्या आप बता सकते हैं की आप ने इनदिनों किस कों क्या संदेश भेजा या किस ने आप कों क्या संदेश भेजा? गिनती छोडिये शायद आप कों नाम भी याद न हों क्यों की मोबाइल पर फोरवर्ड करने से पहले कहाँ आपने नाम देखा होगा? संदेश आया, देखा या तो हटा दिया या आगे फोरवर्ड कर दिया. कई बार तो पढ़ा भी नहीं जाता क्यों की भाषा एकरस भाव विहीन होती है जो दिल नहीं छूती. हम लोग भी एक रस हो गए हैं सिवा अपने हमको किसी से आत्मीयता नहीं रह गई है. हम इस बाज़ार के हाथों मैं कठपुतलियों की तरह हैं. बाज़ार कहता है की मशीन हो जाओ सिर्फ़ अपना स्वार्थ देखो, अपनी सुविधा अपनी जेब देखो बस.

ये सब बातें पढ़ के आप सोच रहे होंगे की मैं सठिया गया हूँ....क्या बकवास कर रहा हूँ. आप सही सोच रहे हैं क्यों की मुझे भी यही लगता है की मैं सठिया गया हूँ और बकवास ही कर रहा हूँ. छोडिये अपना मोबाइल उठाइए देखिये संदेश टोन बजी है...गिनती कीजिये क्यों की कल आप कों बताना है न की आप के पास ५७४ संदेश आए वरना शर्मा जी के ५७१ के मुकाबले आप पीछे रह जायेंगे ना.

ये चलन अब हर छोटे मोटे त्योहारों पर भी चल पढ़ा है, कहाँ किस कों क्या समझायें....क्यों अपना भेजा फ्राई करें? आप कों एक शेर सुनाते चलते हैं....

"हों जो दो चार शराबी तो तौबा कर लें
कौम की कौम है डूबी हुई मयखाने मैं "

Tuesday, November 6, 2007

गीत भंवरे का सुनो



जब भी होता है तेरा जिक्र कहीं बातों में
यूं लगे जुगनू चमकते हैं सियाह रातों में

खूब हालात के सूरज ने तपाया मुझको
चैन पाया है तेरी याद की बरसातों में

रूबरू होके हक़ीक़त से मिलाओ आँखें
खो ना जाना कहीं जज़्बात की बारातों में

झूठ के सर पे कभी ताज सजाकर देखो
सच ओ ईमान को पाओगे हवालातों में

आज के दौर के इंसान की तारीफ़ करो
जो जिया करता है बिगड़े हुए हालातों में

सच तो हैके अभी आना नहीं मुमकिन तेरा
दिल मगर कहता यकीं करले करामातों मैं

सबसे दिलचस्प घड़ी पहले मिलन की होती
फिर तो दोहराव है बाकी की मुलाक़ातों में

गीत भंवरे का सुनो किससे कहूँ मैं नीरज
जिसको देखूँ वोही उलझा है बही खातों में

Friday, November 2, 2007

किसान क्या है






लगातार ग़ज़ल पर ग़ज़ल पोस्ट करते जाने के बाद मैंने सोचा की ये पढने वालों के साथ बहुत बेइन्साफी हो जायेगी.इसलिए कुछ और विषय पर बात की जाए. तो पेश है जायका बदलने को ये पोस्ट.
आप ने ज्ञान चतुर्वेदी जी का नाम जरूर सुना होगा यदि नहीं सुना तो अब सुन लीजिये वो हिन्दी व्यंग के बहुत बड़े हस्ताक्षर हैं. अगर आप ने अभी तक उनको नहीं पढ़ा है तो सच मानिए अपने जीवन के ये वर्ष व्यर्थ ही गवां दिए हैं. ज्ञान जी पेशे से डाक्टर हैं और वो भी दिल के लेकिन उनके काम अपने पेशे से बिल्कुल विपरीत हैं.कोई डाक्टर नहीं चाहता की उसके मरीजों की संख्या मैं इजाफा न हो लेकिन ज्ञान जी के व्यंग लेख पढने के बाद शायद ही किसी को दिल की बिमारी हो.व्यंग और हास्य का ऐसा अद्भुत मिश्रण शरद जोशीजी, परसाई जी, श्रीलाल शुक्लजी और रविद्र नाथ त्यागी जी के बाद देखने को नहीं मिला.
अभी हाल ही मैं जयपुर अपने घर जाना हुआ जहाँ एक पुस्तक मेला लगा हुआ था. वहाँ से ज्ञान जी की लिखी दो पुस्तकें "जो घर फूंके आपना " और "दंगे में मुर्गा "खरीद लाया. दोनों पुस्तकें उनकी विलक्षण व्यंग लेखन प्रतिभा का ज्वलंत प्रमाण हैं. उनकी "दंगे में मुर्गा" की पहली रचना का एक अंश आप को पढ़वाता हूँ जिसमें ज्ञान भाई ने अपने एक वरिष्ट सरकारी मित्र के लिए, जो देश के प्रधान मंत्री को बताना चाहते थे की किसान क्या होता है ये नोट लिख के दिया, बकौल उनके :

"एक वरिष्ट अधिकारी मेरे मित्र हुआ करते हैं उन्होंने मुझसे किसान पर कुछ लिख कर देने को कहा क्यों की वो दिल्ली से बाहर बरसों से नहीं गए थे, और किसान किस चिडिया का नाम है नहीं जानते थे मैंने किसान पर एक परिचय लिख कर दिया :

"किसान क्या है ?
भारतीय किसान एक दोपाया जानवर है, जो प्रथम दृष्टि मैं देखने पर इंसानों से मिलता जुलता दिखाई पड़ता है. इसी कारण से कई नासमझ लोग किसानों को भी इंसान मान लेते हैं तथा चाहते हैं की इनके साथ आदमियों जैसा व्यवहार किया जाए, परन्तु मात्र दो पैरों पर चल लेने से ही कोई इंसान नहीं बन जाता है. कुत्ते भी उचित ट्रेनिंग लेने पर दो पैरों पर चल लेते हैं, जैसा की श्रीमान ने देखा ही होगा. अतः मेरी विनम्र राय में भारतीय किसान भी कुत्ता, भेड़,बकरी, गाय, भैंस आदि की भांति गावों में पाए जाने वाला एक जानवर है. अलबत्ता कुछ मामलों में ये इन पशुओं से भिन्न भी है . उदाहरण के लिए देखें तो गाय थानेदार से नहीं डरती,कुत्ता पटवारी को देख कर दुम नहीं दुबकाता तथा बकरी तहसीलदार को सामने पा कर जमीन पर नहीं लौटती. किसान ऐसा करता है. बल्कि गाय बैल इत्यादी की भीड़ में खड़े किसान को पहचानने का सबसे सटीक तरीका ही ये है इस झुंड के बीच सिपाही, पटवारी, कानूनगो, थानेदार या तहसीलदार को भेज दिया जाए.उसको देख कर किसान की पेशाब निकल जायेगी जबकि बैल इत्यादी की नहीं.कुत्ते गिरदावर या बी.डी.ओ. साहेब से नहीं डरते. कुछ कुत्ते तो थानेदार पर भोंकते हुए पाये गए हैं. पर किसान ने ऐसा कभी नहीं किया. उसने जब जब भी किसी साफ सुथरे, कोट पेंट पहने आदमी को अपने सामने पाया, वो कांपने लगा. किसान ने हर ऐसे ऐरे गेरे को झुक कर नमस्ते की है, जो उसे शाशन के गिरोह का नज़र आया. किसान के इस व्यवहार को छोड़ दें, तो अन्य उल्लेखित जानवरों से वो किसी भी तरह भिन्न नहीं है.किसान भी धूल मैं लौटता है, गंदा पानी पीता है, नंगा घूमता है, डंडे खाता है, और अब तो हमारे सूखा राहत कार्यक्रमों के चलते बकरियों की तरह पेड़ों की पत्तियां तथा छाल आदि भी खाता पाया गया है. इन सारी बातों से स्पष्ट हो जाता है की किसान एक पशु है, ढोर-डंगर है. शायद इसी सोच के तहत बहुत से गावों मैं ढोर-डाक्टर ही इनका इलाज भी करते हैं और ये ठीक भी हो जाते हैं . "

ज्ञान भाई अपना ये लेख यहीं खत्म नहीं करते बल्कि और भी बहुत कुछ बताते चलते हैं, जो में आप को नहीं बता रहा.कारण साफ है की किताब में खरीद के लाया और मजे मुफ्त में आप उठाएं ये कहाँ तक ठीक है? दूसरी बात ये की मैंने उनकी पुस्तक से ये प्रसंग बिना उनकी अनुमति के पोस्ट किया है इसलिए हो सकता है की वो नाराज हो कर व्यंग लेखन ही छोड़ दें
अरे आप निराश न हों एक आध दिन में आप को उनके लेखन की और बानगी भी पेश करूँगा.. इंतज़ार कीजिये.

Thursday, November 1, 2007

आईने में खास ही कुछ बात थी




गीत तेरे जब से हम गाने लगे
तब जुदा सबसे नज़र आने लगे

आईने में खास ही कुछ बात थी
आप जिसको देख शरमाने लगे

सोच को अपनी बदल के देखिये
मन तुम्हारा जबभी मुरझाने लगे

खोलने से फायदा क्या खिड़कियाँ
जब चले तूफ़ान घबराने लगे

बिन तुम्हारे खैरियत की बात भी
पूछते जब लोग तो ताने लगे

अजनबी जो लग रहे थे रास्ते
तुम मिले तो जाने पहचाने लगे

ये तरीका भी है इक इनाम का
जिसको देदो उसको हरजाने लगे

साँस का चलना थी "नीरज" ज़िंदगी
तुम मिले तो मायने पाने लगे



Tuesday, October 30, 2007

आप दीपक जलाइये साहेब




झूट को सच बनाइये साहेब
ये हुनर सीख जाइये साहेब

छोड़ के साथ इस शराफत का
नाम अपना कमाइये साहेब

दे रहा फल तो खाद पानी दो
वरना आरी चलाइये साहेब

घर ये अपना नहीं चलो माना
जब तलक है सजाइये साहेब

हर तरीका जहाँ बदलने का
ख़ुद पे भी आजमाइये साहेब

दर्द सहने का हौसला है तो
चोट फूलों से खाइये साहेब

आजमाने को ज़ोर आंधी का
आप दीपक जलाइये साहेब

रब न दिलमें तोहै कहाँ "नीरज"
हम को इतना बताइये साहेब




Monday, October 29, 2007

आप आंखों में बस गए जब से





आप आंखों में बस गए जब से

दुश्मनी नींद से हुई तब से


आग पानी फलक ज़मीन हवा

और क्या चाहिए बता रब से


वो जो शामिल था भीड़ मैं पहले

दिल मिला तो लगा जुदा सब से


जो न समझे नज़र की भाषा को

उससे कहना फिजूल है लब से


शाम होते ही पीने बैठ गए

होश में भी मिला करो शब से


शुभ मुहूर्त की बात बेमानी

मन में ठानी है तो करो अब से


वो ही बदलेंगे ये जहाँ "नीरज"

माना इन्साँ नहीं जिन्हे कब से

Monday, October 22, 2007

हाथ मैं फूल




वो उठा कर के सलीबों को चला करते हैं
सच के ही साथ जियेंगे जो कहा करते हैं

जबसे मुजरिम यहाँ पे देख बने हैं हाकिम
बे गुनाहों के ही सर रोज कटा करते हैं

जिन्हें गुलशन से मोहब्बत है सही मैं यारों
खार को गुल के बराबर वो रखा करते हैं

धूप कमरे मैं उन्ही के ही खिला करती है
जिनके दरवाजे नहीं बंद रहा करते हैं

हिज्र की रात मैं जब चाँद निकल आता है
गुफ्तगू उससे समझ तुझको किया करते हैं

हाथ मैं फूल तबस्सुम हो जिनके होटों पर
ऐसे इंसान कहाँ जाने मिला करते हैं

आँधियों का तो बना करता एक बहाना है
जर्द पत्ते कहाँ शाखों पे रुका करते हैं

ये गुजारिश है की तुम इनको संभाले रखना
दिल के रिश्ते बड़ी मुश्किल से बना करते हैं

चाहते तब नहीं मंजिल पे पहुंचना "नीरज"
जब मेरे साथ सफर मैं वो रहा करते हैं

Friday, October 19, 2007

मुद्दा मिल गया


क्रिकेट खेलने के बाद मैदान में एक तरफ़ खड़े बरगद के पेड़ की नीचे जा बैठा.क्रिकेट खेलता हूँ, इससे ये अंदाजा लगाने का जोखिम न लें कि भारतीय टीम में अभी भी चांस मिलने की हसरत दिल में है. वो तो पाँच पहले तक थी, अब जाती रही.बैठा ही था कि मेरी नजर वहाँ बैठे कुत्ते पर पड़ी जो हमारे मोहल्ले का मुखिया था और खुजिया रहा था . मुझे याद है कैसे उसने कुछ अपने जैसे पिल्लों के साथ मिल कर टौमी जो पहले मोहल्ले का दादा था को एक रात कालोनी से भगा दिया था, जबकि उसका काम पहले टौमी की चमचा गिरी करना हुआ करता था. तब से उसका नाम हमने गुरु रख दिया था. चूँकि वो मेरे ही घर के सामने बैठा करता था सो उस से दोस्ती हो गयी और हम ने बात करने का तरीका भी दूंद लिया. एक दिन जब मैंने उसे उसकी सफलता का राज पूछा तब उसने बताया की सफलता का एक ही तरीका है वो ये की "आप जिसके पैरों मैं लौट लगाते हैं उसी के पैर मौका देख के खींच दो, बस जैसे ही वों गिरा समझो सत्ता आप के पक्ष मैं स्थानांतरित हो गयी. ये सबसे आसन तरीका है सफल होने का, बाकि तरीके भी हैं लेकिन वे लंबे और उबाऊ हैं जैसे मेहनत करना , सेवा करना ,ईमानदार बने रहना , सच्ची का पक्ष लेना आदि." मैंने सोचा की अगर ये कुत्ता ना होता तो किसी देश का मुखिया होता. मुझे देखकर मुस्कुराया.
मैंने पूछा; "क्या हाल है? क्या कर रहे हो?"
बोला; "सुबह-सुबह राग भीम पलासी गा रहा हूँ. तुम्हें प्रॉब्लम है कोई?"
मैंने कहा; "यार बिदकते क्यों हो. मूड ख़राब है क्या?"
बोला; "बिदकने वाली बात ही है. तुम भी रह गए इंसान के इंसान. जब देख रहे हो कि खुजली कर रहा हूँ, तो पूछ क्यों रहे हो?" मैंने सोचा ग़लत नहीं कहा इसने. ये खुजला ही तो रहा था. बेवकूफ मैं ही था, जो इससे पूछ लिया.फिर मैंने हिम्मत करके कहा; "और गुरु, क्या चल रहा है? आजकल कोई ख़बर नहीं है तुम्हारी?
बोला; "कुछ नहीं चल रहा है. इसीलिए यहाँ बैठे बोर हो रहा हूँ. अब तुम्हारी तरह क्रिकेट तो खेल नहीं सकता सो बोर हो रहा हूँ. वैसे भी कल से कोई मुद्दा नहीं है, सो कुत्ता और क्या करेगा, बोर होने के अलावा?"
मैंने कहा; "मुद्दा नहीं है! क्या हुआ क्या, खुलकर बताओ."
उसने कहा; "अरे यार वो सामने वाले मुहल्ले का कुत्ता कालू था न, कल रात वो ट्रक के नीचे आ गया."
मैंने कहा; "लेकिन ये तो दुखी होने वाली बात है और तुम हो कि बोर हो रहे हो."वो बोला; "दुखी इसलिए नहीं हूँ, क्योंकि कालू से मेरा कम्पीटीशन था. बोर इसलिए हूँ कि जब वही नहीं रहा तो लड़ना-झगड़ना किसके साथ करूं. वो रहता था तो दिन में दो-चार घंटे लड़ाई करके समय कट जाता था. कभी मैं उसे धकियता कभी वो मुझे .कभी हम दोनों अपनी अपनी सीमा में खड़े हो कर गुर्राते रहते. ये हमारा तरीका था सत्ता को बनाये रखने का. हमारे दल के बाकि कुत्ते और पिल्ले हमारे इस तरह लड़ने से हमेशा डरे डरे से रहते. अब तो जिंदगी से आनंद जाता रहा."
मैंने कहा; "यार तुम्हें लड़-झगड़ के आनंद मिलता है. ये तो बड़ी अजीब बात है.
"तुम समझे नहीं मेरे भाई? ये लड़ाई ओ केवल दिखाने के लिए होती थी. सचमुच की लड़ाई थोड़े न थी".
मुझे उसके द्वारा किया गया 'भाई' संबोधन बहुत बुरा लगा. मैंने सोचा ये कुत्ते भी अजीब होते हैं. जरा पुचकार दो तो सीधा सर पर चड जाते हैं . फिर भी मैंने उससे बात-चीत जारी रखी. मैंने कहा "देखो अब बोर होकर कुछ मिलेगा नहीं. चलो और कुछ देखो, यहाँ बैठकर कब तक खुजलाते रहोगे."
वो बोला; "नहीं मैं यहाँ पर किसी का वेट कर रहा हूँ. मैंने एक मैसेंजर भेजा है, सामने वाले मुहल्ले के शेरू कुत्ते के पास. अगर शेरू राजी हो गया तो ये टाइम पास वाली लड़ाई उसके साथ शुरू करूंगा."
मैंने पूछा; "लेकिन अगर वो न माना तो?"
"तो क्या. अपने ख़िलाफ़ किसी अपने किसी चमचे भड़का दूँगा"; उसने बड़े आत्मविश्वास के साथ सूचित क्या.
"और अगर उसी चमचे ने तुम्हारे खिलाफ भी वो ही किया जो तुमने टौमी के साथ किया था तो? ""इतना जोखिम तो लेना ही पड़ता है. अगर तुम सजग हो तो ये नौबत नहीं आती.किसी पे आँख बंद कर के भरोसा नहीं करना चाहिए, ये मुझे मालूम है. "
मैंने अचंभित होते हुए कहा; "गजब है यार. तुम लोग भी इंसानों की तरह सोचते हो."
वो बोला; "क्या करेंगे. इंसानों की कालोनी में रहते-रहते न चाहते हुए भी सीख आ ही जाती है. कभी-कभी आत्मचिन्तन करके देख लेता हूँ कि इंसानों के ज्यादा गुण तो नहीं आ गए अपने अन्दर. इंसानों का थोड़ा बहुत गुण चलेगा, लेकिन ज्यादा नहीं आने चाहिए. आत्मचिन्तन से आश्वस्त हो जाता हूँ तो अपने काम पर लग जाता हूँ."
मुझे उसकी ये बात बड़ी नागवार गुजरी. उसने शायद मेरे चहरे का भाव भांप लिया. फिर बोला; "बुरा मत मानो यार. हम भी ताक़तवर और दाना-पानी देने वाले को देखकर दुम हिलाते हैं और तुम लोग भी. ये अलग बात है कि तुम्हारी दुम दिखती नहीं. लेकिन जिसके सामने हिलाते हो, उसे तो दिखती ही है. तुम लोग भी तो बात-बात पर लड़ते हो. हाँ लेकिन एक मामले में हम तुमसे अच्छे है, और आगे भी रहेंगे. हम लोग तुम्हारी तरह धर्म-वर्म, जाति-वाति को लेकर नहीं लड़ते. भाषा-वाषा को लेकर भी अपने यहाँ कोई झमेला नहीं है. क्या सही कह रहा हूँ तो? क्या हुआ कुछ बोलते क्यों नहीं?"
मैं क्या बोलता. उसने तो मुझे निरुत्तर कर ही दिया था.बात गंभीर हो चली थी. तभी उसका भेजा हुआ मैसेंजर आ धमका. हांफते हुए बोला; "उस्ताद उस शेरू ने तो दुश्मनी करने से मना कर दिया. बोल रहा था कि वो दुश्मनी का रिश्ता तभी रखेगा, जब उसका बॉर्डर बढ़ा दोगे."
वो कुछ देर सोचता रहा. फिर अपने मैसेंजर को घूरते हुए बोला; "अच्छा, तो शेरू ने अभी से ब्लैकमेल करना शुरू कर दिया." फिर कुछ देर सोचकर उसने मैसेंजर से कहा; "तू एक काम कर. ये दुश्मनी वाला रिश्ता तू कायम कर ले मेरे साथ."
मैसेंजर बोला; "क्या उस्ताद ऐसा क्यों बोल रहे हो. मैं और आपके ख़िलाफ़! मुझे मरवावोगे क्या?"
"अबे झूठ-मूठ की लड़ाई करनी है, सच्ची की थोड़े न. दिन में हम दोनों लडेंगे और रात को साथ में रहेंगे. मेरे हिस्से का माल तुझे खिलाऊंगा"; उसने अपने मैसेंजर को समझाते हुए कहा. मैसेंजर मान गया.
मैं अब तक अपने दोस्त से फुली इम्प्रेस्ड हो चुका था. थोडी देर बाद मैं उठा उसे बाय कहा और घर चला आया. कुछ देर बाद मुझे मेरे दोस्त और उसके मैसेंजर के भौकने की आवाजें सुनाई दीं. मैं समझ गया कि गुरु को मुद्दा मिल गया था और वे अपने काम पर लग चुके थे. गुरु के जीवन में आनंद लौट आया था.

Sunday, October 14, 2007

सुकून की शेहनाई






चोटी पे पहुँच खुश हो बड़ा काम कर दिया

जिसने चढाया उसको तो गुमनाम कर दिया


हैरत है के इस दौर में भी जी रहे हैं हम

जिस दौर ने जीना भी इक इलज़ाम कर दिया


मंज़िल को पहले छूने की चाहत में देखिये

बच्चों ने अपना बचपना तमाम कर दिया


तुमको था फक्र मुझको शर्म इतना फर्क है

तहज़ीब को सड़कों पे जब नीलाम कर दिया


मिटने का देश पर उन्हे बस ये सिला मिला

सड़कों को फकत हमने उनके नाम कर दिया


नाकामियों के शोर ने मिल कर के ज़ेहन में

सुकून की शेहनाई को नाकाम कर दिया


जिसने भी सच का साथ निभाने की बात की

"नीरज" उसी को दुनिया ने बदनाम कर दिया

Friday, October 12, 2007

मासूम की मुस्कान




है सख्त हथेली बड़ा दिल जिसका नरम है
उसपर यकीन मानिए मालिक का करम है

लायक नहीं कहलाने के इंसान वो जिसमें
ना सच है ना इमां ना शराफत ना शरम है

इक पत्ता हिलाने की भी ताकत नहीं जिसमें
दुनिया को चलाने का महज़ उसको भरम है

जो चुक गए मजबूर वो सहने को सितम हैं
पर क्यों सहें वो खून अभी जिनका गरम है

महसूस गर किया है तो फिर मान जाओगे
मिटने का अपनी बात पे आनंद परम है

मासूम की मुस्कान में मौजूद है हरदम
तुम उसको ढूढते हो जहाँ दैरो - हरम है

गीता कुरान ग्रन्थ सभी पढ़ के रह गए
"नीरज" ना जान पाये क्या इंसां का धरम है




Sunday, September 30, 2007

आंखे खोल के देखो







जान उन बातों का मतलब

जो होती हैं सी कर लब


सब जब कहते एक ही है

क्यों हिस्सों में बांटों रब


शाम हुई दिल बैठ रहा है

अभी बितानी सारी शब


रोना हँसना घुटना मरना

इस जीवन में मिलता सब


जलती जाती देह की बाती

बुझ जायेगी जाने कब


तुमको कल का बड़ा भरोसा

पर होता जो करलो अब


जाम उठाके पियो आज तो
कल जो होगा देखेंगे तब


"नीरज" आंखे खोल के देखो

हर सू उसके ही करतब




Saturday, September 29, 2007

मैं हूँ डॉन




नींद अभी पूरी तरह से खुली भी नहीं थी कि मोबाइल की घंटी बजी. यूं कह सकते हैं कि मोबाईल की घंटी की वजह से ही नींद खुल गई.
"हेलो" मैंने अलसाई आवाज़ मैं कहा.
"क्या बावा, सुबेरे-सुबेरे नींद का आनंद ले रयेला है? एक बात बता, ये तुम लोग सुबेरे सोता कैसे है? " सवाल और भाषा से नींद जाती रही. आवाज़ के कड़क पन ने आलस्य को भी डपट दिया.
मैंने हड़बड़ा कर कहा; "जी मैं नीरज और आप?"
"अपुन डॉन... क्या?"
"डॉन..??? कौन शाहरुख़? "
"क्या रे. ये शाहरुख कभी से डान बना, बे ढक्कन "
"ओह तो क्या अमिताभ जी?" मैं चहका.
"क्यों बे, रात को लगा ली थी क्या? या सुबह-सुबह दिमाग मोर्निंग वाक को गए ला तेरा ? खवाब देख रए ला है क्या बे?" उधर से आवाज आई.
अब मैं उठ के बैठ गया दिमाग मैं घंटी बजी की मामला कुछ गड़बड़ है. गले से गों गों की आवाज निकलने लगी .
"अपुन असली डॉन ,बोले तो बड़ा सरोता, समझा क्या? तू अपुन का नाम तो सुना ही होगा."
"बड़ा सरोता?" मैं हकलाया. "वो ही जो किसी की भी सुपारी ले कर उसे कुतर डालता है?"
"वोहीच रे. आदमी पढ़ा लिखा है तू, क्या?" वो खुश हो के बोला.
"थैंक्यू थैंक्यू सर" मैंने थूक निगलते हुए कहा. "आप ने मुझे कैसे फ़ोन किया सर?" डर अच्छे अच्छे को तेहजीब से बोलना सिखा देता है. डॉन के लिए "सर" का संबोधन अपने आप मेरे मुह से झरने लगा. अब मैं बिस्तर छोड़ खड़ा हो गया था.
"मुझे हुक्म कीजिये सर मैं आप के क्या काम आ सकता हूँ?" मैंने ज़बान मैं जितनी मिठास लायी जा सकती थी ला कर कहा.
"ऐ स्याणे जास्ती मस्का मारने का नहीं, समझा क्या? बोले तो तू अपुन के क्या काम आएगा? अपुन अपने काम ख़ुद इच आता है " बड़ा सरोता बोला.
"येस सर येस सर" मैं फिर से हकलाया.
"देख बावा डरने का नहीं. पन अपुन सुना है, तूने कोई ब्लॉग खोले ला है."डॉन के मुहं से ब्लॉग की बात सुन के मैं चकराया. सोचने लग गया कि इसे कैसे पता चला.
मैंने कहा; " सर ब्लॉग भी कोई खोलने की चीज है. ब्लॉग तो लिखने के लिए होता है."
उसने कहा; "क्या बे, अपुन को एडा समझा है क्या तू?"
मैंने कहा; "क्या बात कर रहे हैं सर, मैं और आप को ऐसा समझूं!"
"अभी जास्ती पकाने का नहीं. एक ईच बात बताने का. तेरा ब्लॉग है या नहीं?" सरोता ने पूछा.
मैंने कहा; " है सर, है. पर इसमें मेरी कोई गलती नहीं है. वो तो शिव और ज्ञान जी ने मुझे ब्लॉग लिखने के लिए कहा. आप मेरी बात का यकीन कीजिये, मुझे मालूम होता कि आप नाराज होंगे तो मैं उन्हें ब्लॉग बनाने ही नहीं देता."
सरोता जी बोले; "क्या रे, ये तुम पढ़ा-लिखा लोग इतना सोचता काई को है? अभी तू बोल, मैं नाराज है, ऐसा बोला क्या मैं?"
"नहीं. लेकिन मुझे लगा कि आप मेरे ब्लॉग को देखकर नाराज गए हैं", मैंने उनसे कहा.
"देख, जास्ती सोचने का नहीं. अभी इतना सोचेगा, तो दिमाग का दही बन जायेगा. अपुन को देख, अपुन गोली चलाने से पहले सोचता है क्या? नई न. फिर? बोले तो, सोचने का नई. नौकरी करने का और ब्लॉग लिखने का." डान बोला.
मुझे थोड़ी राहत मिली. मैंने कहा; " ये तो अच्छी बात है न सर, कि आप नाराज नहीं हैं. अच्छा बताईये, मुझसे क्या काम है." सरोता बोला, "देख, तू मेरा काम करीच नई सकता. मैं बोल रहा था, तू तो बस अपना काम कर. क्या, ग़लत बोला क्या मैं? नई न? मेरे को बस इतना ईच काम है तेरे से कि मेरा एक ब्लॉग बना दे"
"क्या बात कर रहे हैं, सर. आपका ब्लॉग???" मैं आसमान से गिरा और खजूर पर भी नहीं अटका.
"क्यों बे, तेरे को कोई प्रॉब्लम है क्या? नई न? नहीं बोल, प्राब्लम होने से बता, मैं तेरा भी गेम बजा दूँ अभिच . अपुन कभी-कभी शौकिया भी एक दो को टपका डालता है " डान दहाड़ा.
"नहीं सर, मुझे कोई प्राब्लम नहीं है, लेकिन आप ठहरे भाई. आपका ब्लॉग हो, इसकी क्या जरूरत है?" मैंने डरते-डरते कहा.
"काई को? अभी पुलिस का ब्लॉग हो सकता है तो अपुन का भी हो सकता है." डान बोला.
"पुलिस का ब्लॉग! ऐसा कोई ब्लॉग है क्या?" मैंने उनसे पूछा.
डान बोला; "क्या रे, तू केवल लिखता है. पढ़ता नहीं है क्या? लेकिन तेरा भी गलती नईं है. तू अभी नया है न इस धंधे में. तू देखा नई होगा." आगे कुछ सोचते हुए बोला; "लेकिन एक बात बता. ऐसा तो नहीं कि तेरे को केवल लिखने आता है, पढ़ने नहीं"
"नहीं सर. ऐसी बात नहीं है, मुझे पढ़ने भी आता है.", मैंने उसे बताया.
डान बोला; "अच्छा एक बात बोल. तेरे को पढ़ने आता है तो फिर तूने बाड़मेर पुलिस का ब्लॉग नहीं पढ़ा क्यों?"
मैंने कहा; "पुलिस का ब्लॉग! ऐसा कोई ब्लॉग है क्या?"
डान बोला; "इसीलिए तो. इसीलिए तो अपुन को भी अपना ब्लॉग माँगता. अपुन पुलिस के साथ आँख मिचोली खेलता है, तो ब्लॉग-मिचोली भी तो खेल सकता है. बोल है कि नहीं? ग़लत बोला क्या मैं?"
"नहीं नहीं सर आपका ब्लॉग तो होना ही चाहिए, आप का नहीं तो किसी का भी नहीं होना चाहिए सर" मैं रिरियाया. मन ही मन मैंने सोचा की क्या दिन आ गए हैं एक डॉन को भी अब ब्लॉग की चाह होने लगी है .
"वो ईच तो, वो ईच तो बोल रए ला हूँ मैं इतनी देर से. तेरे भेजे में अपुन की बात उतरती ही नहीं. क्या बे, भेजा है कि नई, या दुनिया को खाली-पीली हूल देता फिरता है?"
"जी जी सर, है. भेजा है " मैंने घिघियाते हुए बताया.
"है न. तो फिर मेरे वास्ते एक ताजा ब्लॉग बना. और सुन ब्लॉग में तेरे को ईच लिखना है. समझा क्या?" डान ने मुझे धमकाते हुए बताया.
"याने मैं लिखूं आपका ब्लॉग सर ?" मैंने उससे पूछा.
"अबे एक बात बता. अभी तू बोला कि तेरे पास भेजा है. मेरे को एक ईच बात बोल, ये कैसा भेजा है बे, जो मक्खन का माफिक प्लेन बात भी नई समझता?" आगे बोला; "अभी तू सोच, अपुन ब्लॉग लिखेगा, तो अपुन का गेम बजाने का काम क्या तू करेगा? अपुन एक ईच चीज नई, वो है टाइम. समझा क्या? अपुन के पास बंदूक है. दुनिया का नियम है बे, जिसके पास टाइम नहीं उसके पास बन्दूक है और जिसके पास टाइम है उसके पास बंदूक नही होती." डान ने समझाते हुए कहा.
इतने ज्ञान की बात सुन के मेरी इच्छा हुई की मैं डॉन भाई के पांव छू लूँ.
"सर मैं कुछ बहुत बड़े बड़े ब्लोगियों को जानता हूँ सर जो मुझसे भी बहुत अच्छा ब्लॉग आप के लिए लिख सकते हैं सर, आप का नाम रोशन कर सकते हैं सर"
"अपुन का भेजा खाने का नहीं समझा क्या अपुन का ब्लॉग होने का मतलब की होने का बस . अब तू चाहे ख़ुद लिख या लिखवा ये अपुन का टेंशन नहीं समझा क्या? बस और अपुन कुछ नहीं बोलेगा. बात खल्लास." डान ने धमकाते हुए कहा.
मैं चुप रहा ,बोलने के लिए था ही क्या?
"और सुन ब्लॉग का नाम होना "मैं हूँ डॉन"."
"लिखना क्या होगा सर?"
"अबे ब्लॉग में भी सोचके लिखने का होता है क्या? अपुन की तारीफ लिखने का, पुलिस की बुराई लिखने का, चाक़ू, छुरी, कटार, तमंचा ,बन्दूक, बोम्ब का ताजा जानकारी लिखने का और क्या लिखने का रे? हाँ और लिखने का की डॉन से डरने का नहीं, डॉन को भाई मानने का, बस डॉन से पंगा लेने का नहीं सिर्फ़ उसकी बात पे मुण्डी हिलाने का"
"जी जी समझ गया सर"
"ब्लॉग जल्दी लिखने का समझा क्या? अपुन को इंटरनेशनल फ़टाफ़ट बनने का रे और सुन अगली बार अपुन का फ़ोन नहीं आएगा,या तो भेजे में गोली आएगा या डॉलर का बंडल आयेगा, अपुन उधार का धंदा नहीं करता समझा क्या?
फ़ोन कट गया. तब से परेशान हूँ की क्या लिखूं ? कोई है जो मेरी मदद करे? डॉलर के बंडल से आधा उसका जो मेरी मदद करेगा . चलो आधा नहीं पूरा का पूरा बंडल उसका, अपनी तो जान बच जाए ये ही बहुत है रे.
यहाँ अपने ब्लॉग पे लिखने के लिए कुछ नहीं मिल रहा ऊपर से डॉन के ब्लॉग के लिए टेंशन.... एक बात और आज तो डॉन का फ़ोन हमारे पास आया है हो सकता कल को किसी और ब्लॉग लेखक के पास चला आए . मुझे लगता है की कोई है जो ब्लॉग लेखकों के बढ़ते समुदाय से परेशान है आप सब सावधान रहिएगा फ़िर न कहियेगा की मैंने बताया नहीं.

Thursday, September 27, 2007

मेरा जूता है जापानी!




जिस तरह कस्बे का छोटा सा स्टेशन, लाईन क्लिअर न होने पे अचानक ठहर गयी शताब्दी और दूसरी ऐसी ही तेज चलने वाली गाड़ियों को देख ये समझ बैठता है की वो जंक्शन बन गया है उसी तरह मैंने भी अपने ब्लॉग पर बड़े बड़े सूरमाओं को जब आते और कमेंट करते देखा तो लगा की मैं भी बहुत बड़ा ब्लोगिया हो गया हूँ. ये ग़लत फ़हमी जल्दी ही दूर हो गयी. थोड़े ही दिनों बाद सूरमाओं को छोड़िये यहाँ तक कि नये ब्लॉगर भाईयों तक का आवागमन भी कम से कमतर होता गया. मुझे जान लेना चाहिए था की अगर एक ही प्लेटफॉर्म हो तो लम्बी दूरी की प्रतिष्ठित गाडियां उस स्टेशन पर नहीं ठहरा करतीं चाहे ज्ञान भईया अपने कौशल से उन्हे कितना ही रोकने की कोशिश करें. इसलिए सोचा की अब शायरी के अकेले प्लेटफॉर्म के अलावा कोई दूसरा प्लेटफॉर्म भी बनाना होगा. आजकल शोपिंग मॉल का ज़माना है जबतक सब कुछ एक ही छत के नीचे न मिले कोई आता नहीं!

इसीलिये मेहरबानो, कद्रदानों मैंने शायरी के अलावा भी कुछ लिखने का सोचा है.

लेकिन क्या लिखें? राम सेतु ,फिल्में, राजनीति, क्रिकेट और साहित्य आदि के नाम पर हमारे श्रेष्ट ब्लोगियों ने अपने ज्ञान से पढने वालो का समय पहले ही काफी कुछ ले लिया है तब ऐसे में हमारे लिए लिखने को बचता क्या है? अगर हम भी वो ही सब कुछ लिखने लग गए तो हमें पढ़ेगा कौन? समस्या वहीं की वहीं रह जायेगी! सोचते हैं कुछ हट के लिखें क्यों की हट के कुछ लिखने से हिट होने की संभावना बढ़ जाती है! उदाहरण के लिए गुलज़ार साहेब को ही लें , जब उनको लगा की "नाम गुम जाएगा" जैसे गाने सुनने वाले नहीं रहे हैं तो "बीडी जलाईले जिगर से पिया" लिख के फ़िर से हिट हो गए.

अभी पिछले दिनों जापान जाना हुआ! जापान का नाम तो सुने ही होंगे आप? नहीं सुने हैं (कमाल है!) तो कृपया मेरा ब्लॉग पढ़ना छोड़िये और अपना सामान्य ज्ञान पहले बढाइये क्यों की मैं वहीँ की बात करने जा रहा हूँ! तो साहेब जापान में ऐसा बहुत कुछ है जिस से अगर हम कुछ सीखना चाहें तो सीख सकते हैं लेकिन उसके लिए हमें अपनी सिर्फ़ "सायोनारा तक सीमित" सीखने की प्रवृति को छोड़ना होगा!

मैं सिर्फ़ अनुशासन की बात ही करुंगा अभी! जापान में एक अलिखित नियम है स्वचालित सीढियों पर चलने का - वह ये की सब लोग रेलिंग के दाईं और खड़े होते हैं ताकि जिस व्यक्ति को जल्दी है, वो बाकी लोगों को बिना धक्का दिए बाईं और से तेजी से चढ़ या उतर सकता है! ये नियम पूरे जापान मैं पालन किया जाता है, बिना किसी को इसके पालन के लिए बाध्य किए हुए! आप कहीँ चले जाएँ लोग आप को एक साइड पर ही खडे नज़र आएंगे! सोचिये की यदि हमारे देश मैं भी ये सुविधा हो जाए तो बिचारे जेबकतरों को कितनी असुविधा हो जायेगी, नहीं? दूसरे हम लोगों को बिना दूसरे को धक्का दिए चलने मैं कितनी दिक्कत होगी?

और सबसे अच्छी बात जो देखने मैं आयी वो थी के अंधे लोगों के लिए रेलवे स्टेशन , एअर पोर्ट , शॉपिंग मॉल , या सड़क के किनारे एक पीले रंग की पट्टी बिछाई जाती है जिस पर ब्रेल नुमा चिह्न उभरे रहते हैं जिस से की वे लोग उसपे चलते हुए ये जान लेते हैं की कहाँ आराम से चलना है कहाँ मोड़ हैं या कहाँ रुकना है !

अंधे लोगों के लिए इस प्रकार की सुविधा मैंने तो दुनिया में और कहीँ नहीं देखी आप ने देखी हो तो कह नहीं सकता! अपने मोबाइल से जैसी फोटो मैं खींच सकता था खींच लाया हूँ आप भी देखिये!


अब बात करें हमारे देश की तो साहेब ये देखिए मुम्बई की एक सड़क की फोटो जो आज के अखबार से ली गयी है (दायीं तरफ देखें) और जिसकी स्थिति आँख वालों के और यहाँ तक की वाहनों के चलने के लिए भी ठीक नहीं है तो अंधों की क्या बात करें? सोचिये और जवाब दीजिये यदि आप के पास है तो !

हमारे देश में लोग "मेरा जूता है जापानी" गाने पे ही पे अटके रह गए और जापानी जूता पहन के न जाने कहाँ से कहाँ चले गए.!

Monday, September 24, 2007

काश बरसात बन बिखर जाये



कब अंधेरों से खौफ खाता है
वो जो तन्हाईयों में गाता है

गम तो अक्सर ये देखा है मैंने
उसका बढ़ता है जो दबाता है

जिसके हिस्से में खार आए हों
देख कर फूल सहम जाता है

कहना मुश्किल है प्यार में यारों
कौन देता है कौन पाता है

काश बरसात बन बिखर जाये
जो घटाओं सा मुझपे छाता है

आप इस को मेरी कमी कह लें
मुझको हरकोई दिल से भाता है

हर बशर को उठाके हाथों में
वक्त कठपुतलियों सा नचाता है

नींद बस में नहीं मेरे "नीरज"
जो चुराता है वो ही लाता है





Saturday, September 22, 2007

कभी याद न आओ




तन्हाई की रातों में कभी याद न आओ

हारूंगा मुझे मुझसे ही देखो न लडाओ


किलकारियाँ दबती हैं कभी गौर से देखो

बस्तों से किताबों का जरा बोझ हटाओ


रोशन करो चराग ज़ेहन के जो बुझे हैं

इस आग से बस्ती के घरों को न जलाओ


खुशबु बड़ी फैलेगी यही हमने सुना है

इमान के कटहल को अगर आप पकाओ


बाज़ार के भावों पे नज़र जिसकी टिकी है

चांदी में नहाया उसे मत ताज दिखाओ


ये दौड़ है चूहों की जिसका ये नियम है

बढता नज़र जो आये उसे यार गिराओ


होती हैं राहें "नीरज" पुर पेच मुहब्बत की

ग़र लौटने का मन हो मत पांव बढाओ




Friday, September 21, 2007

जो सुकूं गाँव के मकान में है




वो ना महलों की ऊंची शान में है
जो सुकूं गांव के मकान में है


जब चढ़ा साथ तब ज़माना था
अब अकेला खडा ढलान में है


हम को बस हौसला परखना था
तू चला तीर जो कमान में है


लूटा उसने ही सारी फसलों को
हमने समझा जिसे मचान में है


बोल कर सच हुए हैं शर्मिंदा
क्या करें मर्ज़ खानदान में है


जिसको बाहर है खोजता फिरता
वो ही हीरा तेरी खदान में है


जिक्र तेरा ही हर कहीँ " नीरज"
जब तलक गुड तेरी ज़बान में है





उसी की बात होती है


मजे की बात है जिनका, हमेशा ध्यान रखते हैं
वोही अपने निशाने पर, हमारी जान रखते हैं

मुहब्बत, फूल, खुशियाँ,पोटली भर के दुआओं की
सदा हम साथ में अपने, यही सामान रखते हैं

यही सच्ची वजह है, मेरे तन मन के महकने की
जलाये दिल में तेरी याद का, लोबान रखते हैं

पथिक पाते वही मंजिल, भले हों खार राहों में
जो तीखे दर्द में लब पर, मधुर मुस्कान रखते हैं

मिलेगी ही नही थोड़ी जगह, दिल में कभी उनके
तिजोरी है भरी जिनकी, जो झूटी शान रखते हैं

उसी की बात होती है, उसी को पूजती दुनिया
जो भारी भीड़ में अपनी, अलग पहचान रखते हैं

गुलाबों से मुहब्बत है जिसे, उसको ख़बर कर दो
चुभा करते वो कांटे भी, बहुत अरमान रखते हैं

बहारों के ही हम आशिक नहीं, ये जान लो 'नीरज'
खिजाओं के लिये दिल में, बहुत सम्मान रखते हैं

Wednesday, September 5, 2007

फूल उनके हाथ में जँचते नहीं







झूठ को ये सच कभी कहते नहीं
टूट कर भी आइने डरते नहीं

हो गुलों की रंगो खुशबू अलहदा
पर जड़ों में फ़र्क तो दिखते नहीं

जिनके पहलू में धरी तलवार हो
फूल उनके हाथ में जँचते नहीं

अब शहर में घूमते हैं शान से
जंगलों में भेड़िये मिलते नहीं

साँप से तुलना ना कर इंसान की
बिन सताए वो कभी डसते नहीं

कुछ की होंगी तूने भी ग़ुस्ताखियाँ
खार अपने आप तो चुभते नहीं

बस खिलौने की तरह हैं हम सभी
अपनी मर्ज़ी से कभी चलते नहीं

फल लगी सब डालियाँ बेकार हैं
गर परिंदे इन पे आ बसते नहीं

ख़्वाहिशें नीरज बहुत सी दिल में हैं
ये अलग है बात कि कहते नहीं